Last Updated on July 22, 2019 by admin
षट्कर्म क्रिया क्या है ? / इसका महत्त्व : shatkarma kriya kya hai
शरीरस्थ विषाक्त द्रव्यों को बाहर निकालकर, उनकी आन्तरिक सफाई हेतु षट्कर्मों का प्रयोग किया जाता है । इनसे शरीर का सुचारू रूप से संचालन संभव होता है। ये क्रियाएँ ‘हठ-योग’ के अन्तर्गत मानी जाती हैं।
षट् कर्मों के नाम निम्नांकित हैं –
1. नेति,
2. धौति,
3. बस्ति,
4. नौलि,
5. कपालभाति और
6. त्राटक।
यद्यपि ये क्रियाएँ सरल हैं तथापि इनका अभ्यास केवल पुस्तक में पढ़कर करने में कठिनाई हो सकती है। अतः इनका प्रारम्भ किसी सुयोग्य अनुभवी गुरु (हठयोगी) की देख-रेख में ही करना उचित है।
१- नेति क्रिया :
नेति दो प्रकार की होती है-1. सूत्रनेति और 2. जलनेति ।
सूत्रनेति –
कच्चे सूत का मुलायम बिना गाँठ वाला तथा बँटा हुआ एक लम्बा धागा लें । उसके एक सिरे को हाथ में पकड़े रखें और दूसरे सिरे पर उसी की एक छोटी गेंडुली-सी बना लें । जो नासा-छिद्रों में आसानी से जा सके। फिर उस गेंडुली को उस नासा-छिद्र में रखें, जिसमें होकर श्वास चल रही हो। गेंडुली को धीरे-धीरे भीतर की ओर सुड़कते हुए दीर्घ श्वास लेते रहें। ऐसा करने से वह सूत की गेंडुली नासाछिद्र में प्रविष्ट होकर मुख मार्ग से निकल जाएगी। इसी विधि द्वारा दूसरे नासा-छिद्र में भी सूत के दूसरे सिरे को प्रविष्ट कराएँ। जब वह भी बाहर निकल आए तब दोनों सिरों को पकड़कर कुछ देर तक धीरे-धीरे इस प्रकार चलायें कि भारी कष्ट का अनुभव न हो । उक्त क्रिया से दोनों नासा छिद्रों और मस्तिष्क की सफाई हो जाती है।
जलनेति-
एक टोंटीदार बर्तन में गुनगुना पानी लेकर थोड़ा-सा नमक मिलाएँ। फिर माथे को थोड़ा-सा पीछे की ओर झुकाकर जिस नासा छिद्रा से श्वास चल रही हो उसमें अथवा बाँये नासा छिद्र में उस बर्तन की टोंटी लगा दें तथा इससे निकलने वाले पानी को बिना किसी रुकावट के थोड़ा-सा नाक के भीतर सुड़कें और उसे मुख द्वारा बाहर निकाल दें । यही क्रिया दूसरे नासारन्ध्र से भी करें । तदुपरान्त ‘भस्त्रिका प्राणायाम’ को करके नाक को अवश्य सुखालें ।
नेति क्रिया से होने वाले लाभ-
नेति की उपरोक्त दोनों क्रियाओं से सर्दी, खाँसी, छींक, आँख, नाक और कान के समस्त रोगों में लाभ होता है तथा मस्तिष्क सक्रिय होकर बुद्धि और विवेक विकसित होते हैं। इस क्रिया द्वारा नाक तथा मस्तिष्क की भली-भाँति सफाई हो जाने से सुषुम्ना को जाग्रत करने में भी सहायता मिलती है।
२- धौति क्रिया :
लगभग सवा अथवा डेढ़ किलो गुनगुना पानी लेकर उसमें लगभग 10 ग्राम नमक मिला दें। फिर उस पूरे पानी को धीरे-धीरे पीएँ । तत्पश्चात् अपने हाथ की तर्जनी और मध्यमा-इन दो अँगुलियों को जीभ पर रगड़ें। ऐसा करने से वमन (कै या उल्टी) होगी तथा उससे पेट का सारा पानी बाहर निकल आएगा।
उक्त क्रिया को 7-8 दिन के अन्तर से दोहराना चाहिए।
धौति क्रिया से होने वाले लाभ –
धौति की उक्त क्रिया से-श्वास नली, नाक, कान, आँख, पेट तथा आँतों की भली भाँति सफाई हो जाती है तथा बवासीर, भगन्दर जैसे गुप्तरोग एवं मानसिक बीमारियों में लाभ होता है।
३- बस्ति क्रिया :
किसी बड़े बर्तन में पानी भरकर उसमें कमर तक जल में बैठ जाएँ तथा दोनों पैर फैलाकर एक 4 इंच लम्बी तथा लगभग आध इंच व्यास की पोली नली गुदा मार्ग में प्रविष्ट कर, अश्विनी मुद्रा बनाएँ। इस क्रिया में गुदा संकुचन द्वारा पानी ऊपर को चढ़ाया जाता है अर्थात् गुदा द्वारा पानी को बार-बार ऊपर (गुदा के भीतर) खींचने की प्रक्रिया की जाती है। फिर ‘नौलिक्रिया’ द्वारा पेट की आँतों को इधर-उधर घुमाते हुए मन्थन किया जाता है तथा अन्त में ‘मयूरासन’ द्वारा पेट पर शरीर का पूरा दबाव डालकर सम्पूर्ण जल को ‘दस्त’ (मल-विसर्जन) के रूप में, गुदा मार्ग से ही बाहर निकाल दिया जाता है।
