Last Updated on July 22, 2019 by admin
मूर्ति पूजा की सार्थकता क्यों ?
मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि आस्था एवं भावना को उभारने के लिए व्यक्ति को मूर्ति (चित्र) प्रतीक के लिए चाहिए। आराध्य की मूर्ति की पूजा करके मनुष्य उसके साथ मनोवैज्ञानिक संबंध स्थापित करता है। साधक जब तक मन को वश में कर स्थिर नहीं कर लेता, तब तक उसे पूजा का पूर्ण लाभ नहीं मिलता, इसीलिए मूर्ति की आवश्यकता पड़ती है। इसमें वह असीम सत्ता के दर्शन करना चाहता है और अपनी धार्मिक भावना को विकसित करना चाहता है। भगवान् की भव्य मूर्ति के दर्शन कर हृदय में उनके गुणों का स्मरण होता है और मन को एकाग्र करने में आसानी होती है। जब भगवान् की मूर्ति हृदय में अंकित होकर विराजमान हो जाती है, तो फिर किसी मूर्ति की आवश्यकता शेष नहीं रह जाती। इस तरह मूर्ति पूजा साकार से निराकार की ओर ले जाने का एक साधन है।
उल्लेखनीय है कि भगवान् की प्रतिमा में शक्ति का अधिष्ठान किया जाता है, प्राण प्रतिष्ठा की जाती है।
श्रीमद्भागवत में कहा गया है।
अहं सर्वेषु भूतेषु भूतात्मा अवस्थितः तं अवज्ञाय मां मर्त्यः कुरुते पूजाविडम्बनाम्।
अर्थात् मैं सब प्राणियों के हृदय में उनकी आत्मा के रूप में विद्यमान रहता हूं। इसकी उपेक्षा करके जो लोग पूजा का ढोंग करते हैं, वह विडंबना मात्र है। मूर्ति पूजा का संबंध भाव को जाग्रत करने से है। इसीलिए मूर्ति पूजा की जाती है।