Last Updated on July 22, 2019 by admin
धारणा क्या है ? (श्री स्वामी शिवानन्द जी )
★ देशबन्धश्चित्तस्य धारणा’-मन को किसी बाह्य विषय अथवा आन्तरिक बिन्दु पर एकाग्र करना धारणा है। एक बार एक संस्कृत के विद्वान् कबीर के पास गये और उनसे प्रश्न किया-“कबीर, अभी आप क्या कर रहे हैं?” कबीर ने उत्तर दिया-“पण्डित जी, मैं मन को सांसारिक विषयों से वापस खींच कर भगवान् के चरण-कमलों पर एकाग्र कर रहा हूँ।” इसे धारणा कहते हैं।
★ उत्तम आचरण, आसन-प्राणायाम तथा विषय-वस्तुओं से प्रत्याहार धारणा में शीघ्र सफलता-प्राप्ति को सरल बनाते हैं। धारणा योग की सीढ़ी का छठवाँ पायदान है। मन जिस पर टिक सके, ऐसी किसी वस्तु के बिना धारणा नहीं हो सकती। एक निश्चित उद्देश्य, रुचि, एकाग्रता धारणा में सफलता लाते हैं।
★ इन्द्रियाँ आपको बाहर खींच लाती हैं और आपके मन की शान्ति को भंग कर देती हैं। यदि आपका मन बैचैन है, तो आप किसी प्रकार की प्रगति नहीं कर सकते हैं। जब अभ्यास के द्वारा मन की किरणें एकत्रित हो जाती हैं, तो मन एकाग्र हो जाता है। और आपको मन के भीतर से आनन्द प्राप्त होता है।
★ विचारों और आवेगों को शान्त करें । आपके भीतर धैर्य, दृढ़ संकल्प तथा अथक दृढ़ता होनी चाहिए। आपको अपने अभ्यास में बड़ा ही नियमित होना चाहिए, अन्यथा आलस्य और विपरीत बल आपको लक्ष्य से दूर ले के चले जायेंगे। एक उत्तम प्रशिक्षित मन को संकल्प के अनुसार किसी भी विषय पर, चाहे वह बाहरी हो या आन्तरिक, सभी विचारों के निषेध के लिए एकाग्र किया जा सकता है।
★ प्रत्येक व्यक्ति के पास कुछ विषयों पर धारणा हेतु क्षमता होती है। लेकिन आध्यात्मिक प्रगति के लिए धारणा का अत्यन्त उच्च स्तर तक विकास हो जाना चाहिए। उत्तम धारणा वाले व्यक्ति की अर्जन-क्षमता अच्छी होती है तथा वह कम समय में अधिक कार्य कर सकता है। धारणा करते समय मस्तिष्क पर किसी प्रकार का तनाव नहीं होना चाहिए। आपको मन के साथ संघर्ष नहीं करना चाहिए।
★ एक पुरुष जिसका मन वासनाओं तथा विभिन्न प्रकार की काल्पनिक कामनाओं से पूर्ण है, वह मन को किसी विषय पर एक पल के लिए भी कठिनाई से ही एकाग्र कर सकेगा। ब्रह्मचर्य का पालन, प्राणायाम के अभ्यास, आवश्यकताओं तथा गतिविधियों में कमी, विषय-वस्तुओं का त्याग, एकान्त का सेवन, मौन-व्रत, इन्द्रियों पर संयम करने तथा काम-वासना, लोभ, क्रोध का उन्मूलन करना, अनावश्यक लोगों से मिलने-जुलने से बचना, समाचारपत्र-पठन और सिनेमा देखने का त्याग–उपर्युक्त बताये गये नियमों के पालन से धारणा-शक्ति में वृद्धि होती है।
★ संसार के कष्टों, दुःखों से मुक्ति के लिए एकमात्र मार्ग धारणा है। इसके अभ्यासी का स्वास्थ्य उत्तम तथा उसे मानसिक दृष्टि से उत्साहित रहना चाहिए। धारणा का अभ्यासी सूक्ष्म अन्तर्दृष्टि प्राप्त कर सकता है। वह किसी भी कार्य को बड़ी कुशलता से सम्पन्न कर सकता है। धारणा आवेगों को शान्त करती है। विचार-शक्ति को दृढ़ बनाइए और विचारों को स्पष्ट कीजिए। यम तथा नियम के द्वारा मन को शुद्ध कीजिए। शुद्धता के बिना धारणा का कोई उपयोग नहीं है।
