Last Updated on August 20, 2021 by admin
जितनी भ्रांति मायोपिया या निकटदृष्टि दोष के बारे में फैली हुई है, शायद उतनी आँखों की अन्य किसी बीमारी के बारे में नहीं। अधिकांश मायोपिया रोगी स्वस्थ जीवन बिताते हैं, बशर्ते उन्होंने उपयुक्त चश्मे या कॉण्टेक्ट लेंस लगाए हों। आँखों की साफ-सफाई तथा देखभाल संबंधी दिशा-निर्देश अनिवार्य हैं। अंत में, गलत धारणाओं को स्पष्ट करने के लिए नेत्र विशेषज्ञ के साथ विचार-विमर्श करना चाहिये ।
मायोपिया (निकटदृष्टि दोष) के कारण (Myopia ke Karan)
मायोपिया क्यों होता है ?
मायोपिया (निकटदृष्टि दोष) का सामान्य कारण वंशानुगत है। 75 प्रतिशत मामलों में बच्चे को माता पिता या दादा-दादी, नाना-नानी से मायोपिया रोग विरासत में मिलता है। शेष 25 प्रतिशत बच्चों में अन्य कारणों से मायोपिया होता है, जैसे-
- विटामिन, कैल्सियम, प्रोटीन आदि की कमी।
- बीमारी के कारण दुर्बलता,
- लंबे समय तक आँखों पर दबाव, तथा
- कृत्रिम प्रकाश में पढ़ने से निश्चित रूप से मायोपिया फैलता है।
संक्षेप में, यह ऐसी बीमारी है, जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी चली आती है। यदि माता-पिता में से किसी एक को भी मायोपिया नहीं है तो बच्चे को भी मायोपिया नहीं होगा। (वंशानुगत का मेंडेलियन नियम)। मायोपिया रोगग्रस्त माता-पिता को स्पष्ट रूप से यह समझ लेना चाहिए, ताकि बाद में भयभीत न हों।
आँखों की कुछ ऐसी स्थितियाँ भी होती हैं, जो वंशानुगत नहीं होतीं। इनमें निकटदृष्टि दोष या मायोपिया पहली बार प्रतीत होता है तथा व्यक्ति को माइनस (-) चश्मे की जरूरत पड़ती है। प्रायः ऐसा वयस्कों में होता है। आमतौर पर मोतियाबिंद तथा मधुमेह इसके कारण समझे जाते हैं।
मायोपिया का उपचार (Myopia ka Ilaj in Hindi)
मायोपिया का सर्वाधिक सरल व वैज्ञानिक दृष्टि से सही उपचार ध्यानपूर्वक नेत्र की जाँच के बाद चश्मा लगाना है, ताकि मायोपिया की अन्य सभी जटिलताओं से बचा जा सके। आँख की पूर्ण जाँच कराए बिना चश्मे का नुस्खा लेना खतरे से खाली नहीं है।
किस उम्र में चश्मा लगाने की जरूरत पड़ती है ? –
यदि माँ को बच्चे की आँख के बारे में संदेह है तो दो वर्ष की आयु में बच्चे की पहली नेत्र-जाँच कराना आवश्यक होता है। लेकिन व्यावहारिक रूप में पाया गया है कि यदि माता-पिता को मायोपिया है तो उनके बच्चे की आँखों की प्राइमरी स्कूल (के.जी.) में दाखिला लेने से पहले क्लीनिक में जाँच करानी चाहिए।
नियमित रूप से स्कूल (प्री-स्कूल) जाने से पहले सभी बच्चों की आँखों की जाँच होनी चाहिए। किसी भी पॉवर के चश्मे के लिए शीघ्र तथा ध्यानपूर्वक जाँच के लिए बच्चे का सहयोग पाना कठिन नहीं है।
आँखों की विस्तृत जाँच के लिए विशेष परीक्षणों की जरूरत होती है। यदि बच्चे को -2 या अधिक मायोपिया है तो दो तथा पाँच वर्ष की आयु के बीच का बच्चा भी स्कूल में चश्मा लगा सकता है। इस बारे में आशंका या भय का कोई कारण नहीं है। यदि बच्चे को चश्मे से साफ दिखाई देता है तो ऐसा बालक चश्मा खुशी-खुशी लगाएगा। लेकिन सर्वाधिक महत्त्व इस बात का है कि चश्मा लगाने पर उस बच्चे को साफ और स्पष्ट दिखाई दे। दो या तीन कोशिशों के बावजूद यदि छोटे बच्चे चश्मा नहीं लगाते तो उन्हें मजबूर न किया जाए। पाँच या छह वर्ष की आयु तक इंतजार किया जाए तथा फिर बच्चे की विस्तृत जाँच कराई जाए।
