Last Updated on September 12, 2021 by admin
‘पातंजल योगसूत्र’ योग मार्ग का एक उत्कृष्ट ग्रंथ है। इसके अनुसार मन के शांत होने के बाद हम सरिता की शांत लहरों की भाँति तलहटी को अर्थात् अपने को देख पाते हैं। प्रत्येक कार्यकलाप का हमारे चित्त पर प्रभाव पड़ता है, जो बीजरूप संस्कार बनते चले जाते हैं। मन पर पड़नेवाले ये संस्कार कालांतर में आदत के रूप में परिणत हो जाते हैं और यह आदत ही स्वभाव है।
अष्टांग योग क्या है ? (Ashtanga Yoga in Hindi)
‘पातंजल योगसूत्र’ में उत्तम, मध्यम और अधम – तीन योगाधिकारियों का वर्णन है। इन अधिकारियों के लिए इन्हीं के अनुरूप साधन हैं –
उत्तम अधिकारियों के लिए – अभ्यास और वैराग्य अथवा ईश्वरार्पण बुद्धि ।
मध्यम अधिकारी के लिए – तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान साधन-स्वरूप है ।
अधम अधिकारियों के लिए – अष्टांग योग या मार्ग का निर्देश है। इस अष्टांग योग के बहिरंग और अंतरंग दो प्रकार की साधना है।
- बहिरंग साधना – यम, नियम, आसन, प्राणायाम और प्रत्याहार।
- अंतरंग साधना – धारणा, ध्यान और समाधि।
अष्टांग योग के आठ अंग (Ashtanga Yoga 8 Steps in Hindi)
अष्टांग योग के कितने अंग हैं ?
योग मार्ग अति दुर्गम है। इसके प्रत्येक अंग का अभ्यास करने के लिए साधक को त्याग और आत्मबल की आवश्यकता है। अष्टांग योग जिसके कुल आठ अंग है का संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है –
यम :
अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह-ये पाँच यम हैं।
(क) अहिंसा – अहिंसा अर्थात् सर्वव्यापी प्रेम। इसमें किसी एक को पूर्ण समर्पण करने से ‘हम दो पहले और अन्य सब बाद में’ की प्रवृत्ति पैदा होती है। इससे संपूर्ण सृष्टि से सर्वव्यापी प्रेम का पालन नहीं हो पाता। अतः अहिंसा कायिक (शरीर से), वाचिक (वाणी से) और मानसिक (विचारों से) होनी चाहिए। इसमें सभी प्राणियों के साथ किसी भी प्रकार का द्रोह (वैमनस्य) नहीं रहता है। अहिंसा के 81 भेद हैं। वेदों में वर्णित हिंसा को छोड़कर कायिक और मानसिक हिंसा तीन-तीन प्रकार की होती है।
(ख) सत्य – असत्य (झूठ) इस संसार की कामनाओं में बाँधने का उपक्रम है, जिसके कारण धीरे-धीरे पापकर्मों में वृद्धि होती जाती है और फिर असत्य स्वभाव बन जाता है। सत्य मार्ग का अनुसरण करनेवाले को धन, अन्न और यश की प्राप्ति होती है। बेशक इसमें थोड़ा समय लग जाए। मूल सत्य को जानने की इच्छा से सत्य ब्रह्म को जानना चाहिए।
(ग) अस्तेय – छल से दूसरों की वस्तु चुराने वाला, रिश्वतखोरी, कपटी, ब्रह्म हत्या, दूसरों की माता बहनों को अधिकार में लेना, गर्भपात करवाना और नशाखोरी (बीड़ी-सिगरेट, तंबाकू, सुरापान, भाँग, ड्रग्स इत्यादि) ये स्तेय हैं। इन पापों से बचाव अस्तेय है। इन पापों से बचाव न करनेवाला न्यून (कम) आयुवाला होता है और बार-बार जन्म लेता है।
(घ) ब्रह्मचर्य – ब्रह्मचर्य अर्थात् ब्रह्म (सत्य) की खोज का आचार यानी विषयमात्र का निरोध ही ब्रह्मचर्य है। इसमें जननेंद्रियों के विकार तथा पंचमहाभूतों का निरोध होता है। इसे दूसरे ढंग से भी कह सकते हैं। अपने मन, बुद्धि, आत्मा के दिग्दर्शन करने के लिए शास्त्रों में आठ प्रकार का ब्रह्मचर्य पालन का प्रावधान किया गया है। यथा – कामुक होकर विपरीत लिंग (Sex) का स्मरण, विपरीत लिंग का रागात्मक वर्णन, विपरीत लिंग के साथ एकांत में छेड़छाड़, उसे वासना की दृष्टि से देखना और उससे एकांत में कामुक वार्ता करना, उसकी प्राप्ति का संकल्प, उसकी प्राप्ति का प्रयत्न तथा वासना भोग – इनका संयम करना ब्रह्मचर्य है।