★ किसी मन्त्र का जप तथा प्राणायाम मन को स्थिर करेगा। विक्षेप का उन्मूलन कीजिए और धारणा-शक्ति में वृद्धि कीजिए। धारणा तभी की जा सकती है, जब मन सभी प्रकार के विक्षेपों से मुक्त हो। किसी भी उस विषय पर जिसे मन पसन्द करता हो या जो आपको अच्छा लगे, उस पर धारणा करें। प्रारम्भ में मन को स्थूल विषयों पर धारणा द्वारा प्रशिक्षित करना चाहिए और बाद में आप सूक्ष्म विषयों तथा निर्गुण विचारों पर सफलतापूर्वक धारणा कर सकेंगे। अभ्यास में नियमितता सर्वाधिक आवश्यक है।
1) स्थूल रूप : दीवार पर एक काला बिन्दु, मोमबत्ती की लौ, चमकता हुआ तारा, चन्द्रमा, ॐ का चित्र, भगवान् शिव, राम, कृष्ण, गुरु देवी अथवा अपने इष्टदेवता के चित्र को अपने सामने रख कर खुली आँखों से ध्यान करें।
2) सूक्ष्म रूप : अपने इष्टदेवता के चित्र के सामने बैठ जायें और आँखें बन्द कर लें। अपने इष्टदेवता का मानसिक चित्र अपनी दोनों भौहों के मध्य अथवा अपने हृदय में रखें। मूलाधार, अनाहत, आज्ञा अथवा अन्य किसी आन्तरिक चक्र पर धारणा करें। दैवी गुणों जैसे प्रेम, करुणा अथवा अन्य किसी निर्गुण विचार पर धारणा करें।
धारणा कहाँ करें ? और उसके लाभ : Dharana kha kare aur uske labh
★ हृदय-कमल (अनाहत चक्र) अथवा भ्रूमध्य अथवा त्रिकुटी (दोनों भौंहों के मध्य स्थान) अथवा नासिकाग्र पर धारणा करें। नेत्रों को बन्द रखें।
मन का स्थान आज्ञा चक्र है। यदि आप त्रिकुटी पर धारणा करेंगे, तो मन सरलता से एकाग्र हो जायेगा।
भक्तों को हृदय पर धारणा करनी चाहिए। योगियों तथा वेदान्तियों को आज्ञा चक्र पर धारणा करनी चाहिए।
मन का अन्य स्थान है सहस्रार (सिर का शीर्ष स्थान)। कुछ वेदान्ती यहाँ पर धारणा करते हैं। कुछ योगी नासिकाग्र पर भी धारणा करते हैं (नासिकाग्र-दृष्टि)।
★ धारणा के एक केन्द्र पर दृढ़तापूर्वक अभ्यास करते रहें। इसे हठपूर्वक पकड़े रहें। यदि आप हृदय पर धारणा करते हैं, तो सदा इसी पर करते रहें, इसे कभी न बदलें । यदि आप आस्थावान् हैं, तो आपके गुरु धारणा हेतु केन्द्र का चुनाव करेंगे। यदि आप आत्म-निर्भर व्यक्ति हैं, तो आप स्वयं ही केन्द्र का चुनाव कर सकते हैं।
★ भूमध्य-दृष्टि अर्थात् दोनों भौंहों के मध्य दृष्टि को केन्द्रित करना। यह आज्ञा चक्र का क्षेत्र है। अपने ध्यान के कमरे में पद्मासन अथवा सिद्धासन में बैठ कर एक मिनट तक धारणा करें। इस समय को शनैः-शनैः आधा घण्टे तक बढ़ायें। इसमें बल-प्रयोग न करें। यह योग की क्रिया विक्षेप अथवा मन के भटकाव को रोकती है तथा धारणा का विकास करती है।
★ भगवान् श्री कृष्ण ने गीता के पाँचवें अध्याय के २७ वें श्लोक में इस क्रिया-विधि को निर्दिष्ट किया है : “स्पर्शान्कृत्वा बहिर्बाह्यांश्चक्षुश्चैवान्तरे भ्रुवोः”बाह्य सम्पर्को को दूर करके दृष्टि को भूमध्य में केन्द्रित करें। इसे भूमध्य-दृष्टि भी कहते हैं; क्योंकि नेत्र भूमध्य की ओर केन्द्रित किये जाते हैं। आप इसके सिवा नासिकाग्र-दृष्टि का भी चुनाव कर सकते हैं।
