महान कूटनीतिज्ञ आचार्य चाणक्य की संक्षिप्त जीवनी

Last Updated on August 7, 2019 by admin

चाणक्य शब्द कान में पड़ते ही मानस-मुकुर पर एक ऐसी मूर्ति प्रतिबिम्बित हो उठती है जिसका निर्माण मानो विद्या, वैदग्ध, दूरदर्शिता, राजनीति तथा दृढ़ निश्चय के पंच तत्त्वों से हुआ था ।

महर्षि चाणक्य एक व्यक्ति होने पर भी अपने में एक पूरे युग थे । उन्होंने अपनी बुद्धि एवं संकल्पशीलता के बल पर तात्कालिक मगध सम्राट् नन्द का नाश कर उसके स्थान पर एक साधारण बालक को स्वयं शिक्षित कर राज्य सिंहासन पर बिठाया ।

मातृ भक्त चाणक्य :

चाणक्य न तो कोई धनवान थे और न उनका कोई सम्बन्ध किसी राजनीतिक सूत्रधार से था । वे केवल एक साधारणतम व्यक्ति- एक गरीब ब्राह्मण थे । बाल्यकाल में चाणक्य में कोई विशेषता न थी । विशेषता थी तो केवल इतनी की वे अपनी माँ के भक्त, विद्या-व्यसनी तथा संतोषी व्यक्ति थे । वे जो कुछ खाने-पहनने को पा जाते उसी में सन्तोष रंखकर विद्याध्ययन करते हुए अपनी ममतामयी माता की सेवा किया करते थे ।

उनकी मातु भक्ति, विद्या व्यसन तथा दृढ़ संकल्प की अनेक कथायें प्रसिद्ध हैं । एक बार, जिस समय वे केवल किशोर ही थे, अपनी माँ को पुस्तक सुनाते हँस पड़े। माता ने उनकी मुंह की तरफ देखा और रो पड़ी ।
चाणक्य को माँ के इस अहेतुक एवं असामयिक रुदने पर बड़ा आश्चर्य हुआ । उन्होंने पूछा- “माँ तू इस प्रकार मेरे मुँह की ओर देखकर रो क्यों पड़ी ?”
माँ ने उत्तर दिया कि “तू बड़ा होकर बड़ा भारी राजा बनेगा और तब अपनी गरीब माँ को भूल जायेगा ।”
चाणक्य ने पुनः विस्मय से पूछा–“पर तुझे यह कैसे पता चला कि मैं राजा बनूंगा ।”
“तेरे आगे के दो दाँतों में राजा होने के लक्षण हैं उन्हें ही देखकर मैंने समझ लिया कि तू राजा बनेगा ” माँ ने चाणक्य को बतलाया ।
चाणक्य ने माँ की बात सुनी और बाहर जाकर पत्थर से अपने वे दोनों दाँत तोड़ डाले फिर अन्दर जाकर माँ से हँसते हुए बोले “ले अब तू निश्चिन्त हो जा, मैंने राज-लक्षणों वाले दोनों दाँत तोड़कर फेंक दिये अब न मैं राजा बनूंगा और न तुझे छोड़ कर जाऊँगा ।”
यह था चाणक्य की ज्वलन्त मातृभक्ति का प्रमाण ।

चाणक्य की शिक्षा :

चाणक्य का परिवार घोर निर्धन था । किन्तु विद्या प्राप्त करने की उन्हें प्रबल इच्छा थी । तक्षशिला उन दिनों देश में बहुत बड़ा विद्या । केन्द्र था माता के न रहने और घरेलू शिक्षा समाप्त करने के बाद चाणक्य पैदल ही तक्षशिला की ओर चल दिये । बिना किसी साधन के ज्ञानपिपासु चाणक्य सैकड़ों मील की पैदल यात्रा करके, मार्ग में मेहनत-मजदूरी तथा कन्द, मूल और शाक-पात खाते तक्षशिला जा पहुँचे ।

