गुरु नानक देवजी के पुत्र तपोनिष्ठ महात्मा श्रीचन्द्र (शिक्षाप्रद कहानी)

Last Updated on August 16, 2019 by admin

भगवत भक्ति से ओत-प्रोत योग साधन में कितनी शक्ति होती है । इसका उदाहरण सन्त श्रीचन्द्र के जीवन की अनेक घटनाओं से मिलता है।
महात्मा श्रीचन्द्र गुरु नानक के सबसे बड़े पुत्र थे । उन्होंने अपने पिता से ही योग-साधना तथा भगवत् भक्ति की शिक्षा-दीक्षा ली थी। कुछ समय तक गृहस्थ धर्म में रहकर उन्होंने साधना की और बाद में समय आने पर जब उन्हें सहज वैराग्य हो गया तो वे संन्यासी हो गए । महात्मा श्रीचन्द्र ने एक सौ साल की आयु पायी थी और उनके सामने सिक्खों के छह गुरु गद्दी पर बैठे थे ।

त्यागी महात्मा श्रीचन्द्र :

महात्मा श्रीचन्द्र कितने बड़े त्यागी और योग सिद्ध महापुरुष थे उसके उदाहरण में एक घटना है । गुरुनानक ने शरीर त्याग के कुछ समय पूर्व श्री अंगद देव को गद्दी दे दी थी । श्री अंगद देव स्वयं ही बड़े त्यागी व्यक्ति थे और सदा भगवान् के ध्यान में निमग्न रहा करते थे । गुरु का पद पा लेने के बाद भी वे महात्मा श्रीचन्द्र के पास गये और विन पूर्वक बोले- “आप गुरु के सबसे बड़े पुत्र हैं और बड़े भारी महात्मा हैं । उनकी गद्दी के आप ही सच्चे उत्तराधिकारी हैं। कृपापूर्वक गुरु की गद्दी पर बैठिये और शिष्यों को उपदेश दीजिये !आप गुरु पुत्र हैं और मेरे लिये गुरु के समान ही हैं । गद्दी पर बैठना और शिष्यों को उपदेश देना आपके लिये ही योग्य है ।” ।

श्री अंगद देव की बात सुनकर श्रीचन्द्र प्रेम से विभोर हो उठे और गद्गद कण्ठ से बोले- “हे स्वरूप ! आप मुझसे ऐसा क्यों कह रहे हैं । मुझे तो सारा संसार एक भगवत् रूप ही मालूम होता है । मैं भला लोगों में गुरु और शिष्य का भेद करके उपदेश किस प्रकार कर सकता हूँ। मेरा हृदय तो परमात्मा के अखण्ड प्रेम में डूबकर मतवाला हो चुका है । शिक्षा-दीक्षा देने की योग्यता मुझ में नहीं रह गई है । गुरु की कृपा से आप में यह शक्ति और योग्यता अवश्य है कि आप आवश्यकतानुसार जब चाहें संसार में उतर कर लोगों को उपदेश कर सकते हैं इसलिये गुरु की गद्दी पर आप ही बैठिये और उनका मन्तव्य आगे बढ़ाइए ? श्री अंगद देव ने बहुत कुछ अनुरोध किया किन्तु महात्मा श्रीचन्द्र ने गद्दी पर बैठना स्वीकार नहीं किया ।

वाक् सिद्धि की चमत्कारी घटना :

महात्मा श्रीचन्द्र अधिकतर जंगल में ही रहा करते थे और वहीं आने वाले जिज्ञासुओं को धर्म का उपदेश दिया करते थे । एक बार साप्ताहिक समाधि से उठने के बाद उन्होंने भोजन के नाम पर थोड़ासा गुड़ खाने की इच्छा प्रकट की । एक शिष्य भागा-भागा पास के गाँव में गया और वहाँ के दुकानदार से कहा- “भाई थोड़ा-सा गुड़ दे दो गुरु ने खाने की इच्छा प्रकट की है । बनिये ने समझ लिया कि यह पैसे देने वाला तो नहीं ।” निदान उसने कह दिया कि गुड़ नहीं है । लेकिन उसका बड़ा भारी कोठा गुड़ से भरा हुआ था।

