ब्रह्मचर्य सिद्धि व वीर्य रक्षा के उपाय ,महत्व और फायदे | Virya Bachane ke Upay in Hindi

Last Updated on October 25, 2019 by admin

1- छान्दोग्य उपनिषद में ब्रह्मचर्य-रक्षा के उपाय :

ब्रह्मचर्य-रक्षा के लिये छान्दोग्य उपनिषद में छः बातोंपर विशेष बल दिया गया है
(१) इष्ट अर्थात् अग्निहोत्र , शारीरिक, वाचिक और मानसिक तपस्या, वेदोंका स्वाध्याय, वेदोक्त आचरण का अनुष्ठान, अतिथि-सेवा और बलिवैश्वदेव।
(२) यज्ञ अर्थात् देवाराधन , अपने हक की वस्तुओं को औरों के प्रति वितरण, पञ्चभूतों की शुद्धि, समष्टि की सेवा।
(३) मौन – मन में वासनाओं का स्फुरण न होना, मनोराज्य न होना। आवश्यकता से अधिक भाषण न
करना।
(४) अरण्यायन – शान्त, एकान्त, पवित्र, निर्जन वन में वास करना।
(५) सत्रायण – सत्संग में निवास करना।
(६) अनाशकायन-भोजन के सम्बन्धमें एक निश्चित शैली रखना।

2- शतपथ-ब्राह्मण में ब्रह्मचारी की चार शक्तियों का उल्लेख :

शतपथ-ब्राह्मण में ब्रह्मचारी की चार शक्तियों (virya raksha ke fayde) का उल्लेख प्राप्त होता है
(१) अग्निके समान तेजस्विता।
(२) मृत्यु के समान दोषों-दुर्गुणों के मारण की शक्ति का होना।
(३) आचार्य के समान दूसरों को शिक्षा देने की शक्ति का विद्यमान रहना।
(४) संसार के किसी भी स्थान, वस्तु, व्यक्ति आदि की अपेक्षा रखे बिना आत्मा राम होकर रहना।

3- धर्मसंहिताओं में वर्णित ब्रह्मचर्य सिद्धि के लिये निषेध :

गोपथ आदि ब्राह्मण-ग्रन्थों, धर्मसूत्रों, गृह्यसूत्रों एवं मन्वादि धर्मसंहिताओं में सर्वत्र ही ब्रह्मचारियों के लिये नृत्य, वाद्य, संगीत, नाट्य आदिका निषेध प्राप्त होता है। ललित कलाएँ अन्तस्तलकी सुषुप्त वासनाओं को धीरे-धीरे कुरेदती हैं और उन्हें उकसाती तथा भड़काती हैं। भगवद्विषयक ललित कलाएँ उतनी बाधक नहीं हैं। फिर भी ब्रह्मचारियोंको शृङ्गार सम्बन्धी अभिनय और भावभङ्गिमा से सर्वथा पृथक् रहना चाहिये। रासलीला के श्रवण-श्रावण के द्वारा कामविजय की प्रणाली भी शृङ्गाररसाकृष्ट व्यक्तियों के लिये ही है। ब्रह्मचारियों के लिये वह हानिकारक है। ऐसी अवस्थामें नाटक, सिनेमा आदि विकारवर्धक एवं उद्दीपक प्रसंगोंसे पृथक् रहने में ही ब्रह्मचारियोंका कल्याण है।

4- गृहस्थ में ब्रह्मचर्य रक्षा के लिये इन बातों का रखें ध्यान :

समावर्तन-संस्कारके पूर्व अपने स्वभाव, रुचि, महत्त्वाकांक्षा, योग्यता, स्वहित, परहित आदिका गम्भीर विवेचन कर लेना चाहिये। पूरी सचाईसे इस बातका अनुशीलन करना चाहिये कि हम सांसारिक भोग्य पदार्थोंकी प्राप्ति से सुखी होते हैं, हमें सुन्दर वस्त्रआभूषण, भोजन, मान-प्रतिष्ठा, बड़ाई और धन आदि की प्राप्तिसे सुख होता है अथवा इनके त्या गसे। यदि किञ्चित् भी लौकिक वासना अन्तःकरणमें शेष हो तो त्यागमय आजीवन ब्रह्मचर्य की प्रतिज्ञा धारण न करके नि:संकोच गृहस्थाश्रम में प्रवेश करना चाहिये और तदनुकूल ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिये। गृहस्थोचित ब्रह्मचर्य में निम्नलिखित बातोंका ध्यान रखना चाहिये-

