Last Updated on September 7, 2021 by admin
सांकेतिक परिभाषा आयुर्वेद में औषधियों को उनके गुण और प्रभाव के अनुसार भिन्न-भिन्न वर्गों में विभाजित किया गया है और उन्हें अलग-अलग नाम दिए गए हैं। आयुर्वेदिक औषधियों के निर्माण तथा सेवन के लिए उन नामों का जानना बहुत ही आवश्यक है।
- दीपन-जो द्रव्य जठराग्नि को प्रदीप्त करता है उसे दीपन कहते हैं। जैसे-सौंफ।
- पाचन-जो द्रव्य आम भोजन को तो पचा देता हो लेकिन जठराग्नि को प्रदीप्त न करता हो उसे पाचन कहते हैं। जैसे-नाग केसर।
- चित्रक-जिन द्रव्यों में दीपन और पाचन दोनों के ही गुण होते हैं उन्हें चित्रक कहते हैं।
- संशमन-जो द्रव्य वात, पित्त और कफ आदि को न तो नष्ट करें और न बढ़ने दें, केवल बढ़ते हुए दोषों को ही नष्ट करें उसे संशमन कहते हैं। जैसे-गिलोय।
- अनुलोमन-जो द्रव्य बिना पके भोजन को मल मार्ग से बाहर निकाल दे उसे अनुलोमन कहते हैं। जैसे-हरड़। संसन-जो द्रव्य मल को बिना पकाए ही मल के रूप में निकाल दे उसे संसन कहते हैं। जैसे-अमलतास का गूदा।
- मेदन-जो द्रव्य पतले, गाढे या पिंडाकार में मल को मेदन करके अधोमार्ग से गिरा दे उसे मेदन कहते हैं। जैसे-कुच्ची।
- विरेचन-जो द्रव्य पके, अधपके मल को पतला करके अधो मार्ग द्वारा बाहर निकाल दे उसे विरेचन कहते हैं। जैसे-इन्द्रायण की जड़, त्रिवृता, दन्ती
- वामक-जो द्रव्य कच्चे पित्त, कफ तथा अन्न आदि को जबर्दस्ती मुंह के मार्ग से बाहर निकाल दे उसे वामक कहते हैं। जैसे-मेनफल।
- शोधक-जो द्रव्य देह में विद्यमान मलों को अपने स्थान से हटाकर मुख या अधोमार्ग द्वारा बाहर निकाल दे उसे शोधक कहते हैं। जैसे देवदाली (बंदाल) का फल।
- छेदन-जो द्रव्य शरीर में चिपके हुए कफ आदि दोषों को बलपूर्वक उखाड़ दे उसे छेदन कहते हैं। जैसे-शिलाजीत, काली मिर्च और सभी प्रकार के क्षार।
- लेखन-जो द्रव्य शरीर में विद्यमान धातुओं और मल को सुखाकर, उखाड़ कर बाहर निकाल दे उसे लेखन कहते हैं। जैसे-गर्म पानी, शहद, जौ, बच आदि।
- ग्राही-जो द्रव्य दीपन भी हो और पाचक भी हो और ऊष्ण गुण के कारण शरीर में विद्यमान दोष के जलीय अंश को सुखा देता है उसे ग्राही कहते हैं। जैसे-सौंठ,
- शुक्रल-जो द्रव्य शरीर में अर्थात वीर्य की वृद्धि करते हैं उन्हें शुक्रल कहते हैं। जैसे असगन्ध, सफेद मूसली, शतावरी, मिश्री आदि।
- शुक्र प्रर्वतक-जिन द्रव्यों से वीर्य उत्पन्न होता है तथा वीर्य की वृद्धि होती है उन्हें ‘शुक्रप्रर्वतक’ कहते हैं। जैसे-गाय का दूध, उड़द, आंवला, भिलावे की गिरी आदि।
- सूक्ष्म द्रव्य-जो द्रव्य शरीर के सूक्ष्म छिद्रों में प्रविष्ट हो जाए उसे सूक्ष्म द्रव्य कहते हैं। जैसे-नीम और अरण्ड का तेल, शहद, सेंधा नमक आदि।
- व्ययायी द्रव्य-जो द्रव्य अपक्व होते हुए भी सारे शरीर में फैल गए और उसके बाद पचने लगे उसे व्ययायी कहते हैं। जैसे–अफीम और भांग आदि।
- विकाशी-जो द्रव्य शरीर में फैलकर ओज को सुखाकर जोड़ों के बंधन को ढीला कर देते हैं उन्हें विकाशी कहते हैं। जैसे सुपारी और कोदों।