शिष्य ने कहा, “भाई तुम्हारे पास कोठे के कोठे गुड़ भरा है लेकिन तुम थोड़ा-सा देने के लिये झूठ बोलते हो । दुकानदार ने कह दिया उसमें तो मिट्टी भरी है गुड़ नहीं।”शिष्य निराश होकर वापस आ गया और महात्मा श्रीचन्द्र से दुकानदार की शिकायत करते हुये बोला- “महाराज दुकानदार के पास गुड़ के कोठे भरे हैं लेकिन उसने न देने के लिये झूठ बोल दिया और कहा उनमें तो मिट्टी भरी है गुड़ नहीं।”

स्वरूप ! क्या तुमने उसका कोठा खोल कर देखा था । गुरु ने पूछा । शिष्य ने कहा नहीं महाराज ! गुरु ने फिर कहा- तब तुम बिना देखे दुकानदार को झूठा कैसे कहते हो । यह तो ठीक नहीं । क्या ठीक उसके कोठे में मिट्टी ही भरी हो या उसका गुड़ खराब होकर मिट्टी हो गया हो और वह दुकानदार सच बोलता हो । बिना प्रमाण पांये किसी को झूठा कहना भले आदमियों को शोभा नहीं देता ।

बताया जाता है कि जब उस दुकानदार ने दूसरे दिन गुड़ का कोठा खोला तो उसका सारा गुड़ खराब होकर मिट्टी हो गया था । दुकानदार ने अपना परिवार बुलाया और कहा अब इस गाँव से चलो । यहाँ तो ऐसे योगी आ गये हैं कि जो कुछ कह देते हैं वही हो जाता है । दुकानदार गाँव छोड़कर चला गया ।
महात्मा श्रीचन्द्र को जब पता चला तो वे दुःख के मारे रोने लगे और बोले धिक्कार है मुझे जो मेरे भय से एक आदमी गाँव छोड़ गया ! उन्होंने दुकानदार को बुलवाया और कहा, ‘भाई ! तुम गाँव में आ जाओ।” वह बोला महाराज हम संसारी आदमी हैं कहीं फिर कोई गलती हो गई तो आप शाप दे देंगे और हमारा नाश हो जायेगा । श्रीचन्द्र उसे समझाते हुये बोले भाई मैंने तो कोई शाप नहीं दिया तुम्हारे कहे का समर्थन कर दिया था । हो सकता है तुम्हारे वचन तुम्हें फलीभूत हुए हों । तुम गाँव में आ जाओ और अच्छे आदमियों की तरह सत्य और ईमानदारी का पालन करते रहो । मैं क्या किसी महात्मा का शाप तुम्हें नहीं लग सकता । दुकानदार गाँव में चला आया ।

महात्मा श्रीचन्द्र ने समझ लिया कि भगवत् भजन से उनकी वाणी में शक्ति आगई है इसलिये वे आगे किसी के लिये भी कुछ कहने के लिये बहुत सावधान हो गये।

गृहस्थ धर्म व संन्यास धर्म के आदर्श :

इसी तरह एक बार भानाराम नाम का एक आदमी उनके पास आया और बोला- “महाराज ! मेरे पिता घर छोड़कर संन्यासी हुए जा रहे हैं । किसी के समझाने से मानते ही नहीं । आप उन्हें समझा दें तो शायद मान जायें । महात्मा श्रीचन्द्र ने पिता को उनके पास भेज देने के लिए कहकर भानाराम को विदा कर दिया ।”

भानाराम ने घर जाकर पिता से गुरु का संदेश कह दिया । वह बड़ा खुश हुआ । उसने सोचा महात्मा श्रीचन्द्र तो संन्यासी हैं । मेरे संन्यास लेने की बात सुन कर मुझे दीक्षा दे देंगे । वह उनके पास आया और बोला- “महाराज ! मौका आ गया । मेरे लिए क्या आदेश है ? आशा है आप मुझे संन्यास की दीक्षा दे देंगे।” ।

