ब्रह्मचर्य (वीर्य की रक्षा) का महत्त्व | The Imortance of Brahmacharya

Last Updated on July 21, 2019 by admin

वीर्य-रक्षा करना हमारा प्रधान कर्तव्य है

जो कुछ हम खाते-पीते हैं, उससे रस, रक्त, मांस, मेद, अस्थि, मज्जा और शुक्र- ये सात धातुएँ। | तैयार होती हैं। यही सातों धातु हमारे शरीर को धारण करती हैं; अर्थात् इन सातों से। ही हमारी काया स्थिर है।

इन सातों धातुओं में शुक्र—वीर्य-प्रधान है। वीर्य-हमारी दिमागी ताकत है; वीर्य ही हमारी स्मरण शक्ति है; वीर्य-बल से ही हमें बेशुमार बातें याद रहती हैं। वीर्य-बल से ही हम बुद्धिमान, विद्वान और बलवान कहलाने लायक होते हैं। वीर्य ही सब सुखों में प्रधान-आरोग्यता का मूल कारण है। वीर्य ही, हमारे शरीर-रूपी नगर का, राजा है। वही इस नौ दरवाजे के किले शरीर में रोग-रूपी शत्रुओं से हमारी रक्षा करता है। खुलासा मतलब यह है कि जब तक हमारे शरीर-रूपी नगर का राजा वीर्य पुष्ट और बलवान रहता है तब तक किसी रोग-रूपी दुश्मन को हमारी तरफ आँख उठा कर देखने की भी हिम्मत नहीं पड़ती। परन्तु वीर्य के निर्बल या क्षय हो जाने से हमें चारों ओर अँधेरा-ही-अँधेरा नज़र आता है। राजा वीर्य को कमजोर देख कर दुश्मनों रोगों को चढ़ाई करने का मौका मिल जाता है। इस वास्ते वीर्य-रूपी राजा बिना, हमारे शरीर रूपी नगर की रक्षा होना असम्भव है।

वीर्य-रक्षा के ही प्रताप से अर्जुन, भीम, धनुर्धारियों और गदाधारियों में श्रेष्ठ समझे जाते थे। विराट् नगर में अकेले अर्जुन ने भीष्म, कर्ण और द्रोणाचार्य आदि समस्त कौरव वीरों को परास्त करके गौओं की रक्षा की थी, वह सब वीर्य-रक्षा का ही प्रताप न था, तो और क्या था ? महाभारत के युद्ध में बूढ़े भीष्म पितामह ने जो त्रिलोक-विजयी अर्जुन-भीम के छक्के छुड़ा दिये थे, वह सब वीर्य-रक्षा के प्रताप के सिवा और क्या था ? वीर्य रक्षा के ही बल से लक्ष्मण, रावण पुत्र-मेघनाद के मारने में समर्थ हुए थे।

प्राचीन-काल के लोग वीर्य-रक्षा को अपना प्रधान कर्तव्य समझते थे; लेकिन इस जमाने के लोग वीर्य-रक्षा को कुछ चीज़ नहीं समझते; बल्कि वीर्य-नाश करने को अपना परम पुरुषार्थ समझते हैं। पहले समय के लोग सन्तान पैदा करने के सिवा, इन्द्रियों की प्रसन्नता के लिये स्त्री-प्रसंग करना महा हानिकारक समझते थे। आज-कल के जवान, स्त्री को ही अपनी उपास्य देवी समझते हैं। सोते-जागते, खाते-पीते, हर समय उसी ध्यान में मग्न रहते हैं। उनको इससे होने वाली हानियों का पता नहीं है। “चरक संहिता” के चिकित्सा-स्थान के दूसरे अध्याय में लिखा है-

रस इक्षौ यथादध्नि सर्पिस्तैलतिले तथा।
सर्वथानुगतं देहे -शुक्र संस्पर्शने तथा॥
ततः स्त्री-पुरुषसंयोगे चेष्टा संकल्प पीडनात्।
शुक्ल प्रच्यवते स्थानान्जलमादति पटादिव॥