चाणक्य तक्षशिला की विद्यापीठ में पहुँच तो गये किन्तु अब । विद्यालय, भोजन, निवास, वस्त्र, पुस्त के आदि की व्यवस्था किस प्रकार हो ? घर से सैकड़ों कोस दूर परदेश में कोई साधारण किशोर हताश होने के सिवाय क्या करता । किन्तु चाणक्य हताश होने नहीं विद्वान् होने के लिए गये थे । निदान सेवा का सहारा लेकर मार्ग निकाल ही तो लिया ।
उन्होंने अनिमंत्रित आचार्यों, अध्यापकों एवं उपाध्यायों की सेवा करनी शुरू कर दी । वे गुरु माताओं के लिये जंगल से लकड़ी ला देते, कुयें से पानी भर देते, बाजार से सौदा ला देते ।
आचार्यों के हाथ से पुस्तकें लेकर उनके पीछे-पीछे विद्यालयों तक पहुँचा आते । अध्यापकों को कक्षा में पानी पिला आते, थके हुए उपाध्यायों के सिर में मालिश कर देते ।

इस प्रकार चाणक्य ने बिना कहे और बिना कोई परिचय दिये | शिक्षकों को अपनी सेवा से इतनी सुविधा पहुँचाई कि उनको ध्यान आकर्षित हुए बिना न रह सका । कुछ समय तो गुरुजन तथा गुरु मातायें चाणक्य को विद्यालय की किसी शाखा का साधारण विद्यार्थी समझकर कोई विशेष ध्यान न देते रहे किन्तु जब उनकी सेवाओं का क्रम इतना बढ़ गया तो वे सोचने लगे कि यह विद्यार्थी जब हर समय सेवा ही में लगा रहता है तब अपना पाठ किस समय पढता होगा ?
इसी उत्सुकता से प्रेरित एक दिन एक आचार्य ने पूछ ही लिया-“बटुक ! तुम इतना समय तो हमारी सेवा में व्यतीत कर देते हो फिर अपना पाठ किस समय याद करते हो ?
चाणक्य ने सजल कंठ से उत्तर दिया कि “भगवन ! मैं विद्यालय का कोई छात्र नहीं हूँ । मगध से यहाँ विद्या प्राप्त करने की आशा से आया था । किन्तु कोई अन्य साधन न होने से गुरुजनों की सेवा को ही अपना साधन बना लिया है। पेट गुरु माताओं की कृपा से भर जाता है, किन्तु आत्मा की भूख तो आप गुरुजनों की कृपा से
ही…..।’ चाणक्य आगे कुछ न कह सके उनका कंठ सँध गया और नेत्र बहने लगे ।

आचार्य का हृदय गद्गद् हो गया और उन्होंने उसे छाती से लगाकर कहा- “वत्स ! तुम्हारी इच्छा की पूर्ति को विधाता भी नहीं रोक सकता । जिसके आचरण में इतना सच्चा सेवा भाव और लक्ष्य के प्रति इतनी गहरी निष्ठा हो उसके लिये संसार में कौन पराया है, कौन-सा मार्ग अवरुद्ध है और कौन-से साधन दुर्लभ हैं ? आज से तू मेरा पुत्र है । घर रहेगा और विद्यालय में पढ़ेगा । इस प्रकार लगनशील चाणक्य ने सेवा के बल पर भाग्य के अवरुद्ध कपाटों को धक्का देकर खोल दिया ।
जन्मभूमि में विद्या प्रचार :

लगभग चौदह वर्ष बाद वैदिक ज्ञान से लेकर राजनीति, अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र एवं अस्त्र-शास्त्र का प्रकाण्ड पांडित्य प्राप्त करने के बाद लगभग छब्बीस वर्ष के तरुण चाणक्य ने अपने महान् विद्या मंन्दिर की पावन धूल माथे पर चढ़ाकर और गुरुजनों से आज्ञा लेकर तक्षशिला से विदा ली- इसलिए कि अब वे मगध जाकर अपनी जन्मभूमि में विद्या प्रचार करेंगे और महाराज नन्द के शासन में सुधार करवाने का प्रयत्न करेंगे जिसकी उसको उस समय नितान्त आवश्यकता थी ।

