धर्म के 10 लक्षण जो मनुष्य को उन्नत और महान बना देते हैं । Dharm ke Lakshan

Last Updated on July 22, 2019 by admin

धर्म के १० लक्षण मनुष्य को उन्नत कर देते हैं । स्वायंभुव मनुजी ने मनुष्यों को बताया है कि तुम लोग मेरे मेरी संतान हो और पिता-पितामह की सम्पदा संतान में आती है, इसलिए कम-से-कम इन दस बातों का तुम ख्याल रखा करो :
धृतिः क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः । धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम् ।।
(मनुस्मृति : ६.९२)

~धर्म के 10 लक्षण

(१) धैर्य : पहली बात यह है कि यदि कभी तुम्हारे ऊपर कोई संकट आये, विपत्ति आये तो तुम घबराया न करो,किंतु तुम तो मेरे बेटे होकर भी जरा-सा संकट आया नहीं, विपत्ति आयी नहीं कि बेहद घबरा जाते हो । यह हमारे वंश के अनुरूप नहीं है ।
देखो, यह बात मनुजी ने यों ही नहीं कही । एक बार वे अपनी पत्नी शतरूपा के साथ सुनन्दा नदी के तट पर तपस्या कर रहे थे । उनको देखकर राक्षस लोग उनको खाने के लिए दौडे लेकिन वे बिल्कुल घबराये नहीं, अचल हो गये और ‘ईशावास्य उपनिषद्” के इस मंत्र का जप करने लगे – ‘ईशावास्यमिदं सर्वम् । भगवान ने देखा कि ये तो अपने धर्म का ठीक-ठीक पालन कर रहे हैं और राक्षस लोग इन्हें मार डालना चाहते हैं, तब वे सुदर्शन चक्रधारी भगवान आये और उन्होंने मनु-शतरूपा की रक्षा की । इसलिए हमारी जो घबराहट है, यह मानव-धर्म के विपरीत है ।
मनुष्य का जो पहला धर्म है, वह अपने धैर्य को कायम रखना है । किसी भी हालत में अपना धैर्य नहीं खोना चाहिए । जीवन में रात आती है, दिन आता है; रोग आता है, आरोग्य आता है; सुख आता है, दुःख आता है; हम जिससे मिलना चाहते हैं, कभी वह मिलता है और जिससे नहीं मिलना चाहते, कभी वह मिलता है । किसी भी अवस्था में घबडाना नहीं चाहिए । हमारे जीवन की जो गाडी है, वह बिल्कुल ठीक-ठीक चलनी चाहिए । यही धर्म है, इसीको ‘मनुस्मृति में ‘धृति के नाम से कहा गया है । धृति माने धारण करना, रोक रखना ।

(२) क्षमा : धर्म का दूसरा लक्षण है क्षमा । क्षमा समर्थ पुरुष के भीतर रहती है । किसीने गलती की और हम सोचने लगें कि इसका क्या करें ? तो यह हमारी मजबूरी है । दण्ड देने का सामथ्र्य अपने अन्दर रहने पर भी हम चाहें तो उसको क्षमा कर सकते हैं । क्षमा बलवान मनुष्य का धर्म है, निर्बल मनुष्य क्षमा को कभी अपने जीवन में धारण नहीं कर सकता । लेकिन क्षमा कब होती है ? कभी-कभी हम क्षमा का उलटा व्यवहार करते हैं । उलटा व्यवहार कब होता है ? जब हम स्वयं गलती करते हैं तो सोचते हैं कि ‘अच्छा भाई, ऐसा तो होता ही रहता है । लेकिन दूसरे से गलती हो जाय तो उसके सिर पर सवार हो जाते हैं कि ‘तुमने यह गलती क्यों की ? यह मनुष्यता की सीमा का उल्लंघन है । अपने को क्षमा करने के लिए क्षमा नहीं है, दूसरों को क्षमा करने के लिए क्षमा है । अपने से कोई गलती हो जाय तो उसका प्रायश्चित्त करना चाहिए, उसके लिए पछताना चाहिए, माफी माँगनी चाहिए । आगे ऐसी गलती नहीं करने का दृढ निश्चय करना चाहिए ।

