तपेदिक रोग (टी.बी) से जुड़ी संपूर्ण जानकारी

Last Updated on June 12, 2021 by admin

Contents hide

1). तपेदिक (टी.बी) का इतिहास ?

तपेदिक का इतिहास हजारों साल पुराना है। ऋग्वेद के अष्टम अध्याय के 161वें सूत्र के पहले श्लोक में इसका उल्लेख करते हुए कहा गया है :
रोगी, यज्ञ-सामग्री के द्वारा मैं तुम्हें राजयक्ष्मा से छुड़ाता हूँ, इससे तुम्हारे जीवन की रक्षा होगी…” ।

पुराणों, अथर्ववेद और चरक-संहिता में भी इसके लक्षणों और उपचार का समयानुरूप वर्णन है। चरक ने इसे असाध्य रोग कहा है ।

18वीं सदी तक ब्रिटेन और दूसरे यूरोपीय देशों में भी तपेदिक एक महारोग बना हुआ था।
तपेदिक के विरुद्ध पहली सक्षम दवाएँ सन् 1944, 1946 और 1952 में ईजाद की गईं। आज यह रोग लगभग पूरी तरह साध्य है, फिर भी लोग इसके दुस्साध्य इतिहास के आतंक से मुक्त नहीं हो सके हैं। बिना इलाज यह आज भी यम का मीत है।

2). तपेदिक (टी.बी) व्याधि कैसे उत्पन्न होती है ?

तपेदिक के बढ़े हुए मामलों में रोगी के फेफड़ों में बड़े-बड़े जख्म बन जाते हैं। यदि रोगी इलाज न ले रहा हो, तो इन जख्मों में लाखों-अरबों की संख्या में माइकोबैक्टीरिया भरे रहते हैं। रोगी जब खाँसता, छींकता या साँस छोड़ता है, तो उसकी छाती से कुछ माइको बैक्टीरिया वातावरण में आ जाते हैं। जो कोई इस वातावरण में साँस लेता है, माइकोबैक्टीरिया उसके फेफड़ों में पहुँच जाते हैं। इसके आगे का घटना-क्रम हर व्यक्ति की अपनी शारीरिक ताकत पर निर्भर करता है।

यदि उसकी रोग-प्रतिरोधक सेना ताकतवर होती है, तो वह माइकोबैक्टीरिया को चबा जाती है और व्यक्ति रोग से साफ बच जाता हैं। कुछ व्यक्तियों में माइकोबैक्टीरिया की मात तो हो जाती है, पर वे नजर बचाकर शरीर में इधर-उधर छुप जाते हैं। जैसे ही परिस्थितियाँ उनके अनुकूल बनती हैं, ये फिर से उग्र हो उठते हैं और रोग पैदा कर देते हैं।

पाँच से दस प्रतिशत मामलों में जीत माइकोबैक्टीरिया की ही होती है और उनकी पहली पैठ रोगकारी सिद्ध होती है।

3). तो क्या तपेदिक (टी.बी) जादू-टोने, भूत-प्रेत से कोई संबंध नहीं रखता ? :

बिलकुल नहीं। जर्मन डॉक्टर रॉबर्ट कॉक ने सन् 1882 में ही यह साबित कर दिया था कि तपेदिक संक्रामक रोग है और माइकोबैक्टीरिया से होता है।

4). क्या कुछ परिवारों में यह व्याधि आनुवंशिक भी होती है ?

नहीं। यद्यपि किसी-किसी परिवार में कई सदस्य एक साथ या अलगअलग समय पर रोग को भुगतते हैं, यह इसका कतई सूचक नहीं है कि तपेदिक आनुवंशिक रोग है। यह मात्र इसकी संक्रामकता दर्शाता है। परिवार में किसी एक के तपेदिक-पीड़ित होने पर उसके संक्रमण से दूसरों को रोग होने का जोखिम स्वाभाविक रूप से बढ़ जाता है।

5). तपेदिक (टी.बी) किस उम्र का रोग है ?

यह व्याधि किसी भी उम्र में हो सकती है। बच्चे, किशोर, वयस्क, मध्यमवय और वृद्ध-सभी इससे पीड़ित हो सकते हैं।

6). क्या तपेदिक (टी.बी) शरीर के अन्य अंगों में भी हो सकती है ?

