न्यायाधीश बंकिमचन्द्र चटर्जी बंगाल के रहनेवाले थे। अंग्रेज सरकार की नौकरी करते हुए भी देशभक्ति की और देशको बन्धनमुक्त करनेकी अग्नि प्रचण्ड वेग से इनके भीतर जला करती थी। राष्ट्रिय गीत ‘वन्दे मातरम्’ जिसपर सहस्रों देशवासियोंका बलिदान हो चुका है, इन्हीं के द्वारा रचित है। ये एक उच्च कोटि के लेखक और कवि भी थे। श्री अरविन्द ने इन्हें ‘भविष्यदर्शी ऋषि’ कहा है।
बंकिमचन्द्र चटर्जी जब वर्दवान में मजिस्ट्रेट थे, उस समय की घटना है। एक ग्रामीण ब्राह्मण का पुत्र कोलकाता में पढ़ता था। वहाँसे उस ब्राह्मण को समाचार मिला कि उसका पुत्र बहुत रुग्ण है। निरीह ब्राह्मण बहुत घबराया और पैदल ही कोलकाता के लिये चल पड़ा। मार्ग में रात हो जानेपर उसने एक ग्राम में ठहरने का निश्चय किया।
उसने एक मनुष्य के द्वारपर जाकर अपना परिचय देकर रातभर विश्राम करने की अनुमति माँगी, किंतु नहीं मिली। वह और भी अनेक व्यक्तियों के पास पहुँचा, किंतु सभी ने मना कर दिया। बेचारा ब्राह्मण बड़ी कठिनाई में पड़ा। एक ओर पुत्र की चिन्ता, दूसरे मार्ग की थकावट और फिर भूख-प्यास तथा गाँववालों का यह अमानुषिक व्यवहार। रात हो जानेके कारण आगे बढ़ना भी उसके लिये सम्भव नहीं था। एक व्यक्ति को कुछ दया आ गयी। उसने उसे अपने यहाँ ठहरा लिया। परंतु ब्राह्मण को इस बातका बहुत आश्चर्य हुआ कि इतने बड़े ग्राममें केवल एक ही व्यक्ति उसे घरपर ठहरानेवाला मिला और वह भी बहुत कठिनाई से। ब्राह्मणने अपने आतिथ्यकार से इसका कारण पूछा। उसने बतलाया कि कुछ दिनों से हमारे ग्राम में अनेक यात्री आये और प्राय: सभी रात्रि में कुछ-न-कुछ चुराकर ले गये। इसलिये हम लोगों ने किसी राहगीर को आश्रय न देनेका निश्चय किया है।
ब्राह्मण भोजन करके लेट गया, किंतु पुत्र की चिन्ता में उसे निद्रा न आयी। वह करवटें बदलता रहा। मध्य रात्रि में उसे अचानक बाहर कुछ आहट सुनायी पड़ी। वह उठ बैठा। उसने बाहर निकलकर देखा कि एक व्यक्ति सन्दूक सिरपर उठाये भागा जा रहा है। उसे संदेह हुआ। वह चोर-चोर चिल्लाता हुआ उसके पीछे भागा और उसे पकड़ लिया। संदूक लेकर भागनेवाला एक सिपाही था। सिपाही ने सन्दूक को रख दिया और चोर-चोर कहकर उलटे ब्राह्मणको ही पकड़ लिया। ग्राम के बहुत-से व्यक्ति इकट्टे हो गये। उन्होंने जब देखा कि पुलिसका सिपाही एक अज्ञात व्यक्ति को पकड़े हुए है और सन्दूक पास में पड़ा है, तब उन्होंने उस ब्राह्मण को ही चोर समझा। उसे थाने में ले जाया गया और उसपर अभियोग चला।
यह अभियोग बंकिमचन्द्र चटर्जी के न्यायालय में गया। दोनोंके वक्तव्य को सुनकर बंकिमबाबू यह तो ताड़ गये कि ब्राह्मण निर्दोष है और सत्य बोल रहा है, किंतु निर्णय देनेके लिये किसी बाहरी प्रमाण की आवश्यकता थी। उन्होंने उस दिनकी कार्यवाही स्थगित कर दी।
दूसरे दिन न्यायालय में एक व्यक्तिने आकर मजिस्ट्रेट बंकिमबाबूसे कहा कि ‘तीन कोस की दूरीपर एक हत्या हो गयी है, लाश वहाँ पड़ी है।’ बंकिमबाबूने तुरंत कटघरे में खड़े हुए पुलिस के सिपाही और ब्राह्मण को आदेश दिया कि तुम दोनों जाकर शव को अपने कन्धोंपर उठाकर ले आओ।’
दोनों बतला ये हुए स्थानपर पहुँचे। वहाँ शव बँधा हुआ रखा था। दोनोंने उसे अपने कन्धोंपर उठाया और चल पड़े। पुलिस का। सिपाही हट्टा-कट्टा था, मौज से ला रहा था। पर ब्राह्मण बहुत दुःखी था, पुत्रकी चिन्ता और इस नयी विपत्ति के कारण बेचारा रो रहा था। उसे रोते देखकर सिपाही ने हँसते हुए कहा-‘कहो । पण्डितजी ! मैंने तुमसे पहले ही कहा था कि मुझे चुपकेसे ले जाने दो, नहीं तो विपत्तिमें पड़ोगे। तुम नहीं माने, अब फल भोगो अपनी करनीका, अब कम-से-कम तीन साल के लिये जेल की हवा खानी पड़ेगी।’
ब्राह्मण बेचारा अवाक् था। न्यायालय को स्थूल प्रमाण चाहिये। प्रमाणस्वरूप पुलिसमैन जो था, जिसने उसे पकड़ा था। ब्राह्मण रोता हुआ न्यायालय में पहुँचा। न्यायालय की आज्ञा से शव न्यायालय में रखा गया और उसके बन्धन खोल दिये गये।
अब अभियोग प्रारम्भ हुआ। जिस समय दोनों पक्षों के बयान हो चुके तो एक विचित्र घटना घटी। वह शव उन वस्त्रों को उतारकर खड़ा हो गया और उसने मार्ग में हुई पुलिसके सिपाही और ब्राह्मणकी बातों को सुनाया। उसकी बातें सुनकर बंकिमचन्द्र ने ब्राह्मण को निरपराध घोषित किया और पुलिसके सिपाहीको चोरी करनेका अपराधी ठहराकर दण्ड दिया।
बंकिमबाबूने चोरी का पता लगानेके लिये स्वयं यह युक्ति निकाली थी और एक विश्वस्त व्यक्ति को मृतक का अभिनय करनेके लिये नियुक्त किया था।
यदि सभी न्यायाधीश सच्चे हृदयसे सत्यकी खोज करनेका । प्रयत्न करें तो अधिकांश अभियोगों में सत्य का पता चल सकता है और सच्चा न्याय हो सकता है।
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