- मदकारी-तमोगुण प्रधान द्रव्य जिनके सेवन से बुद्धि और विवेक नष्ट हो जायें उन्हें मदकारी कहते हैं। जैसे मध, ताड़ी आदि।
- विष-जो द्रव्य विकाशी, व्ययायी, मदकारी, योगवाही, जीवन नाशक, आग्नेय गुणों से युक्त और कफ नाशक हों उन्हें विष कहते हैं। जैसे-संखिया, कपील, वच्छनाग आदि।
- प्रभाथी-जिन द्रव्यों की शक्ति से रस और रक्तवाही स्रोतों के भीतर संचित विकार नष्ट हो जाते हों उन्हें प्रभाथी कहते हैं। जैसे-काली मिर्च, बच आदि
- अभिव्यन्दी-दो द्रव्य अपनी शक्ति से रसवाही स्रोतों को अवरुद्ध करके शरीर को स्थूल बनाते हैं उन्हें ‘अभिव्यन्दी’ कहते हैं। जैसे-दही।
- विदाही-जिस द्रव्य के सेवन से खट्टी डकारें आने लगें, प्यास लगने लगे, भोजन देर में पचे और हृदय में जलन महसूस होने लगे उसे विदाही कहते हैं।
- योगवाही-जो द्रव्य पचते ही शरीर पर प्रभाव डालते हैं उन्हें योगवाही कहते हैं। जैसे-घी, तेल, जल, शहद, पारा और लौह आदि।
- शीतल-जो द्रव्य ठंडा, सुखद, स्वादमय हो। प्यास, जलन, पसीना और मूर्च्छा को नष्ट करे उसे शीतल कहते हैं।
- ऊष्ण-जो द्रव्य शीतगुण के विपरीत हो, मूर्च्छा, प्यास और जलन पैदा करता हो, घाव को पकाता हो उसे उष्ण कहते हैं।
- स्निग्ध-जिस द्रव्य के सेवन से चिकनाहट और कोमलता पैदा हो, शक्ति और सौन्दर्य की वृद्धि करे वह स्निग्ध कहलाता है।
- स्निग्ध-जिस द्रव्य के सेवन से चिकनाहट और कोमलता पैदा हो, शक्ति और सौन्दर्य की वृद्धि करे वह स्निग्ध कहलाता है।
- त्रिफला-आंवला, हरड़ व बहेड़े के समभाग मिश्रण को त्रिफला कहते हैं।
- त्रिकुट-सौंठ, पीपल और काली मिर्च के समभाग मिश्रण को त्रिकुट कहते हैं।
- त्रिकंटक-गोखरन, कटेली और धमासा को त्रिकंटक कहते हैं।
- त्रिमद-वायविडंग, चिमक और नागरमोथा को मिला दिया जाए तो वे त्रिमद कहलाते हैं।
- त्रिजात-छोटी इलायची, तेजपात और दालचीनी के मिश्रण को त्रिजात कहते हैं।
- त्रिलवण-सेंधा, काला और विडनमक के मिश्रण को त्रिलवण कहते हैं।
- त्रयक्षार-यवक्षार, सज्जीखार और सुहागा का मिश्रण त्रयक्षार कहलाता है।
- त्रयमधुर-घृत, शहद और गुड़ को न्यूनाधिक मात्रा में मिला दिया जाये तो वह त्रयमधुर कहलाता है। त्रिगन्ध-गन्धक, हरिताल और मेनशिल के मिश्रण को त्रिगन्ध कहते हैं।
- चातुर्बीज-मेथी, अजवायन, काला जीरा, और टालो के बीजों के मिश्रण को चातुर्बीज कहते हैं।
- चातुर्जात-एकत्रित दालचीनी, इलायची, तेजपात और नागकेसर को चातुर्जात कहते हैं।
- चातुर्भद-एकत्रित सौंठ, मोथा, गिलोय और अतीस चार्तुभद्र कहलाता है।
- चतुरुष्ण-एकत्रित सौंठ, पीपल, पीपलमूल और काली मिर्च चतुरुष्ण कहलाते हैं।
- चतु:सम-हरड़, लौंग, सेंधा नमक और अजवायन एकत्रित होने पर चतु:सम कहलाते हैं।
- बला चतुष्टय-एकत्रित खरेंटी,सहदेई, कंधी और गंगेरु को बला चतुष्टय कहते हैं।
- पंच सुगन्धि-शीतल चीनी, लौंग, जावित्री, जायफल और सुपारी पंच सुगन्धि कहलाते हैं।
- पंचगव्य-गाय का दूध, दही, घृत, गोबर और गोमूत्र के मिश्रण को पंचगव्य कहते हैं।
