Last Updated on April 29, 2022 by admin
स्वस्तिक क्या है ?(Swastika in Hindi)
हमारी भारतीय संस्कृति में प्राचीन काल से ही स्वस्तिक को शुभ मंगल का प्रतीक माना जाता है. जब हम कोई भी शुभ काम करते हैं तो सबसे पहले स्वस्तिक चिन्ह अंकित करते है और उसकी पूजा करते हैं. स्वस्तिक का शाब्दिक अर्थ होता है अच्छा या मंगल करने वाला।“स्वस्तिक” चिन्ह को हिन्दू धर्म ने ही नहीं सभी धर्मों ने परम पवित्र माना है।
हिन्दू संस्कृति के प्राचीन ऋषियों ने अपने धर्म के आध्यात्मिक अनुभवों के आधार पर कुछ विशेष चिन्हों की रचना की, ये चिन्ह मंगल भावों को प्रकट करती है , ऐसा ही एक चिन्ह है “स्वास्तिक“। स्वस्तिक मंगल चिन्हों में सर्वाधिक प्रतिष्ठा प्राप्त है और पुरे विश्व में इसे सकारात्मक ऊर्जा का स्त्रोत माना जाता है. इसी कारण किसी भी शुभ कार्य को शुरू करने से पहले स्वस्तिक का चिन्ह बनाया जाता है।
स्वस्तिक के प्रकार :
स्वस्तिक 2 प्रकार का होता है –
एक दाया और दुसरा बांया .
दाहिना स्वस्तिक नर का प्रतिक है और बांया नारी का प्रतिक है.
स्वस्तिक का महत्व (swastik chinh ka mahatva)
वेदों में ज्योतिर्लिंग को विश्व के उत्पत्ति का मूल स्त्रोत माना गया है।स्वस्तिक की खड़ी रेखा सृष्टि के उत्पत्ति का प्रतिक है और आड़ी रेखा सृष्टि के विस्तार का प्रतिक है तथा स्वस्तिक का मध्य बिंदु विष्णु जी का नाभि कमल माना जाता है जहाँ से विश्व की उत्पत्ति हुई है. स्वस्तिक में प्रयोग होने वाले 4 बिन्दुओ को 4 दिशाओं का प्रतिक माना जाता है।
कुछ विद्वान् इसे गणेश जी का प्रतिक मानकर प्रथम पूज्य मानते हैं. कुछ लोग इनकी 4 वर्णों की एकता का प्रतिक मानते है, कुछ इसे ब्रह्माण्ड का प्रतिक मानते है , कुछ इसे इश्वर का प्रतिक मानते है।
स्वस्तिक दो रेखाओं द्वारा बनता है और दोनों रेखाओं को बीच में समकोण स्थिति में विभाजित किया जाता है-दोनों रेखाओं के सिरों पर बायीं से दायीं ओर समकोण बनाती हुई रेखाएं इस तरह खींची जाती हैं कि वे आगे की रेखा को न छू सकें-स्वस्तिक को किसी भी स्थिति में रखा जाए तब भी उसकी रचना एक-सी ही रहेगी-स्वस्तिक के चारों सिरों पर खींची गयी रेखाएं किसी बिंदु को इसलिए स्पर्श नहीं करतीं-क्योंकि इन्हें ब्रहाण्ड के प्रतीक स्वरूप अन्तहीन दर्शाया गया है।
स्वस्तिक शब्द सू + उपसर्ग अस् धातु से बना है- सु अर्थात अच्छा, श्रेष्ठ, मंगल एवं अस् अर्थात सत्ता-यानी कल्याण की सत्ता, मांगल्य का अस्तित्व-स्वस्तिक हमारे लिए सौभाग्य का प्रतीक है।
स्वस्तिक गणपति का भी प्रतीक है-स्वस्तिक को भगवान विष्णु व श्री का प्रतीक चिह्न् माना गया है-स्वस्तिक की चार भुजाएं भगवान विष्णु के चार हाथ हैं-इस धारणा के अनुसार भगवान विष्णु ही स्वस्तिक आकृति में चार भुजाओं से चारों दिशाओं का पालन करते हैं।
स्वस्तिक के मध्य में जो बिन्दु है, वह भगवान विष्णु का नाभिकमल यानी ब्रम्हा का स्थान है-स्वस्तिक धन की अधिष्ठात्री देवी लक्ष्मी उपासना के लिए भी बनाया जाता है।
स्वस्तिक की खड़ी रेखा स्वयंभू ज्योतिर्लिंग का संकेत देती है तथा आड़ी रेखा विश्व के विस्तार को बताती है।।
ॐ स्वस्ति नऽइन्द्रो वृद्धश्रवाः
स्वस्ति नः पूषा विश्ववेद्राः।
