Last Updated on July 22, 2019 by admin
जीवनी-शक्ति क्या है ?
जीवनी-शक्ति कोई भौतिक पदार्थ नहीं है, जिसे किसी दवा के सहारे बढ़ाया जा सके। यह शरीर में विद्यमान एक चेतना है, जिसके बढ़ते ही रोग शरीर से दूर भागने लगते हैं। यह वह शक्ति है, जो हमारे शरीर में प्रवेश करने वाले प्रत्येक रोगाणु को संघर्षपूर्वक बाहर निकाल फेंकती है। यह जितनी ही प्रबल होती है, हमारा शरीर उतना ही स्वस्थ होता है।
जीवनी शक्ति बढ़ाने के उपाय : Jivani shakti badhane ke upay
जीवनी-शक्ति को बढ़ाने के लिए गीता में एक उपाय दिया गया है।
युक्ताहार-विहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु ।
युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुःखहा।।
इसका अर्थ है कि योग्य आहार-विहार, चेष्टा अथवा कर्म करने वाला तथा यथायोग्य नींद लेने वाला ही सिद्ध व्यक्ति कहलाता है।
योग्य आहार का अर्थ है-न कम खाना, न अधिक खाना। स्वयं को सिद्ध करने अथवा स्वस्थ रहने के लिए यह पहली शर्त है। आज संसार में अधिक अथवा अनुचित खाकर मरने वालों की संख्या 99 प्रतिशत से अधिक है। भूख से मरने वाले मात्र 0.1 प्रतिशत हैं। भोजन के सम्बन्ध में यह सत्य है कि भोजन जहां शक्ति का स्रोत है, वहीं शारीरिक विकृति भी भोजन के कारण ही होती है अर्थात् भोजन करने से शक्ति प्राप्त होती है, तो भोजन के कारण शक्ति की कमी
भी हो सकती है। केवल मुख द्वारा किसी वस्तु को ग्रहण करना ही आहार नहीं । माना जाता, अपितु जो कुछ भी हम अपनी इन्द्रियों के द्वारा ग्रहण करते हैं, वह भी आहार है। इसीलिए कहा गया है कि आंखों से अच्छा देखें, कानों से अच्छा सुनें तथा प्रत्येक इन्द्रिय द्वारा केवल सात्त्विक आहार ही ग्रहण करें।
भोजन के सम्बन्ध में आयुर्वेद का एक सूत्र सदा ध्यान में रखना चाहिए-
अङ्ग मृत्यु उत जीवातु आहुः।
अर्थात् जो भोजन हमें जीवन प्रदान करता है, उसी भोजन से हमारी मृत्यु भी हो सकती है।
एक अंगरेजी कहावत के अनुसार-Diseases start from kitchen, अर्थात् बीमारियां रसोई से आरम्भ होती हैं। कहने का अर्थ यह है कि ज्यों-ज्यों रसोई का विकास होता गया, बीमारियां बढ़ती गयी।
भोजन को जितना विकृत करके खाया जाता है, वह उतना अधिक हानि पहुंचाता है। इस प्रकार जीवनी शक्ति को बचाने अथवा बढ़ाने का काम भी भोजन ही करता है। कहा जाता है कि सभी इन्द्रियां भोजन करती हैं। जिससे रस ग्रहण किया जाता है, उसे आहार कहते हैं। इस प्रकार हम अपनी इन्द्रियों द्वारा जो कुछ ग्रहण करते हैं, वह आहार ही है।
इसलिए देववैद्य धन्वन्तरि ने भोजन के सम्बन्ध में तीन मुख्य बातें कही। हैं : –
1. हित भुक्,2. ऋत भुक्,3. मित भुक्, अर्थात्
1. शरीर के लिए हितकारी भोजन करना चाहिए। 2. ऋतु के अनुसार भोजन करना चाहिए। 3. समय पर भोजन करना चाहिए।
इस सिद्धान्त के अनुसार चलने पर आपका आहार भी शुद्ध होगा और आपका शरीर भी शुद्ध रहेगा। अशुद्ध आहार से ही रोग पैदा होता है।
