बंध एवं मुद्रा : विधि और लाभ – Bandhas and Mudras in Hindi

Last Updated on March 16, 2021 by admin

क्या है बंध और मुद्रा ? :

महामुद्रा, महाबंध, महावेध, खेचरी, उड्डियान, मूलबंध, जालंधर, विपरीत करणी, वज्रोली एवं शक्तिचालन ये दस मुद्राएँ हठ प्रदीपिका में बताई गई हैं।

हठ प्रदीपिका में मुद्रा यह चतुरंग हठयोग का अंग है ऐसा कहा है। उसी प्रकार घेरंड संहिता के सप्तांग हठयोग में मनोकायिक संकुल को घट-शुद्धि करने हेतु मुद्राओं का विनियोग बताकर उसकी सहायता से साधक को मनोकायिक स्थिरता मिलती है ऐसा कहा गया है ।

मुद्रा अर्थात विशिष्ठता की छाप यह सामान्य अर्थ होते हुए भी उसके कारण एक तृप्ति, आनंद की अभिव्यक्ति भी होती है। नृत्य, नाटय, धार्मिक कर्मकाण्ड तथा तंत्र-मंत्र साधना में प्राण-ऊर्जा का दमन संदर्भ में मुद्रा प्रक्रियाएँ समाविष्ट होते हुए दृष्टिगोचर होती हैं।

बंध और मुद्राएं न केवल मुख्यतः आसन, प्राणायाम से संबंधित प्रक्रिया है अपितु आसनों से भी अधिक प्रगत योग प्रक्रिया है, प्राणायाम से श्रेष्ठ योग प्रक्रिया से उनकी निकटता कभी-कभी दिखाई पड़ती है। बंध और मुद्राओं का परिणाम केंद्रिय तथा अनैच्छिक मज्जा संस्था एवं अंतःस्रावी ग्रंथी संस्था (Endocrine Gland System) आसनों का अभ्यास अच्छी तरह आत्मसात होने के बाद बंध-मुद्राओं का अभ्यास सामान्यतः किया जाता है।

( और पढ़े – कुंडलिनी शक्ति को जगाने में सहायक महाबन्ध और महावेध बन्ध )

मूलबंध :

मूलबंध में मूत्रमार्ग एवं गुदाद्वार का संकुचन कर उसे ऊपर की ओर खिंचा जाता है, सिद्धासन में मूलबंध लगाते समय सीवन पर एडी का भार (दाब) दिया जाता है। मल-निकास नलिका में बाह्य (गुदद्वार) और अंदरुनी ऐसे पेशियों के वलय कसकर बंद होनेवाले द्वार रहते हैं । बाह्य गुदाद्वार कसकर खींचकर उस हिस्से को ऊपर खींचना है। गुदाद्वार का संकुचन कर कसकर ऊपर की ओर खींचते समय श्रोणीय प्रदेश (Pelvic Region) ऊपर खींचा जाता है।

मूलबंध अर्थात श्रोणी संकुचन है, गुदाद्वार के पास केंद्रिय तथा अनैच्छिक मज्जासंस्था के जो मज्जा तंतु आ पहुँचते हैं, उनके द्वारा इन दोनों मज्जा संस्थाओं पर इस बंध का प्रभाव पड़ता है । कबंध के मज्जा संस्था के नीचले अग्र इस बंध से संबंधित रहने के कारण इसका मूल बंधनाम रखा गया है।

मूत्रंद्रिय बलपूर्वक संकुचित कर अपान वायु के साथ धीरे-धीरे अंदर खींचना चाहिए ऐसी मूलबंध की प्राचीन तंत्र परंपरा है। परंतु प्रत्यक्षतः इसमें संकुचन और ऊपर खींचना यह धीरे-धीरे व अधिक शक्ति न लगाते हुए करें, जिससे कुछ दिनों के उपरांत मूलबंध ठीक से लगा सकेंगे। हड़बड़ी,शीघ्रता, अवास्तव शक्ति तथा अचूकता का अभाव इनके कारण मूत्रंद्रिय एवम पचनेंद्रियों पर अनिष्ट तनाव तो नहीं आ रहा इस बारे में सजग रहना आवश्यक है।

लाभ –

  • मूलव्याधि, बवासीर रोगियों को लाभप्रद ।
  • मलमूत्र का अनावश्यक ज्यादा बनना कम होता है।
  • पाचन सुधार, शारीरिक शक्ति बढ़ती है।
  • चित्त का नियमन होता है।

( और पढ़े – योगशास्त्र की 9 प्रमुख योग मुद्रा ,अभ्यास विधि और उनके लाभ )

उडियान बंध :

श्वास पटल तथा पसलियों से उड्डियान बंध इस प्रक्रिया का संबंध है। बैठकर अथवा खड़े रहते हुए उड्डियान बंध लगाया जा सकता है। खड़े रहते हुए उड्डियान बंध लगाते समय घुटने झुकाकर सामने की ओर झुकते हैं ऐसी अवस्था लें, थोड़ा झुककर जंघाओं पर हाथ रखें।