(ङ) अपरिग्रह – भोग साधन (क्षणिक सुख प्रदान करनेवाले साधन) को ग्रहण न करना अथवा उसमें लिप्सा न रखना अपरिग्रह है। जैसे रेलगाड़ी में सवार यात्री गाड़ी को साधन के रूप में उपयोग तो करता है, लेकिन उसके प्रति मोह नहीं रखता और अपना गंतव्य आने पर उसका त्याग कर देता है। उसी प्रकार समय-समय पर भोग साधनों का त्याग करते रहने से उनके प्रति मोह नहीं रहता और साधक निर्लिप्त होता चला जाता है।
नियम :
शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान – ये पाँच राजयोगी के लिए नियम कहे गए हैं।
(क) शौच – इसका अर्थ है पवित्रता, मिट्टी, जल, पवित्र आहार, स्वच्छ वस्त्र इत्यादि के द्वारा बाहरी शुद्धि तथा चित्त के मलों (काम, क्रोध, अहंकार, लोभ, मोह, ईर्ष्या तथा अनेक वृत्तियों) का नाश आंतरिक शौच है।
(ख) संतोष – उपलब्ध साधनों से अधिक प्राप्ति की कामना न करना संतोष है। यह चित्त की एकाग्रता का उत्तम साधन है। अभिप्राय यह है कि हमें कर्तव्य-पालन करते हुए प्राप्त साधनों पर ही सुख की अनुभूति करनी चाहिए। असंतोषी व्यक्ति सदैव अतृप्त, दुःखी तथा अशांत रहता है।
(ग) तप – भूख-प्यास, शीत-उष्ण, मान-अपमान, सुख-दु:ख इत्यादि को सहन करना तप है। लेकिन इन सबको अति कष्ट की अवस्था में नहीं पहुँचने दिया जाना चाहिए। अतः तप ऐसा होना चाहिए जिससे चित्त प्रसन्न हो तथा जिसका सेवन निर्बाध रूप से किया जा सके।
(घ) स्वाध्याय – अंतर्मुख होकर अपने चित्त तथा उसमें निहित विचारों का अध्ययन करना स्वाध्याय है। चित्त के विचारों की प्रबलता के लिए हमारे आचार्यों ने वेद, उपनिषद्, गीता, महाभारत इत्यादि अनेक ग्रंथों की रचना की है। स्थूल पुस्तकों के ज्ञान को अथवा किसी विषय-ज्ञान को स्वाध्याय नहीं कहा जा सकता।
(ङ) ईश्वर प्रणिधान – परम पिता परमेश्वर में अपने समस्त कर्मों का अर्पण करना अथवा कर्मफल की आसक्ति न रखना ईश्वर प्रणिधान है।
आसन :
‘पातंजल योगसूत्र’ में कहा गया है कि सुख एवं स्थिरतापूर्वक बैठना ही आसन है। यह आसन प्रयत्न की शिथिलता तथा आकाश आदि की अनंतता में चित्त लगाने से सिद्ध होती है। पंचकोशयुक्त (अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय और आनंदमय) मानव शरीर में आठ प्रकार के जल के रूप प्रवाहित होते हैं; यथा – रुधिर, मूत्र, पसीना, अश्रु कोशों में सूक्ष्म व गुप्त प्लाज्मा, रज-वीर्य में, मांस एवं मज्जा, भोजन का परिपाक रूप रस।
पंचमहाभूतों से निर्मित शरीर के नौ द्वार (दो कान, दो आँखें, दो नासारंध्र, एक मुख, एक गुदा और उपस्थ), आधार विशेष स्तंभ, आलंब या सहारे से अपनी शक्ति सहित नौ प्रकार से हैं। यह शरीर पूर्ण स्वास्थ्य की अवस्था में वात-पित्त-कफ तीन धातुओं का संतुलन होता है तथा स्थूल, सूक्ष्म और कारण इन तीन शरीरों से युक्त होता है। ऐसे शरीर को स्वस्थ रखने के लिए तथा उससे लक्ष्यपूर्ति के लिए स्वस्थ आहार के साथ-साथ बैठने के साधन को ‘आसन’ कहते हैं।