बस्ति क्रिया से होने वाले लाभ –
यह क्रिया योगियों के लिए ‘एनिमा’ जैसी है। इससे बड़ी आँत की सफाई होकर पेट स्वच्छ और मुलायम हो जाता है।
४-नौली कर्म :
नौलि कर्म को करने से हमारे पेट के सभी रोग दूर हो जाते हैं। नौलि कर्म में पेट की मांसपेशियों को दाएं-बाएं व ऊपर-नीचे चलाया जाता है, जिससे पेट की मांसपेशियों की मालिश होती है। इसे करते समय आंखों को पेट पर टिकाकर रखें। इस क्रिया का षट्कर्मों में महत्वपूर्ण स्थान माना गया है।
नौलि कर्म की विधि :
• नौलि कर्म के लिए पहले सीधे खड़े हो जाएं व अपने दोनों पैरों के बीच १ या २ फीट की दूरी रखें। अब आगे झुककर दोनों हाथों को घुटनों पर रखकर खड़े हो जाएं। अब अपनी आंखों को पेट पर टिकाकर उड्डीयान बंध करें।
• सांस को बाहर छोड़ कर पेट को बार-बार फुलाएं तथा पिचकाएं। इस क्रिया को १२ दिनों तक करें।
• इसके बाद अभ्यास करते समय सांस छोड़ते हुए पेट को खाली करें और फिर पेट को ढीला छोड़ते हुए मांसपेशियों को अन्दर की ओर खींचें और नाभि को भी अन्दर की ओर खींचें। फिर पेट के दाएं-बाएं भाग को छोड़कर बीच वाले भाग को ढीला करें। पेट के बीच में नलियां निकालने की कोशिश करें।
• इसके बाद सांस अन्दर लें और फिर सांस छोड़कर नौली निकालने की कोशिश करें। इस तरह पेट की मांसपेशियां सिकोड़कर नलियों की तरह बन जायेगी। अब सांस लेते और छोड़ते हुए नालियों (पेट में उभरी सभी नलियां) को दाईं जांघ पर जोड़ देकर दाईं ओर करें और फिर बाईं जांघ पर जोर देकर बाईं ओर करें। इस तरह नलियों को दोनों ओर लौटाने की क्रिया 3-3 बार करें। इसका अभ्यास होने के बाद नलियों को बाईं ओर ले जाकर ऊपर की ओर करें और फिर दाईं ओर लाकर नीचे की ओर करें। इस तरह इसे फिर बाईं ओर लाकर नीचे की ओर और दाईं ओर लाकर ऊपर की ओर करें। इस प्रकार से मांसपेशियों को घुमाने से एक चक्र पूरा हो जायेगा। इस प्रकार से इस क्रिया में नलियों को घुमाने की गति को तेज करते हुए इसे अधिक से अधिक बार घुमाने का प्रयास करें।
सावधानी –
नौलि कर्म को शौच जाने के बाद तथा भोजन करने से पहले करें। इस क्रिया को प्रातः काल करना लाभकारी होता है। नौलि कर्म कठिन है इसलिए इसे सावधानी से और किसी योग के शिक्षक की देखरेख में करें। पेटदर्द, डायरिया तथा पेट की कोई भी अन्य बीमारी होने पर इसका अभ्यास न करें। अल्सर, आंतों के विकार व आंतों में सूजन होने पर इसका अभ्यास हानि पहुंचा सकता है।
नौलि क्रिया से रोगों में लाभ –
नौलि कर्म से पेट की सभी मांसपेशियों की मालिश हो जाती है, जिससे पेट के कीड़े खत्म होते हैं। इसके अभ्यास से आंते मजबूत होती है, ज्वर, यकृत, वृक्क, तिल्ली (प्लीहा) का बढ़ना, वायु गोले का दर्द आदि रोग नहीं होते हैं। यह वात, पित्त व कफ से उत्पन्न होने वाले रोगों को दूर करता है। यह आंतों को साफ कर मल को निकालता है, कब्ज को दूर करता है तथा वायु को वश में करता है। यह क्रिया पाचन शक्ति को बढ़ाता है, अजीर्ण को खत्म कर भूख को खुलकर लाता है। मोटापा घटाता है, मन को प्रसन्न रखता है तथा शरीर को स्वस्थ बनाए रखता है। यह मंदाग्नि को खत्म कर जठरग्नि को बढ़ाती है तथा कमर दर्द को दूर करती है।
यह आसन स्त्रियों के लिए भी लाभकारी होता है। इससे मासिकधर्म संबंधित बीमारियां दूर होती हैं।