(१) गृहस्थाश्रम भोग भोगने के लिये नहीं है अपितु भोगवासनाओं को नियन्त्रित करके उन्हें नाश करने के लिये है। ब्रह्मचर्य में जैसा शक्तिसंचय, ज्ञान का
प्रकाश, तपस्या की वृद्धि, लौकिक सुख एवं पारमार्थिक सुखकी प्राप्ति है भोग में उसका लक्षांश भी नहीं है। जैसे फोड़ा होने पर उसका मवाद निकलते समय एक प्रकारका सुख होता है, वैसे ही मन में विकार या मन्थन की पीडा होनेपर वीर्यपात से एक प्रकारका हलकापन अथवा आभासमात्र सुखका अनुभव होता है। जैसे भाँग का नशा उतर जाने पर सुस्ती, कमजोरी और उदासी मालूम पड़ती है, वैसे ही कामावेश शान्त हो जानेपर स्त्री-पुरुषका पारस्परिक संग कोई सुख, स्वाद, विलास नहीं दे पाता है। यह एक प्रकारका रोग, विवशता, पराधीनता और दुःखका मूल है। इसका न होना ही अच्छा है। संयमपर दृष्टि रखते हुए ही भोग करना चाहिये।
(२) एक पुरुष का एक स्त्रीसे और एक स्त्री का एक ही पुरुष से संयोग होना चाहिये। मन में विकार आ जानेसे भी शील, संयम और व्रत भङ्ग हो जाता है और इस प्रकार मनोवैज्ञानिक पतन हो जाने से जीवन अनियमित, निरंकुश एवं अधोगामी हो जाता है।
(३) स्त्री-पुरुष के संयोग के सम्बन्ध में अवस्था, शक्ति, समय, स्थान आदिका भी ध्यान रखना चाहिये।
(४) व्यभिचार को प्रोत्साहन देनेवाली गर्भनिरोध की प्रणालियों को कभी काम में नहीं लाना चाहिये। संयम अवश्य रखना चाहिये।
(५) पति-पत्नी को अलग-अलग शयन करना चाहिये।
(६) सम्भव हो तो पुत्र उत्पन्न होने के बाद इस शक्ति-क्षय कारिणी क्रिया से विरत हो जाना चाहिये और वैराग्य हो तो वानप्रस्थ अथवा संन्यास-आश्रम में प्रवेश कर लेना चाहिये अथवा विश्व सेवा के कार्य में लग जाना चाहिये। यह विश्व ही परमात्मा का मूर्तरूप है।
(७) गृहस्थाश्रम में रहते हुए भी यथाशक्ति स्वार्थत्याग करके विश्व सेवा के आदर्श को पूर्ण करना चाहिये।

5- आजीवन ब्रह्मचर्य के संकल्प से पहले :

आजीवन त्यागमय ब्रह्मचारी-जीवन व्यतीत करना अथवा ब्रह्मचर्याश्रम के बाद संन्यासाश्रम में प्रवेश करना आपत्ति की बात नहीं है; किंतु इसके पूर्व अपने अधिकार (योग्यता और शक्ति) का भलीभाँति विचार कर लेना आवश्यक है। केवल तात्कालिक आकांक्षा, रुचि और आवेश से प्रेरित होकर ऐसा करना बुद्धिमानी की बात नहीं है। लक्ष्य-प्राप्ति के लिये पूर्ण निश्चय और वज्र कठोर दृढ़ता की आवश्यकता है। जिस में इन्द्रियदमन, मनपर विजय, तपस्या, द्वन्द्व-तितिक्षा एवं कष्टसहन में ही सुखका भाव है, वही त्यागमय जीवनका अधिकारी है। बिना वैराग्य एवं त्यागकी तीव्र भावना हुए आजीवन ब्रह्मचर्यका संकल्प निष्फल ही नहीं, पतनका हेतु भी है। ईश्वर, आचार्य, शास्त्र एवं आत्मदेवकी कृपाका संबल लेकर ही इस मार्गपर अग्रसर होना चाहिये।

6- आजीवन ब्रह्मचारी के लिये निष्ठा :

आजीवन ब्रह्मचारी के लिये सबसे पहली बात यह है कि वह अपनी एक निष्ठा का निर्णय-निश्चयः कर ले। उसे चार निष्ठाओंमें से अपने लिये कोई एक चुन लेना चाहिये
(१) कर्म – यज्ञ-यागादि, वेदोक्त कर्मकाण्ड, अशिक्षा-निवारण, रोग-निवारण, स्वच्छताका प्रचार, लोगों में नैतिक जीवन की ओर रुचि उत्पन्न करना।
(२) उपासना – गायत्री-जप, नाम-जप, देवाराधन, सङ्कीर्तन, कथा-श्रवण, भक्तिके विभिन्न अङ्गोंका अनुष्ठान।
(३) योग – आसन, प्राणायाम आदिके द्वारा चित्तवृत्तियों के निरोध का अभ्यास।
(४) ज्ञान – श्रवण, मनन, निदिध्यासनके द्वारा आत्मसाक्षात्कारके लिये प्रयत्न ।

