हिंदू धर्म में संस्कारों का महत्त्व क्यों ?

Last Updated on July 22, 2019 by admin

भारतीय संस्कृति का मूलभूत उद्देश्य श्रेष्ठ संस्कारवान मानव का निर्माण करना है। सामाजिक दृष्टि से सुख-समृद्धि और भौतिक ऐश्वर्य आवश्यक है, किंतु मनुष्य जीवन केवल खाने-पीने और मौज मस्ती करने के लिए ही नहीं है। हमारे ऋषियों ने भौतिक उन्नति को गौण और आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्ति को जीवन का मुख्य उद्देश्य बताया है। इसी उद्देश्य की प्राप्ति के लिए स्वयं को तैयार करने की क्रिया का नाम ही संस्कार है।

वेद, पुराणों तथा धर्म-शास्त्रों में शिशु के गर्भ में प्रवेश करने से लेकर जीवन के विभिन्न अवसरों पर और अंततः शरीर छोड़ने तक विविध संस्कारों का विधान है। संस्कारों से व्यक्ति के मन के विकार नष्ट होते हैं तथा व्यक्तित्व प्रभावशाली और जीवन आनंदपूर्ण बनता है।
( और पढ़ेसनातन हिन्दू धर्म के पवित्र सोलह संस्कार)

संस्कार क्या हैं ?

गौतम धर्मसूत्र के अनुसार संस्कार उसे कहते हैं, जिससे दोष हटते हैं और गुणों की वृद्धि होती है।

शंकराचार्य के अनुसार
संस्कारो हि नाम संस्कार्यस्य गुणाधानेन वा स्याद्योषापनयनेन वा।
-ब्रह्मसूत्र भाष्य -1/1/4

अर्थात् व्यक्ति में गुणों का आरोपण करने अथवा उसके दोषों को दूर करने के लिए, जो कर्म किया जाता है, उसे संस्कार कहते हैं।

महर्षि चरक के मतानुसार-
संस्कारो हि गुणान्तराधानमुच्यते।
अर्थात् व्यक्ति या वस्तु में नए गुणों का आधान (जमा करने, समाने) करने का नाम संस्कार है।

संस्कार विधि में लिखा है
जन्मना जायते शूद्रऽसंस्काराद्विज उच्यते ।
अर्थात जन्म से सभी शूद्र होते हैं, लेकिन संस्कारों द्वारा व्यक्ति को द्विज बनाया जाता है।

हमारे ऋषि-मुनि यह मानते थे कि जन्म-जन्मांतरों की वासनाओं का लेप जीवात्मा पर रहता है। पूर्व-जन्म के इन्हीं संस्कारों के अनुरूप ही जीव नया शरीर धारण करता है, अर्थात् जन्म लेता है और उन संस्कारों के अनुरूप ही कर्मों के प्रति उसकी आसक्ति होती है। इस प्रकार जीव सर्वथा संस्कारों का दास होता है।

मीमांसा दर्शनकार के मतानुसार
कर्मबीजं संस्कारः

अर्थात् संस्कार ही कर्म का बीज है तथा “तत्रिमित्ता सृष्टि’ अर्थात् वहीं सृष्टि का आदि कारण है।

प्रत्येक व्यक्ति का आचरण पूर्व जन्मों के उसके निजी संस्कारों के अतिरिक्त उसके वर्तमान वंश या कुल के संस्कारों से भी प्रभावित रहता है।
आमतौर पर मनुष्य का आकर्षण विविध इंद्रिय भोगों की तरफ शीघ्र ही हो जाता है। स्वभाव की इसी कमजोरी के कारण मानव समय-समय पर मानसिक विकृतियों एवं दुर्बलताओं का शिकार होता है, जिससे स्वयं मानव और समाज चरित्रहीनता और अनैतिकता का दुख भोगता है। चूंकि मानव में दोषों का परिष्कार करने की क्षमता सर्वाधिक होती है, अतः संस्कारों का सर्वाधिक महत्त्व भी मानव समाज के लिए माना गया है।

संस्कारों की परंपरा का व्यक्ति पर अद्वितीय प्रभाव माना जाता है। संस्कारों के समय किए जाने वाले विभिन्न कर्मकांडों, यज्ञ, मंत्रोच्चारण आदि की प्रक्रिया को विज्ञान के ध्वनि सिद्धांत, चुंबकीय शक्ति संचरण, प्रकाश तथा रंगों के प्रभाव आदि द्वारा प्रमाणित किया जा चुका है। अतः संस्कार प्रणाली की प्रामाणिकता पूरी तरह असंदिग्ध है। कर्मों के साथ-साथ अच्छे-बुरे संस्कार भी बनते रहते हैं। मनोविज्ञान मानता है कि मनुष्य किसी बात को सामान्य उपदेशों, प्रशिक्षणों अथवा परामर्शों द्वारा दिए गए निर्देशों की तुलना में अनुकूल वातावरण में जल्दी सीखता है।