बैठकर उड्डियान बंध लगाते समय हाथ घुटनों पर रखें। हाथ घुटनों पर कसकर जमाने से कंधे व गरदन के स्नायु अच्छी तरह बद्ध होते हैं। अब पेट को अंदर खींचकर उसे आंतरवक्री होने दें। उदर प्रदेश के आवरण के स्नायु जोरदार तरीके से अंदर खींचकर एक छल्लेदार महत्तम दीर्घ उच्छवास बाहर फेंके। सीने का भी आकुंचन किया जाता है।

रेचक के उपरांत कुछ समय तक बाह्य अवस्था में ही श्वास रोककर रखें (बहिःकुंभक)।
इसके बाद पसलियाँ ऊपर उठाकर झूठमूठ का पूरक किया हो ऐसा करें (प्रत्यक्ष पूरक न करें) परंतु फेफड़ों में वायु प्रवेश न होने दें। इसी के साथ पेट के अगले हिस्से के स्नायु संपूर्णतः शिथिल होने दें।

गरदन और कंधे पक्के बंधन जैसे रखें।
दीर्घ और गहरे प्रश्वास के बाद झूठमुठ के पूरक जैसा करें तथा उसकी के साथ सामने के उदरावरण के स्नायु पूरे ढीले छोड़ना, ऐसी उड्डियान बंध की त्रिसुत्री है ।
तत्पश्चात हाथ और गरदन ढीली छोड़ते हुए धीरे-धीरे पूरक शुरू करें, जिससे पेट का कटोरा गायब होते-होते पेट पूर्ववत सामने आ जाएगा।

लाभ –

  • बद्धकोष्ठ, अपचन और यकृत के विकारों से निवारणात्मक परिणाम होता है, भूख बढ़ती है।
  • इस बंध का आध्यात्मिक मूल्य भी बहुत है, प्राण सुषुम्ना नाड़ी में प्रवेश करता है व कुंडलिनी जागृत होती है।
  • फेफड़ों के संकुचन से वायुकोषों को शक्ति मिलती है।
  • फेफड़ों की प्रतिकार शक्ति बढ़कर क्षयरोग का भी प्रतिकार हो सकता है।
  • यकृत, प्लीहा, मूत्रपिंड, मूत्राशय, अंतड़ियाँ एवं अंतःस्रावी ग्रंथियों पर उड्डियान बंध का इष्ट प्रभाव पड़ता है तथा स्वप्न-दोष विकार से मुक्ति मिलने में सहायता होती है।

( और पढ़े – खेचरी मुद्रा के 9 बड़े लाभ )

जालंधर बंध :

इस बंध में ठुड्डी (Chin) कंठकूप में या उससे नीचे दबाकर बैठाना चाहिए।
पद्मासन में बैठकर, रीढ़ सीधी रखकर धीरे-धीरे पूरक कर गरदन थोड़ी झुकाकर ठुड्डी कंठकूप में गाड दें।
पद्मासन अथवा सिद्धासन में जालंधरबंध लगाने का अभ्यास करना चाहिए । रीढ़, मज्जा रज्जु तथा मस्तिष्क पर इस बंध का प्रभाव पड़ता है। गदरन से जानेवाले मज्जा तंतु तथा मस्तिष्क को ‘जाल’ कहते हैं । इस जाल का उन्नयन करना यानी ‘घर’ इस पर से जालंधर बंध । इस बंध में नेत्र बंद करने की परंपरा है। इससे विशुद्ध चक्र पर भार पड़ता है एवं श्वासनलिका बंद की जाती है।

लाभ –

  • कंठस्थ तथा उपकंठस्थ अंतःस्रावी ग्रंथियों तथा गरदन की नसों पर जालंधर बंध का लाभदायक परिणाम होकर सृजनशीलता बढ़ती है।
  • रेचक करने के पूर्व गरदन पूर्ववत सीधी करें तत्पश्चात रेचक लें।
  • इससे कंठमाल, घेघा रोग दूर होते हैं तथा गले में मधुरता आती है।
  • रीढ़ मज्जा रज्जु व मस्तिष्क पर
  • प्रभाव पड़ता है।

जिव्हा बंध :

मुखगव्हर (मुख के अंदर की पोखली) के अंदर तालू पर जिव्हा का पसराया हुआ आगे का भाग चिपकाकर रखना (मुँह बंद रहता है) यानी जिव्हा बंध । जीभ का अगला कोना ऊपर के दंतपंक्ति के पिछले भाग में लगा रहे।

लाभ –

इस बंध से जीभ लचीली, उच्चारण शुद्ध, स्पष्ट व तोतलापन नष्ट होता है।

महामुद्रा :

