एवैस्कुलर नेक्रोसिस का आयुर्वेदिक इलाज – Avascular Necrosis in Hindi

Last Updated on September 29, 2020 by admin

अस्थि एक प्रकार का जीवित ऊतक (Living Tissue) है। यदि इसे रक्तापूर्ति होना बंद हो जाए तो उसे मृत समझा जाता है। अगर इस बाधित रक्तापूर्ति को रोका नहीं गया, तब हड्डियां घिसने लगती हैं। जब वे खत्म होने की कगार पर पहुंच जाती हैं, तो उसे एवैस्कुलर नेक्रोसिस कहते हैं।

हड्डी घिसने या जोड़ों के अलग होने के कारण उस हिस्से में रक्त आपूर्ति बाधित हो जाती है। यह किसी को भी हो सकती है, लेकिन 30 से 60 वर्ष की आयु वर्ग के लोगों को यह अपनी गिरफ्त में ज्यादा लेती है। प्रतिवर्ष एवैस्कुलर नेक्रोसिस के देश में 1 लाख मरीज बढ़ जाते हैं। 20,000 नए मामले तो मुंबई में ही हर साल मिलते हैं। स्वस्थ व्यक्ति में एवीएन (AVN) की संभावना कम होती है।

एवैस्कुलर नेक्रोसिस अर्थात क्या ? (What is Avascular Necrosis in Hindi)

एवैस्कुलर नेक्रोसिस (Avascular Necrosis / AVN) हड्डियों का एक ऐसा विकार है, जिसमें बोन टिश्यू यानी हड्डियों के ऊतक मरने लगते हैं। इस तरह की स्थिति तब उत्पन्न होती है, जब इन ऊतकों तक पर्याप्त मात्रा में रक्त नहीं पहुंच पाता। इसे ऑस्टियोनेक्रोसिस (osteonecrosis), एसेप्टिक नेक्रोसिस (Aseptic Necrosis), इस्चेमिक बोन नेक्रोसिस (Ischaemic Bone Necrosis) भी कहा जाता है।

एवैस्कुलर नेक्रोसिस के प्रकार (Types of Avascular Necrosis in Hindi)

अधिकांश रुग्णों में इसका कारण आघात (Injury) या हीन स्वास्थ्य है । इसके 2 प्रकार होते हैं –

  1. आघातजन्य (Traumatic) – जोड़ में किसी भी तरह की चोट या परेशानी जैसे जोड़ों के खुल जाने की वजह से उसके नजदीक की रक्तनलिकाएं क्षतिग्रस्त हो सकती हैं। जंघा की अस्थि (Thigh bone) के फ्रैक्चर या डिस्लोकेशन में हड्डी को रक्तापूर्ति नहीं होती, जिससे एवैस्कुलर नेक्रोसिस की संभावना रहती है। हिप ज्वाइंट (Hip Joint) के हड्डी सरकना (Dislocation) में एवीएन (AVN) होने की 20% संभावना रहती है।
  2. आघातविहीन (Non-Traumatic) – कई बार रक्तनलिकाओं में फैट्स का जमाव हो जाता है, जिससे वे संकरी हो जाती हैं। इससे हड्डियों तक रक्त नहीं पहुंच पाने से उन्हें पर्याप्त पोषण नहीं मिल पाता है।

एवैस्कुलर नेक्रोसिस होने के कारण (Avascular Necrosis Causes in Hindi)

एवैस्कुलर नेक्रोसिस (AVN) कई वजहों से हो सकता है जैसे –

  • दीर्घकाल तक कार्टीकोस्टेरॉइड का प्रयोग – लंबे समय से स्टेराइड का प्रयोग (orally या Intrarenous) करने पर 35% रुग्णों को इसकी (Non Traumatic AVN) होने की संभावना रहती है।
  • जिम जाना युवाओं का जुनुन है। अधिक स्टेरॉइड सेवन के दुष्प्रभाव के कारण बड़ी तादाद में युवाओं को AVN रोग हो रहा है।
  • शराब आदि मादक पदार्थों का अधिक सेवन करने से रक्तवाहिनियों में फैटी वस्तु अधिक हो जाती है, जिससे हड्डी को रक्तापूर्ति नहीं होती।
  • खून का जमना (Blood Clots), सूजन व रक्तवाहिनी में आघात के कारण अस्थियों को रक्तापूर्ति बराबर नहीं होती।
  • गॉचर(Gaucher’s Disease) चयापचय का रोग है, जिसमें अंगों (organs) में चर्बी (Fatty substance) जमा होती है।
  • सिकलसेल रोग।
  • पैन्क्रियाज की सूजन (Pancreatitis) ।
  • डायबिटीज़।
  • हाई ब्लडप्रेशर।
  • HIV संक्रमण ।
  • रेडिएशन थेरेपी या किमोथेरेपी।
  • ऑटोइम्युन रोग ।
  • सिस्टेमिक ल्युपस एरिथ्रोमेटोसस (SLE)।

इन सबके अलावा कुछ ऐसे अन्य कारण होते हैं, जिनकी वजह से यह बीमारी लोगों को अपनी गिरफ्त में ले लेती है।

