एक अनूठे मुसलिम श्री कृष्ण भक्त (प्रेरक प्रसंग)

Last Updated on August 4, 2019 by admin

मोहम्मद याकूब सनम साहब- रहीम, रसखान और ताज बेगमकी परम्परा में इस शताब्दीमें हुए हैं मोहम्मद याकूब खाँ उर्फ ‘सनम साहब।’ अजमेरवासी सनम साहबने सन् १९२० ई० से लेकर सन् १९४४ ई० तक देशभर में कृष्णभक्ति का प्रचार-प्रसार किया तथा अन्तमें सन् १९४५ ई० में एक दिन अपने इष्टदेव भगवान् श्रीकृष्ण की लीलाभूमि व्रज की पावन मिट्टी में अपना शरीर समर्पण कर दिया।

सनम साहब ने संस्कृत, हिन्दी और उर्दू में प्रकाशित कृष्णभक्ति साहित्य का गहन अध्ययन किया। इन भाषाओं के अतिरिक्त वे फारसी के भी प्रकाण्ड विद्वान् थे। उन्होंने कृष्णभक्ति-सम्बन्धी लगभग १२०० पुस्त कें संगृहीत कीं तथा अजमेर में ‘श्रीकृष्णलाइब्रेरी’ की स्थापना की। सनम साहब ने बहुत समय तक व्रजभूमि में रहकर श्रीकृष्ण की उपासना की। अपनी मुक्ति के उद्देश्य से वे कृष्णभक्त बने और तपस्वी गुरु के अन्वेषणमें लग गये। अन्तमें व्रजभूमि के संत श्री सरसमाधुरी-शरणजी को उन्होंने अपना गुरु बना लिया।

गुरुदेव सरसमाधुरी-शरणजी की प्रेरणा से उन्होंने देशभर में कृष्णभक्तिकी धारा प्रवाहित करने का संकल्प लिया। वे प्रभावशाली वक्ता तथा भावुक भक्त थे, अतः कुछ ही समय में देशभर में उनके प्रवचनों की धूम मच गयी। सनम साहबने अपने एक प्रवचन में कहा था- ‘श्रीकृष्ण के दो रूप हैं निराकार और साकार। निराकार जो गोलोकधाम में विराजमान है, उसका तीन रूप से अनुभव होता है-प्रेम, जीवन तथा आनन्द। प्रेम ही जीवनविधान है, जीवन ही सत्यता का आधार है और जीवन का मुख्य उद्देश्य आनन्द है। इस कारण ये तीनों ही श्रीकृष्ण की निराकार विभूतियाँ हैं, सृष्टिमात्र में व्याप्त हैं।’

‘यह तो केवल हिन्दुओं का कथन मात्र है कि श्रीकृष्ण मात्र हमारे हैं और उनके पुजारी हम ही हो सकते हैं। श्री कृष्णप्रेम का अधिकारी जीवमात्र है। स्वामी प्रेमानन्द जी ने अमेरिका जाकर श्रीकृष्णपर व्याख्यान दिये, जिसका यह प्रभाव पड़ा कि चौदह हजार अमरीकी श्रीकृष्ण के अनुयायी हो गये और कैलिफोर्निया में कृष्णसमाज तथा कृष्णालय स्थापित हो गये। वहाँ भारत के समान ही श्रीकृष्ण का पूजन, नाम-कीर्तन और गुणानुवाद होने लगा।

सनम साहब को अपने गुरुदेव श्रीसरसमाधुरीशरण का एक पद बहुत पसन्द था- ‘लागै मोहे मीठो राधेश्याम’ यह पद उन्होंने मुझे लिखकर भेजा था। प्रवचन के आरम्भमें वे यह पद गाकर सुनाते थे।

एक सुशिक्षित मुसलमान को श्रीकृष्णभक्ति में तल्लीन देखकर संकीर्ण लोगों में तहलका-सा मच गया था। कुछने अजमेर पहुँचकर उन्हें समझा-बुझाकर कृष्णभक्ति के पथ से डिगानेका भारी प्रयास किया, किंतु उनके तर्कोके आगे वे वापस लौट जाते थे। इसके पश्चात् उन्हें जान से मार डालने की भी धमकी दी गयी, काफिर तक कहा गया, किंतु सनम साहब ने स्पष्ट कह दिया कि मैं अपने इष्टदेव श्रीकृष्णकी भक्ति के लिये पैदा हुआ हूँ, जिस दिन उन्हें मुझे अपने लोक में बुलाना होगा, मैं पहुँचा दिया जाऊँगा।
अजमेर में उनपर आक्रमण का प्रयास भी किया गया। इसपर उन्होंने प्रतिक्रियास्वरूप लिखा-‘अभी मुझसे भगवान् श्रीकृष्ण को और काम लेना है, इसीलिये उन्होंने रक्षा की है।

सनम साहब हमारे अनन्य मित्र थे। सन् १९३५ ई० में वे पिलखुवा पधारे थे तथा उन्होंने हमारे निवासस्थान पर श्रीकृष्णभक्ति पर सुन्दर प्रवचन किया था। महामना पण्डित मदनमोहन मालवीय तथा श्रीहनुमानप्रसाद पोद्दार (आदिसम्पादक ‘कल्याण’) उनकी श्रीकृष्णभक्ति से बहुत प्रभावित थे। सनम साहब संत उड़ियाबाबा के प्रति अटूट श्रद्धा रखते थे। वृन्दावन में बाबा के आश्रम में वे प्रतिदिन श्रीकृष्णकीर्तन एवं रासलीला का रसास्वादन करते थे। रासलीला के महत्त्वपर उन्होंने एक पुस्तक भी लिखी थी। सनम साहब का कहना था कि रासलीला में तन्मय होकर कृष्ण एवं राधामय होनेका अवसर अत्यन्त भाग्यशाली व्यक्तिको ही प्राप्त होता है। वृन्दावनमें रासलीला का सास्वादन करते समय श्री कृष्ण-प्रेम में लीन हो वे अश्रुधारा प्रवाहित करने लगते थे। संकीर्तन में वे भक्तजनों के साथ मिलकर नृत्य करने लगते थे। सुविख्यात अंग्रेज श्रीकृष्णभक्त रोनाल्ड निक्सन उर्फ श्रीकृष्णप्रेम-भिखारी से भी उनका निकट का सम्पर्क हो गया था। इन दोनों गैर-हिन्दू श्री कृष्णभक्तों ने देशभर में भक्ति की भागीरथी प्रवाहित करने में भारी योगदान दिया था।

महामना मदनमोहन मालवीय ने सन् १९३९ ई० में सनम साहब को काशी बुलाकर उनसे श्रीकृष्ण भक्ति के विषयमें विचार-विनिमय किया और बड़े प्रभावित हुए।

अन्तमें सनम साहबने अपने इष्टदेव भगवान् श्रीकृष्ण की लीलाभूमि ‘व्रज’-सेवन का संकल्प लिया। वे हर समय यमुनास्नान एवं श्रीकृष्ण के ध्यान में लीन रहने लगे। रूखा-सूखा सात्त्विक भोजन प्रसादरूप में ग्रहण कर लेना तथा बाकी समय संत-महात्माओं की सेवा एवं संकीर्तन में व्यतीत करना—यही उनकी दिनचर्या थी। वे अपने को ‘ब्रजराजकिशोरदास’ नाम से सम्बोधित करने लगे थे। एक दिन उन्होंने वृन्दावन में ही रासलीला का रसास्वादन करते समय अपने प्राण त्याग दिये।

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