★ नासिकाग्र-दृष्टि में दृष्टिको नासिका के अग्र भाग पर केन्द्रित करते हैं। जब आप सड़क पर भ्रमण कर रहे हों, तब भी नासिकाग्र-दृष्टि रखें । भगवान् कृष्ण ने गीता के छठवें अध्याय के श्लोक १३ में इसका वर्णन इस प्रकार किया है : “सम्प्रेक्ष्य नासिकाग्रम्”–चारों तरफ न देखते हुए, मात्र नासिका के अग्रभाग पर एकटक स्थिर दृष्टि से देखें । यह अभ्यास मन को स्थिर करता है तथा धारणा-शक्ति का विकास करता है।
★ एक राजयोगी त्रिकुटी पर धारणा करता है। यह आज्ञा चक्र का स्थान है। यह भूमध्य में है। यह जाग्रत अवस्था में मन का स्थान है। यदि आप इस स्थान पर धारणा करें, तो आप सरलता से मन को नियन्त्रित कर सकते हैं। यहाँ पर धारणा करने से अत्यन्त शीघ्र ही, यहाँ तक कि एक दिन के अभ्यास से ही कुछ लोगों को प्रकाश दिखायी देने लगता है। वे अभ्यासी जो विराट् पर ध्यान करना चाहते हैं तथा जगत् की सहायता करना चाहते हैं, उन्हें अपने ध्यान हेतु इस स्थान का चुनाव करना चाहिए।
★ एक भक्त को हृदय पर जो कि भावना तथा अनुभव का स्थान है, ध्यान करना चाहिए। जो हृदय पर ध्यान करते हैं, उन्हें महान् आनन्द की प्राप्ति होती है। जो आनन्द प्राप्त करना चाहते हैं, उन्हें हृदय पर ध्यान करना चाहिए।
★ एक हठयोगी अपना मन सुषुम्ना नाड़ी जो कि मेरुरज्जु का मध्य मार्ग है तथा किसी विशेष चक्र जैसे मूलाधार, मणिपूर अथवा आज्ञा चक्र पर एकाग्र करता है। कुछ योगी निम्न चक्रों की उपेक्षा करते हैं। वे अपने मन को आज्ञा चक्र पर ही एकाग्र करते हैं। उनका सिद्धान्त यह है कि वे आज्ञा चक्र पर नियन्त्रण के द्वारा सभी निम्न चक्र पर स्वयं ही नियन्त्रण कर सकेंगे।
★ जब आप किसी चक्र पर धारणा करते हैं, तो प्रारम्भ में मन तथा उस चक्र के मध्य तन्तु जैसा सम्बन्ध स्थापित हो जाता है। इसके पश्चात् योगी सुषुम्ना के साथ-साथ एक-एक चक्र ऊपर चढ़ता चला जाता है। यह उत्थान धैर्यपूर्वक प्रयत्न द्वारा शनैः-शनैः होता है। सुषुम्ना के प्रवेश-द्वार में हल-चल होने से अत्यधिक आनन्द की प्राप्ति होती है। तब आप मदमस्त हो जाते हैं। आप संसार को पूर्णतः विस्मृत कर देंगे। सुषुम्ना के द्वार में स्पन्दन होने पर कुलकुण्डलिनी-शक्ति सुषुम्ना में प्रवेश करने का प्रयत्न करती है और अन्तर में महान् वैराग्य आ जाता है। आप पूर्ण निर्भय हो जाते हैं।
★ आपको अनेक दृश्य दिखायी देते हैं। आप श्रेष्ठ अंतरर्ज्योतियों के साक्षी बनते हैं। इसे उन्मनी अवस्था कहते हैं। विभिन्न चक्रों पर नियन्त्रण द्वारा आपको अनेक प्रकार के आनन्द तथा विभिन्न ज्ञान प्राप्त होते हैं जैसे यदि आपने मूलाधार पर विजय प्राप्त कर ली है, तो आपने भूमण्डल पर स्वयं ही विजय प्राप्त कर ली है। यदि आपने मणिपूर चक्र पर विजय प्राप्त कर ली है, तो आपने अग्नि पर स्वयं ही विजय पा ली है, अब अग्नि आपको नहीं जला सकती। पंच धारणा आपको पंच तत्वों पर विजय में सहायक सिद्ध होगी। इनको किसी दक्ष योगी के निर्देशन में सीखें।
श्रोत – धारणा और ध्यान