(३) दम : धर्म का तीसरा लक्षण है दम, अर्थ यही कि उत्तेजना का प्रसंग आने पर भी उत्तेजित नहीं होना । हमें उत्तेजित करनेवाले लोग तो बहुत मिलते हैं, लेकिन हमारे साथ वास्तविक सहृदयता प्रकट करनेवाले बहुत कम हैं ।

(४) अस्तेय : चोरी न करना ।

(५) शौच अर्थात् पवित्रता : हम जब प्रातःकाल उठते हैं । उस समय यदि नित्यकर्म आवश्यक हो, लघुशंका-शौच जाना आवश्यक हो तब तो जायें और न जाना हो तो थोडी देर बैठकर उस ब्राह्ममुहूर्त का सदुपयोग करें । सूर्योदय से पहले उठें और उठकर पवित्र चिन्तन करें । क्योंकि सोते समय सारी वासनाएँ शांत हो जाती हैं और फिर धीरे-धीरे जीवन में उदय होती हैं । उस समय जबकि अभी सांसारिक वासनाओं का उदय नहीं हुआ है और नींद टूट चुकी है, यदि आप अपने आत्मा के स्वरूप का, सत्य का चिंतन करेंगे तो जैसे दिनभर के लिए बैटरी में बिजली भर लेते हैं, वैसे ही परमात्मा के साथ थोडा-सा संबंध होते ही अपने हृदय में उसकी शक्ति का आविर्भाव हो जाता है । यदि प्रातःकाल शरीर में अशुद्धि मालूम होती हो तो स्नान भी कर लें, पर नित्यकर्म के नाम पर खट-पट करने की अपेक्षा पहले परमात्मा का चिंतन करना ही उत्तम है, क्योंकि सबसे पवित्र वस्तु परमात्मा है । परमात्मा के चिंतन से बढकर अपने चित्त और जीवन को पवित्र करनेवाली अन्य कोई वस्तु नहीं है ।
यदि उस समय एक-दो मिनट भी परमात्मा का स्मरण हो जाय तो सारे दिन के लिए, जीवनभर के लिए बडी भारी शक्ति आपको प्राप्त हो जायेगी ।

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(६) इन्द्रियनिग्रह : धर्म की छठी भूमिका है इन्द्रियनिग्रह, इन्द्रियों में पर संयम चाहिए । जैसे घोडे की बागडोर अपने हाथ में रखते हैं, वैसे ही इन्द्रियों की बागडोर हमारे हाथ में होनी चाहिए । संयम शब्द का अर्थ यही है कि इन्द्रियों के सामने जब कोई आकर्षक वस्तु आ जाय, तब वे अपने वश में रहें, उस पर लुब्ध न हो जायें । यदि न आये तब तो कोई बात ही नहीं है, अन्यथा आँखों के सामने आकर्षक रूप आ जाय, कान में आकर्षक शब्द आ जाय, त्वचा के लिए आकर्षक स्पर्श आ जाय, जिह्वा के लिए आकर्षक भोजन आ जाय, नासिका के लिए आकर्षक सुगंध आ जाय, तब इन सब इन्द्रियों पर अपना नियंत्रण रहे । यहाँ तक कि जब कोई आपकी तारीफ का के पुल बाँधने लग जाय, तब आप विचलित न हों । लेकिन यह तो एकांग हुआ । दूसरा अंग भी इसका समझ लें कि निंदा के शब्द आने पर भी, कठोर स्पर्श होने पर भी, कुरूप सामने आने पर भी, जो गंध आपको पसंद नहीं है वही नाक के पास आने पर भी आप अपने को संयम में रख सकते हैं कि नहीं ?