यद्यपि सबसे अधिक मामले फेफड़े की तपेदिक के होते हैं, लेकिन यह व्याधि शरीर के लगभग हर किसी अंग को पीड़ित कर सकती है। हड्डियाँ, जोड़, आँते, लसीका पर्व (लिम्फ नोड) बहुतों में इससे ग्रस्त हो जाते हैं, पर मस्तिष्क, मस्तिष्क की झिल्ली, उदर, जिगर, तिल्ली, गुर्दे, त्वचा, शरीर का कोई भी अंग तपेदिक से रुग्ण हो सकता है। फेफड़ों, दिल और उदर की झिल्ली में यह शोथ हो जाए, तो उनमें पानी भर जाता है।

तपेदिक जनन-अंगों को भी पीड़ित कर सकती है। स्त्रियों में डिंब ग्रंथियाँ, डिंबवाही नलियाँ और गर्भाशय में यह व्याधि हो सकती है । जिससे स्त्री अपनी प्रजनन क्षमता गँवा सकती है। पुरुषों में भी अंड-ग्रंथियाँ और जनन-प्रणाली के दूसरे अंग तपेदिक से पीड़ित हो सकते हैं।

7). तपेदिक (टी.बी) हो जाने पर इसका पता कैसे चलता है ?

पहला शक अक्सर लक्षणों के आधार पर ही बनता है –

  • शाम को हलका 99° से 100° फारेनहाइट का बुखार हो जाना,
  • काम में जी न लगना,
  • भूख का अचानक मर जाना,
  • वजन का लगातार घटते जाना,
  • चार हफ्तों से अधिक बिना किसी दूसरे कारण के खाँसी होना,
  • खाँसी में खून आना,
  • गर्दन में गाँठे बन जाना और साधारण ऐंटिबॉयटिक दवा से ठीक न होना,
  • आँतों में रुकावट आ जाना,

जैसे विविध लक्षण तपेदिक की संभावना जगाते हैं। कुछ मरीजों में सामान्य शारीरिक जाँच-परीक्षण के दौरान भी रोग के होने के संकेत मिलते हैं।

8). ऐसे में क्या-क्या जाँच की जाती है ?

कुछ बातें तो रोगी की शारीरिक जाँच से ही स्पष्ट हो जाती हैं। फिर जैसे जो संभावना बनती है, उसके आधार पर टेस्ट किए जाते हैं।

  • फेफड़ों की तपेदिक की संभावना दिखती है तो छाती का एक्स-रे लिया जाता है,
  • थूक-बलगम की जाँच की जाती है,
  • खून की जाँच की जाती है।
  • गर्दन में गाँठे हों, तो सुई डालकर भीतर से ऊतक का नमूना लिया जाता है और जाँच के लिए भेजा जाता है।
  • छाती या उदर में पानी भर जाए, तो उसे सुई से निकालकर उसकी जाँच की जाती है।

इसी प्रकार आँतों की टी: बी. का शक होने पर बेरियम एक्स-रे, मस्तिष्क की टी. बी. की संभावना होने पर सी. टी. स्कैन, उदर और जनन-प्रणाली की जाँच के लिए अल्ट्रासाउंड, रीढ़ की जाँच के लिए एक्स-रे, सी.टी. स्कैन और एम.आर.आई.

यह जाँच-परीक्षण का सिलसिला इतना जटिल है कि इसका फैसला डॉक्टर पर ही छोड़ देना चाहिए।

कुछ पेचीदा मामलों में हर जाँच के बाद भी मामला सुलट नहीं पाता और मात्र अनुमान के आधार पर ही रोगी की सहमति से तपेदिकरोधी दवाएँ चलाकर आँकना पड़ता है कि उसकी तकलीफ में आराम आ रहा है या नहीं।

9). निदान में माण्टू टेस्ट कितना उपयोगी है ?

उसकी भूमिका सीमित ही होती है। उसके पॉजिटिव होने से यही पता. चलता है कि शरीर में माइकोबैक्टीरिया की पैठ है, लेकिन यह पुष्टि नहीं होती कि रोग सक्रिय हैं और दवा करने की जरूरत है या नहीं।

जिन्हें बी.सी.जी. का टीका लगा होता है, उनमें इस टेस्ट का महत्त्व भी नहीं रह जाता, चूँकि बी.सी.जी. लगे होने पर टेस्ट बिना संक्रमण के भी पॉजिटिव हो सकता है।

10). सुनते हैं कि तपेदिक (टी.बी) का इलाज बहुत लंबा चलता है । ये दवाएँ कितने समय तक लेनी होती हैं ?

यह इस पर निर्भर करता है कि इलाज में कौन-कौन सी और कितनी दवाएँ दी जाती हैं। शुरू में यदि दो महीने तक चार दवाएँ :
आई.एन.एच., रिफेम्पीसीन, इथेमब्यूटोल और पायराजायनामाइड चलती रहें, तो अगले चार महीने सिर्फ आई. एन. एच. और रिफेम्पीसीन देकर इलाज पूरा किया जा सकता है। पर दूसरे कई विकल्प भी हैं, जिनमें इलाज एक से डेढ़ साल भी चलता है।

11). क्या ये दवाएँ नुकसान नहीं करती ?

कर सकती हैं, पर सावधानी बरती जाए और मुश्किल आने पर डॉक्टर से राय लेने पर कोई विरला ही मामला ऐसा होता है जो इलाज पूरा नहीं कर पाता। जरूरी होने पर दवाएँ बदली भी जा सकती हैं।

12). क्या लक्षण मुक्त होने पर दवा छोड़ देने से कोई नुकसान हो सकता है ?