इन चारोंमेंसे किसी एक को प्रधान और शेष को गौण-रूप से धारण करना चाहिये। सभी निष्ठाओं में इन्द्रियसंयम, मनोनिरोध एवं सदाचारयुक्त मृदु व्यवहारकी अपेक्षा है। किसी एक निष्ठाको स्वीकार किये बिना अकर्मण्यता-बेकारी आने का भय रहता है, जिससे मनमें विकारोंके आ जानेकी सम्भावना रहती है। निकम्मे आदमीका जीवन प्रमाद का घर होता है।

7- वीर्य रक्षा के उपाय :

ब्रह्मचारीको कामविजय के साथ-ही-साथ अत्यन्त सूक्ष्म और तीक्ष्ण दृष्टि से अन्य दोषों पर भी ध्यान रखना चाहिये। काम बड़ा मायावी है। वह तरह-तरहके रूप धारण करके आक्रमण करता रहता है; जैसे-
(क) मोह-ममता – यह मेरा प्रिय व्यक्ति अथवा प्रिय वस्तु है, पहले इस प्रकार सम्बन्ध जोड़कर पीछे
भोगबुद्धि उत्पन्न करा देता है।
(ख) लोभ – पहले साधना की सुविधा और आवश्यक सामग्री के छल से द्रव्य इकट्ठा करा लेता है और पीछे वासनापूर्ति के लिये उसका उपयोग कराता है।
(ग) क्रोध – पहले अपने आलोचक अथवा निन्दक को अपने मार्ग से हटा देता है और फिर इच्छापूर्ति की छूट दे देता है।
(घ) मान-प्रतिष्ठा – पहले लोगों के चित्तपर अपनी धाक जमाकर फिर मनमानी कराता है।
(ड) मिथ्या अभिमान – अब मेरा चित्त निर्विकार हो चुका है, मैं योगी हूँ, ज्ञानी हूँ, भक्त हूँ, सिद्ध हूँऐसी अन्धता उत्पन्न करके फिर भोगके गढ़ेमें डाल देता है, इत्यादि।

काम के इन मायावी रूपों से बचने के लिये सतत सावधानी की आवश्यकता है। इसके लिये इन उपायों पर चलना चाहिये

(१) किसी से विशेष हेल-मेल न बढ़ाना, सम्बन्धी एवं परिचितों के देशमें न रहना और न आना-जाना।
(२) पैसे एवं वस्तुओंका संग्रह न करना।
(३) आलोच कों एवं निन्दकों को अपना हितैषी समझना और उनकी आलोचनाका आत्मनिरीक्षण में सदुपयोग करना। कभी-कभी निन्दकों के द्वारा अपने ऐसे छिपे दोषोंका पता चल जाता है, जिनका ज्ञान स्वयं साधक को भी नहीं रहता है।
(४) अपने ऊपर लोगों की विशेष श्रद्धा कभी न कराये। मान-प्रतिष्ठा का अत्यन्त निषेध भी न करे; क्योंकि वह निषेध से ही बढ़ती है। जहाँतक हो सके स्वयं उससे बचना चाहिये।
(५) किसी प्रकार का अभिमान धारण न करे। अभिमान ही काम का आश्रय है। अभिमानके सहारे ही वह फूलता-फलता है। परिपूर्णतम परब्रह्म परमात्मामें द्वैत नामकी कोई वस्तु ही नहीं है, फिर कौन किसका अभिमान करे!

8- ब्रह्मचर्य सिद्धि के लिये स्वच्छ और अन्तर्मुख करने वाली वस्तुओं का सेवन :