95 प्रतिशत बच्चों को चश्मे से साफ दिखाई देगा। क्लीनिक के अनुभव से पता चला है कि बच्चों के साथ आनेवाले माँ-बाप को पूरे आश्वासन, परामर्श तथा सहानुभूति की जरूरत होती है। जब माँ को बताया जाता है कि उनके बच्चे को चश्मा लगाया जाना है तो माँ परेशान हो जाती है।
मायोपिया में कॉण्टेक्ट लेंस की भूमिका :
कॉण्टेक्ट लेंस के इस्तेमाल तथा पिछले दशक के दौरान इनके विनिर्माण में हुई तीव्र प्रगति से मायोपिया के उपचार में निस्संदेह बड़ा योगदान मिला है। कॉण्टेक्ट लेंस के कारण चश्मे के समान ही मायोपिया में सुधार हुआ है। इससे भी अधिक प्राकृतिक दृश्यात्मक क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण योगदान मिला है तथा इन सबसे अधिक मायोपिया की चौंकानेवाली वृद्धि की दर भी थम गई है, क्योंकि कॉण्टेक्ट लेंस में सर्वाधिक अनुकूल पॉइंट होता है।
यह समझना आसान है कि कॉर्निया की सतह पर लेंस लगाने से लेंस और कॉर्निया के बीच आँसुओं की परत आ जाती है। आँसुओं की परत में कॉर्निया के समान अपवर्तक इंडेक्स होता है। इससे कॉर्निया की वक्रता में आनेवाली अनियमितता निष्प्रभावी हो जाती है । मायोपिया रोगी के कॉण्टेक्ट लेंस में नेत्र विशेषज्ञ द्वारा बताई गई चश्मे की पॉवर से माइनस (-) नंबर की पॉवर होती है। तथापि व्यवहार्यतः उच्च दृष्टि-वैषम्ययुक्त अधिक पॉवरवाले मायोपिया रोगी को कॉण्टेक्ट लेंस से अतिरिक्त लाभ पहुँचता है।
साधारणतया कॉण्टेक्ट लेंस के दो प्रकार हैं – सख्त तथा लचीले कॉण्टेक्ट लेंस।
सख्त कॉण्टेक्ट लेंस –
सख्त कॉण्टेक्ट लेंस अत्यधिक निष्क्रिय (inert) तथा परिष्कृत प्लास्टिक के बने होते हैं, जो कॉर्निया पर लगाए जाते हैं। इसमें पानी तथा ऑक्सीजन का अंश नहीं होता। आँसू की परत, लेंस एवं इसके चारों ओर व्याप्त वायुमंडलीय वायु से कॉर्निया का पोषण होता है। ये लेंस लंबे समय तक नहीं लगाए जा सकते और सोते समय लेंस उतारने पड़ते हैं। सतही तन्यता के कारण ये लेंस कॉर्निया पर हलके से लगे रहते हैं।
पलकों की गति के साथ-साथ लेंस में गति आती है। आँसू के निर्बाध प्रवाह के लिए कॉर्निया तथा आस-पास के सफेद स्लेरा के बीच जगह होनी चाहिए। यदि लेंस को सही ढंग से फिट न किया जाए तो ये फिसल या खिसक सकते हैं। संभवतः यही इनमें कमी है। इनसे उच्च दृष्टि-वैषम्य में भी सुधार आता है तथा लागत की दृष्टि से भी ये काफी किफायती हैं। अब नेत्र विशेषज्ञ सख्त लेंस लगवाने की सलाह नहीं देते। इनका स्थान अर्ध-लचीले, आरामदेह तथा ऐसे लेंस ले चुके हैं, जिनमें गैस फैल सकती है।
लचीले तथा अर्ध-लचीले कॉण्टेक्ट लेंस –
लचीले लेंस में पानी तथा ऑक्सीजन का अधिक अंश होता है। ये गुब्बारे के समान हलके, पतले तथा नाजुक होते हैं। ऐसे लेंस कॉर्निया तथा स्लेरा के आस-पास आरामदेह स्थिति में टिके रहते हैं। इन्हें लंबे समय तक लगाया जा सकता है । पलकों की गति के कारण ये फिसल नहीं सकते, न ही खिसक सकते हैं। इनसे पानी तथा ऑक्सीजन का अधिक अंश होने का लाभ भी मिलता है। यदि इन्हें सँभालकर नहीं रखा जाता तो ये टूट सकते हैं; क्योंकि ये बहुत नाजुक होते हैं। इन्हें विशेष रूप से सँभालने तथा विसंक्रमित करने की आवश्यकता होती है। ये अधिक महँगे होते हैं।