” जिस तरह ईख रस, दही में घी और तिलों में तेल है, उसी तरह समस्त शरीर और चमड़े में वीर्य है। जिस भाँति गीले कपड़े से पानी गिरता है, उसी भाँति स्त्री-पुरुष के संयोग, चेष्टा, संकल्प और पीड़न से वीर्य अपने स्थानों से गिरता है।” जो वीर्य ईख में रस की तरह हमारे शरीर का सार है; जो वीर्य हमारी विद्या, बुद्धि और आरोग्यता तन्दुरुस्ती का मूल आधार है, उसे अति स्त्री-सेवन द्वारा नष्ट करना बुद्धिमानी नहीं है। दिन-रात स्त्रियों का ध्यान रखना बिल्कुल वाहियात है; क्योंकि वीर्य का स्वभाव है कि वह स्त्रियों की इच्छा या ध्यान करने मात्र से ही अपने स्थान से अलग होने लगता है।

इस कलिकाल में, अति स्त्री-प्रसंग तक ही खैर नहीं है। आजकल के ना-समझ लोगों ने हस्तमैथुन, गुदा-मैथुन, मुख-मैथुन आदि और भी कितनी ही वीर्य-नाशक तदबीरें निकाली हैं। इन नई-नई खोटी तदबीरों के कारण भारतवर्ष का जो पटड़ा हो रहा है, उसे लिखने में हमारी क्षुद्र लेखनी असमर्थ है। इन कुकर्मों के प्रताप से हजारों मूर्ख जवानी में ही नपुन्सक और निकम्मे हो गये और अनेक घर सन्तान-हीन हो गये। सैकड़ों कुलवती स्त्रियाँ कुलटा और व्यभिचारिणी बन गयीं। अति मैथुन, अयोनि-मैथुन आदि की हानियाँ पूर्ण रूप से हम आगे लिखेंगे। यहाँ हम “चरक” से इन कामों से होने वाली हानियाँ संक्षेप में दिखलाते हैं। “चरक-संहिता” के विमान-स्थान के पाँचवें अध्याय में लिखा है।

अकालयोनिगमनान्निग्रहादत्मैिथुनात् ।
शुक्रवाही निदुष्यन्ति शस्त्रक्षाराग्निभिस्तिथा॥

“कुसमय मैथुन करने, गुदा-मैथुन या पशु-मैथुन करने, इन्द्रियों के जीतने, अत्यन्त मैथुन करने और शस्त्र, क्षार तथा अग्निकर्म के दोष से शुक्रवाही स्रोत बिगड़ जाते हैं।”

सुश्रुत” के चिकित्सा-स्थान के चौबीसवें अध्याय में लिखा है।

प्रत्यूषष्यर्द्धरात्रे च वातपित्ते प्रकुप्यतः।
तिर्यग्योनावयोनौ च दुष्टयोनौ तथैव च॥
उपदंशस्तथा वायोः कोपः शुक्रस्य च क्षयः।

“सवेरे और आधी रात के समय मैथुन करने से वायु और पित्त कुपित हो जाते हैं। घोडी, गधी और कुतिया आदि के साथ मैथुन करने और दुष्ट योनि में मैथुन करने से गर्मी का रोग हो जाता है तथा वायु का कोप और शुक्र—वीर्य का क्षय होता है।”

चरक” के निदान-स्थान के छठे अध्याय में लिखा है ।

आहारस्य परंधाम शुक्रेतद्रक्ष्यमात्मनः ।
क्षयेह्यस्य बहून् रोगा-मरणंवा नियच्छति ॥

वीर्य ही खाये-पिये पदार्थों का अन्तिम परिणाम है। वीर्य के क्षय होने से अनेक रोग अथवा मृत्यु तक हो जाती है। इस वास्ते प्राणी को वीर्य की रक्षा करना परमावश्यक है ।
अति मैथुन और गुदा-मैथुन की हानियाँ जैसी “चरक” और “सुश्रुत” ने लिखी हैं, वह राई-रत्ती सच हैं। इन कामों की बुराइयों को हम आँखों देख रहे हैं। अतः इस विषय में सन्देह करने की जरूरत नहीं। जब कि वीर्य-क्षय होने से हमारी मृत्यु तक हो जाना सम्भव है; तब, दीर्घजीवी होने के लिए हमें वीर्य-रक्षा अवश्य ही करनी चाहिये। निस्सन्देह वीर्य-रक्षा करना हम लोगों का प्रधान कर्त्तव्य है।

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