प्राकृत पदार्थों के सेवन से ब्रह्मचर्य की रक्षा होती है, विकृत पदार्थों के सेवन से नहीं; जैसे पीली एवं सोंधी, ठंडी मिट्टी का शरीर में लेप करने से और गन्ध सूंघने से जितना लाभ होता है, तेल-फुलेल-इत्र आदि से उसका शतांश भी नहीं होता। पेडू पर ठंडी मिट्टी की पट्टी बाँधने से स्वप्नदोष नहीं होता।
गङ्गा आदि नदी, समुद्र एवं वर्षाका जल भी पान-स्नानके द्वारा ब्रह्मचर्यके लिये हितकारी है, सोडावाटर, नल इत्यादिका नहीं। अग्नि एवं सूर्य का सेवन-उपस्थान-नमस्कार आदि वीर्य को पचाता है। हवन और सूर्योपस्थान का यह भी एक प्रयोजन है। बिजलीकी रोशनीसे ब्रह्मचर्यमें कोई सहायता नहीं मिलती। खुली हवा एवं अनाहत नाद जितने उपयोगी हैं, उनके सामने पंखेकी हवा और आहत शब्द की कोई गिनती ही नहीं है। तात्पर्य यह है कि ब्रह्मचारी को कृत्रिम पदार्थों से दूर ही रहना चाहिये। फल, शाक, दूध, कच्चे और अङ्कुरित अन्न ब्रह्मचर्य रक्षा में बड़े सहायक हैं। घी, दही लाभकारी नहीं हैं। घी से मेदोवृद्धि, अपच और पाचनयन्त्रोंपर भारका आधिक्य होता है। दही की अम्लता धातु को क्षीण करती है। जहाँ तक हो सके स्वाभाविक, स्वच्छ और अन्तर्मुख करने वाले प्रदेश में रहना चाहिये और वैसी ही वस्तुओं का सेवन भी करना चाहिये।

9- रसनेन्द्रिय संयम से वीर्य रक्षा :

रसनेन्द्रिय और जननेन्द्रिय का बड़ा घनिष्ठ सम्बन्ध है। रसना जो रस ग्रहण करती है, वही शुद्ध
और पक्व होकर वीर्य के रूप में परिणत होता है। यदि रसपर काबू नहीं है तो वीर्य पर भी नहीं रह सकता। कर्मेन्द्रिय ज्ञानेन्द्रिय का ही पूरक अस्त्र है। रसना यदि रस ग्रहण करेगी तो ठीक पाचन न होनेपर उसका क्षरण अनिवार्य है। इसलिये रसना की रसासक्तिपर कड़ी नजर रखनी चाहिये
(१) भोजन में स्वाद पर दृष्टि नहीं रखना। केवल जीने भरके लिये हितकारी वस्तुओं से उदरपूर्ति मात्र कर लेना। शौक से खट्टी, मीठी, चरपरी वस्तु नहीं खानी चाहिये। न स्वादके लिये ही खानी चाहिये।
(२) स्वयंपाकी हो तब तो नमक, मीठे, खट्टे, मसाले का प्रयोग ही नहीं करना चाहिये। शुद्ध सात्त्विक एवं परिमित अल्प भोजन समय पर ही करना चाहिये। अनेक बार भोजन नहीं करना चाहिये।
(३) यदि किसी समुदाय या आश्रम में रहना हो तो जो कुछ वहाँ स्वाभाविक एवं अविरुद्ध भोजन बनता हो वही खाना चाहिये। अपनी व्यक्तिगत इच्छा प्रकट नहीं करनी चाहिये। अलग से माँगकर, खरीदकर जिह्वातृप्ति नहीं करनी चाहिये।
(४) यदि भिक्षा करते हों तो जो विरुद्ध वस्तु भिक्षा में आवे उसको त्याग दें; परंतु अनुकूल वस्तु माँगें नहीं। बड़ों की अधीनता, श्रद्धा, सेवा, श्रम और व्यर्थ समय न खोना-ये ऐसे उपाय हैं जिनसे हम क्या खायेंगे, इसपर ध्यान ही नहीं जाता।
(५) आवश्यक भोजन एक बार ही परोसवा लें, बार-बार न लें। ठंडे-गरम का विचार न करें। दूसरा क्या खा रहा है यह देखे बिना मौन होकर भोजन करें। सम्भव हो तो वस्तुओंकी और ग्रासों की गिनती निश्चित कर लें।
(६) भोजन के प्रारम्भ में भगवान को भोग लगाना चाहिये। इससे स्वतःप्राप्त स्वादिष्ट भोजन के प्रति स्वादवासना का दोष मिट जाता है।
(७) भोजन के पहले पाँच ग्रास प्राणों को आहुति के रूप में देने चाहिये, ‘प्राणाय स्वाहा’, ‘अपानाय स्वाहा’ इत्यादि। इससे ‘मैं भोक्ता हूँ अथवा स्वाद ले रहा हूँ’, यह भ्रान्ति छूट जाती है।
(८) ‘मैं नहीं खा रहा हूँ, मेरे नाभिचक्र में वैश्वानर अग्निके रूप में बैठे हुए स्वयं भगवान् ही भोजन कर रहे हैं’-इस भाव से भोजन करने पर स्वाद की वृत्ति चली जाती है।
स्वयंपाकी ब्रह्मचारी को इस बातका ध्यान रखना चाहिये कि वह अपने लिये ही भोजन न बनाये और किसी को खिला करके ही खाय ‘केवलाघो भवति यः केवलादी।’

10- सौन्दर्य देखने की वासना से बचे :

