Last Updated on November 9, 2021 by admin
पाचन संस्थान क्या है ? (Pachan Tantra in Hindi)
मानव-शरीर में कई विभाग काम करते हैं, जो अपनी अलग-अलग जिम्मेदारियों को निभाते है और एक-दूसरे के पूरक भी होते है। जैसे –
अस्थि-संस्थान, रक्त व रक्त-वाहक संस्थान, श्वास प्रश्वास-संस्थान, मूत्रवाहक-संस्थान, नाड़ी-संस्थान इत्यादि।
इनमें एक ‘पाचन-संस्थान’ भी होता है, जिसके द्वारा हम भोजन करते व पचाते हैं। यह संस्थान मुख से गुदा-द्वार तक होता है।
जब हम कुछ खाते हैं, तब मुख के रास्ते से होकर एक नली के भीतर चला जाता है और जब तक वह पच नहीं जाता, तब तक नली में ही रहता है। जो कुछ भी हम खाते हैं, उसे सबसे पहले दांत चबाते हैं। तब इसमें एक रस मिलता है, जिसे ‘थूक’ (लालाइन) कहते हैं। यह मुख की छह लार ग्रंथियों द्वारा निकलता है। यह रस हमारे भोजन को पचाने में बहुत सहायक होता है। खाए हुए श्वेतसार को ‘थूक’ ग्लकोज में परिवर्तित करती है। हम ठोस आहार को जितना अधिक चबाएंगे, उतना ही आगे के पाचन तंत्र का काम आसान हो जाएगा।
हम जो भी भोजन करते हैं, उसमें प्रोटीन, कार्बोज (श्वेतसार), वसा, जल, विटामिन और खनिज लवण होते हैं। लालाइन केवल कार्बोज को पचाने में सहायक होता है।
आमाशय (Stomuch) :
मुख से निकलकर आहार पाकस्थली, जिसे आमाशय कहते हैं, में पहुंचता है। वह पेट में बाई ओर ऊपर होता है। आमाशय में भी ग्रंथियां होती हैं, जो आमाशयिक रस (Gastric juice) बनाती हैं। इस रस में पैंपटीन और रेनेट नामक दो विशेष पदार्थ होते है। इस में कई प्रकार के लवण भी होते है। यह अम्ल केवल भोजन की प्रोटीनों पर ही काम करता है। भोजन आकर ऊपर वाले भाग में एकत्र हो जाता है। जो भंडार का काम करता है और जब तक भोजन आमाशय के ऊपर वाले भाग में रहता है, लालाइन उस पर अपना काम करता रहता है। अम्ल रस आमाशय के बीच वाले भाग में बनता है।
अब मध्यांश में गतियां होने लगती है। मांस सिकुड़ता है, फैलता है और भोजन ऊपर से नीचे की ओर खिसकने लगता है। गतियों की लहरें उठती हैं, जो मध्यांश से पक्वाशयिक-द्वार की ओर जाती हैं। दक्षिणांशा में जो भोजन होता है, वह मांस के सिकुड़ने से खूब मथ जाता है और अम्ल रस से मिलकर पतला हो जाता हैं। जब तक खाया हुआ पदार्थ पतला नहीं हो जाता, तब तक वहां गतियां होती रहती हैं। फिर पक्वाशयिक-द्वार मांस के प्रसार से खुल जाता है और आमाशय इसे बड़े वेग से पक्वाशय में भेज देता है। इसी प्रकार सारा भोजन धीरे-धीरे पक्वाशय में धकेल दिया जाता है।
लिवर (Liver) :
सामान्यत: भोजन तीन से साढ़े चार घंटे तक आमाशय में ठहरता है। आमाशयिक रस न तो श्वेतसार पर काम करता है और न ही वसा पर। पक्वाशय में जब भोजन पहुंचता है, तब उसमें लिवर का पित्त (Bile) मिलता है। पित्त पीलापन लिए हुए हरे रंग का क्षारीय प्रतिक्रिया वाला कड़वा द्रव्य होता है। इसमें कई प्रकार के लवण घुले रहते हैं। लिवर पेट की दाई ओर ऊपर पसलियों के नीचे होता है। भोजन के वसा वाले भाग को पचाने में पित्त काम आता है। वसा को पचाने व आत्मीकरण के लिए पित्त बहुत ही आवश्यक पदार्थ है। जब पित्त कम बनता है या किसी कारण छोटी आंतों में नहीं पहुच पाता है, तब वसा (Fat) बहुत कम पचता है और उसका अधिक भाग मल के साथ शरीर से बाहर निकल जाता है और मल भी बदबूदार होता है। इसलिए जिनका लिवर खराब हो या लिवर में कोई रोग (जैसे-पीलिया) वगैर हो, तो भोजन में वसा (चिकनाई) नहीं लेना चाहिए।
