कुंडलिनी शक्ति क्या है ? :
कुंडलिनी क्या है -इस संबंध में इतना ही कहना पर्याप्त होगा कि यह एक आध्यात्मिक शक्ति है, जो सर्वसाधारण में सुषुप्तावस्था में पड़ी रहती है। भौतिक कार्यों के लिए देह में इतनी ही शक्ति होती है, जिससे कि वे यथाविधि सुचारु रूप से संपन्न होते रह सकें, किंतु आत्मिक ज्ञान-संपादन करना हो, सृष्टि संबंधी रहस्य समझना हो अथवा ईश्वर को जानना हो तो उसके लिए कुंडलिनी का जागरण आवश्यक होता है। देहस्थ प्राण जितने स्वल्प अंश से वे महत् कार्य पूरे नहीं होते। उस निमित्त कुछ विशिष्ट स्तर की ऊर्जा का उपार्जन करना पड़ता है। कुंडलिनी उसी की प्रतीक-प्रतिनिधि है।
कुंडलिनी शक्ति का निवास :
कुंडलिनी शब्द की व्युत्पत्ति संस्कृत के कुंडल’ शब्द से हुई है, जिसका अर्थ घेरा बनाए हुए होता है। कुछ विद्वान इसे ‘कुंड’ शब्द से व्युत्पन्न मानते हैं और मस्तिष्क से संबंध जोड़ते हैं। कुंड का अर्थगड्ढा होता है। मस्तिष्क एक ऐसे ही गड्ढे में स्थित है, जिसे खोपड़ी कहते हैं, पर कुंडलिनी का मस्तिष्क से कोई लेना-देना नहीं। यह एक स्वतंत्र सत्ता है, जो मूलाधार में एक धूम्रवर्णी लिंग के चारों ओर साढ़े तीन कुंडली मारे लिपटी हुई है। पुरुष के शरीर में इसकी स्थिति मूत्राशय और मलाशय के बीच ‘पेरीनियम’ में है। स्त्रियों में यह गर्भाशय ग्रीवा (सर्विक्स) के पीछे स्थित है।
विभिन्न मतों में प्रचलित नाम :
विभिन्न मार्गों और परंपराओं में इस भूल शक्ति के भिन्न-भिन्न नाम हैं। योग मार्ग में इसे ‘कुंडलिनी शक्ति’ कहते हैं। भक्तिमार्ग में ‘आह्लादिनी शक्ति’, वेदांत में योगमाया’ ‘आद्या शक्ति’ या ‘आत्मसत्ता’, तंत्र में ‘कुल कुंडलिनी’। तांत्रिक ग्रंथों में कुंडलिनी को आदि शक्ति माना गया है। आधुनिक मनोविज्ञान के अनुसार इसे मानव में निहित अचेतन शक्ति कहा जा सकता है। पुराणों में कुंडलिनी की समानता काली से की जाती है। शैवदर्शन में कुंडलिनी को चारों तरफ से सर्प से लिपटे शिवलिंग के माध्यम से प्रकट किया जाता है।
कुंडलिनी शक्ति को सर्प के रूप में चित्रित करने का रहस्य :
कुंडलिनी का सर्प वास्तव में उच्च चेतना का प्रतीक है और दरसाता है कि जब तक यह सर्प शांत पड़ा रहता है, व्यक्ति एकदम सामान्य बना रहता है, किंतु जैसे ही इसमें गतिशीलता आती है और ऊर्ध्वमुखी होता है, वह साधक को असाधारण बना देता है। भगवान शिव के गले में भी सर्प लिपटा दिखाया जाता है। इसका यही तात्पर्य है कि
शिव कोई साधारण चेतना नहीं, वरन् उच्चस्तरीय चेतना के प्रतिनिधि हैं। भगवान विष्णु तो शेषनाग पर ही शयन करते चित्रित किए जाते हैं। इसका भी यही अर्थ है कि जिन्हें विष्णु सदृश्य बनना है, उन्हें उस सुषुप्त चेतना को जाग्रत और दृश्यमान बनाना पड़ेगा, जिसके निष्क्रिय पड़े रहने से मनुष्य अतीव दीन-हीन स्थिति में जीवन गुजारता है। इस चेतना का जागरण और प्रकटीकरण ही भगवान शिव और विष्णु के सर्पो का प्रतीकात्मक विवेचन है।
कुंडलिनी चेतना की साढ़े तीन कुंडली भी अर्थपूर्ण है। उसका आशय है-तीन गुण-सत, रज, तम; चेतना की तीन अवस्थाएँ-जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति; ॐ की तीन मात्राएँ-भूत, वर्तमान, भविष्यत्; तीन प्रकार के अनुभवस्वानुभूतिमूलक, इंद्रियानुभव, अनुभवरहितता की प्रतीक हैं। आधी कुंडली उस अवस्था को दर्शाती है, जहाँ न जाग्रतावस्था है, न सुषप्तावस्था, न स्वप्नावस्था। इस प्रकार यह साढे तीन फेरे समग्रता के, संपूर्णता के प्रतीक हैं। आइये जाने कुंडलिनी जब जागती है तब क्या होता है ?