किसी व्यक्तिका सौन्दर्य अथवा उसके द्वारा निर्मित वस्तुका सौन्दर्य देखनेकी वासना अन्ततोगत्वा भोग में परिणत हो जाती है। इस नेत्रवासनाने बड़ेबड़ों को विकार के अग्निकुण्ड में झोंक दिया है। नेत्र वासना ने केवल पतंगे को ही भस्म नहीं किया, बड़े-बड़े विद्वानों, योगियों और सदाचारियों को भी पतनके गर्तमें ढकेलकर सर्वनाशतक पहुँचा दिया। बिल्वमङ्गल ने अपनी आँखें फोड़कर इससे पिण्ड छुड़ाया। इसपर विजय प्राप्त – करनेके लिये बहुत जागरूक रहना चाहिये
(१) मन-ही-मन चाम का पर्दा हटाकर तब व्यक्तियों को देखना चाहिये।
(२) जगज्जननी जगदम्बा को ही सर्वत्र देखना चाहिये। परमहंस रामकृष्णके सम्बन्धियोंने उन्हें गृहस्थ जीवन से उदासीन देखकर एक वेश्या की ओर आकृष्ट करने का प्रयत्न किया। जब वेश्या अपने हाव-भावकटाक्ष से उन्हें आकृष्ट करनेका प्रयत्न करने लगी, तब परमहंसजी तीन बार ‘मा! मा!! मा!!!’ कहकर समाधिस्थ हो गये। वे जगज्जननी के उपासक थे।
(३) अपने इष्टदेव की अनुपम रूपमाधुरी का प्रेमसे चिन्तन करना चाहिये। एक बार श्रीरामानुजाचार्य ने श्री रङ्गक्षेत्र में वेश्या के रूप-सौन्दर्य पर आसक्त व्यक्ति को देखा। वह वेश्या के सामने उसकी ओर मुँह करके छाता लगाये हुए था और पीछे की ओर चलता था। आचार्य चरण ने उसके ऊपर कृपा की और अपने निवास-स्थानपर बुलाकर अपने आराध्यदेव के ऐसे अलौकिक सौन्दर्यका दर्शन करा दिया, जिसपर उसने अपना जीवन, अपना सर्वस्व ही न्योछावर कर दिया और प्रभु-चरणों का सेवक बन गया।
(४) चलते समय चार हाथ से अधिक दूरतक न देखना। इधर-उधर न देखना। तिरछी और चुभती हुई नजर से किसी को न निहारना। दृष्टि पक्की करने का अभ्यास करना।
(५) रंगों के उभार और आकृतियोंके आड़ेतिरछेपन में कभी महत्त्वबुद्धि न करना।
(६) अन्तःसौन्दर्य की अनुभूति, ईश्वरीय सौन्दर्य का अनुसन्धान और प्राकृत सौन्दर्य के निरीक्षण से व्यक्तिगत सौन्दर्य का आकर्षण एवं प्रलोभन नहीं रह जाता।
(७) सौन्दर्य का सच्चा स्वरूप निर्विकारता है, यह बात ध्यान में रहनी चाहिये।

11- स्पर्शजन्य सुख की कामना से वीर्य रक्षा के उपाय :