- पंच लवण-सेंधा नमक, काला नमक, विडनमक, सोंदल नमक और सामुद्रिक नमक के मिश्रण को पंच लवण कहा जाता है।
- पंचबल्कल-आम, बरगद, गूलर, पीपल, और पाकड़ इन पंचक्षीर वृक्षों की छाल के मिश्रण को पंच बल्कल कहते हैं।
- तृण पंचमूल-कुश, कांस, कांश डाम और गन्ने की जड़ों के मिश्रण को तृणपंचमूल कहते हैं।
- पंचपल्लव-आम, कैथ, बेल, जामुन और विजौरा के एकत्रित पतों को पंचपल्लव कहते हैं।
- अम्ल पंचक-विजौरा, संतरा, इमली, अम्लवेत और नींबू के मिश्रण को अम्लपंचक कहते हैं।
- लघुपंचमूल-एकत्रित शालिपर्णा, पृश्निपर्णी, छोटी कटेली, बड़ी कटेली ओर गोखरू को लघु-पंचमूल कहते हैं।
- बृहत पंचमूल-अरणी, श्योनाक, पादल की छाल, बेल और गंभारी को बृहत पंचमूल कहते हैं।
- भिन्न पंचक-एकत्रित गुड़, घी, कुंधची, सुहागा और गुगल को भिन्न पंचक कहते हैं।
- पंचकोल-एकत्रित पीपल, पीपला मूल, चव्य, चित्रक और सौंठ को पंच कोल कहते हैं।
- पंचक्षार-तिल क्षार, पलाश क्षार, अपामार्गक्षार, यवक्षार और सज्जीक्षार के मिश्रण को पंचक्षार कहते हैं। षड्डूण-पंचकोल में यदि काली मिर्च मिला दी जाये तो वह षड्डूण कहलाता है।
- सप्तधातु-सोना, चांदी, तांबा, वंग, पारा, शीशा और लोहे को सप्त धातु कहते हैं।
- सप्त उपधातु-स्वर्ण माक्षिय, शैप्य माक्षिक, नीला थोथा, मुरदासंग, खर्पर, सिंदूर और भंडूर के मिश्रण को सप्त उपधातु कहते हैं।
- सप्त सुगन्धि-अगर, शीतलमिर्च, लोबान, लौंग, कपूर, केशर, दालचीनी, तेजपात और इलायची के मिश्रण को सप्त सुगन्धि कहते हैं।
- सप्त उपरत्न – वेक्रांत , राजावर्त, फिरोजा, शूक्ति (सीप), शंख, सूर्यकान्त और चन्द्रकांत को सप्त उपरत्न कहते हैं।
- अष्टवर्ग – मेदा, महामेदा, कादोली, क्षीरकाकोली, जीवक, ऋषमक ऋद्धि और वृद्धि को अष्ट वर्ग कहते हैं।
- मूत्राष्टक – गाय, भैंस, बकरी, भेड़, ऊंटनी, गधी, घोड़ी और हथनी के मूत्र मिश्रण को मूत्राष्टक कहते हैं।
- क्षाराष्टक – अपामार्ग, आक, इमली, तिल, ढाक, थूहर और जौ। इसके पंचांग के क्षार तथा सज्जी क्षार को क्षाराष्टक कहते हैं।
- नवरत्न – हीरा, पन्ना, मोती, प्रवाल, लहसुनिया, गोमेद, मणि, माणिक्य, नीलम और पुखराज नवरत्न कहलाते हैं।
- नव उपविष – थूहर, आक, कलिहारी, चिरमिरी, जमाल गोटा, कनेर, धतूरा, और अफीम को नव उपविष कहते हैं।
- दशमूल – लघुपंच मूल और वृहत पंचमूल के मिश्रण को दशमूल कहते हैं।
( और पढ़े – आयुर्वेदिक शब्दों के अर्थ और परिभाषा )
रासायनिक परिभाषा :
- कज्जली – पारद (पारा) को गन्धक के साथ या पहले पारद के सुवर्णादि धातुओं का सूक्ष्म चूर्ण या वर्क मिलाकर बाद में गंधक के साथ खरल में पीसने पर काजल जैसा काला बन जाने वाले पदार्थ को कज्जली कहते हैं।
- रसपंक – ऊपर बताई गई विधि के अनुसार बनाई गई कज्जली में द्रव पदार्थ मिलाकर घोटने पर उसे रसपंक कहते हैं।
- पिष्टी – 2 माशा गंधक और 12 माशा शुद्ध पारे को खरल में डालकर तेज धूप में घोटें। जब घोटते – घोटते (कज्जली) जैसा चिकना हो जाए तो उसे पिष्टी कहते हैं।