प्राणायाम :
कठोर और मजबूत दिखनेवाला स्थूल शरीर सूक्ष्म तत्त्वों की शक्ति के सामने अति दुर्बल है। अतः सूक्ष्म तत्त्वों से निर्मित सूक्ष्म शरीर शक्ति प्रसारण का केंद्र है। इसमें सत्रह तत्त्वों का संयोग है, जिसमें पाँच प्राण (प्राण, अपान, व्यान, समान, उदान), पाँच ज्ञानेंद्रियाँ (चक्षु, रसना, घ्राण, कर्ण, त्वचा), पाँच ज्ञानेंद्रियों के सूक्ष्मभूत (शब्द, स्पर्श, रस, रूप, गंध) मन और बुद्धि सम्मिलित हैं। स्थूल शरीर का मूल आधार प्राण है, जो मृत्युपर्यंत इसके साथ रहता है। इसी प्रकार सूक्ष्म शरीर एवं कारण शरीर के साथ सूक्ष्म प्राण मोक्षपर्यंत रहता है। जैसे पिता अपने पुत्र को सब प्रकार से आच्छादित करता है, उसे संकटों से सुरक्षित रखता है वैसे ही प्राण भी करता है। मन का नियंत्रण कर उसका और आत्मा का विकास प्राण से होता है। प्राणवायु से स्थूल-सूक्ष्म धमनियों एवं नस-नाडियों में रोग से संपर्क करने की अवरोधक शक्ति स्थापित होती है।
प्राण का भोजन ऑक्सीजन युक्त वायु है। योगीजन उस प्राण को सूक्ष्म कर, स्थान विशेष में धारण कर संपूर्ण शरीर को मृतप्राय कर लेते हैं तथा वायु का रोध कर कई वर्षों तक समाधि का आनंद लेते हैं । इस अवस्था में उनके शरीर में प्राण व्याप्त न होने के कारण से वह यथास्थिति में रहता है। उसमें थोड़ा सा भी परिवर्तन नहीं आता है।
प्रत्याहार :
जिस प्रकार रानी मक्खी के आश्रय में अन्य मक्खियाँ उसी के अनुसार व्यवहार करती हैं उसी प्रकार प्राण के आश्रय में सभी इंद्रियाँ रहती हैं। चित्त में इच्छाएँ अवरुद्ध हो जाने पर इंद्रियाँ भी स्वतः ही स्थिर हो जाती हैं। मन पर अंकुश लगाना, कर्मों में लिप्तता समाप्त कर देना आदि विधियाँ इंद्रियों को विषयभोगों से दूर करती हैं। यही प्रत्याहार है।
धारणा :
चित्त (आत्मा और मन) को आभ्यंतर या बाह्य किसी एक स्थान में बाँधना ‘धारणा’ है, जैसे आतीजाती प्राणवायु पर मन केंद्रित करना, ध्वनि तरंगों पर मन केंद्रित करना, किसी बाहरी बिंदु पर दृष्टि एकाग्र करना, निरंतर स्पर्श पर मन एकाग्र करना इत्यादि।
प्राणायाम के द्वारा मन रूपी चंचल अश्व पर लगे अंकुश से मन किसी एक तत्त्व तक निहित हो जाता है – यही धारणा है। मुख्यतः शरीर में पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु तथा आकाश तत्त्व में धारणा की जाती है। धारणा अंतरंग साधनों में प्रथम है।
ध्यान :
उपासना साधनों में विशेष ध्यान की उत्कृष्टता के कारण राजयोग को ध्यानयोग’ भी कहते हैं। धारणा किए गए स्थान पर वृत्तियों के प्रवाह के एकरस हो जाने को ‘ध्यान’ कहते हैं। अर्थात् जिस प्रकार विभिन्न नदियाँ अंततः समुद्र में मिलकर एकरस हो जाती हैं वैसे ही ध्यान में निमग्न पुरुष अपनी इंद्रियों को समेटकर परमात्मा के आनंद में निमग्न हो जाता है।
समाधि :
योगी जब ध्यान में अति उच्च शिखर पर पहुँचता है जहाँ ज्ञाता (कर्ता) और ज्ञेय (कम) का द्वैत भाव नहीं रहता और केवल ध्येय मात्र भासता है, ध्याता का स्वरूप भी लुप्त हो जाता है वह अवस्था समाधि है। ध्यानावस्था में ध्याता, ध्यान एवं ध्येय की त्रिपुटी पृथक्-पृथक् प्रतीत होती है; परंतु समाधि में ध्याता में ध्येय के स्वभाव का आवेश होना ही समाधि है।