एवैस्कुलर नेक्रोसिस के लक्षण (Avascular Necrosis Symptoms in Hindi)

  • अधिकतर लोगों में प्रारंभिक दौर में इस रोग के कोई भी लक्षण नजर नहीं आते हैं। स्थिति के ज्यादा बिगड़ जाने पर , वजन उठाने पर जोड़ों में अत्यधिक पीड़ा होने लगती है और आगे स्थिति इतनी ज्यादा खराब हो जाती है कि रोगी के लेटे रहने पर भी जोड़ों में पीड़ा होती रहती है। यह दर्द मुख्यतः हिप ज्वाइंट (Hip Joint) में होता हैं।
  • इस रोग में दर्द या तो बहुत तेज या मध्यम दर्जे का होता है और यह धीरे-धीरे बढ़ता ही जाता है।
  • कूल्हे (Hip joint) का एवैस्कुलर नेक्रोसिस होने पर पेडू, जांघ (thigh) और नितंब (ass) में पीड़ा होती है।
  • कमर पर दबाव पड़ने से असहनीय वेदना होती है। यह वेदना जंघा भाग तक होती है।
  • व्याधि के बढ़ने पर हिप ज्वाइंट कठोर (कड़क) हो जाता है। उसके कारण लड़खड़ाकर चलना, नींद में भी लगातार पीड़ा होना, पीड़ा के कारण नींद न आना, पैरों में चींटी चलने जैसी वेदना, बिच्छू के दंश जैसी वेदना होना आदि लक्षण दृष्टिगत होते हैं।
  • दर्द के कारण रोगी कमर या पैर की हलचल करने में असमर्थ होता है। इस प्रकार रुग्ण वेदना के कारण असहाय महसूस करता है।
  • कूल्हे के अलावा इस बीमारी से कंधे (Shoulders), घुटने (Knees), हाथ (Humerus), पैर (Ankles) और जबड़ा (Jaw) के भी प्रभावित होने का खतरा बना रहता है। इसमें एक से अधिक अस्थियां भी एवैस्कुलर नेक्रोसिस से विकारग्रस्त हो सकती हैं।

एवैस्कुलर नेक्रोसिस का परीक्षण (Diagnosis of Avascular Necrosis in Hindi)

एवैस्कुलर नेक्रोसिस के निदान के और तरीके निम्नलिखित हैं-

जोड़ों की जांच करने के बाद डॉक्टर इमेजिंग टेस्ट का परामर्श देते हैं। इस टेस्ट में जोड़ों का एक्स-रे, एमआरआई सीटी स्कैन और बोन स्कैनिंग की जाती है। हालांकि शुरुआती दौर में एक्स-रे रिपोर्ट सामान्य ही आती है।
एमआरआई और सीटी स्कैन हड्डियों की विस्तृत इमेज सामने रखते हैं, जिससे डॉक्टर को इसमें होने वाले प्रारंभिक बदलाव का पता चल पाता है।

एवैस्कुलर नेक्रोसिस का इलाज (Avascular Necrosis Treatment in Hindi)

एवैस्कुलर नेक्रोसिस के उपचार का लक्ष्य निम्न प्रकार से होता है –

  1. रोगग्रस्त अस्थि का कार्य ठीक करना।
  2. अस्थिक्षय की गति को रोकना।
  3. दर्द कम करना।

इसका उपचार निम्नलिखित पहलुओं पर निर्भर करता है –

  1. रोगी की उम्र,
  2. रोग की स्थिति,
  3. अस्थिक्षति का स्थान व कितना भाग क्षतिग्रस्त हुआ है तथा
  4. कारणानुसार।

यदि एवैस्कुलर नेक्रोसिस का कारण रक्त का थक्का (Blood clot) है, तो उसे घुलाने की औषधि दी जाती है। यदि रक्तवाहिनियों की सूजन कारण है, तो शोथ निवारक औषधि दी जाती है।

एवैस्कुलर नेक्रोसिस का आधुनिक उपचार :

एवैस्कुलर नेक्रोसिस के प्रारंभिक अवस्था के लक्षणों को दूर करने के लिए दवाइयों और थेरेपी की मदद ली जाती है। इसके तहत रोगी को पीड़ा कम करने, रक्त वाहिनियों के अवरोध को दूर करने की दवाइयां दी जाती है ।

रोगी की क्षतिग्रस्त हड्डियों पर पड़ने वाले दबाव व भार को कम से काम करने का प्रयत्न किया जाता है।

इस बीमारी के बहुत ज्यादा गंभीर होने पर सर्जरी करते हैं, जिसके निम्न प्रकार हैं –

1. बोन ग्राफ्ट्स (Bone Grafts) – हड्डियों के क्षतिग्रस्त भाग की जगह मरीज के शरीर की कोई स्वस्थ हड्डी लेकर लगाई जाती है।

2. ऑस्टिओटामी (osteotomy) – इस तकनीक में अस्थि को काटकर, उसका अलाइनमेंट परिवर्तित कर, अस्थि या संधिगत दबाव कम किया जाता है।