उल्लेखनीय है कि मस्तिष्क का स्थूल कार्य तो सचेतन मन द्वारा होता है और सूक्ष्म कार्य अचेतन मन द्वारा। बाह्य जगत से विचार सामग्री सचेतन मन जमा करता है, जबकि उस सामग्री को अचेतन मन संचित कर लेता है। अतः मनुष्य अपने सचेतन मन को जैसा बनाता है, वैसा ही उसका अचेतन मन भी आप-से-आप बन जाता है। निपुण मन ही आत्मा का सबसे बड़ा सेवक और सहायक होता है। सुशिक्षित और परिष्कृत मन के बिना आत्मा की शक्ति का जाग्रत होना संभव नहीं हो पाता।

संस्कार प्रक्रिया में पुरोहित द्वारा देवताओं के आवाहन के कारण देव अनुकम्पा की अनुभूति, यज्ञ आदि कर्मकांड के कारण धर्म-भावनाओं से ओत-प्रोत मनोभूमि, स्थान की पवित्रता, हर्षोल्लास का वातावरण, यजमान द्वारा भावपूर्ण शपथ ग्रहण, स्वजन संबंधियों, परिचितों, मित्रों की उपस्थिति, ये सब संस्कारित होने वाले व्यक्ति को एक विशेष प्रकार की मानसिक स्थिति में पहुंचा देते हैं। कर्मकांड की ये क्रियाएं मन पर अमिट और चिरस्थाई प्रभाव छोड़ती हैं। यह प्रभाव मन को परिस्थिति के अनुकूल शिक्षित करता है।

उदाहरण के लिए एक व्यभिचारी व्यक्ति जब अपनी प्रेमिका को विवाह आदि करने के लंबे-चौड़े आश्वासन देता है, तो उसका कोई महत्व नहीं समझा जाता, जबकि विवाह संस्कार में संपन्न समस्त धार्मिक कर्मकांडों का प्रभाव ऐसा पड़ता है कि वर-वधू आजीवन एक अटूट बंधन में बंधे अनुभव करते हैं। जिस वातावरण में और भावना के साथ सारी रस्में पूरी की जाती हैं, उसका मनोवैज्ञानिक प्रभाव उन्हें जीवन-भर अलग होने से रोकता है।
( और पढ़ेजानिए क्यों ? दाह संस्कार हिन्दू धर्म में सूर्यास्त के बाद नहीं किया जाता है )

संस्कार के अनेक प्रकार :

संस्कारों की संख्या अलग-अलग विद्वानों ने अलग-अलग बताई है। गौतम स्मृति में 40 संस्कारों का उल्लेख किया गया है चत्वारिंशत्संस्कारैः संस्कृतः। कहीं-कहीं 48 संस्कारों का भी उल्लेख मिलता है। महर्षि अंगिरा ने 25 संस्कार बताए हैं। दस कर्म पद्धति के मतानुसार संस्कारों की संख्या 10 मानी गई है, जबकि महर्षि वेदव्यास ने अपने ग्रंथ व्यासस्मृति में प्रमुख सोलह (षोडश) संस्कारों का उल्लेख किया है

गर्भाधानं पुंसवनं सीमांतो जातकर्म च। नामक्रियानिष्क्रमणेऽन्नशनं वपन क्रिया ॥
कर्णवेधो व्रतादेशो वेदारम्भक्रियाविधिः । केशांतः स्नानमुद्धाहो विवाहाग्निपरिग्रहः ॥
त्रेताग्निसंग्रहश्चेति संस्काराः षोडश स्मृताः ।

-व्यासस्मृति 1/ 13 – 15

वेद का कर्म मीमांसा दर्शन 16 संस्कारों को ही मान्यता प्रदान करता है। आधुनिक विद्वानों ने इन्हें सरल
और कम खर्चीला बनाने का प्रयास किया है, जिससे अधिक-से-अधिक लोग इनसे लाभ उठा सकें। इनमें प्रथम 8 संस्कार प्रवृत्ति मार्ग में एवं शेष 8 मुक्ति मार्ग के लिए उपयोगी हैं। हर संस्कार का अपना महत्त्व, प्रभाव और परिणाम होता है। यदि विधि-विधान से उचित समय और वातावरण में इन संस्कारों को कराया जाए, तो उनका प्रभाव असाधारण होता है। इसलिए प्रत्येक व्यक्ति को ये संस्कार अवश्य करने चाहिए।

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