(७) बुद्धि : धर्म का सातवाँ लक्षण है बुद्धि । एक मनुष्य के लिए यह आवश्यक है कि वह अपनी बुद्धि को छोडे नहीं । ‘धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम्” इसमें जो धीः है, इसका अर्थ बुद्धि ही है । धत्ते इति धीः – जो धारण करे, उसका नाम है धी । ‘धीः धारणात्मिका मेधा धारणात्मिका बुद्धि का नाम मेधा है । बुद्धि के जो पर्याय हैं, उनमें थोडा-थोडा फर्क होता है । इतनी भावुकता जीवन में नहीं आ जानी चाहिए कि हम समझदारी से परे हो जायें । भावुकता रहे, प्रेम रहे, भक्ति रहे, परंतु इतनी भावुकता, पक्षपात, इतनी क्रूरता जीवन में आ जाय कि हम समझदारी से अलग हो जायें तो उससे बहुत हानि होती है । धर्म के लक्षणों में जो धर्म हृदय पर अपना स्थायी प्रभाव डालता है, वह हमारे जीवन में बना रहना चाहिए । किंतु वह कर्म, जो तत्काल तो बहुत अच्छा दिखता है, पर कोई स्थायी प्रभाव नहीं डालता उसकी कोई आवश्यकता नहीं । जीवन में हर समय सावधानी और समझदारी की आवश्यकता रहती है । इसीको धीः कहते हैं ।

(८) विद्या : धर्म का आठवाँ लक्षण है विद्या । बुद्धि ऐसी चीज है जिसको हम लोगों से सीख लेते हैं किंतु विद्या बुद्धि से अलग है । जो बात हम अपनी बुद्धि से नहीं जान पाते, उसका ज्ञान देने के लिए विद्या होती है ।
विद्या हमारी बुद्धि को संस्कृत करती है । विद्या से ईश्वर का ज्ञान होता है, बुद्धि से नहीं हो सकता । श्रीरामानुज महाराज ने भी कहा है कि बुद्धि में इतनी शक्ति नहीं कि वह ईश्वर को सिद्ध कर सके । उन्होंने ‘ब्रह्मसूत्र के भाष्य में व नैयायिकों के ईश्वर का खण्डन किया है और कहा कि अनुमान से, युक्ति से, बुद्धि से सिद्ध जो ईश्वर है, वह सही ईश्वर नहीं है क्योंकि दूसरा बडा बुद्धिमान होगा तो वह उसका खण्डन कर देगा । अतः बुद्धि से जो अज्ञात है, उसको हमारी बुद्धि में भर देनेवाली वस्तु विद्या ही है । वह हमारी बुद्धि का संस्कार करती है ।

(९) सत्य : धर्म का नौवाँ लक्षण है सत्य । सत्य बोलने में हमारा एक शाश्वत संबंध निहित रहता है । कोई चाहे कि हम असत्य ही बोलेंगे, असत्य बोलने का ही नियम रखेंगे तो क्या यह संभव है ? ऐसा कोई माई का लाल दुनिया में न हुआ, न होना शक्य है कि वह हमेशा झूठ-ही-झूठ बोले । परंतु कोई जीवन में सत्य बोलने का नियम ले ले कि बोलेंगे तो सत्य ही बोलेंगे, अन्यथा नहीं बोलेंगे तो उसका निर्वाह हो जायेगा । बोलना आवश्यक नहीं है । मौन भी धर्म का एक स्वरूप है । इसलिए बोलना हो तो सत्य बोलना, नहीं तो मौन रहना । दोनों में ही धर्म की स्थिति होगी । धर्म वह हुआ, जो हमारे जीवन में स्थिरता लाता है । उसके माध्यम से हम एक नियम का पालन कर सकते हैं, नियम से रह सकते हैं ।

(१०) अक्रोध : धर्म का १०वाँ लक्षण है अक्रोध अर्थात् क्रोध न करना ।
हम हमेशा क्रोध में ही रहेंगे यह नियम कोई नहीं ले सकता परंतु अहिंसा का नियम ले तो वह शाश्वत हो सकता है । अहिंसा नियम हो सकती है, स्थिर हो सकती है, व्रत हो सकती है, परंतु हिंसा स्थिर नहीं हो सकती, नियम नहीं हो सकती, व्रत नहीं हो सकती । सत्य और अहिंसा ये दोनों हमें शाश्वत परमात्मा के साथ जोडते हैं । इसी तरह कोई यह नियम लेना चाहे कि हम दिन-रात चोरी करते रहेंगे तो नहीं ले सकता परंतु चोरी नहीं करेंगे इस नियम का निर्वाह जीवन में हो सकता है । इससे जीवन में स्थिरता आयेगी, नियंत्रण स्थापित होगा और एक अनंत शाश्वत ब्रह्म के साथ हमारा संबंध जुडेगा ।

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