कुंडलिनी शक्ति के अलौकिक अनुभव :
कुंडलिनी जब अपनी मूर्च्छा त्यागकर मूलाधार से उत्थित होती है, तब साधकों में अनेक प्रकार के भावों, दशाओं के साथ-साथ नौरसों का भी विकास होता है। शास्त्र कथन है-
रौद्रोऽतश्च श्रृंगारोहास्यं वीरो दया तथा।
भयानकश्च वीभत्सः शांतः सप्रेमभक्तिकः॥
अर्थात रौद्र, अद्भुत, शृंगार, हास्य, वीर, दया, भयानक, वीभत्स और भक्तियुक्त शांत, नम्र भाव का विकास होता है। इस नौ भाव-समूह का कोई निश्चित क्रमविकास नहीं है। जिस समय जो भाव-वृत्ति आती है, वह अपना वैसा ही कार्य करती है। जब साधक में रौद्रभाव का प्रकाश होता है, तो उस दौरान वह क्रोध और कर्कश भाषा का प्रयोग करता है और अपने रौद्र रूप को प्रकट करता है। जब उसमें अद्भुत रस की क्रियाएँ होती हैं, तब वह विस्मय-विमूढ़-सा बना रहता है, कारण कि तब उसे ऐसे ही अनुभव होते हैं। श्रृंगार रस के आविर्भाव से साधक के हाव-भाव में शृंगारिकता भासने लगती है। वह अपने उपास्य को पति या पत्नी रूप में देखता है अथवा आत्मरति में निमग्न हो जाता है। हास्य रस जब हावी होता है तो वह स्मित, हसित, विहसित, ‘अवहसित, अपहसित और अतिहसित-इन छह प्रकार के हास्यों में से किसी भी प्रकार से हँसते देखा जाता है और घंटों हँसता ही रहता है। वीर रस का उदय होते ही साधक गरजने और हुंकारने लगता है, वह आवेशित हो जाता है और कठिन-से-कठिन कार्य को सहज में कर डालता है। यदि चाहे तो उस अवस्था में वह मजबूत-से-मजबूत चीजों को भी तोड़-फोड़ सकता है। तात्पर्य यह कि साधक उस दौरान वीरों की तरह प्रतीत होता है, वैसा ही उमंग-उत्साह उसमें दिखलाई पड़ता है। करुण रस के आवेश से साधक रोने लगता है। कई बार वे भय महसूस करते और भयभीत प्रतीत होते हैं। ऐसे समय वे भयसूचक शब्द या क्रिया कर सकते हैं। ऐसा भयानक रस के प्रकटीकरण के कारण होता है। जब निंदा और घृणासूचक शब्द मुँह से निकलने लगें और शारीरिक चेष्टाएँ तिरस्कारसूचक होने लगें, तब समझना चाहिए कि वीभत्स रस का अवतरण हुआ है। शांत रस के प्रादुर्भाव से अभ्यासी गुमसुम-सा, निश्चेष्ट पड़ा रहता है।
इस प्रकार शक्ति-जागरण के क्रम में साधना काल में उक्त नौरसों का उद्भव होता है और साधक प्रत्यक्षत: पागलों जैसी चेष्टाएँ करने लगता है, पर तत्त्वत: वह न तो पागल होता है और न अव्यावहारिक एवं असभ्य ही। सचाई यह है कि उसके अंदर उच्चस्तरीय चेतना की क्रियाशीलता इस कदर और इतनी बढ़ जाती है कि उसे अपनी क्रियाओं पर नियंत्रण नहीं रहता और वेस्वयमेव होती रहती हैं। यहाँ किसी कुशल मार्गदर्शक-गुरु का होना अत्यधिक अनिवार्य है।
नियंत्रित जाग्रत शक्ति ही फल रूपा :
जाग्रत शक्ति को नियंत्रित न किया जा सके तो वह बेकार हो जाती है। नियंत्रण और सुनियोजन ही उसे उपयोगी बनाते हैं। जाग्रत कुंडलिनी जब अनियंत्रित होती है तो काली कहलाती है और उसी को जब नियंत्रित करके उद्देश्यपूर्ण बनाया जाता है तो वही शक्ति दुर्गा के नाम से अभिहित होती है।
