Last Updated on July 22, 2019 by admin
वेदों एवं पुराणों में सर्प की पर्याप्त चर्चा है। अथर्ववेद की एक ऋचा है
मा नो देवा अहिर्वधीत् सतोकान्त्सहपूरुषान्।
संयतं न विष्पर व्यात्तं न सं यमनमो देवजनेभ्यः॥
नमोऽस्त्वसिताय नमस्तिरश्चिराजये।
स्वजाय बभ्रवे नमो नमो देवजनेभ्यः॥
सं ते हन्मि दता दतः समु ते हन्वा हनू।
सं ते जिह्वाया जिह्वां सम्वास्नाह आस्यम्॥
(का० ६ सू० ५६ श्लोक १-३)
‘हे विषशमनकर्ता देवगण ! सर्प हमारी तथा हमारे पुत्र-पौत्र-भृत्यादिकी हिंसा न करने पाये। सर्पका मुख दंशके निमित्त न खुले और खुले भी तो मन्त्रशक्तिसे यथावत् रहे। सर्पादिके विषके शमनकर्ता देवताओंको नमस्कार है। तिरछे बलवाले तिरश्चिराज, कृष्णवर्ण असित और बभ्रवर्णके स्वज नामक सर्पोको नमस्कार और इनको वशमें रखनेवाले देवताओंको भी नमस्कार है। हे सर्प ! तेरी ऊपर-नीचेकी दन्त-पंक्तियों को हिलातामिलाता हुआ, ठोढ़ी के ऊपर-नीचेके भागोंको सीता हूँ, तेरी जीभ-से-जीभ मिलाकर ऊपरके मुखभागको नीचे भागसे मिलाता हूँ और अनेक साँपोंके फनको एक साथ बाँध देता हूँ।
✥ साँप का नाम सुनकर ही मनमें भय उत्पन्न हो जाता है। आँकड़ों के अनुसार एक सौ व्यक्ति सर्पदंश से रोज मर जाते हैं। साँपोंकी जातियाँ, किस्में और जन्म-परम्परापर अभी भी खोज जारी है, किंतु इतना तो सही है कि साधारण सर्प की अपेक्षा विषधरोंकी संख्या इस पृथ्वीपर कम है।
✥ साँप शीतरक्तपृष्ठवंशी जन्तु है। इसके शरीर, सिर तथा पूँछ–तीन भाग होते हैं। सर्पोके पाँव नहीं होते (पर पुराणों में २२० पैरोंका वर्णन मिलता है)। उसकी आँखें एक पारदर्शक झिल्लीसे आवृत रहती हैं। कान नहीं होते। सुनने और देखने-दोनों का काम आँखें ही करती हैं। कानोंका काम भी आँखोंसे ही लेनेके कारण उसका एक नाम ‘चक्षुश्रवा’ भी कहा गया है। उसके तलवेमें विषकी थैली होती है।
✥इसका बच्चा महीनोंतक हवा पीकर अपना जीवन धारण करता है। इसीसे इन्हें पवनाशनकी संज्ञा दी गयी है।
✥ज्येष्ठ और आषाढ़मासमें साँपको मद होता है और तभी वह मैथुन करता है। वर्षा-ऋतुके ४ मास बाद सर्पिणी गर्भ धारण करती है। और कार्तिकमें २४० अंडे देती है। अंडा देनेके बाद स्वतः वह अपने अंडोंको खाना प्रारम्भ कर देती है। अन्तमें दयासे कुछ छोड़ देती है। उनमें से जो सोनेकी तरह चमकता हो, उससे पुरुष, ककड़ीकी तरह हरी और लंबी रेखाओंसे युक्त जो अंडा हो, उससे स्त्री और शिरीषके फूलके-से रंगवाले अंडोंमें नपुंसक साँप होते हैं।
✥अंडेसे निकलनेके बाद ही वह बच्चा अपनी माँसे बहुत स्नेह करने लगता है। अंडेसे निकलनेके सात दिन बाद उसका रंग काला हो जाता है। सात दिनों में ही उसके दाढ़े उग आती हैं। २१ दिनों में उसके अंदर विष हो जाता है और २५ दिनों में वह बच्चा प्राण लेने में समर्थ हो जाता है। ६ मासके बाद वह केंचुल छोड़ता है।
✥अकालमें जन्मे साँपमें विष कम होता है। अनिश्चित समयमें जन्मे साँपकी आयु भी करीब ७० वर्षकी होती है। वैसे इनकी आयु १२० वर्ष है।