स्वस्ति नस्ताक्षर्योऽअरिष्टनेमिः
स्वस्ति तो बृहस्पतिर्दधातु॥
यजुर्वेद की इस कल्याणकारी एवं मंगलकारी शुभकामना, स्वस्तिवाचन में स्वस्तिक का निहितार्थ छिपा है। हर मंगल एवं शुभ कार्य में इसका भाव भरा वाचन किया जाता है, जिसे स्वस्तिवाचन कहा जाता है।
स्वस्तिक संस्कृत के स्वस्ति शब्द से निर्मित है। स्व और अस्ति से बने स्वस्ति का अर्थ है कल्याण। यह मानव समाज एवं विश्व के कल्याण की भावना का प्रतीक है। ‘वसोमम’- मेरा कल्याण करो का भी यह पावन प्रतीक है। इसे शुभकामना, शुभभावना, कुशलक्षेम, आशीर्वाद, पुण्य, पाप-प्रक्षालन तथा दान स्वीकार करने के रूप में भी प्रयोग, उपयोग किया जाता है।
यह शुभ प्रतीक अनादि काल से विद्यमान होकर संपूर्ण सृष्टि में व्याप्त रहा है। सभ्यता और संस्कृति के पुरातन लेख केवल हमारे वेद और पुराण ही हैं और हमारे ऋषियों ने उनमें स्वस्तिक का मान प्रस्तुत किया है।
स्वस्तिक में अतिगूढ़ अर्थ एवं निगूढ़ रहस्य छिपा है। गणपति के गं बीजाक्षर का चिन्ह भी स्वस्ति जैसा प्रतीत होता है। इसके रूप एवं समूचे मंत्र का स्वरूप स्वस्तिक का आकार ग्रहण करता है। प्राचीन तथा अर्वाचीन मान्यता के अनुसार यह सूर्य मंडल के चारों ओर चार विद्युत केंद्र के समान लगता है। इसकी पूरब दिशा में वृद्धश्रवा इंद्र, दक्षिण में वृहस्पति इंद्र, पश्चिम में पूषा-विश्ववेदा इंद्र तथा उत्तर दिशा में अरिष्टनेमि इंद्र अवस्थित हैं।
वाल्मिकी रामायण में भी स्वस्तिक का उल्लेख मिलता है। इसके अनुसार साँप के फन के ऊपर स्थित नीली रेखा भी स्वस्तिक का पर्याय है। नादब्रह्म से अक्षर तथा वर्णमाला बनी, मातृका की उत्पत्ति हुई नाद से ही पश्यंती, मध्यमा तथा वैखरी वाणियाँ उत्पन्ना हुईर्ं। तदुपरांत उनके भी स्थूल तथा सूक्ष्म, दो भाग बने। इस प्रकार नाद सृष्टि के छः रूप हो गए। इन्हीं छः रूपों में पंक्तियों में स्वस्तिक का रहस्य छिपा है। अतः स्वस्तिक को समूचे नादब्रह्म तथा सृष्टि का प्रतीक एवं पर्याय माना जा सकता है।
हिन्दू पौराणिक मान्यता के अनुसार अभिमंत्रित स्वस्तिक रूप गणपति पूजन से घर में लक्ष्मी की कमी नहीं होती।।
जानिए स्वस्तिक का वैज्ञानिक आधार :
स्वस्तिक चिह्न् का वैज्ञानिक आधार भी है- गणित में + चिह्न् माना गया है-विज्ञान के अनुसार पॉजिटिव तथा नेगेटिव दो अलग-अलग शक्ति प्रवाहों के मिलनबिन्दु को प्लस (+) कहा गया है जो कि नवीन शक्ति के प्रजनन का कारण है- प्लस को स्वस्तिक चिह्न् का अपभ्रंश माना जाता है, जो सम्पन्नता का प्रतीक है।।
किसी भी मांगलिक कार्य को करने से पूर्व हम स्वस्तिवाचन करते हैं अर्थात मरीचि, अरुन्धती सहित वसिष्ठ, अंगिरा, अत्रि, पुलस्त्य, पुलह तथा कृत आदि सप्त ऋषियों का आशीर्वाद प्राप्त करते हैं- इसी लिए ऋषियों ने स्वस्तिक का निर्माण किया था -मंगल कार्यो के प्रारम्भ में स्वस्तिक बनाने मात्र से कार्य संपन्न हो जाता है- हिन्दू धर्म यह मान्यता रही है।।
स्वस्तिक शब्द किसी जाति या व्यक्ति की और इशारा नहीं करता है. स्वस्तिक में सारे विश्व के कल्याण की भावना समाई हुई है. स्वस्तिक सबके कल्याण का प्रतीक है. भारतीय संस्कृति में स्वस्तिक को बहुत महत्वपूर्ण माना गया है. सब मुश्किलों को हरने वाले भगवान् गणेश की पूजा, धन, वैभव की देवी लक्ष्मी की पूजा स्वस्तिक के साथ की जाती है. शुभ लाभ, स्वास्तिक तथा बहीखातों की पूजा करने की परम्परा भारतीय संस्कृति में बहुत पुरानी है।