- पातन पिष्ठी – एक भाग पारा और चौथाई भाग सोने के वर्कों को घोटने पर जो पिष्टी तैयार होती है उसे पातन पिष्टी कहा जाता है। इस क्रिया से द्रव्यों में अनेक गुण उत्पन्न हो जाते हैं।
- वरलौह – तीक्ष्ण लोहे और तांबे को कई बार एक साथ मिलाकर पिघलाएं और बड़हल के रस में मिले गंधक के चूर्ण मे उसे बुझा लें । इस पदार्थ को वरलौह कहा जाता है।
- निर्वापण – अग्नि में पिघली हुई धातु में अन्य धातुओं को पिघलाकर वंकनाल से फूंककर मिला देने पर उसे निर्वापण या निर्वाहण कहा जाता है।
- रेखापूर्ण भस्म – जो भस्म तर्जन उंगली और अंगूठे के बीच में रगड़ने पर अंगूठे और तर्जनी उंगली के रेखाओं में समा जाए रेखापूर्ण भस्म कहलाती है।
- अपुनर्भव भस्म – किसी धातु की भस्म को गुड़, धुंधची के चूर्ण, सुहागा और घृत में मिलाने के बाद मूषा में रखकर अग्नि में फूंकने पर यदि भस्म से धातु अलग न हो तो ऐसे भस्म को अपुनर्भव भस्म कहते हैं।
- वातिरस भस्म – जो भस्म जल पर तैर सकती है वातिरस भस्म कहलाती है।
- बीज – किसी धातु को गलाकर उसमें विशेष संस्कारित पारे को मिलाने से वह वस्तु बीजरूप बन जाती है। और उसे मिलाने पर धातुबेध होता है।
- धान्याभ्रक – शुद्ध किए गए अभ्रक का चूर्ण बनाकर उसमें छिलके सहित चौथाई भाग धान डालकर ऊनी कंबल या मोटे सूती कपड़े में बांधकर एक पात्र में भरे जल या कांजी में तीन दिन तक भिगोये रखें और इसके बाद हाथ से मसलकर छान लें। ऊपर का निथरा हुआ जल अलग करके पेंदे में जमे अभ्रक चूर्ण को धूप में सुखा लें।
- क्षत्व – क्षार वर्ग, अम्ल वर्ग और द्रावण वर्ग के द्रव्यों के साथ अभ्रक, भाक्षिक और खर्पर आदि जिस किसी भी खनिज द्रव्य का सत्व निकालना हो उसे मलकर गोला बनाकर सुखा लें। उसे बगल में छेद वाली मूषा में रखकर भट्टी में रख दें और धौंकनी की सहायता से तेज आंच दें। उस खनिज से सार रूप में जो द्रव्य निकलेगा उसे सत्व कहते हैं।
- शोधन त्रिलय – विशेष प्रकार की मिट्टी कांच, सुहागा और सीवी राजन, धातुद्रव्यों को शुद्ध कर देते हैं।
- क्षीरत्रय – अर्क, बड़ और थूहर के दूध को क्षीरत्रय कहते हैं।
- हिंगुलाकृष्ट – हिंगुल को अदरक या नींबू आदि के रस में घोटकर विद्याधर यंत्र या कनु के यंत्र से उड़कर निकाले हुए पारे को हिंगुलाकृष्ट पारा कहते हैं।
- चोषाकृष्ट – कांसे में थोड़ी सी हरताल मिलाकर बद माल द्वार फूंकने पर वंग और तांबा अलग – अलग हो जाते हैं।
- वरनाग – नाग को तीक्ष्ण लौह और नीलांजन के साथ कई बार तेज आंच में फूंकने पर जब वह काला और कोमल हो जाता है तो उसे वरनाग कहते हैं।
- उत्थापन – किसी भी धातु की भस्म को द्रावक वर्ग के द्रव्यों के साथ फूंकने से वह अपने स्वरूप में आ जाती है। उसे उत्थापन कहते हैं।
- दालन – किसी धातु को आंच में पिघलाकर द्रव्य पदार्थ में बुझाने को दालन कहते हैं। आठ उपरस-गंधक, हरताल, मेनसिल, फिटकरी, कसीह, गेरु, लाजवर्द और कुंकुष्ठ आठ उपरस कहलाते हैं।
- सामान्य रस – कबीला, चपल, संखिया, नौसादर, किटी, अंबर, गिरि सिंदूर, हिंगुल और मुर्दासंग सामान्य या साधारण रस कहलाते हैं।