पक्वाशय में ही एक और रस भोजन में मिलता है। उसे ‘क्लोम’ रस ‘कहते हैं। क्लोम रस क्लोम ग्रंथि (Pancreas) बनाती है। यह ग्रंथि पेट में आमाशय के नीचे होती है और उदर की पिछली दीवार से लगी रहती है। इस ग्रंथि के विविध भागों से क्लोम रस निकलकर क्लोम प्रणाली में आता है। ग्रंथि के सिर में पहुंचकर क्लोम प्रणाली, ग्रंथि से बाहर निकलकर पित्त प्रणाली के साथ-साथ एक ही स्थान पर पक्वाशय की दीवार में पहुंचती है और दोनों का रस एक ही छिद्र द्वारा पक्वाशय के भीतर पहुंचता है।
क्लोम रस (Trypsin) :
यह एक पतला स्वच्छ क्षारीय द्रव्य होता है, जिसका नाम इंसुलिन (Insulin) है। इसका काम शर्कराजन के विश्लेषण को रोकना है। जब क्लोम ग्रंथि विकृत हो जाती है, विशेषकर यह भाग, जहां इंसुलिन बनती है, तो शर्कराजन से शर्करा बहुत बनती है। यह शर्करा मूत्र द्वारा शरीर से बाहर निकलती है या रक्त में अपना प्रभाव छोड़ देती है, जिससे मधुमेह (Diabetes) रोग हो जाता है। इस रस में चार विशेष पाचक पदार्थ पाए जाते हैं, जो पाचन-क्रिया को पूरा करने में विशेष सहायता करते है। छुद्रांत्रिय रस और पित्त से मिलकर क्लोम रस के पाचक पदार्थ अपनी-अपनी क्रियाओं में और भी प्रबल हो जाते है।
पित्त का कार्य :
पित्त से मिलकर क्लोम रस अपनी सभी क्रियाओं में तेज हो जाता है। इसके कारण क्लोम रस की वसा विश्लेषक-शक्ति बढ़ जाती है। आमाशय से आए हुए अम्ल प्रतिक्रिया वाले आहार रस की अम्लता, क्षारीय, पित्त व क्लोम रस के कारण जाती रहती है और आहार रस अब क्षारीय प्रतिक्रिया वाला हो जाता है। क्लोम रस का प्रभाव क्षारीय घोलों पर अच्छा होता है। सारांश यह है कि पाचक ग्रंथियों की सेलें ऐसे रसायन (Chemical) बनाती है। जिनमें भोजन के मल अवयवों का विश्लेषण करने और उनका अन्य पदार्थों में परिवर्तन करने की विचित्र और तीव्र शक्ति होती है। हमारे पाचक रसों का काष्ठोज (Roughage) पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। इसीलिए शाक-सब्जियों के रेशे इत्यादि ज्यों के त्यों मल के साथ निकल जाते हैं।
लवण और जल :
लवण और जल पर कोई पाचक-क्रिया नहीं होती। यह ज्यों के त्यों श्लैष्मिक कला में से रक्त में चले जाते है।
क्षुद्रांत्र (छोटी आंत) :
क्लोम रस व पित्त मिलने के बाद वह तरल पदार्थ छोटी आंतों में आने लगता है। छोटी आंतों से भी एक रस निकलता है। इसे छुद्रांत्रिय रस कहते है। इसमें चार प्रकार के पदार्थ पाए जाते हैं। छोटी आंतों में रस की प्रतिक्रिया भी क्षारीय होती है। छोटी आंतों में जो मांस होता है, उसके सिकुड़ने और फैलने से आंत में सदा गति हुआ करती है। इस गति से एक तो पाचक रस भोजन में भली प्रकार मिल जाते हैं। दूसरे दीवार के दबाव के कारण आहार धीरे-धीरे नीचे सरकता है। पाचक रसों की क्रिया उस पर होती रहती है। पचने योग्य चीजे पच जाती है और श्लैष्मिक कला में से होकर रक्त व लसिका ग्रंथियों में पहुंच जाती हैं। छुद्रांत के अंत तक पहुंचने से पहले आहार रस में से बहुत-से पदार्थ रक्त और लसिका में पहुंच जाते हैं।