लक्षणों में आराम तो कुछ हफ्तों बाद ही आ जाता है, लेकिन इस समय दवा बंद करना सरासर गलत है। माइकोबैक्टीरिया बहुत शातिर होते हैं, जरा-सी छूट मिलते ही ये फिर से बढ़ने लगते हैं और दुबारा रोग पैदा कर देते हैं। इस बीच कई बार ये अपनी संरचना इतनी बदल लेते हैं कि पहले काम करती रही दवाएँ उन पर अब असर नहीं कर पातीं। तब इन दुस्साध्य (रजिस्टेंट) नस्ल के माइकोबैक्टीरिया को पस्त करने के लिए महँगी तपेदिकरोधी दवाओं की शरण में जाना पड़ता है। कुछ मामलों में कोई दवा काम नहीं करती और रोग प्राणलेवा बन जाता है।

13). क्या गर्भवती और स्तनपान करा रही माताएँ भी तपेदिक (टी.बी) रोधी दवाएँ लेती रह सकती हैं ?

हाँ, लेकिन ऐसी महिलाओं को अपने गर्भवती होने या शिशु को स्तनपान कराने की जानकारी डॉक्टर को जरूर दे देनी चाहिए।

14). क्या यह इलाज अस्पताल या सेनेटोरियम में भर्ती करके किया जाता है ?

बिलकुल नहीं, यह पूरा इलाज घर पर ही किया जा सकता है। भर्ती करने की जरूरत सिर्फ उन मरीजों में होती है जिनका रोग बहुत बिगड़ चुका होता है। उनमें भी स्थिति में सुधार आने के बाद मरीज को घर भेज दिया जाता है जहाँ उसकी दवा चलती रहती है।

15). इससे तो रोग उसके परिवारजनों में फैल सकता है ?

यह संभावना सिर्फ कुछ ही मामलों में होती है जिनके थूक-बलगम में माइकोबैक्टीरिया बहुत संख्या में मौजूद होते हैं। इन मरीजों में भी दवा शुरू करने के अड़तालीस घंटे बाद ही बैक्टीरिया नब्बे प्रतिशत तक घट जाते हैं और दो हफ्ते पूरे होते-होते उनकी संक्रामकता बिलकुल
खत्म हो जाती है। खतरा तो तब होता है जब कोई दवा न ले और उसके फेफड़ों में टी.बी. के खुले जख्म हों।

16). क्या तपेदिक (टी.बी) के रोगी के बरतन और व्यक्तिगत चीजों की कुछ खास सँभाल करनी होती है ?

नहीं, इनसे रोग नहीं फैलता। इसीलिए न तो इन्हें अलग रखना जरूरी है, न खास ढंग से साफ करना ही।

17). क्या ठीक हो जाने के बाद तपेदिक (टी.बी) फिर से भी हो सकती है ?

यह आशंका उन्हीं मामलों में अधिक रहती है जिन्होंने इलाज अधूरा छोड़ दिया होता है। इलाज पूरा लिया जाए, तो फिर से रोग के उभरने (रिलेप्स) की दर सिर्फ एक से दो प्रतिशत है। यह पुनरावृत्ति प्रायः इलाज पूरा होने के पहले या दूसरे साल में ही होती है, अतएव इतने समय तक डॉक्टर की निगरानी में रहना उपयोगी है।

हाँ, जिन लोगों को एड्स हो, उन्हें ताउम्र ही निगरानी में रहना होता है। उनमें तपेदिक कभी भी फिर से उभर सकती है।

18). क्या एड्स और तपेदिक (टी.बी) के बीच भी कोई संबंध है ?

हाँ, एड्स में शरीर की रोग प्रतिरोधक ताकत बिलकुल कमजोर पड़ जाती है जिससे माइकोबैक्टीरिया को बढ़ने की पूरी छूट मिल जाती है। इसीलिए तपेदिक एड्स-पीड़ितों के लिए मृत्यु का बहुत बड़ा कारण है।

19). तपेदिक (टी.बी) से बचाव के लिए जन्म के कुछ दिनों बाद ही बी.सी.जी. का टीका ले लिया जाता है, फिर भी यह धरती पर इतने व्यापक रूप से फैली हैं। ऐसा क्यों?

बी.सी.जी. तपेदिक के फैलाव को रोक पाने में बहुत समर्थ नहीं है। उसकी उपयोगिता रोग की गंभीरता बाँधे रखने में है। यह बच्चों को मस्तिष्क की तपेदिक और पूरे शरीर में फैल जानेवाली मिलयरी टी.बी. से बचाती है।

1 thought on “तपेदिक रोग (टी.बी) से जुड़ी संपूर्ण जानकारी”

Leave a Comment

error: Alert: Content selection is disabled!!
Share to...