अर्ध-लचीले लेंस ने अब दृष्टि-वैषम्य में सख्त लेंस का स्थान ले लिया है। ये बड़े आरामदायक होते हैं तथा लंबे समय तक चलते हैं।
मायोपिया के उपचार के रूप में कॉण्टेक्ट लेंस :
निम्नलिखित परिस्थितियों में मायोपिया के उपचार का एकमात्र रास्ता कॉण्टेक्ट लेंस ही है –
- जब दोनों आँखों के बीच चश्मे की पॉवर में असमता पाई जाती है-अर्थात् यदि दोनों आँखों के बीच -3 से अधिक अंतर है तो साधारण चश्मे से काम नहीं चलेगा। यदि चश्मा लगाया जाता है तो व्यक्ति को दो-दो चीजें दिखाई देती हैं (डिप्लोपिया)। कॉण्टेक्ट लेंस डिप्लोपिया समस्या का एकमात्र समाधान है।
- जब मोतियाबिंद एक आँख से हटाया जाता है तथा दूसरी आँख काफी सामान्य स्थिति में होती है (एकतरफा मोतियाबिंद हटाना)।
- अनियमित रूप से दृष्टि-वैषम्य के साथ बहुत उच्च मायोपिया (कॉनिकल कॉर्निया)।
मायोपिया में आँखों के व्यायाम की भूमिका :
आँखों को स्वस्थ रखने के लिए रामबाण औषधि के रूप में आँखों के व्यायाम के बारे में जानकारी लेने के लिए लोग उत्सुक रहते हैं । शारीरिक व्यायाम के अनेक लाभ हैं, जैसे – सुबह हरी दूब पर चलना (सैर करना), गहरी साँस लेना, प्राणायाम तथा आँखों को स्वस्थ रखने के लिए योग आदि।
इनसे पूरे शारीरिक सिस्टम को शक्ति मिलती है, लेकिन यह दावा अवैज्ञानिक है कि व्यायाम तथा प्राकृतिक चिकित्सा पूर्णत: चश्मे का स्थान ले सकती है।
निकटदृष्टि दोष शारीरिक रचना में आनेवाला बदलाव है, जहाँ आँख का गोला सामान्य से अधिक बढ़ जाता है। ऐसा कोई व्यायाम नहीं है, जिससे आँख के गोले की लंबाई कम हो सके। 1 मि.मी. आकार में वृद्धि या कमी के कारण पॉवर 3 तक बढती-घटती है।
मायोपिया में आहार और पोषण की भूमिका :
निस्संदेह अशक्तता, बीमारी तथा भूख के कारण माइनस (-) पॉवर बढ़ती है। संतुलित व नियमित आहार से आँखें स्वस्थ रहती हैं। अधिकांश लोग संतुलित आहार के सिद्धांत को जानते हैं । लेकिन बहुत कम लोग ही इस सिद्धांत का अनुसरण करते हैं। मायोपिया ग्रस्त बच्चों को अतिरिक्त रूप में कैल्सियम तथा विटामिन ‘डी’ दिया जाना चाहिए। कैल्सियम तथा विटामिन ‘डी’ के आदर्श श्रोत सूर्य प्रकाश, दूध के उत्पाद, मेवें और हरी सब्जियाँ हैं। संतुलित आहार के कारण मायोपिया की गति रुक नहीं जाती, लेकिन इससे बढ़ोतरी की गति निश्चित रूप से मंद पड़ जाएगी।
मायोपिया से जुड़ी जटिलताएँ :
नेत्र संबंधी निम्नलिखित चार जटिलताएँ हैं, जो मायोपिया का प्रत्यक्ष प्रमाण हैं। प्रायः ये जटिलताएँ उच्च मायोपिया रोगी में ही पाई जाती हैं –
- मोतियाबिंद (लेंस स्क्लेरोसिस) (-15 प्रतिशत)
- उनींदी आँखों या जन्म के समय मायोपिया के साथ भेंगेपन में सुधार (-10 प्रतिशत)
- रेटिना का पार्थक्य (-12 प्रतिशत)
- विट्रियस रक्तस्राव और फ्लोटर्स।
ये जटिलताएँ 20 प्रतिशत से अधिक मामलों में नहीं होती । इसीलिए मायोपियाग्रस्त व्यक्ति की आशंकाएँ निर्मूल होती हैं। लगभग 80 प्रतिशत मायोपिया रोगी नियमित कार्य करते हैं।