ध्यान रखें, भोजन के बाद दौड़-भाग अथवा तैरना आदि नहीं करना चाहिए। क्योंकि ऐसा करने से मृत्यु की सम्भावना रहती है। भोजन करने के बाद कुछ देर विश्राम भी करना चाहिए। इस प्रकार भोजन शीघ्रता से पच जाता है। हां, भोजन करने से पहले आप कोई भी कठिन कार्य कर सकते हैं, जिससे पहले किया गया भोजन भली-भांति पच जाता है और शरीर को जिस पदार्थ की आवश्यकता होती है, वह भोजन द्वारा मिल जाता है। जिस प्रकार भीड़ में से शीघ्रता से निकलना सम्भव नहीं होता, उसी प्रकार शरीर में अनुचित भोजन भरने से शरीर आवश्यक पदार्थों को ग्रहण नहीं कर सकता। इसीलिए शरीर के अंग-प्रत्यंग दुर्बल होते जाते हैं, जबकि भोजन से पहले कठिन परिश्रम करने पर कोशिकाएं पहले किये गये भोजन से खाली हो जाती हैं और भोजन आसानी से पच जाता है। तब जीवनी-शक्ति भी अपना कार्य सुगमता से करती है और हमें स्वास्थ्य प्रदान करने में सहायता करती है। जो व्यक्ति स्वाद की ख़ातिर पेट भरा होने पर भी भोजन करते हैं, उनका वज़न व्यर्थ बढ़ता चला जाता है।
इसी प्रकार तला हुआ भोजन भी हानिकारक होता है; क्योंकि इस प्रकार के भोजन को आहार-नलिका पचा नहीं सकती। अत: भोजन को तलना व पकाना कम करें और हो सके तो बन्द कर दें।
सब्जियां भी कम पानी और कम आंच पर पकायें;क्योंकि पकाने से पहले सब्ज़ियों के विटामिन नष्ट हो जाने के कारण उनका प्राकृतिक स्वाद समाप्त हो जाता है।
संस्कृत की एक प्रसिद्ध उक्ति है-भोजनं भेषजं भूयात्।
अर्थात् यदि भोजन का उचित रूप से सेवन किया जाये, तो वह ओषधि का कार्य करता है। उपनिषदों में भी लिखा है-अन्नं हि भूतानां ज्येष्ठम् । तस्मात् सर्वोषधमुच्यते। ।
अर्थात् आहार सार्वभौमिक दवा है और पर्याप्त समय तक स्वस्थ रहने के लिए तथा जीवनी-शक्ति को जागृत रखने के लिए भोजन की प्रमुख भूमिका है।
यूनानी दार्शनिक सुकरात का कहना था कि भूख में जितना आनन्द है, उतना भोजन में नहीं। शायद इसीलिए प्रत्येक धर्म में उपवास को महत्ता प्रदान की। गयी है। अनेक विश्वप्रसिद्ध लोगों ने भी कहा है कि अधिक भोजन करने से अथवा रोग की अवस्था में भोजन करने से जीवनी-शक्ति नष्ट होती है, अर्थात् जीवनी-शक्ति को बचाने के लिए भोजन की भूमिका पर ध्यान देना बहुत आवश्यक है।
उत्तेजना, भय अथवा क्रोध की स्थिति में भोजन नहीं करना चाहिए, क्योंकि ऐसी स्थिति में आंतें और आमाशय संकुचित हो जाते हैं, जिसके कारण भोजन का पाचन नहीं हो पाता। इसलिए जो व्यक्ति उत्तेजना, भय अथवा क्रोध की स्थिति में भोजन करते हैं, वे अशान्त रहते हैं। अत: भोजन जब भी करें, शान्तिपूर्वक और प्रसन्न भाव से करें। इस प्रकार आपको दुगुना लाभ प्राप्त होगा।
भोजन को खूब चबा-चबाकर खाना चाहिए। कहा गया है कि भोजन के प्रत्येक ग्रास को कम-से-कम बत्तीस बार चबाकर खाना चाहिए, ताकि दांतों का काम आंतों को न करना पड़े। बत्तीस बार चबाकर भोजन करने से आपके मुख की लार भोजन के साथ भली प्रकार मिल जाती है, जिससे पाचन क्रिया सरल हो जाती है। इसके साथ ही भोजन को दांतों द्वारा चबाने से आपके क्रोध में भी कमी आयेगी और आपका मन भी शान्त एवं प्रसन्न रहेगा। तब आपका भोजन आपकी शारीरिक स्थिति को ही नहीं, अपितु आपकी मानसिक और व्यावहारिक स्थिति को भी नियन्त्रित रखेगा।