काली निर्वसना और काले रंग की है। वह १०८ मानव खोपड़ियों की माला पहने है।काला रंग और निर्वस्त्र अवस्था भयानकता के प्रतीक हैं। वे साधकों को संदेश देते हैं कि ऐसी अप्रिय स्थिति से उन्हें सदा बचना चाहिए। खोपड़ियों की माला विभिन्न जन्मों की प्रतीकहै।लपलपाती हुई जिह्वा रजोगुण का चिह्न है एवं उसका दायें-बायें हिलना रचनात्मकता का संकेत माना जाता है। जिह्वा में यह शिक्षा निहित है कि हमें अपनी राजसिक प्रवृत्तियों पर अंकुश रखना चाहिए। बायें हाथ में बलि की तलवार और नरमुंड सृष्टि के विनाश के बोधक हैं। अंधकार और मृत्यु का अर्थ प्रकाश और जीवन की अनुपस्थिति कदापि नहीं, वरन् वे ही इनके मूल हैं।
इसके बाद इससे अधिक उच्च और सौम्य दुर्गाशक्ति का प्राकट्य होता है। दुर्गा सिंहवाहिनी है। उसकी आठ भुजाएँ हैं, जो आठ तत्त्वों की प्रतीक हैं। सिंह शौर्य, वीर्य, बल का प्रतिनिधि है। उसके हाथ का भाला अनीति निवारण का चिह्न है। महिषासुर आतंक, अराजकता और भयमूलक तत्त्व को दरसाता है। देवी उसका वध करती है। यह नीति की अनीति पर विजय है। इस प्रकार देवी दुर्गा जीवन की सभी प्रतिकूल परिस्थितियों से छुटकारा दिलाने वाली एवं मूलाधार से मुक्त होने वाली शक्ति एवं शांति की दात्री मानी जाती है।
यौगिक दर्शन के अनुसार अचेतन कुंडलिनी का प्रथम स्वरूप काली है। वह एक विकराल शक्ति है, जिसका शिव के ऊपर खड़े होना, उसके द्वारा आत्मा पर संपूर्ण नियंत्रण को व्यक्त करता है। मनुष्य में जब इस शक्ति का जागरण होता है तो यह ऊर्ध्वगमन के बाद उच्च चेतना दुर्गा का रूप धारण कर लेती है। इस स्थिति में यह सौम्य और शांतिदायिनी है।
कुंडलिनी शक्ति जागरण के भौतिक एवं आध्यात्मिक लाभ :
कुंडलिनी जागरण से सिर्फ आध्यात्मिक अनुभूति ही होती है, आत्मतत्त्व का ही ज्ञान प्राप्त होता है, सो बात नहीं। यह अनेक भौतिक विभूतियों और विशेषताओं की भी जननी है। इसके जागरण से साधक में कवित्व, चित्रकला, युद्धकौशल, लेखन, वत्कृता जैसी अगणित विशिष्टताएँ पैदा हो जाती हैं। अत: जिनमें ये योग्यताएँ पहले से ही मौजूद हैं, उनके बारे में यह कहा जा सकता है कि कुंडलिनी का आंशिक जागरण उनमें हो चुका है। इस मूल शक्ति को उद्दीप्त करके हम जीवन में जो चाहें, बन सकते और उसको भौतिक दृष्टि से समृद्ध बना सकते हैं।
कुंडलिनी का ईश्वर-दर्शन वाला स्वरूप जागरण का अंतिम सोपान है। उसके बाद वह शिवतत्त्व से मिलकर शिवरूप हो जाती है, परंतु अपनी आरंभिक स्थिति में स्वल्प जागरण से रचनात्मक शक्ति का उदय कर व्यक्ति को भौतिक गुणों से ओत-प्रोत कर देती है, अतएव इसका उन्नयन भौतिक दृष्टि से भी उपयोगी है।
कुंडलिनी आद्याशक्ति है। कुशल गुरु के मार्गदर्शन में संभव हुए उसके उत्थान से ईश्वर-दर्शन, आत्मोपलब्धि जैसी जिज्ञासाएँ तो शांत होती ही हैं, शरीर, मन, प्राण और भावनाओं में ऐसे उच्चस्तरीय परिवर्तन होते हैं कि व्यक्ति साधारण न रहकर असाधारण स्तर का बन जाता है। वह नाना प्रकार की सिद्धियों और विभूतियों का स्वामी हो जाता है। उसकी बात लोग ध्यान से सुनते हैं। उसकी वाणी में ओज और चेहरे पर तेज आ जाता है। उसके हर कार्य में सुंदरता और सुव्यवस्था झलकने लगती है। उसकी युवकों जैसी स्फूर्ति से लोग दंग रह जाते हैं। अतएव इस मूल तत्त्व को जानने और जगाने का प्रयास हर उच्चस्तरीय साधक को करना चाहिए।
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