तक्षशिला से आकर चाणक्य ने पाटलिपुत्र में एक साधारण विद्यालय की स्थापना की, जिसमें वे विद्यार्थियों को नि:शुल्क शिक्षा देते थे । अपनी जीविका की व्यवस्था उन्होंने पिता की उस खेती से कर ली थी जिसे वे बटाई पर उठाया करते थे । चाणक्य की योग्यता ने शीघ्र ही उन्हें प्रकाश में लाकर लोकप्रिय बना दिया ।

सुधारवादी चाणक्य :

जनता में सम्पर्क स्थापित हो जाने पर वे उसके दुःख सुख में साझीदार होने लगे । चाणक्य ने अपने प्रवचनों एवं प्रचार से शीघ्र ही जनमानस में अपने अधिकारों के प्रति जागरूकता ला दी जिससे स्थान-स्थान पर घननन्द की आलोचना होने लगी और जनता का असंतोष एक आन्दोलन का रूप लेने लगा ।

घननन्द को जब इन सब बातों का पता चला तो उसने जनता का विक्षोभ दूर करने और उसे अपने पक्ष में लाने के लिए अनेक दानशालायें खुलवा दीं जिनके द्वारा चाटुकार और राज-समर्थक लोगों को रिश्वत की तरह अन्न, वस्त्र तथा धन का वितरण किया जाने लगा । घननन्द की इस नीति का भी कोई अच्छा प्रभाव जनता पर न पड़ा । पहले जहाँ लोग उसके शोषण से क्षुब्ध थे वहाँ अब धन के दुरुपयोग से अप्रसन्न रहने लगे ।

चाणक्य नन्द की कपट नीति के विरुद्ध खुला प्रचार करने लगे। समाचार पाकर घननन्द ने चाणक्य को वश में करने के लिए दानशालाओं की प्रबन्धक समिति का अध्यक्ष नियुक्त कर दिया ।
चाणक्य ने शासन सुधार की इच्छा से वह पद स्वीकार कर लिया और सारे धूर्त सदस्यों को समिति से निकाल बाहर किया । अनियंत्रित दान को नियंत्रित करके दान पात्रों की योग्यतायें तथा सीमाएँ निर्धारित कर दीं ।

घननन्द को समूल नष्ट करने की प्रतिज्ञा :

चाणक्य के इन सुधारों से नन्द की मूर्खता से पलने वाले धूर्त उनके विरुद्ध हो गए और उसको नीचा दिखलाने के लिए तरह-तरह के षड़यंत्र करते हुए नन्द के कान भरने लगे । निदान घननन्द ने चाणक्य को एक दिन दरबार में बुलाकर उनकी भर्त्सना की और उन्हें चोटी पकड़ कर बाहर निकाल दिया ।

चाणक्य को अपना यह अपमान असह्य हो गया और उनका क्रोध पराकाष्ठा पर पहुँच गया । उन्होंने अपनी खुली चोटी को फटकारते हुए प्रतिज्ञा की कि जब तक इस अन्यायी घननन्द को समूल नष्ट कर मगध के सिंहासन पर किसी कुलीन क्षत्रिय को न बिठाल दूंगा तब तक अपने चोटी नहीं बाँधूगा । चाणक्य चले गये और उनकी प्रतिज्ञा पर नन्द के साथ चाटुकार दरबारी हँसते रहे ।

क्रांतिकारी चाणक्य :