पक्वीकरण और आत्मीकरण :
भोजन का पचना एक बात है और उसका रक्त में पहुंचना दूसरी बात है। यह हो सकता है कि भोजन पाचक रसों की क्रिया से पचकर इस योग्य बन जाए कि वह रक्त में पहुचकर शरीर का भाग बन सके या वह रोगों के कारण ज्यों का त्यों मल के रूप में शरीर से बाहर निकल जाए। यह क्रिया, जिससे भोजन के अवयव रक्त और लसिका में पहुचने योग्य बन जाते हैं, ‘पक्वीकरण’ कहलाती है। इन अवयवों के ‘श्लैष्मिक कला’ में से होकर रक्त और लसीका को ‘आत्मीकरण’ कहा जाता है।
बृहद्रांत (बड़ी आंत) :
जितने पदार्थ छोटी आंतों में पचकर रक्त और लसिका में चले जाते हैं, उन्हें छोड़कर आहार का शेष भाग बड़ी आंत में चला जाता है | बड़ी आंत छोटी आंत से अधिक चौड़ी होती है। उसकी लंबाई लगभग 1.5 मीटर होती है। इनका मिलाप दाई तरफ नीचे होता है। इसका अंत बाईं तरफ से होता हुआ गुदा-द्वार पर होता है। गुदा से ऊपर 10-12 सेमी. का भाग मलाशय का है, जहां मल इकट्ठा होता है।
बड़ी आंत की दीवारें भी मांसल हैं सौत्रिक-तंतु और श्लैष्मिक कला से निर्मित है, परंतु इस आंत की श्लैष्मिक कला में ग्राहकांकर नहीं होते हैं जो विशेष ग्रंथि समूह छोटी आंतों में पाए जाते है, वे भी बड़ी आंत में नहीं पाए जाते। बड़ी आंत में संकुचन तथा प्रसार हुआ करता है, जिसके प्रभाव से बचा हुआ आहार रस आगे की ओर सरकता है। बड़ी आंत की श्लैशमिक कला में से होकर जो रस पचने योग्य होता है, रक्त व लसिका में चला जाता है और आगे की और जाते हुए गाढ़ा होता जाता है। आगे आकर बचा हुआ भाग मल के रूप में मलाशय में जमा होता रहता है और समय पर मल-द्वार से बाहर निकल जाता है।
भोजन का आत्मीकरण (Absorption) :
मुख कंठ और अन्न प्रणाली में किसी पदार्थ का आत्मीकरण नहीं होता। आमाशय, छुद्रांत और बृहद्रांत के अंदर के भाग में ही यह क्रिया होती है। इस क्रिया का मुख्य स्थान छोटी आंतों को ही समझना चाहिए। इस प्रकार पाचन-क्रिया को मुख से लेकर गुदा-द्वार तक 14 से 18 घंटे लगते हैं। कोई भी वस्तु मुख में डाल लेने तक ही आपके हाथ में है। उसके बाद उसे पचाने का कार्य पाचन अंगों का है, जो कि स्वचालित क्रिया है। फिर बात हमारे हाथ से निकल जाती है। इसलिए सदैव कुछ भी खाने से पहले हमें सोच-समझ लेनी चाहिए कि खाने की आवश्यकता है भी या नहीं। बिना भूख के खा लेने से पाचन-तंत्र पर अनावश्यक दबाव पड़ता है, पाचन-तंत्र दुर्बल हो जाते हैं, जिससे आवश्यकतानुसार पाचक रस नहीं बनते।
बहुत-से रोग तो पाचन-क्रिया अच्छी तरह नहीं हो पाने के कारण हो जाते हैं। इनमें से कई रोग जानलेवा भी होते है। इन रोगों से हम अपनी सूझबूझ से बच सकते है। अपनी पाचन स्थिति को देखते हए ही भोज्य पदार्थ का चयन करना चाहिए। हर व्यक्ति को अपने कार्य तथा भूख को देखते हए ही अपने भोजन की व्यवस्था करनी चाहिए। भूख लगने पर खाना सबसे उत्तम नियम है। सप्ताह में एक दिन या एक समय का उपवास करना या पूरा दिन केवल फलाहार करना अपने पाचन-तंत्र को स्वस्थ रखने के लिए आवश्यक है।