मायोपिया : कुछ सवालजवाब (FAQ)
मायोपिया क्यों बढ़ता है ? इस बीमारी में डॉक्टर क्या कर सकता है ? मातापिता तथा रोगी स्वयं क्या कर सकते हैं ? क्या नियमित रूप से चश्मा लगाने से मायोपिया पर नियंत्रण पाया जा सकता है ? क्या चश्मा लगाने से मायोपिया बढ़ जाएगा ? क्या चश्मा लगाने की आदत पड़ जाएगी, इसलिए चश्मे से बचना चाहिए ? ऐसे कुछ प्रश्न मायोपिया ग्रस्त बच्चों के माँ-बाप पूछते हैं। इनके उत्तर नीचे दिए गए हैं ।
- लोगों में यह गलत धारणा फैली है कि चश्मा लगाने से मायोपिया की पॉवर नहीं बढ़ती है। कुछ लोग यह भी महसूस करते हैं कि नियमित रूप से चश्मा लगाकर इस समस्या पर काबू पाया जा सकता है। दोनों विचार गलत हैं । नियमित रूप से चश्मा लगाने से आँखों पर कम-से-कम दबाव पड़ता है। लेकिन आँख की लंबाई शारीरिक रचना से जुड़ी है और यह मायोपिया से अलग है।
- मायोपिया में वृद्धि एक प्राकृतिक प्रक्रिया है, जिसमें आँख के गोले की लंबाई बढ़ जाती है । यह प्रक्रिया कद में वृद्धि, बालों और नाखूनों के बढ़ने की प्रक्रिया के समान है। कोई भी व्यक्ति इस बढ़ोतरी को रोक नहीं सकता। यह प्राकृतिक प्रक्रिया दो रूपों में होती है –
(a) साधारण मायोपिया – इसमें दस-बारह वर्ष तक की आयु में चश्मे की पॉवर सेट होनी शुरू हो जाती है तथा धीरे-धीरे 0.5 तक बढ़ जाती है। किशोरावस्था में जब बच्चे का कद बढ़ जाता है तब यह पॉवर -1,-2 या इससे भी अधिक तक पहुँच जाती है। इस समय माता-पिता चौंक उठते हैं। 75 प्रतिशत मायोपिया के मामलों में यह प्राकृतिक तथा वंशानुगत प्रक्रिया है।
बीस से पच्चीस वर्ष की आयु तक मायोपिया बढ़ता रहता है तथा अपने आप रुकता है। कई बार पॉवर -6 या -7 से अधिक बढ़ती है। पैंतीस चालीस वर्ष की आयु में -0.5 या -1 तक कम होने लगती है तथा फिर स्थिर हो जाती है। यदि ऐसा व्यक्ति मोतियाबिंद का रोगी है तो यह पॉवर और भी कम हो सकती है। यह मोतियाबिंद के प्रकार पर निर्भर करता है। कभी-कभी वृद्धावस्था में यह समस्या समाप्त हो जाती है तथा व्यक्ति को चश्मे के बिना पुनः दृष्टि का वरदान मिलता है । सामान्य मायोपिया रोग के 95 प्रतिशत मामलों में चश्मा लगाने से स्थिति में सुधार होता है।
(b) उच्च मायोपिया – ‘उच्च मायोपिया’ शब्द मायोपिया का वह प्रकार दरशाने के लिए प्रयुक्त किया जाता है, जो बाल्यावस्था से ही शुरू हो जाता है-अर्थात् एक या दो वर्ष की आयु। यह रोग किशोरावस्था में बहुत तेजी से बढ़ता है। चौदह वर्ष की आयु में यह -6, -7, -9 तकपहुँच जाता है । इसके बाद धीरे-धीरे बढ़ता है तथा लगातार तीस वर्ष की आयु तक बढ़ता जाता है, तब यह समस्या-10 या-20 तक पहुँच जाती है। -15 या -20 तक पहुँचनेवाले मामले बहुत कम लेकिन होते अवश्य हैं। ऐसे विरले मामले ही होते हैं, जहाँ दोनों की पॉवर-26 तक हो सकती है।
संक्षेप में, उच्च मायोपिया की प्रवृत्ति वंशानुगत होती है। यह बाल्यावस्था से प्रारंभ होकर बीस वर्ष की आयु तक सर्वाधिक तेज गति से बढ़ता है। यहाँ वर्णित दो श्रेणियाँ वैज्ञानिक रूप से स्वीकृत हैं। परवर्ती ग्रुप में निरंतर देखभाल की जरूरत होती है। इसमें नेत्र विशेषज्ञ से जाँच कराने की आवश्यकता होती है।