✥ इनकी मृत्यु आठ तरहसे होती है—मोर, वृश्चिक, मनुष्य, चकोर, बिल्ली, नेवले, तथा सूअरके मारनेसे और गाय-भैसके खुरसे दब जानेपर। यदि उपर्युक्त किसी कारणसे उसकी मृत्यु नहीं हुई तो वह १२० वर्षोंतक जीता है।
✥ जिसके दाँत लाल, पीले अथवा नीले और विषका वेग मन्द हो, वह अल्पायु और डरपोक होता है।
✥ इसी प्रकार साँप आठ कारणोंसे काटता है-दब जानेसे, पूर्वके वैरसे, डरसे, मदसे, भूखसे, विषके वेगसे, संतानकी रक्षाके लिये और कालकी प्रेरणासे ।
✥साँपके १ मुँह, २ जीभे, ३२ दाँत और विषसे भरे ४ दाढ़ें होती हैं।
✥साँपकी दाढ़में सतत विष नहीं रहता। विषका स्थान दाहिनी आँखके समीप होता है। साँप जब क्रोधित होता है, तब विष नाड़ीद्वारा दाढ़में चला आता है।
✥इनमें चार वर्ण होते हैं—ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र।
✥विश्वमें साँपोंकी १७०० जातियाँ पायी जाती हैं। उनमेंसे भारतवर्ष में ३०० जातियोंके साँप पाये जाते हैं।
✥ आयुर्वेदमें भोगी, मण्डली और राजिल–ये तीन प्रकारके साँप बताये गये हैं।
सांप काटने के लक्षण :
• भविष्यपुराण में कश्यप मुनिने गौतम ऋषिसे कालसर्पके द्वारा ड़से गये पुरुषके लक्षण इस प्रकार बताये हैं जिसको काला सर्प ड़स ले, उसकी जीभ भंग हो जाती है, हृदयमें पीड़ा होती है, आँखसे नहीं सूझता, दाँत और शरीर काले हो जाते हैं, मल-मूत्र निकल जाते हैं, गर्दन-कमर टूट जाती हैं, मुँह नीचे झुक जाता है, आँख ऊपर चढ़ जाती है, शरीरमें दाह और कम्पन होने लगता है, शस्त्रसे काटने पर भी शरीरसे रक्त नहीं निकलता, बेंतसे मारनेपर निशान नहीं पड़ता और काटा हुआ स्थान पके जामुनकी तरह नीलवर्ण, फूला-फूला–रक्तसे भरा और कौवेके पैरकी तरह हो जाता है, हिचकी आती है, कण्ठ अवरुद्ध हो जाता है, श्वासगति बढ़ जाती है, शरीरकी चमड़ी पीली हो जाती है, पसीना अधिक आता है, साँपका डसा हुआ व्यक्ति नाकसे बोलने लगता है, उसका ओठ लटक जाता है, हड्डीमें दर्द होता है और हृदय काँपता है, दर्पण या पानीमें प्रतिबिम्ब नहीं दीखता है, सूर्य तेजहीन लगता है, आँखें लाल हो जाती हैं और पीड़ासे सम्पूर्ण शरीर काँपता है। ऐसा व्यक्ति शायद ही बच सके।
• शास्त्रोंके अनुसार अष्टमी, नवमी, कृष्णचतुर्दशी और नागपञ्चमीके दिन साँप काट ले तो उस रोगीके बचनेमें संदेह रहता है। आर्द्रा, आश्लेषा, मघा, भरणी, कृत्तिका, विशाखा, तीनों पूर्वा, मूल, स्वाती और शतभिषा नक्षत्रमें साँपके काटनेसे रोगी प्रायः नहीं बचता। पीपलके पेड़के नीचे, देवालय, श्मशान और बाँमीके पास, संध्या समय, चौराहेपर, भरणी नक्षत्रमें तथा सिर और मर्म-स्थानोंपर जिन व्यक्तियोंको साँप काट ले, उनके लिये तथा अजीर्ण, पित्त और धूपसे पीड़ित व्यक्ति, बालक, वृद्ध और क्षत अथवा क्षुधासे पीड़ित, कुष्ठी, रूक्ष तथा निर्बल व्यक्ति एवं गर्भवती स्त्रीके लिये सर्पविष असाध्य होता है।
• साँप दिनमें, सर्पिणी रातमें और नपुंसक सर्प संध्याकालमें विशेष विषयुक्त होते हैं। विषके प्रथम वेगमें रोमाञ्च होता है, दूसरे वेगमें पसीना और तीसरे में शरीर काँपने लगता है। चौथेमें स्रोतोंका अवरोध होने लगता है। पाँचवें वेगमें हिचकी चलती है, छठेमें गर्दन झुक जाती है और सातवें वेगमें रोगी का प्राण निकल जाता है।