श्रीचन्द्र ने कहा- “पहले तुम एक रात जंगल में रहकर आओ और जो कुछ वहाँ अनुभव हो उसे आकर मुझे बताओ और तब दीक्षा की बात है।” वह व्यक्ति वन में चला गया । सबेरा होने पर गुरु के पास आया । महात्मा श्रीचन्द्र ने उससे उसका अनुभव पूछा । उसने बतलाया- महाराज ! रात को एक पेड़ के नीचे बैठा भजन कर रहा था तभी देखा कि एक कबूतर और कबूतरी सूखी डालियाँ और पत्ते तोड़ तोड़कर मेरे सामने डाल रहे हैं । मैंने उन्हें यों ही एक जगह इकट्ठा कर दिया और फिर भजन करने लगा । थोड़ी देर बाद देखा कि ये दोनों पक्षी एक जलती हुई डाली ले आये और मेरे सामने डाल गये।

कुछ सर्दी थी । मैंने उस आग से वह पत्ते और डालों का ढेर जला दिया और फिर आँख बन्द कर भजन करने लगा । थोड़ी देर बाद फड़-फड़ की आवाज सुनकर मैंने आँख खोली तो देखा कि वे दोनों पक्षी आग में पड़े फड़-फड़ा रहे हैं । मैंने उन्हें निकाला पर वे बच न सके । मैं रात भर उनके शोक में बैठा रहा और प्रभात होने पर आपके पास चला आया ।’

कथा सुनकर गुरु ने कहा- “अब एक रात बस्ती में रहकर आओ और जो अनुभव हो उसे मुझे आकर सुनाओ !” वह व्यक्ति रात भर एक बस्ती में रहा और सबेरे आकर अपना अनुभव महात्मा को सुनाया। वह बोला- “महाराज ! मैंने देखा कि कड़ाके की सर्दी में एक साधु एक स्थान पर नंगा बैठा कुछ ध्यान-सा कर रहा है । एक आदमी उधर से निकला और उससे बोला, इधर से लोगों के घरों की बेटियाँ निकलती हैं और तू नंग-धडंगा बैठा है । जा भाग जा यहाँ से । लेकिन उस साधु ने न तो कोई उत्तर दिया और न उधर गया ही । अपने ध्यान में बैठा रहा । उस आदमी ने उसे पीटा और फिर पैर पकड़ कर पीटता हुआ ले जाकर एक तरफ डाल आया ।तब भी उस साधु ने उससे कुछ न कहा । उसका सारा शरीर घसीटने से लहूलुहान हो गया था !

तभी एक दूसरा आदमी आया और उसने उस साधु की मरहम पड़ी की और उसे एक शाल उढा गया । लेकिन उस साधु ने उसको भी कोई दुआ या धन्यवाद नहीं दिया । उसी प्रकार अपने ध्यान में बैठा रहा । तभी प्रभात हो गया और मैं आपके पास चला आया ।

महात्मा श्रीचन्द्र बोले !’देखो स्वरूप’ जंगल के उस कपोत जोड़े ने तुम्हारे सामने सच्चे गृहस्थ का उदाहरण रखा । उन्होंने देखा कि एक व्यक्ति जाड़े में उनके वृक्ष के नीचे बैठा है । उन्होंने तुम्हारे लिए ईंधन और आग का प्रबन्ध किया और रात में तुम्हारी क्षुधा तृप्ति के लिए अपने को ही आग में डाल कर भून दिया और दूसरा उस साधु ने तुम्हारे लिए एक सच्चे साधु का उदाहरण रखा जो कष्ट तथा सुख में एक जैसा ही रहता है । न तो मारने-घसीटने वाले को बुरा कहता है और न सुख देने वाले को वरदान देता है उसके लिए जिस प्रकार सुख-दुःख समान होते हैं उसी प्रकार दुःख-सुख देने वाले भी समान होते हैं । अब तुम संन्यास अथवा गृहस्थ धर्म जो भी चाहो ग्रहण कर लो।

उस व्यक्ति ने कहा महाराज गृहस्थ धर्म, संन्यास धर्म से मुझे तो ऊँचा लगा है तो वही ग्रहण करूँगा और वह साधु होने का विचार छोड़कर अपने घर चला गया ।

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