3. टोटल ज्वाइन्ट रिप्लेसमेंट (Total Joint Replacement) – इसमें विकृत संधि को निकालकर सिन्थेटिक संधि लगाते हैं। इसके दुष्प्रभाव भी हैं जैसे – ठीक होने में समय लगता है व संधि का जीवनकाल कम (Short Life) हो जाता है। यह वृद्धावस्था में अच्छा उपचार है, पर युवावस्था में यह उपचार करने का परामर्श डॉक्टर नहीं देते।

4. कोर डिकम्प्रेशन (Core Decompression) – इस तकनीक में अस्थि के अंदर का भाग निकालकर अस्थिगत दबाव कम किया जाता है और नवीन रक्तवाहिनियां बनने दी जाती हैं।

5. वैस्कुलराइज्ड बोन ग्राफ्ट (Vascularized Bone Graft) – इस तकनीक में रोगी के स्वस्थ ऊतक का प्रयोग कर विकृत हिप ज्वाइन्ट को पुनर्निर्मित किया जाता है। इसमें हिप ज्वाइन्ट के जिस भाग में रक्त प्रवाह कम है, वह निकालकर वहां उत्तम रक्तवाहिनियों से युक्त अस्थि को लगाया जाता है जैसे पैरों में होने वाली फिबूला (Fibula) अस्थि से स्वस्थ ऊतक निकाला जाता है।

साध्यासाध्यता (Prognosis)

एवैस्कुलर नेक्रोसिस (एवीएन) के कारण उत्पन्न अस्थि विकृति इस बात पर निर्भर करती है कि अस्थि का कौनसा व कितना भाग प्रभावित हुआ है तथा अस्थि स्वयं का पुनर्निर्माण कितनी तेजी से करती है। अस्थि में आघात होने पर पुनर्निर्माण का कार्य वैसे ही प्रारंभ हो जाता है, जैसे सामान्य अस्थि वृद्धि होती है। सामान्यतः अस्थि लगातार टूटती है व पुनर्निर्मित होती है। पुरानी अस्थि का पुनः अवशोषण होकर नई हड्डी बनती है। इस प्रक्रिया से अस्थि का ढांचा मजबूत बनता है और मिनरल्स का संतुलन बना रहता है। एवैस्कुलर नेक्रोसिस के केसेस में अस्थि के ठीक होने की प्रक्रिया (Healing Process) अप्रभावी होती है और अस्थि के टिश्यूज शरीर के रिपेअर होने की अपेक्षा तीव्र गति से टूटते जाते हैं। यदि इसका उपचार नहीं किया तो अस्थि टूटकर (Collapse) संधियां भी टूटती हैं व रोगी को अधिक वेदना महसूस होती है। इसके कारण संधिवात भी होता है।

एवैस्कुलर नेक्रोसिस का आयुर्वेदिक उपचार और दवा (Avascular Necrosis Ayurvedic Treatment & Medicine in Hindi)

आधुनिक चिकित्साशास्त्र में इस व्याधि के लिए प्रभावी उपचार उपलब्ध नहीं है। इसमें केवल दर्दनिवारक औषधियां देते हैं व संधिगत कठोरता दूर करने के लिए व्यायाम बताया जाता है। अंत में ज्वाइन्ट रिप्लेसमेंट ही एकमात्र उपाय बचता है। आयुर्वेद की दृष्टि से अस्थि धातु के लिए प्रभावी औषधियां उसका पोषण कर उसे स्वस्थ रखती हैं जैसे –

  • प्रवाल भस्म, कुक्कुटाण्ड त्वक भस्म, गोदंती भस्म, शौक्तिक भस्म, यशद भस्म आदि।
  • साथ ही इसमें रक्तप्रवाह बढ़ाने के लिए स्वर्णमाक्षिक, मधुमालिनी वसंत, पुनर्नवा मण्डूर इत्यादि रक्तप्रवाहक औषधियों के अच्छे परिणाम मिलते हैं।
  • इसके अलावा लाक्षादि गुग्गुल, आभा गुग्गुल, कैशोर गुग्गुल, पुष्पधन्वारस, गुडूची, आंवला, नागरमोथा, बला, विदारीकंद, अश्वगंधा, शुद्ध शिलाजीत का प्रयोग चिकित्सक के परामर्शानुसार कर सकते हैं।

आयुर्वेद उपचार पद्धति से इसमें अधिकाधिक लाभ होने की संभावना होती है। इसमें आयुर्वेदिक औषधि के प्रभावी परिणाम मिलते हैं व पंचकर्म के अंतर्गत प्रभावित संधि में स्थानिक बस्ति के उत्तम परिणाम मिलते हैं, परंतु यह चिकित्सा दीर्घकाल तक लेनी पड़ती है। इससे विकृत संधि की कठोरता दूर होती है और संधियों की हलचल व्यवस्थित होती है।

अतः आयुर्वेदिक चिकित्सा पद्धति अपनाने से ज्वाइंट रिप्लेसमेंट की संभावना कम हो जाती है। व्याधि के प्रारंभ में ही यदि आयुर्वेदिक उपचार लिया जाए, तो शीघ्र ठीक होने की संभावना रहती है।

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