Last Updated on May 16, 2020 by admin
ईश्वर ने जीवमात्र को आहार का विवेक दिया है, पर मनुष्य को विशेष रूप से प्रदान किया है। बकरी आक खा लेती है, पर भैंस नहीं खायेगी। चील मांस खा लेती है, पर कबूतर नहीं खायेगा। आहार का केवल स्वास्थ्य की दृष्टि से ही नहीं, अनेक दृष्टिकोणों से विचार करना चाहिये, जैसे-भौगोलिक, आध्यात्मिक तथा नैतिक। मात्र मनुष्य ही विवेक का सदुपयोग कर इन पर विचार कर सकता है।
हमें कितना खाना आवश्यक है और हमारा संतुलित भोजन कैसा होना चाहिये-इसपर विचार करें।
- जो लोग बुद्धिजीवी हैं, जिन्हें अधिक श्रम नहीं करना पड़ता जैसे कार्यालय में काम करने वाले अथवा सेवानिवृत्त, उनको अधिक मात्रा में भोजन की आवश्यकता नहीं है। पर आदत से विवश होकर वे मात्रा का संतुलन नहीं करते, जिससे मोटापा बढ़ता जाता है, पाचनशक्ति उचित रूप से काम नहीं करती है और वे पेट के अनेक रोगों से ग्रस्त हो जाते हैं। ऐसे व्यक्ति साधन-भजन भी नहीं कर सकते। पर जो लोग कारखाने में अथवा खेतों आदि में काम करते हैं, उनके भोजन की मात्रा अधिक होनी चाहिये। पर प्रायः विपरीत अवस्था ही देखी जाती है, इसलिये धनी लोगों में रोग-मोटापा विशेष पाया जाता है। हमारी पाचन-क्रियाकी क्षमता भी सीमित है, इसलिये क़ब्ज़, गैस, अपच की बीमारी हो जाती है।
- हम उचित रूप से भोजन करना और श्वास लेना भी नहीं जानते। जो व्यक्ति उचित ढंग से श्वास लेता है, प्राणायाम करता है, उसकी खुराक कम होती है। इसी तरह जो खूब चबा-चबाकर भोजन करता है, उसकी पाचनशक्ति ठीक रहती है। आज भोजन करने में तो कम, पर बेकार बातचीत करने आदि में समय अधिक लगाते हैं। इससे अपच होना स्वाभाविक है।
- बहुत गरम मसालेवाला भोजन अथवा बहुत ठंडा भोजन भी आँतोंपर घाव करता है और अनेक प्रकारके रोगोंका कारण बनता है।अनियमित भोजन स्वास्थ्यके लिये हानिकारक है। इससे पाचन-क्रियामें गड़बड़ी होती है।
- ठीक समयपर, ठीक स्थानपर बैठकर, चिन्तारहित होकर, शान्त वातावरणमें धीरे-धीरे चबाकर भोजन करना स्वास्थ्यवर्धक है।
- भोजन सात्त्विक होना चाहिये। मसालेवाली, तली हुई गरिष्ठ वस्तुएँ और अनेक प्रकारके व्यञ्जन, अधिक मिठाई, खटाई,चटपटे एवं नमकीन भोजन स्वास्थ्यके लिये हानिकारक हैं।
- अधिकांश बीमारियाँ अतिभोजनके कारण होती हैं।भोजन में स्वाद को अधिक महत्त्व दिया जाता है। तथा स्वाद में प्रियता और अस्वाद में अप्रियताका भाव हमने जोड़ रखा है।
- चीनी, नमक और चिकनाई ये तीनों भोजन के अनिवार्य अङ्ग बन गये हैं। बहुत चीनी का प्रयोग भी न हो। अधिक चीनीसे पेट, मोटापा और कृमि-रोग हो जाते हैं।
- बहुत चिकनाई लीवर, हृदय-रोग और मोटापा का कारण बनती है।
- अधिक नमक खाने से हृदय-रोग, गुर्दे के रोग, रक्तचाप, चर्म-रोग आदि पनपते हैं। नमक जो खनिज है, कृत्रिम है और जो नमक शाक, भाजी और फलों में मिलता है वह प्राकृतिक लवण है, वह लाभदायक है। शरीरकी आवश्यकताके लिये यह नमक काफी है। उच्च रक्तचाप और गुर्देकी बीमारियोंका कारण भोजनमें अधिक नमक का प्रयोग ही है। आज तो नमक नहीं हो तो स्वाद नहीं, फिर भोजन ही कैसा? भोजन में नमक का प्रयोग कम हो तो अनेक शारीरिक बीमारियाँ कम हो जायें। नमक छोड़ना केवल स्वास्थ्य के लिये ही नहीं, साधना के लिये भी उपयोगी है। नमक कृत्रिम ढं गसे उत्तेजना पैदा करता है। अधिक नमक का प्रयोग साधना के लिये विघ्न है और स्वास्थ्य के लिये भी वर्जित है। एक साथ बहुत ज्यादा वस्तुएँ खानेसे बहुत बीमारियाँ हो सकती हैं। पेटमें बहुत तरहके व्यञ्जन हानिकर हैं।