नन्द से अपमान पाकर चाणक्य की विचारधारा बदल गई । अभी तक वे शांतिपूर्ण सुधारवादी थे किन्तु अब घोर क्रांतिपूर्ण परिवर्तनवादी हो गये । अब उनके जीवन का एक ही लक्ष्य बन गया. नन्द के निरकुंश शासन का नाश और मगध के राज-सिंहासन पर किसी सुयोग्य व्यक्ति की स्थापना ।
सबसे पहले चाणक्य ने भारत का एकछत्र सम्राट बनने योग्य किसी उपयुक्त व्यक्ति की खोज शुरू की जिसके फलस्वरूप चक्रवर्ती के लक्षणों से युक्त उन्होंने एक दासी पुत्र प्रतिभावान चन्द्रगुप्त मौर्य को खोज निकाला । चन्द्रगुप्त लगभग सत्तरह वर्ष का एक सुयोग्य,प्रतिभावान, सूक्ष्म दृष्टि एवं दूरदर्शी किशोर था । उसका सुगठित शरीर एवं व्युत्पन्नमति मस्तिष्क शासन एवं शस्त्र संचालन के सर्वथा योग्य था ।

चाणक्य ने तक्षशिला ले जाकर चन्द्रगुप्त का निर्माण प्रारम्भ कर दिया । उन्होंने लगभग दस वर्ष तक चन्द्रगुप्त को शास्त्र, शस्त्र तथा राजनीति की शिक्षा स्वयं दी । राजनीति के क्षेत्र में गुप्तचर से लेकर सम्राट और शस्त्र के क्षेत्र में सिपाही से लेकर सेनापति तक की दक्षताओं, क्षमताओं एवं योग्यताओं को विकसित कर चाणक्य चन्द्रगुप्त को लेकर पुन: देशाटन पर चल दिये ।

चाणक्य की विजय यात्रा :

चाणक्य ने अपने अनवरत प्रयत्न से भारत के पश्चिमी प्रान्तों के बहुत से राजाओं को संगठित करने के साथ चन्द्रगुप्त के लिए भी एक स्वतन्त्र सेना का निर्माण कर दिया । इस प्रकार चन्द्रगुप्त की शक्ति बढ़ाकर चाणक्य ने भारत की राजनीति में सक्रिय हस्तक्षेप करना प्रारम्भ किया । सबसे पहले उन्होंने पंजाब के संगठित राजाओं को सहयोगी बनाकर चन्द्रगुप्त को यूनानियों को भगाने का काम सौंपा । साहसी चन्द्रगुप्त ने यूनानियों को युद्ध में हराकर भारत के पराधीन भू-भाग को स्वतन्त्र करा लिया ।

चन्द्रगुप्त की इस महान् विजय ने उसे भारत के राजाओं के बीच इतना लोकप्रिय बना दिया कि वे उसे अपना नेता और चाणक्य को राजनीतिक गुरु मानने लगे ।

अनन्तर चाणक्य ने बहुत-से राजाओं का आपसी मतभेद तथा विद्वेष अपनी कुशल बुद्धि तथा सूक्ष्म राजनीति के बल पर मिटा, उन्हें चन्द्रगप्त के झण्डे के नीचे खड़ा कर दिया । इस प्रकार विदेशियो को भगाने के बाद चन्द्रगुप्त पंजाब तथा अन्य सीमान्त प्रदेशों के राजाओं की संगठित शक्ति का अगुआ बनकर चाणक्य की देखरेख में मगध की ओर चल पड़ा ।

मगध सम्राट घननन्द का अंत :

यूनानियों को देश से निकाल बाहर करने से चन्द्रगुप्त तथा चाणक्य का यश पूरे भारत में फैल चुका था । जिसके फलस्वरूप मगध तक पहुँचने में मार्ग में पड़े अधिकांश राजाओं ने न केवल चन्द्रगुप्त का स्वागत ही किया बल्कि भावी भारत सम्राट मानकर उसके झण्डे के नीचे आ गये ।

मगध सम्राट घननन्द अपने विलास तथा अन्य दुर्गुणों के कारण अन्दर और बाहर से पूरी तरह जर्जर हो चुका था । जनता तो उससे पहले ही रुष्ट थी । अतएव बहुत कुछ प्रयत्न करने पर भी वह चन्द्रगुप्त को न रोक सका और अन्त में सवंश चन्द्रगुप्त के हाथों मारा जाकर सदा के लिए नष्ट हो गया ।