भोजन के विकारयुक्त अथवा तामसिक होने के कारण इस प्रकार हैं :
1. भोजन-प्राप्ति का स्रोत : धर्मानुसार अर्जित धन से जो भोजन प्राप्त किया जाता है, वह सात्त्विक एवं स्वास्थ्य के लिए लाभदायक होता है। ऐसा भोजन करने से शरीर में विकार अथवा रोग पैदा नहीं होते।
2. भोजन की प्रकृति : मांस, मछली, मिर्च, मसाला, तला हुआ अथवा मैदा आदि से बना भोजन तामसिक होता है। इस प्रकार के भोजन से रोग पैदा होने की सम्भावनाएं बढ़ जाती हैं।
3. भोजन का बासी होना : बनने के बाद पर्याप्त समय तक रखा हुआ भोजन बासी कहलाता है, जिसके सेवन से व्यक्ति बीमार हो सकता है।
4. भोजन बनाने वाले व्यक्ति की मन:स्थिति : पवित्र मन से बनाया गया भोजन शरीर को लाभ पहुंचाता है। अत: भोजन बनाने वाले व्यक्ति को भोजन बनाते समय अपने मन को पवित्र रखना आवश्यक है। आप जानते होंगे कि यदि दूध पिलाने वाली माताएं आनन्द-भाव से अपने बच्चे को दूध पिलाती हैं, तो उससे बच्चे को लाभ होता है, जबकि क्रोध अथवा घृणा की स्थिति में बच्चे को दूध पिलाने पर वे दूध के साथ-साथ अपने क्रोध अथवा घृणा-रूपी दोषों को भी बच्चे के मन में भरती जाती हैं।
5. भोजन करने वाले व्यक्ति की मन:स्थिति : भोजन करने वाले व्यक्ति की मन:स्थिति भी पवित्र होनी चाहिए। यदि भोजन क्रोध अथवा आवेश में किया जाये, तो वह विष बन जाता है। इसलिए भोजन को पवित्र भाव से ही किया जाना चाहिए।
6. अधिक स्वादिष्ट भोजन : जीभ के स्वाद पर क़ाबू पा लेने से शरीर की सभी इन्द्रियों पर नियन्त्रण हो जाता है। जीभ का स्वाद शरीर को नष्ट कर डालता है। अतः भोजन सात्त्विक, कम मसालेयुक्त और कम-से-कम पकाया हुआ होना चाहिए।
7. अप्राकृतिक भोजन : भोजन-प्राप्ति का आधार पवित्र व शुद्ध हो, भोजन सात्त्विक हो, बनाने वाले का मन भी पवित्र हो और भोजन करने वाले की मन:स्थिति भी शुद्ध हो, लेकिन यदि भोजन अप्राकृतिक हो, तो वह लाभ के स्थान पर हानि करेगा। शरीर को स्वस्थ रखने के लिए भोजन का योगदान सर्वोच्च होता है। इसलिए कहा गया है- आहारं सम्भवः वस्तु रोगश्चाहार सम्भवः। अर्थात् भोजन से ही शरीर उत्पन्न होता है और भोजन से ही रोग भी उत्पन्न होते हैं। अत: भोजन में उचित परिवर्तन करने-भर से ही अनेक रोगों का इलाज हो सकता है। उचित भोजन करने वाले व्यक्ति को ओषधि की आवश्यकता नहीं पड़ती और यदि उचित भोजन नहीं लिया जा सकता अथवा पथ्य पर नहीं रहा जा सकता, तो ओषधि की क्या आवश्यकता है? आहार में संशोधन परम आवश्यक होता है; क्योंकि पथ्यविहीन व्यक्तियों के लिए दवाएं कुछ नहीं कर सकती और केवल पथ्य के द्वारा बिना दवाओं के भी रोगों से बचा जा सकता है।
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Brij Bhan Singh
Chhatrapati Sambhajinagar
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