- जैसे शरीरके लिये कृत्रिम नमक उपयोगी नहीं है, वैसे ही चीनी भी उपयोगी नहीं है। चीनी तो सहज ही चावल, रोटी, दूध आदि में होती है। दूध में चीनी होती है। जो दूध में चीनी डालकर पीते हैं, उनको दूध के स्वाद का पता नहीं लगता। बहुत चीनी के सेवन से अधिक बीमारियाँ होती हैं तथा दाँत भी खराब हो जाते हैं।
- अधिकांश लोग अनियमित आहार करते हैं कभी कम, कभी ज्यादा। भोजन न तो अधिक मात्रा में होना चाहिये, न कम मात्रा में।
- अध्यशन आहार का महत्त्वपूर्ण दोष है। पहले खाया हुआ पचा नहीं और पुनः भोजन कर लेना ‘अध्यशन’ है। सामान्य मर्यादा तो यह है कि पाँच या कम-से-कम चार घंटा पहले फिर अन्न न लिया जाय। जल भी एक या दो घंटा पहले नहीं पीना चाहिये। प्राचीन कालमें केवल दो बार खाने की रीति थी, परआजकल तो चार-पाँच बार या दिनभर कुछ-न-कुछ खाते रहते हैं, यह ठीक नहीं।
- भोजन खड़े-खड़े, चलते फिरते, लेटे-लेटे करना स्वास्थ्य के लिये हानिकर है।
- भोजन का ऋतुओं से भी सम्बन्ध है। ग्रीष्म ऋतु अथवा वर्षा-ऋतु में अग्नि मन्द रहती है, इसलिये हलका भोजन और शीतकाल में गरिष्ठ भोजन श्रेयस्कर है। इसी तरह देश के अनुसार ठंडे या गरम देशों में भोजनमें परिवर्तन स्वाभाविक है।
- शक्ति-व्यय के अनुसार ही भोजन की मात्रा निश्चित होनी चाहिये।
- बार-बार चाय पीना, धूम्रपान, मसाला, पान-सुपारी, तम्बाकू आदिका सेवन शारीरिक-मानसिक स्वास्थ्य के लिये हानिकारक है।
- आहार मस्तिष्क को अत्यधिक प्रभावित करता है। मादक वस्तुओं के प्रयोग से मस्तिष्क का नियन्त्रण ढीला पड़ जाता है। आधुनिक युग में मदिरा भी एक प्रकारका आहार गिना जाने लगा है और इसका प्रचलन सम्पन्न और सभ्य समाज में भी जोरों से बढ़ रहा है। भूख को बढ़ाने के लिये भाँग आदि भी सेवन की जाती है। मादक द्रव्यों का परिणाम भयंकर होता है-आदत खराब हो जाती है, जिसका छूटना कठिन हो जाता है। धीरेधीरे मस्तिष्क की कोशिकाएँ (Cells) विकृत हो जाती हैं तथा जिगर (लीवर)-की शक्तिका नाश हो जाता है।और अनेक रोग-जलंधर, पीलिया आदि हो सकते हैं।
- जैसा आहार वैसा रसायन, जैसा रसायन वैसी मस्तिष्क क्रिया और जैसी मस्तिष्क-क्रिया वैसा हमारा आचार, व्यवहार, विचार और स्वभाव।
- आधुनिक समाज में मांसाहार का भी प्रचलन बढ़ता दिखायी देता है। आधुनिक शरीरशास्त्री भी अन्वेषणों के आधारपर मांसाहार को शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य के लिये दोषपूर्ण बताते हैं। स्थूल दृष्टि से मांसाहार में हिंसा और अधर्म का दोष तो विद्यमान रहता ही है।
- आहारका एक पहलू है निराहार। हमारे लिये खाना जितना महत्त्वपूर्ण है उतना ही नहीं खाना’ भी। स्वास्थ्य के लिये उपवास भी जरूरी है। हमारे शास्त्रों में उपवास का महत्त्व शारीरिक और आध्यात्मिक दृष्टिकोण से भी है। जो लोग केवल भोजन करने का ही महत्त्व समझते हैं, उसे छोड़ने का महत्त्व नहीं समझते, वे न केवल मोटापे की बीमारी को, अपितु अनेक अन्य बीमारियोंको भी भोगते रहते हैं।
- अधिक खानेवाले कमजोर देखे जाते हैं, कारण उनको अपने अधिक वजनका भार रात-दिन ढोना पड़ता है। विवेकपूर्णआहार से ही शान्त, सुखी, स्वस्थ तथा आध्यात्मिक जीवन पूर्णरूपसे व्यतीत किया जा सकता है।