चाणक्य ने विधिवत अपने हाथ से चन्द्रगुप्त मौर्य को सम्राट पद पर अभिषिक्त करके सन्तोषपूर्वक अपनी चोटी बाँधते हुए कहा-

“कोई साधन न होने पर भी मेरी प्रतिज्ञा पूरी हुई, राष्ट्र विदेशी प्रभाव से मुक्त हुआ और देश में एक-छत्र साम्राज्य की स्थापना हुई । किस प्रकार ? केवल एकनिष्ठ कर्तव्यशीलता, आत्मविश्वास, अविरत प्रयत्न तथा सत्य के पक्ष में रहने के बल पर । चन्द्रगुप्त ! जब तक तुम में न्याय, सत्य, आत्मविश्वास, साहस एवं उद्योग के गुण सुरक्षित रहेंगे, तुम और तुम्हारी सन्तानें इस पद पर बनी रहेंगी। और यदि तुम और तुम्हारी सन्तानें इन गुणों से विरत हुई तो पतन का उत्तरदायित्व देश काल अथवा परिस्थितियों पर नहीं तुम पर और तुम्हारी संतानों पर होगा ।”

एक बार वे नंगे पैरों कहीं जा रहे थे । रास्ते में उगे हुए कुश कंटकों से उनके पैरों में लहू निकल आया । उन्होंने उन कंटकों को जड़मूल से नष्ट करके ही आगे कदम बढ़ाया ।
दुर्बल नन्द वंश को हटाकर चन्द्रगुप्त मौर्य को सम्राट बनाने को सारा चक्रव्यूह ऐसी कुशलता से और दूरदर्शिता के साथ तैयार

किया कि वह सफल होकर ही रही । यद्यपि चन्द्रगुप्त को इस बात की पूर्ण आशंका बनी हुई थी कि उसकी सीमित शक्ति नन्द-वंश का मुकाबला न कर सकेगी । सीधे आक्रमण का साहस न हो रहा था । अन्त में उसने अपनी आशंका गुरु कौटिल्य से व्यक्त कर ही दी । महापंडित कौटिल्य को पद्मानन्द की आन्तरिक कमजोरियों का पता ‘था शिष्य के अधीर वचन सुनकर वे मुस्कराये फिर गम्भीर वाणी में बोले- “इन्द्रियवशवर्ती चतुरंगवानापि विनश्यति” अर्थात् ‘‘किसी के पास विशाल चतुरंगिणी सेना हो, किन्तु चरित्र न हो तो अपनी इस दुर्बलता के कारण वह अवश्य नष्ट हो जाता ।” चन्द्रगुप्त गुरुदेव के आशय को समझ गया । उसने मगध पर आक्रमण कर दिया और विजय भी पाई ।

नालन्दा विश्वविद्यालय का जीर्णोद्धार :

चाणक्य इस साम्राज्य के प्रधानमन्त्री थे । शासन सूत्र का संचालन करते थे और अपनी महान् योजनाओं को कार्यान्वित करने के लिए चन्द्रगुप्त का उपयोग करते थे । नालन्दा विश्वविद्यालय का जीर्णोद्धार उन्होंने कराया और मनीषियों को प्रचुर परिमाण में उत्पन्न करने और उन्हें देश-देशान्तरों में भेजने का कार्य भी उतना ही महत्त्वपूर्ण था, जितना राजतंत्र का विस्तार । प्रशासनिक और सांस्कृतिक विस्तार के लिए मनीषियों की आवश्यकता भी कम महत्त्व की नहीं है सो उन्होंने इस विश्वविद्यालय के माध्यम से सांस्कृतिक साम्राज्य के विस्तार को भी पूरी तत्परता के साथ संचालित किया ।

चाणक्य द्वारा रचित ग्रन्थ :

चाणक्य ने अनेक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ लिखे हैं । ‘कौटिल्य’ इस नाम से उन्होंने अर्थशास्त्र की रचना की जिसे आज भी समस्त संसार में अति महत्त्वपूर्ण माना जाता है ।