वैसे तो सभी सांसारिक सुख स्पर्शजन्य ही हैं। कान की झिल्लियोंसे जो स्पर्श होता है, उसे शब्द कहते हैं और आँखकी किरणें जिससे टकराती हैं, उसको रूप; परंतु इस प्रसंगमें स्पर्श का अभिप्राय त्वचा इन्द्रिय के कार्यसे है। दाद खुजलाने से जैसा सुख होता है, कामसम्बन्धी सुख भी प्राय: वैसा ही है। स्पर्श भोगका अवश्यम्भावी पूर्वरूप है। इसीलिये ब्रह्मचारी को स्पर्शसे बचना चाहिये। यह बड़े-बड़े दिग्गज विद्वानों एवं योगियों को भी बेसुध करके बन्धन-स्थान पर पहुँचा देता है। – स्पर्श के सम्बन्ध में ये सावधानियाँ रखनी चाहिये
(१) स्त्री पुरुष का और पुरुष स्त्रीका स्पर्श कभी न करे।
(२) लड़कियों और लड़कों का स्पर्श भी नहीं करना चाहिये। एक बड़े अनुभवी, ईमानदार एवं सच्चे बाल-ब्रह्मचारी ने मुझे बताया कि वे थोड़ी आयु के बालक और बालिकाओं को अपनी गोद में बैठाकर प्यार से उनके कपोल आदि का स्पर्श कर लिया करते थे। उनके मनमें अपनी निर्विकारताका अभिमान था। धीरे-धीरे भक्त शिष्यों की बालक-बालिका एँ वयस्क हुईं। स्पर्श की क्रिया पूर्ववत् चलती रही। अब बुढ़ौती में उन युवतियों के स्पर्श से मन में विकार आने लगा है। उन्होंने अब स्पर्श न करनेकी प्रतिज्ञा कर ली, यद्यपि पंद्रह वर्ष पूर्व वे मना करने वालोंकी खिल्ली उड़ाया करते थे।
(३) कोमल शय्या, वस्त्र, चन्दन तथा पुष्पमाला आदि भक्तों के आग्रहपर भी स्वीकार नहीं करने चाहिये।
(४) साबुन, क्रीम आदि के द्वारा अपने शरीर को मुलायम नहीं बनाना चाहिये।
(५) अपने ही शरीर के कपोल, गुह्याङ्ग आदिका बार-बार स्पर्श करना भी ब्रह्मचर्यका घातक है।
(६) गायत्री-जप, शरीरके प्रत्येक अवयवमें न्यास, ध्यान, त्रिकालस्नान, हाथोंमें कुश-मुष्टि, दण्ड आदिका धारण, वल्कल-वसन, भस्मधारण आदिके द्वारा जन-साधारण से अपने में एक प्रकार की पृथक्ता एवं अपनी पवित्रता तथा दिव्यताकी भावना जाग्रत करनी चाहिये। इससे दूसरोंके एवं अपने गुह्याङ्गों के स्पर्श से रक्षा हो जाती है।
(७) ईश्वर, गुरु एवं अन्तरात्मा को साक्षी बनाकर यह दृढ़ प्रतिज्ञा कर लेनी चाहिये कि ब्रह्मचर्यव्रत के विपरीत स्पर्श होने पर मरणान्त प्रायश्चित्त करूँगा। मेरे पास एक एम्०ए०, डी० लिट्० महाशय आया करते थे। उनमें रूपवती युवतियों की ओर घूरने तथा चलते फिरते उन्हें छू देने का दोष था। उन्होंने मेरे सामने यह प्रतिज्ञा की कि बुरी नीयतसे स्पर्श होने पर गङ्गाजी में कूदकर प्राण दे दूंगा। थोड़े ही दिनोंमें उनकी घूरने की आदत छूट गयी। जिस रास्ते पर जाना ही नहीं है, उसके मील के पत्थरों की गिनती मालूम करनेसे क्या लाभ है ?
(८) ऐसे ग्रन्थों का अनुसन्धान करना चाहिये, जिनमें अस्पर्श-व्रत की महिमा का उल्लेख है; जैसे वाल्मीकिकृत रामायण के सुन्दरकाण्ड में सती शिरोमणि श्री जानकीजी की कथा है। उन्होंने अपने पुत्रवत् परम भक्त नैष्ठिक ब्रह्मचारी श्रीहनुमान्जी को भी स्पर्श करने से मना कर दिया था।
एक बात सदा ध्यान में रखनी चाहिये। रूप, स्पर्श, आदि की वासनाएँ मन की कमजोरी हैं। दृढ़ प्रतिज्ञा, निश्चय और सावधानीसे ही इनपर विजय प्राप्त की जा सकती है।

12- इन्द्रिय संयम से ब्रह्मचर्य सिद्धि :

यद्यपि शास्त्रोंमें केवल जननेन्द्रिय के संयम को ही ब्रह्मचर्य कहते हैं, तथापि समस्त इन्द्रियों का संयम हुए बिना ब्रह्मचर्य की रक्षा सम्भव नहीं। जब किसी इन्द्रियके द्वार से मन को बाहर निकलनेका अवकाश नहीं मिलता, तब उसमें एकाग्रता और निरोध-दशाका उदय होने लगता है। यह बड़े-बड़े खेल खेलता है। विक्षेपप्रिय होनेके कारण एकाग्रता इसे जेल के समान मालूम पड़ती है। निरोध तो मानो कालकोठरी ही हो। एक इन्द्रियका संयम करो तो यह दूसरी इन्द्रियसे भाग निकलने की कोशिश करता है। वाणी को बंद करते ही हाथ से लिखने की कलासे मोहित कर लेता है। यदि ब्रह्मचारी ने समस्त इन्द्रियों के निग्रह और संयमका कौशल प्राप्त करनेमें कुछ निपुणता प्राप्त कर ली तो शरीरमें हनुमान का सा बल, भीष्मकी-सी इच्छा-मृत्युशक्ति, सनकादिके समान नित्य शैशव आदि प्राप्त करानेकी लालसाका रूप धारण करके चमत्कारों के चक्करमें डाल देता है अथवा प्रचारकी तीव्र वासनाको प्रोत्साहित करता है। परमार्थ-पथके पथिकोंको इनसे परहेज करना चाहिये। उन महापुरुषोंमें वे सिद्धियाँ स्वाभाविक थीं, उन्होंने ब्रह्मचर्यसे उन्हें खरीदा नहीं था। साधारण साधक का मन निरोध के भयसे ही उनकी इच्छा उपस्थित करता है।

