Last Updated on July 26, 2019 by admin
अपने दिल को समझाओ कि पीड़ा का भय, पीड़ा से कहीं ज्यादा बद्तर होता है और किसी भी हृदय को पीड़ा नहीं हो सकती, अगर वह अपने सपनों की तलाश में निकल पड़ता है, क्योंकि इस तलाश का हर क्षण हमें ईश्वर और अमरत्व का साक्षात्कार कराता है।
– पाउलो काएलो (दि अलकेमिस्ट)
मैंने यह जाना है कि बहादुरी का मतलब डर का अभाव नहीं, बल्कि डर के ऊपर जीत है। बहादुर वह नहीं, जिसे डर नहीं लगता, बल्कि साहसी वही है, जिसने अपने डर पर विजय पा ली।”
– नेल्सन मंडेला
सिजेरियन डिलीवरी का सच :
प्रसव एक ऐसी घटना है, जो मनुष्य के अस्तित्व का कारण है। आदिकाल से चली आ रही है और अनंतकाल तक चलती रहेगी। फिर भी जैसे-जैसे डिलेवरी के दिन पास आते जाते हैं, स्त्री के मन में डर और चिंता बढ़ती जाती है। इन दिनों में चिंता, डर, तनाव, नींद न आना बहुत सामान्य है। इसका सबसे बड़ा कारण उस दर्द की कल्पना है, जिससे अनेक मिथक जुड़े हैं। हर महिला की यह धारणा होती है कि प्रसव का अर्थ है- ‘असहनीय पीड़ा। इसी कारण नकारात्मक विचार पूरे शरीर में डर के कारण तनाव भर देते हैं। इसी का लाभ अनेक डॉक्टर भी उठाते हैं और सामान्य हो सकने वाले प्रसव को भी सिजेरियन में बदल देते हैं। महिलाएँ भी इसलिये ऑपरेशन से डिलेवरी कराने के लिये तैयार हो जाती हैं। जबकि ऑपरेशन के बाद भी कहीं अधिक दर्द और असुविधा तथा हफ्तों के बेड रेस्ट से गुजरना पड़ता है। सिजेयेरियन एक मेजर सर्जरी है, इसके जो जोखिम हैं, वे तो अपनी जगह हैं ही।
नॉर्मल डिलीवरी में कितना दर्द होता है ? :
पीड़ा प्रसव में नहीं आपके दिमाग में है –
हमारा मस्तिष्क बहुत शक्तिशाली है। अगर आप हमेशा असहनीय पीड़ा की कल्पना करती रहेंगी, तो आपका प्रसव बहुत कष्टकारी होगा, यह निश्चित है। ऐसा क्यों होता है? आप इतनी बात जान लें, कि जब हमें असहनीय दर्द होता है, हमारे शरीर का सुरक्षा-तंत्र सक्रिय हो जाता है, जैसे- कोई बड़ी दुर्घटना होती है, बड़ा आघात लगता है, बड़ा सदमा या चोट लगती है, व्यक्ति बेहोश हो जाता है। जब भी दर्द शरीर की सहने की क्षमता से अधिक बढ़ता है, बेहोशी छाने लगती है। पर क्या कभी आपने किसी महिला को बिना किसी दवा की मदद से प्रसव के दौरान बेहोश होते देखा या सुना है? नहीं, क्योंकि प्रकृति क्षमता से अधिक पीड़ा किसी नैसर्गिक क्रिया के दौरान कभी नहीं देती।
नॉर्मल डिलीवरी कैसे होती है व इसकी पूर्व मानसिक तैयारी :
प्रसव के बारे में सकारात्मक रूप से सोचना महत्वपूर्ण है। इसे एक प्राकृतिक अनुभव की तरह लें। जैसे सबसे पहले मासिक स्राव (पीरियड्स) हुए, फिर संभोग की प्रक्रिया से गुजरीं, उसी तरह गर्भावस्था और फिर प्रसव भी एक सामान्य अवस्था है। जब प्रसव को प्राकृतिक रूप से एवं बिना दवा के होने दिया जाता है, शरीर से एन्डॉरफ़िन हॉर्मोन निकलता है, जो प्राकृतिक दर्द-निवारक है और दर्द कम करके हमें अच्छा महसूस कराता है।