आसन पर दोनों पैर लंबे पसारकर बैठे। बायाँ पैर घुटने से मोड़कर उसकी एड़ी नीचे सीवन पर दबाकर रखें। इसके उपरांत दोनों हाथ बाजूओं से ऊपर उठाते हुए आकाश की ओर तानें। दोनों नथुनों से पूरक करें एवं दोनों दंड कानों पर दबाकर रखते हुए ही कमर से आगे की ओर झुकें । दोनों हाथों से दाहिना पैर पकड़कर घुटने को सिर लगाने का प्रयास करें, जबरदस्ती न करें। आदतन कुछ दिनों में यह आने लगेगा। उच्छवास (प्रश्वास) छोड़ने की इच्छा हो तो दोनों नथुनों से रेचक कर बहिःकुंभक में पूर्ववत सीधे बैठे। पुनः पूरक कर ऊपर लिखे अनुसार सभी क्रियाएँ क्रमशः करें। इसी प्रकार दाहिना पैर मोड़कर एड़ी नीचे सीवन पर दबाकर बायाँ पैर सीधा लंबा पसारकर पूर्ववर्णित सारी क्रियाएँ करें। सुबह-शाम मिलाकर दिन में छह बार महामुद्रा करें।

लाभ –

यह बंध अजीर्ण, गुल्म, बवासीर, यक्षमा (क्षयरोग) व कुष्ठरोग पर उपचार समझा जाता है। इससे महाक्लेश (अत्यंत दर्द) निर्माण करनेवाले सारे शारीरिक दोष नष्ट होते हैं। नीचे झुककर कुंभक करते समय महामुद्रा में मूल, उडियान तथा जालंधर तीनों ही बंध लगकर कुंडलिनी जागृत होकर सीधी होती है और महामुद्रा निरंतर दीर्घकाल तक करने से मुक्ति की अवस्था प्राप्त की जा सकती है। आसन और महामुद्रा करनेवाले को पथ्या पथ्य संभालने की आवश्यकता नहीं रहती।

महाबंध :

महामुद्रा के ही समान बाएं पैर की एड़ी सीवन पर दबाकर दाहिना पैर बाईं जंघा के मूल में पेट को एडी लगाकर पद्मासन जैसा रखें, तत्पश्चात मूलबंध लगाकर पूरक करें और कुंभक के समय कंठ का संकोच कर सीना ऊपर उठाकर ठुड्डी को अच्छी तरह से स्पर्श करें। ठुड्डी दबी हो परंतु गरदन बिना झुकाए यह होना चाहिए ।

इस प्रकार जालंधर बंध लगते ही श्वास में लिया हुआ (प्राण) वायु दोनों बगलों (करवट) में भरें। अब जिव्हा का सिरा ऊपरी दाँतों के मूल में अंदर की ओर से सीधे लगाकर जिव्हा का पिछला हिस्सा उठाकर जिव्हा तालू को चिपकाएँ, यह जिव्हा बंध हुआ। प्राणवायु नाभी के दोनों ओर बगलो में अच्छी तरह भरने हेतु उड्डियान बंध भी लगाएँ।

लाभ –

  • महाबंध के नित्य अभ्यास से नाड़ियों की गति उर्ध्व होती है एवं मन की चंचलता जाकर वह स्थिर होता है।
  • बुद्धि सूक्ष्म तथा सृजनशील होकर शरीर की कांति बढ़ती है।
  • महावेध का भी साथ मिले तो शास्त्रों का सूक्ष्म आकलन सरलता पूर्वक होता है।

महाबोध :

महाबंध हेतु जिस प्रकार दोनों पैर रखे हों तथा तीनों बंधों सहित पूरक, रेचक व कुंभक किया उसी प्रकार करके जंघाओं के बाजू में दोनों हाथों के तलवे जमीन पर टिकाकर नीचेवाली एड़ी बिलकुल न हिलने देते हुए तीनों ही बंध एवं जिव्हा बंध न छोड़ते हुए हाथों पर वजन सँभालते हुए एकदम नीतंब (कुल्हे) ऊपर उठाकर जमीन पर पटकें । परंतु घुटने ऊपर न उठाते हुए आसन को चिपके हुए हों, इसके अलावा जिव्हा दाँतों को पक्की चिपकाकर रखें, जिससे नितंब पटकते समय जिव्हा दाँतों में पकड़ी नहीं जाएगी।

लाभ –

  • महावेध द्वारा महामुद्रा एवं महाबंध के अभ्यास में पूर्णता आती है।
  • महावेध में इडा पिंगला व सुषुम्ना नाड़ियों का संजोग होकर निरोगी दीर्घायुष्य प्राप्त होता है।

(सूचना : बंध और मुद्रा को पहले तज्ञों के मार्गदर्शन में पूरी तरह सीख लें फिर अभ्यास होने के पश्चात स्वयं करें।)

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