13- वीर्य रक्षा व ब्रह्मचर्य सिद्धि से सिद्धियों का प्रागट्य :

यदि चमत्कारों के चक्कर और प्रचार की वासना से बचकर मन और इन्द्रिय गोलकों का सम्बन्ध रोक दिया गया, इन्द्रियाँ शान्त और स्थिर हो गयीं तो स्पष्ट अनुभव होने लगता है कि विषय और इन्द्रियों में कोई भेद नहीं है। एक ही जड सत्ता दो रूप धारण किये हुए है। वही विषय है और वही इन्द्रिय है। विषयगत रूप और नेत्रगत रूपमें कोई भेद नहीं है। ऐसी अवस्थामें मन स्वतन्त्र विषयोंकी सृष्टि करने लगता है। साधारणत: अनुभूयमान प्रपञ्चसे विलक्षण गन्ध, रस, रूप, स्पर्श एवं शब्दकी संवित् होने लगती है। अनेकों प्रकारके दिव्य दृश्य, चित्र-विचित्र अनुभूतियाँ, देवता, दानव, स्वर्ग-ब्रह्मलोक आदिके दर्शन होने लगते हैं। यह सब मनके ही आकार-विशेष हैं। शास्त्र, सम्प्रदाय, मत, पन्थ, व्यक्तिगत जानकारी, मान्यता एवं भावनाएँ जो बुद्धि में संस्कार रूप से निहित रहती हैं, उदय हो होकर एक जाल-सा बिछा देती हैं और साधकको उन्हींमें नित्यबुद्धि, सत्यबुद्धि उत्पन्न कराकर फँसा देती हैं। इस अवस्थामें साधक ऐसा समझने लगता है कि अब मेरा प्रवेश दिव्य राज्यमें हो गया है और मैं भागवत-सत्ता एवं भगवल्लीलाका अनुभव कर रहा हूँ। यह भी भ्रम है। जहाँतक नाम और आकृतियोंका भेद है, वहाँतक वास्तविक सत्ताका अनुभव नहीं है। इसका भी निरोध आवश्यक है। तत्पश्चात् एक अपूर्व आनन्दका, इस आनन्दका भोग भी ब्रह्मचर्यका विघ्न ही है। जब आनन्दकी वृत्ति भी शान्त हो जाती है, तब अस्मितामात्र शेष रह जाती है। इस अवस्थामें ऐसा मालूम पड़ने लगता है कि अस्मितासे लेकर विषयपर्यन्त एक ही प्रकृतिका, जड सत्ताका विलास है। मैं तो केवल द्रष्टामात्र हूँ। मैं अकर्ता, अभोक्ता अर्थात् नित्य ब्रह्मचारी हूँ।

14- ब्रह्मचर्य का वास्तविक स्वरूप :

यह अनुभूति भी वास्तविक नहीं है। इसमें भी संस्कारशेष विद्यमान रहते हैं। विषयगत भेदके संस्कार ईश्वरके सम्बन्धमें अन्यत्वकी कल्पना और द्रष्टाके अनेक होने की भ्रान्ति इस अवस्थामें भी विद्यमान
होते हैं। कोई भी अभ्यासजन्य समाधि, चाहे उसका नाम कुछ भी क्यों न रख लिया जाय, अज्ञानकी निवृत्ति करने में समर्थ नहीं है। उनकी निवृत्ति तो तत्त्वमस्यादि महावाक्यजन्य वृत्तिज्ञान से ही होती है। समाधिके द्वारा अन्तःकरणके समस्त संस्कार अथवा अशुद्धियों के धुल जानेपर स्वतःसिद्ध निरुपद्रव पूर्णबोधात्मक अखण्ड चिति ही शेष रह जाती है और वही आत्माका, ईश्वर का और जगत्का भी सच्चा स्वरूप है।
ब्रह्मचर्य का भी वास्तविक स्वरूप वही है। इस पूर्ण ब्रह्मचर्यकी प्राप्ति, समस्त साधन, वेद-शास्त्र आदिका लक्ष्य है। इसीका अनुभव, साक्षात्कार अथवा बोधात्मक उपलब्धि होनेसे मनुष्य-जीवन, जीव-जीवन सफल-चरितार्थ होता है।

15- पूर्ण ब्रह्मचर्य का सिद्धिकाल और इस्से मिलने वाले लाभ :