इसके विपरीत अगर लगातार नकारात्मक फीडबैक जाएगा, तो प्रसव शुरू होते ही शरीर का सुरक्षा-तंत्र सक्रिय हो जाएगा और स्ट्रेस हॉर्मोन्स स्रावित करने लगेगा। परिणामस्वरूप गर्भाशय में संकुचन (Contractions) शुरू होते ही पूरे शरीर में ऐंठन होने लगेगी। यह ऐंठन गर्भाशय तक पहुँचकर माँसपेशियों को पूरी और सही तरीके से फैलने से रोककर प्रसव को कठिन और कष्टप्रद बना देगी। तथा यह Fetel Distress का कारण भी बन सकती है।
हालाँकि सकारात्मक सोच से गर्भाशय की माँसपेशियाँ बिना तनाव व ऐंठन के शिशु को बाहर धकेलने का प्रयास करेंगी। सर्विक्स से निकलने के बाद बच्चा योनि की तरफ बढ़ता है। योनि की कई तहें होती हैं, जो बच्चे को रास्ता देने के लिये फैल जाती हैं। जन्म के समय स्त्री योनिमार्ग को जितना ढीला छोड़ती है, बच्चे का सिर उतनी ही आसानी से बाहर आ जाता है। बच्चे के सिर की हड्डियाँ या क्रेनियल आपस में जुड़ी हुई नहीं होती हैं। अत: ये योनिमार्ग के अनुसार खुद को एडजस्ट कर सकती हैं। आवश्यकतानुसार ये एक-दूसरे पर चढ़कर वापिस अपनी जगह पर आ सकती हैं। सबसे बड़ी बात, पूरी 12-48 घंटे की प्रसव प्रक्रिया में जो गर्भाशय का संकुचन और “दर्द है, वह सिर्फ 10-30 मिनट के अंदर-अंदर होता है और शारिरिक और मानसिक रूप से तैयार कोई भी स्त्री इसका सामना आत्मविश्वास से कर सकती है।
आमतौर पर गर्भवती स्त्रियों की तीन श्रेणियाँ होती हैं :
1- पहली वे, जो नकारात्मकता से भरी होती हैं। ये नकारात्मक विचार सुनी-सुनाई बातों, पूर्व के अनुभव या अज्ञानता से आते हैं। कोई भी दो प्रसव एक जैसे नहीं होते। एक ही स्त्री के दो प्रसवों के अनुभव अलग होते हैं। अत: दूसरों के या खुद के बुरे अनुभवों को खुद पर हावी न करें अन्यथा आपका प्रसव अत्यन्त कष्टप्रद होगा।
2- दूसरी श्रेणी में वे महिलाएँ आती हैं, जो पूरी गर्भावस्था और प्रसव नज़दीक आने तक सकारात्मक बनी रहती हैं, परन्तु प्रसव पीड़ा आरंभ होते ही एकदम हिम्मत हार जाती हैं और तनाव व डर के मारे उनका बुरा हाल हो जाता है। दरअसल ये महिलाएं डरी हुई होती हैं, परन्तु अपना डर अंदर दबाए रखती हैं। प्रसव के समय दर्द से घबराकर यह डर बाहर आ जाता है। इन दोनों श्रेणियों की महिलाएँ अपना प्रसव जटिल बना लेती हैं और अक्सर ऑपरेशन की नौबत आ जाती है।
3- तीसरी श्रेणी में वे महिलाएँ होती है जिनको अपने शरीर, गर्भावस्था एवं प्रसव क्रिया की पूरी जानकारी होती है। वे लम्बे समय तक सकारात्मक विचारों, व्यायाम, सही डाइट, श्वास नियंत्रण
आदि के द्वारा खुद को प्रशिक्षित करती हैं एवं सरलतापूर्वक बच्चे को जन्म देती हैं। यहाँ तक कि शल्य-क्रिया की आवश्यकता होने पर भी सहज बनी रहती हैं और सरलता से बिना घबराए शल्य-क्रिया का सामना करती हैं।
यहाँ याद रखने योग्य बात यह है कि कोई भी दो प्रसव समान नहीं होते और अंतिम समय तक यह कहा नहीं जा सकता कि शल्य क्रिया की नौबत आएगी या नहीं। अत: डिलेवरी के लिये ऐसी जगह चुनें, जहाँ सभी तरह की चिकित्सा सुविधाएँ प्रसूता एवं नवजात शिशु के लिये उपलब्ध हों।
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