महर्षि वसिष्ठ की क्षमाशीलता (शिक्षाप्रद कहानी)

राजा त्रिशंकु के यज्ञमें आमन्त्रण के अवसर पर वसिष्ठपुत्र शक्ति और विश्वामित्र में विवाद हो गया। विश्वामित्र ने शक्ति को शाप दे दिया और उनकी प्रेरणासे ‘रुधिर’ नामक राक्षसने शक्ति ऋषिको खा लिया। महर्षि वसिष्ठके दूसरे निन्यानबे पुत्रों को भी उसने खा डाला। महर्षि वसिष्ठ का एक पुत्र भी नहीं बचा।

महर्षि वसिष्ठ क्षमाकी मूर्ति थे। उनका सिद्धान्त था कि अपने किये हुए कर्मका ही फल भोगना पड़ता है। कोई किसीको मार नहीं सकता। यदि कोई मारता है तो वह अपने किये हुए किसी कुकर्म का परिणाम है।

इसलिये महर्षि वसिष्ठने विश्वामित्र आदि से बदला न लिया, क्षमा कर दिया, किंतु धर्मप्राण लोग वंश के क्षय को नहीं सह पाते; क्योंकि इससे पितरों का कल्याण नहीं होता। इसलिये महर्षि वसिष्ठ बहुत उद्विग्न हो गये। माता अरुन्धती के शोक की सीमा न थी। पुत्रवधू अदृश्यन्ती के दुःखका तो कोई आर-पार ही न था। उसका तो सर्वस्व ही लुट गया था। इस घोर कष्ट में भी कष्ट पहुँचानेवाले के प्रति क्षमाका भाव रखना बहुत बड़ी मानवता है।

महर्षि वसिष्ठ और अरुन्धतीने तो प्राणों को ही त्याग देना चाहा। उनके विचारमें आया कि वंशक्षय के बाद उनका जीना उचित नहीं है। उनकी इस स्थिति को देखकर पुत्रवधू अपना दुःख भूल गयी और अपने सास-ससुर की सँभाल में लग गयी। उस स्थिति को देखकर पृथ्वी माता भी रो पड़ी थीं। अदृश्यन्ती ने चरण पकड़कर सास-ससुर को मनाते हुए कहा-‘आपके वंशका अभी क्षय नहीं हुआ है; क्योंकि आपका पौत्र मेरे गर्भ में सुरक्षित है।

महर्षि वसिष्ठ और माता अरुन्धती आश्वस्त हो गये; किंतु शोक और भय से व्यथित पुत्रवधू के कष्ट से वे दोनों फिर रो पड़े।’

इसी बीचमें महर्षि वसिष्ठ के कानों में वेद की ऋचाओं की ध्वनि आने लगी। वह स्वर बहुत स्पष्ट और मधुर था। तब वे सोचने लगे कि वेदों की इन ऋचाओं का शक्ति की तरह कौन उच्चारण कर रहा है? इसी बीच भगवान् विष्णु प्रकट हो गये। उन्होंने महर्षि वसिष्ठ को आश्वासन देते हुए कहा–’वत्स! तुम्हारे पौत्र के मुखसे ये मधुर ऋचाएँ निकल रही हैं। तुम्हारा वंश डूबा नहीं है। शोक छोड़ो। तुम्हारा यह पौत्र सदाशिव का भक्त होगा और समस्त कुल को तार देगा।’ इतना कहकर भगवान् विष्णु अन्तर्हित हो गये।

महर्षि वसिष्ठ के इसी पौत्र का नाम पराशर रखा गया। बालक पराशर ने गर्भ में ही अपने पिता शक्ति द्वारा शिक्षा पायी थी। पृथ्वीपर आनेके बाद बच्चे की दृष्टि से अपनी माता की हीनता छिपी न रही। उसने पूछा-‘माँ ! तुमने सौभाग्यसूचक आभूषण अपने शरीर से क्यों हटा रखे हैं?’ माता अपना दुःख सुनाकर पुत्र के कोमल हृदयको दुखाना नहीं चाहती थी। वह चुप रह गयी। तब बच्चे ने फिर पूछा-‘माँ ! मेरे पिताजी कहाँ हैं?’ इतना सुनते ही अदृश्यन्ती के धीरज का बाँध टूट गया। वह फूट-फूटकर रोने लगी। तुम्हारे पिता को राक्षस खा गया।’-इतना कहकर वह मूर्च्छित हो गयी। इस दुःस्थिति से महर्षि वसिष्ठ भी बेहोश होकर पृथ्वीपर गिर पड़े। यह करुण दृश्य तेजस्वी बच्चे से सहा न गया। जिस कारण से उसके बूढ़े दादा एवं दादी तथा माता मूर्च्छित हो जायँ, उस कारण पर बच्चे का क्रोधित होना स्वाभाविक था। वह आश्रमवासियों से सब समाचार सुनकर सारे विश्व को ही जला देनेके लिये उद्यत हो गया।

पराशर ने भगवान् शंकर की अर्चना कर शक्ति प्राप्त कर ली और जब पराशर विश्व-संहार की योजना बनाने लगे तब महर्षि वसिष्ठने समझाया- ‘वत्स! तुम्हारा यह क्रोध अयुक्त नहीं है, किंतु विश्व के विनाशकी योजना सही नहीं है। इसे छोड़ दो।’ यह बात बालक की समझमें आ गयी, किंतु राक्षसों से उसका क्रोध नहीं हटा। उसने ‘राक्षस-सत्र’ प्रारम्भ कर दिया। मन्त्र की शक्ति से राक्षस अग्नि में गिर-गिरकर भस्म होने लगे। तब महर्षि वसिष्ठ ने पराशरको पुनः समझाया-‘बेटा ! अधिक क्रोध मत करो, इसे छोड़ दो। कोई किसीको हानि नहीं पहुँचा सकता। अपने कियेके अनुसार ही हानि प्राप्त होती है। अतः किसी पर क्रोध करना अच्छा नहीं है। निर्दोष राक्षसों को जलाना बंद करो। आज से यह अपना सत्र ही समाप्त कर दो। सज्जनों का काम क्षमा करना होता है।’

पराशरने अपने पितामहका आदर कर उस सत्र को समाप्त कर दिया। इस घटना से राक्षसों के आदि कुलपुरुष महर्षि पुलस्त्य बहुत प्रभावित हुए और उस स्थलपर प्रकट हुए। उन्होंने पराशरसे कहा-‘बेटा ! क्षमा ग्रहण कर तुमने वैरको जो भुला दिया है, यह तुम्हारे कुलके अनुरूप ही है। मैं तुम्हें आशीर्वाद देता हूँ कि तुम समस्त शास्त्रों को जान जाओ गे और वरदान देता हूँ कि विष्णुपुराण के रचयिता होगे। मेरी प्रसन्नतासे तुम्हारी बुद्धि प्रवृत्ति और निवृत्ति में निर्मल बनी रहेगी।’ महर्षि वसिष्ठने भी पुलस्त्यके इन वचनों का अनुमोदन करते हुए बालक को साधुवाद दिया।
(लिंगपुराण)

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