स्वस्तिक को सभी धर्मों में महत्वपूर्ण बताया गया है.अलग – अलग देशों में स्वस्तिक को अलग – अलग नामों से जाना जाता है. सिन्धु घाटी की सभ्यता आज से चार हजार पुरानी है. स्वस्तिक के निशान सिन्धु घाटी की सभ्यता में भी मिलते हैं. बोद्ध धर्म में स्वस्तिक को बहुत महत्वपूरण माना जाता है. बोद्ध धर्म में भगवान गौतम बुद्ध के ह्रदय के ऊपर स्वस्तिक का निशान दिखाया गया है. स्वस्तिक का निशान मध्य एशिया के सभी देशों में मंगल एव सौभाग्य का प्रतीक माना जाता है।।
नेपाल में स्वस्तिक की हेरंब के नाम से की जाती है. बर्मा में महा प्रियेन्ने के नाम से स्वस्तिक की पूजा की जाती है. मिस्र में सब देवताओं के पहले कुमकुम के द्वारा क्रोस की आक्रति बनाई जाती है. मिस्र में एक्टन के नाम से स्वस्तिक की पूजा की जाती है।।
मेसोपोटेमिया में स्वस्तिक को शक्ति का प्रतीक माना गया है. अस्त्र-शस्त्र पर विजय प्राप्त करने के लिए स्वस्तिक के निशान का प्रयोग किया जाता है. हिटलर ने भी स्वस्तिक के निशान को महत्वपूर्ण माना था. स्वास्तिक जर्मन के राष्ट्रीय ध्वज में विराजमान है.क्रिस्चियन क्रोस का प्रयोग करते हैं जो की स्वस्तिक का ही रूप है. जैन धर्म और सनातन धर्म में स्वस्तिक को मंगल करने वाला माना गया है।।
वास्तु शास्त्र के अनुसार चार दिशायें होती हैं स्वस्तिक से चारों दिशाओं का बोद्ध होता है. पूर्व, दक्षिण, पश्चिम उतर. चारों दिशाओं के देव अलग अलग होते हैं. पूर्व के इंद्र, दक्षिण के यम, पश्चिम के वरुण, उतर के कुबेर. स्वस्तिक की भुजाओं से चारों उप दिशाओं का पता चलता है. स्वस्तिक के निशान में आठों दिशाओं को दिखाया गया है.
वैदिक धर्म में स्वस्तिक को भगवान् गणेश का स्वरूप माना जाता है. स्वस्तिक की चारों दिशाओं से चार युगों का पता चलता है. ये चार युग हैं सतयुग, त्रेता, द्वापर और कलयुग. स्वास्तिक के निशान से चार वर्ण ब्राह्मण, छत्रिय, वैश्य ,शुद्र का पता चलता है. स्वस्तिक से चार आश्रम ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ, सन्यास का ज्ञान होता है. चार पुरुषार्थ धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का ज्ञान होता है. चार वेद आदि के बारे में पता चलता है. स्वस्तिक की चार भुजाओं से धर्म के सिद्धांतो का बोद्ध होता है. चारों दिशाओं में भगवान् का दर्शन एक समान होता है ।
एनर्जी नापने वाले “बोविस यन्त्र ” द्वारा स्वस्तिक की जाँच करने से पता चलता है कि स्वस्तिक के अन्दर लगभग एक लाख सकारात्मक उर्जाओं का वास होता है. घर के मुख्य द्वार पर और हर कमरे के द्वार पर स्वस्तिक अंकित करने से सकारात्मक उर्जाएं घर के अन्दर आ जाती हैं।।
स्वस्तिक की चार भुजाओं से धर्म के सिद्दांतों की जानकारी होती है. चारों दिशाओं से भगवान् का दर्शन एक समान रूप से होता है. स्वस्तिक से हमें चार घातीयों कर्म ज्ञानावार्निया, दर्शानावेर्निय, मोहनीय, अंतराय का बोध होता है. स्वस्तिक से हमें चार अनंत चतुष्टय अनंत्दर्शन, अनंतज्ञान, अनंतसुख, अनंत वीर्य का ज्ञान होता है.
