समर्पण के आदर्श प्रतीक गुरु अंगद देव जी (प्रेरक कथा प्रसंग)

Last Updated on August 18, 2019 by admin

गन्दे नाले में गुरु नानक का प्याला गिर गया । उन्होंने अपने शिष्यों की ओर देखा और कहा- ‘इस प्याले को उठाओ।’ शिष्य दौड़े, प्याला उठाने के लिये नहीं मेहतर को बुलाने के लिए । नानक की आँखों में निराशा का भाव उभर आया । जिन शिष्यों को उन्होंने कार्य को ही पूजा समझने तथा स्वावलम्बी बनने का पाठ पढाया था वे ही एक छोटे-से कार्य को करने में हिचक रहे हैं।

परन्तु लहिणा नाम का एक शिष्य उठा और प्याला निकालने के लिए गन्दे नाले में झुका । प्याला नाली में डूब गया, तह में बैठ गया । लहिणा ने अपने कपड़े ऊचे चढ़ाये और नाली में उतर गया । हाथों को गन्दे पानी में डालकर प्याला उठा लिया । इस कार्य में उनके कपड़ों पर कुछ दाग भी लग गये । इतने में दूसरे शिष्य भी मेहतर को बुला लाये थे । गुरु नानक ने सबके सामने लहिणा की प्रशंसा की । दुत्कारा दूसरे शिष्यों को भी नहीं कारण वे समझते थे- जन्म जन्मान्तर के संस्कारों को सीमित अवधि में मिटा सकना सम्भव नहीं है। वे कार्य की पूजा साधना में और अधिक निष्ठा के साथ संलग्न होने के लिए प्रेरित करते रहे।

इसी प्रकार की एक घटना है- लहिणा खेतों में से घास का गट्ठर उठाकर ला रहे थे । उनके कपड़े पर गीली मिट्टी के दाग पड़ गये । गुरु नानक की पत्नी ने गुरु से कहा- ‘आप लहिणा को कैसे कैसे काम बता देते हैं । देखिए उसके कपड़ों पर कितना कीचड़ गिर गया है ।’

यह सुनकर वे मुस्कराये – यह कीचड़ नहीं केसर है जो लहिणा के चरित्र को सुवासित कर देगा और वास्तव में लहिणा जी का जीवन इतना सुगन्धित हो उठा कि गुरु नानक ने अपने बाद उन्हें ही सिक्खों का मार्गदर्शक़ चुना।

यही लहिणा आगे चलकर गुरु अंगद देव के नाम से विख्यात हुए । उनका जन्म सन् १९०४ में पंजाब के फिरोजपुर जिले में हुआ । माता-पिता धार्मिक स्वभाव के थे। उसके साथ बालक लहिणा प्रतिवर्ष दूर देवी दर्शन के लिये जाया करते थे । इसी दर्शन यात्रा में उनका संपर्क एक बार गुरु नानक से हुआ ।

माता दया कौर तथा पिता फेरू जी गुरु नानक के प्रति बड़ी श्रद्धा रखते थे । लहिणा को देखकर गुरु नानक ने उन दम्पत्ति से पुत्र माँग लिया और फेरू जी तथा दया कौर ने इसे गुरु कृपा समझ कर सहर्ष स्वीकार कर लिया । गुरु अंगद देव भी नानक से बड़े प्रभावित हुए । उनके पास रहने के बाद वे बड़ी श्रद्धा तथा निष्ठा के साथ गुरु की सेवा में लगे रहते ।

नानक ने अंगद की हर प्रकार से परीक्षा ली और सेवा साधना की कसौटी पर खरा पाया । उनकी सेवा, निष्ठा की अनेकों प्रेरणाप्रद कथायें साखियों के रूप में प्रचलित हैं । अनुशासन और आज्ञापालन में गुरु अंगद देव की कोई सानी नहीं रखता । समर्पण के वे जीते जागते प्रतीक थे। कठपुतली की तरह अपने गुरु के हाथों का खिलौना बनकर रहने का सिद्धान्त उन्होंने जीवन में पूरी तरह उतार लिया था । सूत्रधार की तरह गुरु जिस प्रकार नचाता उसी प्रकार नाचना- काम करना उनका धर्म हो गया था । अपने इष्ट की इच्छा के अनुकूल रहना, जो आदेश हुआ उसी का पालन,जिस स्थिति में मार्गदर्शक रखना चाहे उसी में सन्तोष समर्पण की यही तो सच्ची स्थिति है । यही कारण है कि गुरु कृपा का लाभ उन्होंने अन्य शिष्यों की अपेक्षा अगणित गुना ज्यादा उठाया था ।

उत्तराधिकार में गुरुपद मिलने के बाद भी उन्होंने नानक जी की शिक्षाओं और आदर्शों को ही महत्त्व दिया । सच्चे धर्म और आस्तिकता के जीवन मूल्यों का प्रचार किया । गुरु नानक ने अपने उपदेश प्रचलित भाषा में दिये थे । उस समय सामान्य जनता में एक पुरानी लिपि जिसे उस समय ‘शारदा’ लिपि के नाम से जाना जाता था, में नानक की वाणी बिखरी पड़ी थी । अंगद देव ने सर्वप्रथम गुरु की शिक्षाओं साखियों को एकत्रित किया और उसे लिपिबद्ध करवाया । यही शारदा लिपि आगे चलकर गुरुमुखी कहलायी। पंजाबी भाषा इसी लिपि में लिखी जाती है । अंगद देव की संकलित साखियों का संग्रह आज जनम साखी के नाम से उपलब्ध है।