५- कपाल-भाति :
पद्मासन में बैठकर जल्दी-जल्दी श्वास लें और छोडें । श्वास छोड़ने की क्रिया का निरन्तर निरीक्षण करते रहें। ‘पूरक’ की अपेक्षा ‘रेचक’ में केवल एक तिहाई समय ही लगाएँ। रेचक इतनी शीघ्रता से किये जाएँ कि उनकी संख्या क्रमशः बढ़ती हुई 1 मिनट में 120 तक जा पहुँचे। पूरक तथा रेचक के समय केवल उदर-पेशियों में ही हरकत हो तथा वक्षःस्थल की पेशियाँ संकुचित बनी रहें। इस क्रिया में बीच में तनिक भी विराम न हो । आरम्भ में एक सेकेण्ड में एक रेचक तथा बाद में दो और तीन रेचक करने चाहिए। प्रातः और सायं 11-11 रेचकों के चक्र चलाते हुए प्रति सप्ताह एक चक्र की वृद्धि करनी चाहिए। प्रत्येक चक्र के बाद थोड़ा विश्राम (सामान्य श्वासोच्छ्वास) भी उचित है। चक्र पूरा करने से पहले रुकना नहीं चाहिए।
कपाल-भाति से होने वाले लाभ –
इस अभ्यास से कपालस्थ नासा-छिद्रों तथा श्वसन संस्थान के अन्य सभी भागों की सफाई हो जाती है। प्राणवायु की अधिकाधिक प्राप्ति से शरीरस्थ विषाक्त तत्त्व बाहर निकल जाते हैं। पेट की पेशियों तथा उनसे सम्बन्धित अंगों की मालिश हो जाती है। धमनी की क्रियाशीलता बढ़कर रक्त शुद्ध हो जाता है। श्वास नली तथा मस्तिष्क की भली-भाँति सफाई हो जाती है । पर्याप्त शक्ति लगाने के कारण पसीना आने से सम्पूर्ण शरीर स्वच्छ हो जाता है। इसका नियमित रूप से प्रतिदिन अभ्यास करने से मुख-मण्डल चमकने लगता है।
६- त्राटक :
इस क्रिया में रीढ़ की हड्डी को सीधा रखते हुए पद्मासन से बैठकर बिना पलक झपकाए नासाग्र तथा भूमध्य भाग पर एकटक देखते रहने का अभ्यास बढ़ाया जाता है। ऐसा करते समय आरम्भ में पलकें जल्दी-जल्दी झपकाई जाती हैं परन्तु धैर्य तथा दृढ आत्म विश्वास के साथ पलक झपकने के अनन्तर आँखों को थोड़ा विश्राम देकर अभ्यास को बढ़ाते जाना चाहिए। जब नासाग्र तथा भूमध्य भाग पर दृष्टि स्थिर होने लगे तब अपनी आँखों की सीध में लगभग 2 फुट की दूरी पर किसी छोटे बिन्दु को निश्चित कर उस पर ध्यान जमाने का अभ्यास करना चाहिए। रात्रि के समय घृत अथवा अरण्डी के तेल का दीपक जलाकर उसकी लौ पर तब तक त्राटक निर्निमेष दृष्टि से देखने का अभ्यास करना चाहिए। जब तक कि आँखों से आँसू न गिरने लगें । आँसू निकलने पर थोड़ा-सा विश्राम करने के बाद पुनः यही अभ्यास दोहराना चाहिए। जब दीपक की लौ पर दृष्टि स्थिर हो जाए तब अपने से 2 फुट की दूरी पर एक दर्पण आँखों की सीध में रखकर उसमें अपनी आँख के प्रतिबिम्ब वाली पुतली के मध्य-बिन्दु पर दृष्टि जमाने का अभ्यास करना चाहिए। फिर रात्रि में चन्द्रमा पर दृष्टि जमाने का अभ्यास करें। जब पर्याप्त समय तक निर्निमेष दृष्टि से देखने का अभ्यास हो जाए तब ऊषाकाल में किसी बगीचे में बैठकर किसी विकसित पुष्प पर दृष्टि जमाने का अभ्यास करें । उक्त प्रकार से बिना पलक झपकाए दृष्टि जमाने के अभ्यास को निरन्तर बढ़ाते जाना चाहिए।
त्राटक से होने वाले लाभ –
उक्त अभ्यास से आँखों के रोग नष्ट होकर दृष्टिशक्ति तीव्र होती है। मन शान्त होता है। इच्छाशक्ति तीव्र होती है और प्राणवायु सुव्यवस्थित बनी रहती है। त्राटक का अभ्यास सिद्ध हो जाने पर अभ्यासी व्यक्ति अपनी इच्छाशक्ति को दृढ़ बनाकर जिस किसी प्राणी की आँखों-से-आँखें मिलाकर उसे जो भी आदेश देता है, उसका पालन करने के लिए वह बाध्य हो जाता है।
हिप्नोटिज्म तथा सम्मोहन क्रिया के साधकों के लिए ‘त्राटक’ में पारंगत होना अति आवश्यक है
।
विशेष-हठ-योग के उक्त षटकर्म ‘कुण्डलिनी जागरण में भी सहायक सिद्ध होते हैं।