कुछ विद्वान् स्वस्तिक की रेखाओं को आग पैदा करने वाली अश्वत्थ और पीपल की दो लकड़ियाँ मानते हैं.स्वस्तिक की इतनी जानकारी देने का उद्देश्य यही है कि स्वस्तिक के आकार में अनगिनत जानकारियाँ व अनगिनत शक्तियां मौजूद हैं. शरीर को बाहर से साफ़ करके साफ वस्त्र पहनकर ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करते हुए पवित्र भावना से नो अंगुल का स्वस्तिक बनायें. 90 डिग्री के एंगल में सब भुजाओं को एक समान रखते हुए स्वस्तिक बनाएं.
ब्रह्म मुहूर्त में विधि के अनुसार केसर से, कुमकुम से, सिन्दूर और तेल को मिलकर अनामिका अंगुली से स्वस्तिक बनायें. ऐसा करने से घर के वातावरण में थोड़े समय तक अच्छा परिवर्तन हो जाता है।।
जानिए स्वस्तिक और वास्तुशास्त्र का सम्बन्ध :
घर को बुरी नजर से बचाने व उसमें सुख-समृद्धि के वास के लिए मुख्य द्वार के दोनों तरफ स्वस्तिक चिह्न् बनाया जाता है- स्वस्तिक चक्र की गतिशीलता बाईं से दाईं ओर है- इसी सिद्धान्त पर घड़ी की दिशा निर्धारित की गयी है-पृथ्वी को गति प्रदान करने वाली ऊर्जा का प्रमुख स्रोत उत्तरायण से दक्षिणायण की ओर है।।
इसी प्रकार वास्तुशास्त्र में उत्तर दिशा का बड़ा महत्व है-इस ओर भवन अपेक्षाकृत अधिक खुला रखा जाता है जिससे उसमें चुम्बकीय ऊर्जा व दिव्य शक्तियों का संचार रहे-वास्तुदोष क्षय करने के लिए स्वस्तिक को बेहद लाभकारी माना गया है।।
मुख्य द्वार के ऊपर सिन्दूर से स्वस्तिक का चिह्न् बनाना चाहिए-यह चिह्न् नौ अंगुल लम्बा व नौ अंगुल चौड़ा हो- घर में जहां-जहां वास्तुदोष हो वहां यह चिह्न् बनाया जा सकता है-यह वास्तु का मूल चिह्न् है।।
जानिए सफलता प्राप्ति के लिए स्वस्तिक का कैसे प्रयोग करे :
- पञ्च धातु का स्वस्तिक बनवा के प्राण प्रतिष्ठा करके चौखट पर लगवाने से अच्छे परिणाम मिलते हैं.
- चांदी में नवरत्न लगवाकर पूर्व दिशा में लगाने पर वास्तु दोष व लक्ष्मी प्राप्त होती है.
- वास्तु दोष दूर करने के लिये 9 अंगुल लंबा और चौड़ा स्वस्तिक सिन्दूर से बनाने से नकारात्मक ऊर्जा को सकारात्मक ऊर्जा में बदल देता है.
- धार्मिक कार्यो में रोली, हल्दी,या सिन्दूर से बना स्वस्तिक आत्मसंतुष्टि देता है.
- गुरु पुष्य या रवि पुष्य मे बनाया गया स्वस्तिक शांति प्रदान करता है.
- त्योहारों में द्वार पर कुमकुम सिन्दूर अथवा रंगोली से स्वस्तिक बनाना मंगलकारी होता है. ऐसी मान्यता है की देवी – देवता घर में प्रवेश करते हैं इसीलिए उनके स्वागत के लिए द्वार पर इसे बनाया जाता है.