गुरु अंगद का सबसे प्रमुख कार्य है लंगर प्रथा को प्रचलित करना । लंगर सामूहिक भोज की तरह होता है । जिसमें सभी वर्ग के ऊँच-नीच, कुलीन-अकुलीन, अमीर-गरीब एक साथ बैठकर एक ही समान खाते हैं । इस परंपरा से सिक्खों में सामूहिकता और सहयोग की भावना का विकास हुआ । बिना किसी प्रकार के भेदभाव के लोग इसमें एक साथ भोजन बनाते हैं । इस प्रथा को चलाकर मानव मात्र एक समान के सिद्धान्त को उन्होंने व्यावहारिक रूप दिया । यद्यपि इस परम्परा का विरोध करने वाले भी उस समय मौजूद थे । ऊँची जातियों के लोग गुरु अंगद की निन्दा करने लगे । उन्हें नानक की पवित्रता और मर्यादा को भंग करने वाला निरूपित किया जाने लगा परन्तु इसकी उन्होंने कोई चिन्ता नहीं की । विरोध के बावजूद भी हजारों लोग उनके लंगर में सम्मिलित होते थे । जो भोजन बचता उसे लोगों के घरों में बाँट दिया जाता ।

उसके बाद भी कुछ बचता तो तालाबों में डाल दिया जाता ताकि मछलियाँ उन्हें खा लें । मानव मात्र ही नहीं जीव मात्र के प्रति समान भावना का उच्चतम विकास उनमें हुआ था।

अपने पिछड़ी मनोवृत्ति के गुरु भाइयों को अंगद देव ने वही प्यार और स्नेह दिया जिसकी परम्परा नानक ने डाली थी । इसी प्रकार की एक घटना है । जोध भाई नामक एक जाति अभिमानी विद्वान् उनके दर्शन करने आये । गुरु अंगद देव चाहते थे कि उनमें अहंकार का दोष न रहे । जोध भाई ने कुछ योग्य सेवा बताने के लिए कहा तो गुरु अंगद ने कह दिया- “लंगर की सेवा करो ।”

जोध भाई के मन में बड़ी ठेस पहुँची परन्तु निष्ठा का उनमें अभाव नहीं था सो लंगर की सेवा में भोजन बनाने से लेकर बरतन साफ करने तक का काम उन्होंने किया । धीरे-धीरे उन्हें अपनी भूल और अहंकार का भान हुआ वे बड़ा पश्चाताप करने लगे । अंगद देव के पास पहुंचे और कहा— “अभिमान के कारण मैं अपने आपको न जाने क्या समझने लगा था । मुझसे बड़ी भूल हुई है ।” ।

अंगद देव ने कहा- कोई चिन्ता नहीं । बर्तन साफ करते-करते अब तुम्हारा हृदय भी साफ हो गया है । चाहो तो इस काम को छोड़ सकते हो ।

जोध भाई ने अपने कार्य के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करते हुए कहा- जिस साधना के परिणाम में मेरा मलीन हृदय स्वच्छ हो गया है उसे कैसे छोड़ दूँ । गुरु अंगद के अन्य कार्यों में सहयोग देते हुए भी जोध भाई ने फिर कभी लंगर सेवा को छोटा नहीं समझा ।

गुरु अंगद देव ने समझा शरीर ही धर्म साधना का आधार है । इसे स्वस्थ रखना ईश्वर की पूजा का प्रथम कृत्य है इसलिए स्वास्थ्य रक्षा के लिए लोगों को श्रम और व्यायाम का अभ्यासी बनाना चाहिए। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए उन्होंने जगह-जगह व्यायामशालायें खोली और अखाड़े बनाये । स्वास्थ्य के प्रति आरम्भ से ही जागरूकता बनी रहे इसके लिए उन्होंने बच्चों को दण्ड-बैठक एवं कुश्ती का अभ्यास कराया । भारतीय समाज में बल की उपासना का भाव जगाने के लिए वे इन व्यायामशालाओं तथा अखाड़ों में स्वयं देखरेख करने जाते । कहते हैं हुमायूँ भी इन अखाड़ों में कुश्तियाँ देखने के लिए आया था तथा गुरु अंगद देव से बड़ा प्रभावित हुआ था । कुछ लोगों का यहाँ तक कहना है कि वह अपने पुत्र को इन अखाड़ों के संरक्षण में देने के लिए भी तैयार हो गया था ।

अपने उपदेशों से उन्होंने लोगों को सदैव इस बात के लिए प्रेरित किया कि वे अपना सर्वस्व मानव सेवा में लगा दें । यहाँ तक कि कल के लिए भी कुछ बचाकर रखना आवश्यक नहीं है । जो भगवान् आज के लिए हमारे निर्वाह का प्रबन्ध करता है कल की व्यवस्था भी वही करेगा । इस सिद्धान्त को उन्होंने स्वयं के जीवन में भी उतार कर दिखाया ।

सन् १५५२ में ४८ वर्ष की आयु में उनका देहान्त हो गया । अपने उत्तराधिकारी उन्होंने अपने शिष्य अमर दास को सिक्खों का तीसरा गुरु बनाया । उनके चुने हुए उपदेश गुरु ग्रन्थ साहब में भी संकलित हैं।

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