तपस्वी सरल जीवन :

आत्म साधना, साम्राज्य, नालन्दा विश्वविद्यालय, अर्थशास्त्र सृजन, बहुमुखी गतिविधियों का संचालन करते हुए चाणक्य ने अपनी हिमालय जैसी ऋषि परम्परा को अक्षुण्ण ही रखा । वे लोभ-मोह से सर्वथा दूर रहे । उनका रहन-सहन, आहार विहार वैसा ही रहा जैसा तपस्वियों का होता है । प्रचुर साधन उनके हाथ में थे पर उन्होंने अपने लिये उनमें से नहीं के बराबर ही उपयोग किया । लोक-मंगल में निरत जन-सेवकों का निर्वाह न्यूनतम स्तर .. | का ही होना चाहिए इस आदर्श को उन्होंने सदा ध्यान में रखा ।

अपनी झोंपड़ी में वे नित्य पैदल चलकर जाते थे और वहीं अपना साधन नित्य कर्म सम्पन्न करते थे। उनके निजी रहन-सहन का वर्णन इस प्रकार मिलता है-

उपलशकल मेंतभेदकं गोमया नाम् ।
बटुभिराहतानां बर्हिवां स्तोम एषः ॥
शरण पनि समिभः शुष्कमाणाभिरामः ।।
विनमित पटलान्तं दृष्यते जीर्ण कुड्यम् ॥

गोबर से लिपी हुई, कच्ची फूस की झोंपड़ी, कुशाओं का गट्ठा ,उपला तोड़ने का पत्थर, हवन समिधाएँ, यही उस महा ब्राह्मण की सम्पत्ति थी ।

प्राचीनकाल की ऋषि परम्परा का पुनरुद्धार करने वाले चाणक्य ने आन्तरिक जीवन और भौतिक साधनों पर समान रूप से ध्यान रखा ।

दोनों पक्षों को प्रखर बनाने की समन्वयात्मक योजना को कार्य रूप में परिणत किया । वे जानते थे कि एकाकी वैभव विज्ञान दोनों ही अन्धे-लंगड़े की तरह अधूरे हैं । दोनों का समन्वय किया जाना चाहिए और ब्रह्म क्षात्र को परस्पर एक-दूसरे का पूरक होकर रहना चाहिए ।

आज महर्षि चाणक्य द्वारा प्रतिपादित इस तथ्य को अपनाये जाने की आवश्यकता है । अस्त-व्यस्त ‘ब्रह्म’ और नष्ट-भ्रष्ट ‘क्षात्र’ यह इकड़े हो सकें, भौतिकता और आध्यात्मिकता के पृथक् पड़े पहिये यदि एक हाथ से जोड़े जा सकें तो सर्वतोमुखी प्रगति के दृश्य फिर उसी तरह दीख पड़ सकते हैं जैसे चन्द्रगुप्त और चाणक्य के समन्वय से उन दिनों दिखाई पड़ते थे ।

नीतिसार के रचयिता कामन्तर ने महर्षि चाणक्य की विशेषता और महानता का वर्णन करते हुए लिखा है-

जातवेदा इवार्चिष्मान् वेदान् वेदविदांवरः ।
यो बीतवान् सुचतुरश्चतुरोप्येकंवदेत् ॥
नीतिशास्त्रामृतं धीमानर्थशास्त्रमहोदधेः ।
समुदधै नमस्तस्मै विष्णुगुप्ताय वेधसे ।

अग्नि जैसे तेजस्वी, महान् आत्मा, वेदों के मर्मज्ञ, अति प्रतिभाशालीन, अर्थशास्त्र के उद्धारक, नीति निर्माता महर्षि विष्णुगुप्त (चाणक्य) का अभिवादन ।

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आगे पढ़ने के लिए कुछ अन्य सुझाव :
• धनुर्धारी वीर अर्जुन (अजय महायोद्धा)
• सेवा की महक – ईश्वरचंद्र विद्यासागर
• सरदार अजीत सिंह एक गुमनाम योद्धा

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