Last Updated on July 22, 2019 by admin
संस्कृत के प्रकांड विद्वान कैयरजी नगर से दूर एक झोंपड़ी में रहते थे। उन्हें अपने अध्ययन और लेखन से इतना भी अवकाश नहीं मिलता था कि घर-बाहर के कामों में पत्नी का हाथ बँटा सकें। पत्नी बेचारी जंगल से मुंज काटकर लाती, उसकी रस्सियाँ बनाकर बेचती और उससे जो कुछ मिलता, उससे घर चलाती। पति की सेवा, उनके और अपने भोजन की व्यवस्था तथा घर के अन्य सारे काम उसे करने होते थे, लेकिन यह सब करके वह परम संतुष्ट थी।
एक बार वहाँ के राजा को काशी से आए कुछ विद्वानों ने कहा, “आपके राज्य में एक महान विद्वान् इतना कष्ट पाता है। महाराज आप कुछ तो ध्यान दें।”
यह सुनकर राजा अगले दिन कैयरजी की कुटिया पर आए, उन्होंने कैयरजी से हाथ जोड़कर प्रार्थना की—“भगवन्, आप विद्वान् हैं। जिस राज्य के विद्वान् कष्ट पाते हैं, उसका राजा पाप का भागी होता है। इसलिए आप मुझ पर कृपा करें।”
यह सुनते ही कैयरजी ने अपनी कुछ पांडुलिपियाँ उठाई, चटाई समेटकर बगल में दबाई और पत्नी से बोल, “हम लोगों के यहाँ रहने से महाराज को पाप लगता है। चलो कहीं और चलते हैं |
राजा ने उनके पैरों पर गिरकर क्षमा माँगी और बोले, “मैं तो केवल यह चाहता था कि मुझे कुछ सेवा करने की आज्ञा प्राप्त हो।”
कैयरजी ने कहा, “महाराज, आप केवल इतना भर करें, फिर यहाँ न आएँ और मुझे धन, संपत्ति आदि किसी चीज का प्रलोभन न दें। मेरे अध्ययन में विघ्न न पड़े, यही मेरी सबसे बड़ी सेवा है।”
राजा समझ गए कि सच्चे विद्वान के लिए उसका कार्य ही सबसे महत्त्वपूर्ण है। उसे भौतिक सुखों की कोई चाह नहीं होती।