- अगर कोई 7 गुरुवार को ईशान कोण में गंगाजल से धोकर सुखी हल्दी से स्वस्तिक बनाए और उसकी पंचोपचार पूजा करे साथ ही आधा तोला गुड का भोग भी लगाए तो बिक्री बढती है.
- स्वस्तिक बनवाकर उसके ऊपर जिस भी देवता को बिठा के पूजा करे तो वो शीघ्र प्रसन्न होते है.
- देव स्थान में स्वस्तिक बनाकर उस पर पञ्च धान्य का दीपक जलाकर रखने से कुछ समय में इच्छित कार्य पूर्ण होते हैं .
- भजन करने से पहले आसन के नीचे पानी , कंकू, हल्दी अथवा चन्दन से स्वास्तिक बनाकर उस स्वस्क्तिक पर आसन बिछाकर बैठकर भजन करने से सिद्धी शीघ्र प्राप्त होती है.
- सोने से पूर्व स्वस्तिक को अगर तर्जनी से बनाया जाए तो सुख पूर्वक नींद आती है, बुरे सपने नहीं आते है.
- स्वस्तिक में अगर पंद्रह या बीसा का यन्त्र बनाकर लोकेट या अंगूठी में पहना जाए तो विघ्नों का नाश होकर सफलता मिलती है.
- मनोकामना सिद्धी हेतु मंदिरों में गोबर और कंकू से उलटा स्वस्तिक बनाया जाता है.
- होली के कोयले से भोजपत्र पर स्वास्तिक बनाकर धारण करने से बुरी नजर से बचाव होता है और शुभता आती है.
- पितृ पक्ष में बालिकाए संजा बनाते समय गोबर से स्वस्तिक भी बनाती है शुभता के लिए और पितरो का आशीर्वाद लेने के लिए.
- वास्तु दोष दूर करने के लिए पिरामिड में भी स्वस्तिक बनाकर रखने की सलाह दी जाती है.
अतः स्वस्तिक हर प्रकार से से फायदेमंद है , मंगलकारी है, शुभता लाने वाला है, ऊर्जा देने वाला है, सफलता देने वाला है इसे प्रयोग करना चाहिए।।
हिन्दू मान्यता के अनुसार स्वास्तिक :
किसी भी शुभ कार्य को आरंभ करने से पहले हिन्दू धर्म में स्वास्तिक का चिन्ह बनाकर उसकी पूजा करने का महत्व है-मान्यता है कि ऐसा करने से कार्य सफल होता है-स्वास्तिक के चिन्ह को मंगल प्रतीक भी माना जाता है-स्वास्तिक शब्द को ‘सु’ और ‘अस्ति’ का मिश्रण योग माना जाता है। यहां ‘सु’ का अर्थ है शुभ और ‘अस्ति’ से तात्पर्य है होना अर्थात स्वास्तिक का मौलिक अर्थ है ‘शुभ हो’, ‘कल्याण हो’।।
असल में स्वस्तिक का यह चिन्ह क्या दर्शाता है-हिन्दू धर्मं में मान्यता है कि यह रेखाएं चार दिशाओं – पूर्व, पश्चिम, उत्तर एवं दक्षिण की ओर इशारा करती हैं-लेकिन हिन्दू मान्यताओं के अनुसार यह रेखाएं चार वेदों – ऋग्वेद, यजुर्वेद, अथर्ववेद और सामवेद का प्रतीक हैं- कुछ यह भी मानते हैं कि यह चार रेखाएं सृष्टि के रचनाकार भगवान ब्रह्मा के चार सिरों को दर्शाती हैं।।
हिन्दुओ के समान जैन, बौद्ध और इसाई भी स्वस्तिक को मंगलकारी और समृद्धि प्रदान करने वाला चिन्ह मानते है. बौद्ध मान्यता के अनुसार वनस्पति सम्पदा की उत्पत्ति का कारण स्वस्तिक है. बुद्ध के मूर्तियों में और उनके चिन्हों पर स्वस्तिक का चिन्ह मिलता है. इससे पूर्व सिन्धु घाटी से प्राप्त मुद्रा में और बर्तनों में भी स्वास्तिक के चिन्ह खुदे मिलते है. उदयगिरी और खंडगिरी के गुफा में भी स्वास्तिक चिन्ह मिले है।।
स्वस्तिक को 7 अंगुल, 9 अंगुल या 9 इंच के प्रमाण में बनाया जाने का विधान है. मंगल कार्यो के अवसर पर पूजा स्थान तथा दरवाजे की चौखट पर स्वस्तिक बनाने की परम्परा है.
