Last Updated on May 6, 2023 by admin
कृमि रोग का होम्योपैथिक इलाज (krimi rog ka Homeopathic Ilaj)
1. शोणित कृमि (कीड़े) :
शोणित कृमि नामक रोग फिलैरिया बेनक्रोफट (फिलेरिया बेंक्रोफ्ट) नाम के कीड़े के कारण ही होता है। यह कीड़ा पुष्ट, देखने में लंबा और पतले धागे की तरह होता है। धागे की तरह का पतला यह कीड़ा लगभग 4 हाथ लंबा और 2 से 10 इंच तक मोटा हो सकता है। यह कीड़ा रोगी के खून या लसिका-झिल्ली में मौजूद रहता है।
कारण –
फिलैरिया बेनक्रोफट कीड़े के जीवाणु मच्छर के द्वारा स्वस्थ व्यक्ति के शरीर में पहुंचते हैं और शोणित कृमि के रोग को पैदा करते हैं।
लक्षण –
शोणित कृमि रोग में वैसे तो कोई खास तरह के लक्षण नज़र नहीं आते बस ये रोग होने पर रोगी के दोनों पैरों की ग्रन्थियां बढ़ जाती हैं, रोगी को बिल्कुल सफेद पेशाब आता है दूध की तरह, अण्डकोष में कई तरह के रोग पैदा हो जाते हैं आदि।
जानकारी –
- इस रोग के होने पर औषधि लेने से तो खास तरह का लाभ नहीं होता बस जरूरत पड़ने पर नश्वर लगवाना पड़ सकता है।
- शोणित कृमि रोग होने पर सबसे पहले मच्छरों से बचने का उपाय करना चाहिए।
- इस रोग के फैलने पर पानी को उबालकर ही पीना अच्छा रहता है।
2. श्लीपद (फीलपांव) :
शोणित कृमि रोग के कारण ही गर्म देशों में फीलपांव रोग पैदा होता है। जलन, विसर्प, श्वेतपद, अकौता, लसिका-प्रणाली का रुकना जैसे रोगों के कारण भी ये रोग पैदा हो जाता है।
लक्षण –
- शोणित कृमि रोग की दूसरी अवस्था में अक्सर ये रोग पैदा हो जाते हैं। रोगी के अण्डकोष आदि बढ़ने लगते हैं।
- खून का प्रवाह करने वाली नाड़ियां, पेशियां, स्नायु या हडि्डयों का आयतन बढ़ जाता है।
- जलबटिका पैदा हो जाती है और उसमें से दूध या पानी के जैसा रस सा निकलता है।
- इसके अलावा त्वचा पर पीब भरे जख्म होना, बुखार आना जैसे लक्षण पैदा हो जाते हैं।
फीलपांव रोग का होम्योपैथिक उपचार –
- हाइड्रोकोटाइल- फीलपांव का रोग होने पर रोगी को हाइड्रोकोटाइल औषधि की 2X मात्रा का सेवन कराना बहुत ही लाभदायक रहता है।
- ऐनाकार्डियम- फीलपांव के रोगी को अगर हाइड्रोकोटाइल औषधि से कोई खास तरह का लाभ नहीं होता तो उसे ऐनाकार्डियम औषधि की 3 शक्ति का सेवन कराना लाभकारी रहता है।
- नश्तर- अगर इन दोनों औषधियों से फीलपांव के रोगी को किसी तरह का लाभ नहीं होता तो उसे नश्तर लगवा लेना चाहिए।
3. तंतु-खननकारी कृमिरोग (ड्रेकोन्टिसिस) :
ड्राकुनकुलस मैडीनैसिस (ड्रेक्युन्सलस मेडीनेसिस) नाम की एक जाति की शोणित कृमि से तंतु-खननकारी कृमि रोग पैदा होता है।
अगर स्त्री और पुरुष दोनों ही जाति के कीड़े किसी भी तरह से पेट में पहुंच जाते हैं तो उनमें से मादा कीड़ा पेट में पहुंचकर गर्भवती होती है और नर कीड़ा पेट में मरकर बाहर निकल जाता है। मादा कीड़ा आंतों में छेद करके चमड़ी को कुरेदती हुई घुटने और पैरों के तलुवों की ओर बढ़ जाती है। यहां तक कि छोटे से जख्म में से उसके भ्रूण निकला करते हैं। जब भ्रूण निकल जाते हैं तब मादा कीड़ा भी अपने आप बाहर निकल जाता है।
चिकित्सा –
- तंतु-खननकारी कृमि रोग होने पर टियुक्रियम और हींग का सेवन करने से लाभ होता है।
- जख्म पर अगर पानी डाला जाए तो मादा कीड़ा बाहर निकल जाता है।
- कभी-कभी ये अपने आप ही निकलती है उसी समय किसी चिमटी आदि से इस कीड़े को घुमाकर निकाल देना चाहिए ताकि उसका थोड़ा सा भाग भी टूटकर शरीर में न रह जाए।