सांप काटने का आयुर्वेदिक उपचार :
1-आँखों के सामने अँधेरा हो जाय और साँप का काटा हुआ व्यक्ति खड़ा न रह सके तो समझना चाहिये कि विष उसकी त्वचामें है। उस समय अकवनकी जड़, चिचड़ी, तगर और प्रयङ्गको पानीमें घोटकर पिलानेसे विषका प्रकोप शान्त हो जाता है।
2-जब त्वचासे विष रक्तमें चला जाता है, तब शरीरमें जलन और मूर्च्छा होती है, ठंडी चीज अच्छी नहीं लगती। उस अवस्थामें उशीर, चन्दन, कूट, तगर, नीलोफर, सिनुआरकी जड़, धतूरेकी जड़, हींग और मिर्च पीसकर पिलाना चाहिये। यदि इससे भी विष शान्त न हो तो कटेरी, इन्द्रायणकी जड़, सर्पगन्धा और वृश्चिककाली–इन सबको घृतमें पीसकर दे। यदि इससे भी विष शान्त न हो तो सिनुआर और हींगका नस्य दे, वही पिलाये और उसीका अञ्जन एवं लेप करे। इस प्रयोगसे रक्तगत विष शान्त हो जाता है।
3-रक्तसे विष पित्तमें प्रवेश करता है, तब रोगी उठकर गिर पड़ता है। शरीर पीला हो जाता है। सभी दिशाएँ एवं वस्तुएँ पीली ही नजर आती हैं। मूर्च्छा और दाह भी होते हैं। ऐसी अवस्थामें पीपल, मधु, महुआ, घृत, तूंबीकी जड़ और इन्द्रायणकी जड़-सभीको पीसकर नस्य, लेप और अञ्जन करे।
4-पित्तसे विष कफमें प्रवेश करता है, तब शरीर जकड़ जाता है, श्वास लेने में कठिनाई होती है। कण्ठमें घर्घर शब्द होने लगता है और मुँहसे लार गिरने लगती है। ऐसी स्थितिमें पीपल, मिर्च, सोंठ, लोध, तुरई और मधुसार–इन सबोंको गोमूत्रमें पीसकर नस्य दे तथा पीनेको दे तो विषका वेग शान्त हो जाता है।
5-जब कफसे विष वातमें प्रवेश करता है, तब पेटमें अफारा हो जाता है। दृष्टि भङ्ग हो जाती है और कुछ नहीं दिखायी देता। तब आलूकी जड़, खिरनी, गज-पीपल, भारंगी, देवदारु, सिनुआर, मधुसार और हींग-सभीको पीसकर गोलीको खाने, नस्यरूपमें लेने और लेप तथा अञ्जन करनेसे विष शान्त हो जाता है।
6-जब वातसे विष मज्जामें पहुँचता है, तब दृष्टि नष्ट हो जाती है। समस्त अङ्ग बेसुध होकर मुरझा जाते हैं। ऐसी स्थितिमें घृत, खाँड़, मधु, चन्दन और खस–सभीको पीसकर पिलाने और नस्य, लेप तथा अञ्जन करनेसे विषका वेग शान्त हो जाता है।
7-मर्मस्थानमें विष पहुँचनेपर सभी इन्द्रियाँ नष्ट हो जाती हैं। काटनेपर रक्त नहीं निकलता, बाल उखाड़नेपर भी कोई पीड़ाका अनुभव नहीं होता। इस दशामें पहुँचे हुए रोगीको मृत्युके वश हुआ समझना चाहिये। सिद्ध मन्त्र और ओषधिसे शायद जीवनकी रक्षा हो जाय।
कुछ अन्य उपचार :
(१) साँपके काटे स्थानसे ४ अँगुल ऊपर डोरीसे कसकर बाँध दें और उस स्थानको दग्ध कर दें तो विषका नाश हो जाता है।
(२) आषाढ़मास में रविवार के दिन यदि सर्पगन्धामूल हाथमें बाँधे तो साँप नहीं काटता।
(३) पुष्य नक्षत्रमें सफेद गदहपुर्नाकी जड़को १० तोला पानी या तण्डुलोदक में घोलकर पीनेसे मनुष्य एक वर्षतक साँपके काटनेसे सुरक्षित रहता है।
(४) मेष राशिपर सूर्यके स्थित होनेपर अर्थात् वैशाखमासमें नीमके २ पत्तों में मसूरके १ दानेको लपेटकर जो व्यक्ति खाय, उसे एक वर्षतक सर्प काटनेकी सम्भावना नहीं रहती।