स्वस्तिक का आरंभिक आकार पूर्व से पश्चिम एक खड़ी रेखा और उसके ऊपर दूसरी दक्षिण से उत्तर आडी रेखा के रूप में तथा इसकी चारो भुजाओं के सिरों पर पूर्व से एक एक रेखा जोड़ी जाती है तथा चारो रेखाओं के मध्य में एक एक बिंदु लगाया जाता है और स्वस्तिक के मध्य में भी एक बिंदु लगाया जाता है. इसके लिए विभिन्न प्रकार की स्याही का उपयोग होता है।।
भारतीय दर्शन के अनुसार स्वस्तिक की चार रेखाओं की चार वेद, चार पुरुषार्थ, चार वर्ण, चार आश्रम, चार लोक तथा चार देवों अर्थात् ब्रह्मा, विष्णु, महेश तथा गणेश से तुलना की गई है। प्रतीकात्मक विचार के इन सूत्रों में स्वस्तिक चतुर्दल कमल का सूचक भी माना गया है। अतः यह गणपति देव का निवास स्थान भी है। इसी तथ्य को मूर्धन्य मनीषियों ने भी स्वीकार किया है। उन्होंने भी कमल को स्वस्तिक का ही पर्याय माना है। इसलिए कमल का प्रतीक भी स्वस्तिक हो गया और इसे भी मंगल व पुण्यकर्म में प्रयुक्त किया जाने लगा।
कुछ विद्वान कमलापति भगवान विष्णु के वक्षस्थल पर विद्यमान कौस्तुभ मणि को स्वस्तिक के आकार रूप में मानते हैं।
‘सिंबोलिज्म ऑफ दि ईस्ट एंड वेस्ट’ नामक ग्रंथ में प्रतिपादित किया गया है कि वैदिक प्रतीकों में गहन-गंभीर एवं गूढ़ अर्थ निहित है। यही प्रतीक संसार के विभिन्ना धर्मों में भिन्न-भिन्न ढंग से परिलक्षित प्रकट होते हैं तथा देश-काल, परिस्थिति के अनुरूप इनके स्वरूपों में रूपांतर एवं परिवर्तन होता रहता है। अतः स्वस्तिक प्रतीक की गति-प्रगति की एक अत्यंत समृद्ध परंपरा है।
जैन धर्म में स्वस्तिक उनके सातवें तीर्थंकर सुपार्श्वनाथ के प्रतीक चिन्ह के रूप में लोकप्रिय हैं। जैन अनुयायी स्वस्तिक की चार भुजाओं को संभावित पुनर्जन्मों के स्थल-स्थानों के रूप में मानते हैं। ये स्थल हैं- वनस्पति या प्राणिजगत, पृथ्वी, जीवात्मा एवं नरक। बौद्ध मठों में भी स्वस्तिक का अंकन मिलता है। जॉर्ज वडंउड ने बौद्धों के धर्मचक्र को यूनानी क्रॉस को तथा स्वस्तिक को सूर्य का प्रतीक माना है। उनके अनुसार यह अत्यंत प्राचीनतम प्रतीक है, जिसमें गहन अर्थ निहित है। तिब्बत के लामाओं के निवास स्थान तथा मंदिरों में स्वस्तिक की आकृति बनी हुई मिलती है। क्रॉस की उत्पत्ति का आधार ही स्वस्तिक है।
बौद्ध धर्म में स्वास्तिक को अच्छे भाग्य का प्रतीक माना गया है-यह भगवान बुद्ध के पग चिन्हों को दिखाता है, इसलिए इसे इतना पवित्र माना जाता है-यही नहीं, स्वास्तिक भगवान बुद्ध के हृदय, हथेली और पैरों में भी अंकित है-
हिन्दू धर्म से कहीं ज्यादा महत्व स्वास्तिक का जैन धर्म में है-जैन धर्म में यह सातवं जिन का प्रतीक है- जिसे सब तीर्थंकर सुपार्श्वनाथ के नाम से भी जानते हैं- श्वेताम्बर जैनी स्वास्तिक को अष्ट मंगल का मुख्य प्रतीक मानते हैं।।