4. वक्र-कीट (हूक वोर्म) :
भारत में या दूसरे गर्म प्रदेशों में वहां के लोगों की छोटी आंत में धागे की तरह का एक छोटा कीड़ा होता है और उसके कोमल भाग को अन्दर ही अन्दर खाया करती है। इस परांगपुष्ट कीड़े की लंबाई 5 इंच से ज्यादा नहीं होती और मोटाई में ये बाल के बराबर होता है। इनके माथे में हुक के आकार के टेढ़े से 2 दांत होते हैं इसलिए इन्हे हुक-वर्मस कहा जाता है। त्वचा, खासकर पैरों के तलुवों और पैरों की उंगलियों की त्वचा को छेदकर ही खाए हुए पदार्थ के संयोग से किसी तरह ये कीड़ा शरीर में घुसकर दांतों से छोटी आंत के ऊपर के भाग को पकड़े हुए रखता है और व्यक्ति का खून चूसता रहता है। इसलिए इस रोग के सारे रोगियों को वक्र-कीट या हुक-वर्मजनित रोग हुआ करते हैं।
लक्षण –
वक्र-कीट रोग के लक्षणों में रोगी के शरीर में खून की कमी हो जाती है, चेहरा पीला सा पड़ जाता है, पाचन शक्ति कमजोर हो जाती है, शरीर में थकावट सी पैदा हो जाती है, आंखों से कम दिखाई देता है, दिल तेजी से धड़कता है, पेट फूल जाता है, जिगर और तिल्ली बढ़ जाते हैं, हाथ-पैरों में फोड़े और खुजली होने लगती हैं आदि।
होम्योपैथिक चिकित्सा –
वक्र-कीट रोग होने पर रोगी को फिलिक्स-मास, चेनोपोडियम, या ऐन्थेलमेटिकम औषधि को हर 2-2 घंटे के बाद 3 मात्रा सिर्फ एक दिन सेवन करने से रोगी को बहुत लाभ मिलता है।
5. चिपट क्रिमि रोग (बिल्हेर्जियासिस) :
चिपटी क्रिमि रोग बिहातजिया हेमाटोबिया (बिहेर्जिआ हेमेटोबिया) नाम के एक प्रकार के शोणित क्रिमि के कारण पैदा होता है। ये रोग अधिकतर सउदी अरब, फारस, पश्चिम भारत और मिस्र आदि देशों में पाया जाता है। ये कृमि त्वचा, मुख-विवर, पेशाब की नली या किसी दूसरे कारण से रोगी के शरीर में घुस जाता है।
कारण –
इस कृमि के अण्डे पीने के पानी के साथ रोगी के शरीर में पहुंच जाते हैं और मूत्राशय, मलांत्र आदि पर हमला करते हैं।
लक्षण –
इस रोग के लक्षणों में रोगी के मूत्राशय में जलन या दर्द होता है, खून आता है, मूत्र-पथरी हो जाती है, कूथन, आम-रक्त निकलना, मलद्वार में जलन होना आदि।
होम्योपैथिक चिकित्सा –
मलांत्र में किसी तरह का रोग होने पर रोगी को हाइड्रैस्टिस औषधि की 1X मात्रा, रूटा औषधि की 2X मात्रा या ऐसिड-नाई की 3 शक्ति लाभकारी रहती है।
मूत्राशय के रोग में रोगी को कैनाबिस-सैट औषधि, हैमामेलिस औषधि, कैन्थरिस औषधि की 3 शक्ति, टेरिबिन् औषधि की 3X मात्रा, ओसिमम औषधि की 6 शक्ति देनी चाहिए।
6. दंश-मक्षिका-जनित रोग :
ये रोग पुलेक्स पैनेटरानस नाम की मक्खी के काटने से पैदा होता है। इस रोग के लक्षण रोगी के दोनों पैरों पर नज़र आते हैं। अगर ये मक्खी त्वचा में छेद कर देती हैं तो वहां पर पीबदार फुंसियां जलन के साथ पैदा हो जाती हैं।
चिकित्सा –
त्वचा में इस मक्खी के घुस जाने पर सुई आदि से बाहर निकाल देना चाहिए।
सावधानी –
रोग पैदा करने वाली ये मक्खी दुबारा से शरीर में प्रवेश न कर पाए इसके लिए खुशबूदार उद्रिद (एस्सेटियल ऑयल्स) का तेल इस्तेमाल करने से लाभ मिलता है।
(अस्वीकरण : ये लेख केवल जानकारी के लिए है । myBapuji किसी भी सूरत में किसी भी तरह की चिकित्सा की सलाह नहीं दे रहा है । आपके लिए कौन सी चिकित्सा सही है, इसके बारे में अपने डॉक्टर से बात करके ही निर्णय लें।)