(५) नागपञ्चमीके दिन जिस घर में विधिपूर्वक नागकी पूजा होती है, उस घरमें साँपका भय नहीं रहता।
(६) कुचिलाकी जड़को तण्डुलोदकके साथ पीसकर नस्य लेनेसे कालसर्पका काटा मनुष्य भी बच जाता है।
(७) सहिजनके बीजका चूर्ण शिरिषके फलके स्वरससे १ सप्ताहतक भावितकर खरल कर रख ले। साँप काटनेपर उसके शुष्क चूर्णका नस्य लेनेसे अथवा अञ्जन करनेसे सर्पदंशका रोगी अच्छा हो जाता है।
(८) ‘रसेन्द्रसारसंग्रह’ में ‘विषवज्रपाती रस’ नामक ओषधि लिखी गयी है। इसे १ माशा मात्रामें लेकर पुरुषमूत्रानुपानसे दिया जाय तो कालसर्पसे काटा गया मनुष्य जिंदा होता है।
(९) १ तोला नीलको १ छटाँक जलमें घोलकर पिलानेसे लाभ होता है। यदि इससे लाभ न हो तो ५ तोला पानीमें नीलको घोटकर जल्दी-जल्दी थोड़ी मात्रासे पिलाते रहना चाहिये। रोगीको सोने नहीं दे,निश्चय लाभ मिलेगा।
(१०) भविष्यपुराणमें एक सिद्ध योग है, जिसे साक्षात् रुद्र कहा गया है जो इस प्रकार है
मयूर, नकुल तथा मार्जार-इन तीनोंका पित्त, छनालिकी जड़, केशर, भार्गवी, कूट, काशमर्दकी छाल एवं उत्पल, कुमुद और कमल-इन तीनोंकी केसरसे सभी दवाइयोंको समान भाग मिलाकर गो-मूत्रमें पीसकर नस्य दे और खानेके लिये भी दे, अञ्जन एवं लेप करे तो काल-सर्पसे भी डसा व्यक्ति शीघ्र ही विषमुक्त हो सकता है।
(११)कौटिल्य (चाणक्य)-ने अपने अर्थशास्त्रमें ‘निशान्तप्रणिधि’ में विषैले जन्तुओंसे रक्षाके उपायमें कहा है
गुडुच, शङ्खपुष्पी, मुस्तक, करोंदा, गाछकी बाँझी आदिको अन्त:पुरमें चारों ओर लगा देना चाहिये। सहिजनके गाछपर जमे पीपलके पत्तोंका वन्दनवार बाँधनेसे अन्त:पुरके भीतर साँप, बिच्छू, विषरूप आदि विषैले जन्तु नहीं रह सकते। बिल्ली, मयूर, नेवला और मृग भी साँपको खा जाते हैं। मैना, तोता भी अन्नमें साँपके विषकी आशङ्का होते ही शोर मचाने लगते हैं। क्रौञ्च पक्षी तो जहरके समीप पहुँचते ही विह्वल हो जाता है। कोयल विषको देखकर मर जाती है। चकोरकी आँख विषको देखकर लाल हो जाती है।
साँप स्वयं आदमीकी आहट पाकर हट जाता है। इसकी गति पवनकी तरह तीव्र होती है। अत: वर्षा अथवा अन्य मौसमों में रातमें चलते-फिरते समय काठकी पादुका या बोलनेवाले जूते पहन लेने चाहिये। झाड़-झंखाड़ अथवा ऊबड़-खाबड़ जमीन तथा केलेके घने बगीचों में अथवा अतिमादक गन्धों और कभी-कभी रेडियोके संगीतसे प्रभावित होकर साँप आस-पास दिखायी पड़ते हैं।
भारतीय धर्म-शास्त्रों में साँपको दूध पिलाने या उसे पूजनेका अर्थ यह भी है कि इन्हें छेड़ा न जाय। छेड़ने अथवा अनजाने में छू जानेपर ये करारी चोट कर बैठते हैं। हर पढ़े-लिखे प्राणीको ऊपर बतायी दवाएँ तो प्रयोगमें लानी ही चाहिये, साथ ही अपने घर और आस-पासको साफ-सुथरा भी रखना चाहिये ताकि साँप आने ही न पाये।
-पं० श्रीगोपालजी द्विवेदी, वैद्य
नोट :- ऊपर बताये गए उपाय और नुस्खे आपकी जानकारी के लिए है। कोई भी उपाय और दवा प्रयोग करने से पहले आयुर्वेदिक चिकित्सक की सलाह जरुर ले और उपचार का तरीका विस्तार में जाने।