पूर्ण ब्रह्मचर्य में बाधात्मक स्थिति होनेपर ये शुभ सद्गुण जीवन में स्वाभाविक ही रहने लगते हैं व्यवहारशुद्धि, अन्तःकरणकी निर्मलता और सहज स्थिति। साधन-काल में इनके लिये प्रयास करना पड़ता है और सिद्धिकाल में बिना प्रयत्नके स्वतःसिद्ध हो जाते हैं-

(१) व्यवहारशुद्धि- संयम, सरलता, सादगी, समता, सत्यता, सदाचार आदि सद्गुण स्वाभाविक ही जीवन में उतर आते हैं। बाह्य वस्तुओं में सुखबुद्धि न रहने के कारण अन्याय से संग्रह-परिग्रह का कोई प्रश्न ही नहीं उठता। भोग लिप्सा से उत्पन्न होनेवाली हिंसा स्वतः निवृत्त हो जाती है। किसी वस्तु के नाशका भय नहीं रहता। छोटे-से-छोटे कार्य में भी दैवी सम्पत्ति के महान् गुणोंका प्राकट्य होने लगता है। जाति, पन्थ और भाषाका दुराग्रह मिट जाता है। वह समाज, जाति, राष्ट्र, मानवता, विश्व एवं विश्वात्माका सच्चा सेवक होता है। उसके शरीरके कण-कण, रोम-रोम, रग-रग विश्वहित, भगवत्प्रेम और आत्मज्ञानसे परिपूर्ण रहते हैं तथा उनकी ऐसी रश्मियाँ एवं धाराएँ बिखरती रहती हैं, जिनसे सम्पूर्ण विश्व प्रेमसे परिप्लुत हो जाय।

(२) अन्तःकरण की निर्मलता- अन्तःकरणके अच्युततत्त्वमें स्थित हो जानेसे विषयसम्बन्धी सारे विकार स्वयं ही दूर हो जाते हैं। निर्विकार अन्त:करण की जो अपने सद्घन, चिद्घन और आनन्दघन-आश्रय से अभिन्न स्थिति है, वही शुद्धि है; क्योंकि उसमें वृत्ति और विषय का मिश्रण नहीं है। मिश्रण ही अशुद्धि है। चित्तमें जितने भी दोष, दुर्गुण, अशुद्धि, विकार होते हैं, उनमें कोई-न-कोई विषय वृत्तिके गर्भ में विद्यमान रहता है; यथा काम में कामिनी, क्रोध में शत्रु, लोभ में धन इत्यादि। परंतु सत्य, अहिंसा, निष्कामता, निर्लोभता आदि सद्गुणों में अन्तःकरण सर्वथा निर्मल एवं निर्विषय रहता है। उस समय वृत्ति अपने शान्त आश्रय से भिन्न करके अपने को नहीं दिखाती। सत्य, अहिंसा, निष्कामता आदि किसी के प्रति यह प्रश्न ही नहीं उठता। वृत्तिकी सत्तामात्र स्थिति ही सद्गुण है। इसपर यह प्रश्न होता है कि ऐसी अवस्थामें सद्गुण अनेक क्यों? इसका उत्तर यह है कि एक ही शान्त स्थितिरूप सद्गुणों को हिंसा, लोभ, काम आदि भिन्न-भिन्न दुर्गुणों की निवृत्ति करने के कारण विभिन्न नामों से व्यवहार करते हैं। दुर्गुण अनेक हैं, इसीसे उनकी व्यावर्तक वृत्ति में भी अनेकता का व्यवहार होता है। जैसे कामका विषय कामिनी है, वैसे ब्रह्मचर्यका कुछ विषय नहीं है। यह तो चित्तकी शान्ति ही है। काम केवल जाग्रत्, स्वप्नमें रह सकता है और समाधिमें नहीं। ब्रह्मचर्य जाग्रत्, स्वप्न, सुषुप्ति और समाधि आदि सभी अवस्थाओंमें एकरस रहता है, इसलिये यह अखण्ड सत्य है। अतएव अखण्ड ब्रह्मचर्यमें स्थिति ही अन्त:करण की सच्ची शुद्धि है।

(३) सहज स्थिति- समाधि हो चाहे विशेष ब्रह्मचारीकी सहज स्थिति भंग नहीं होती। उसके लिये प्रवृत्ति और निवृत्ति सम है। उसके अपने स्वरूपसे भिन्न द्रष्टा, दर्शन, दृश्य कुछ भी नहीं है। वह सहजभावसे रहता है। अपने जीवनमें किसी प्रकारकी विशेषताका आरोप नहीं करता। उसका व्यवहार सम है, वृत्ति सम है, स्वरूप सम है और विषमता भी सम है। वह जीवन्मुक्त है, उसकी स्थिति सहज है।

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