एड्स(एचआईवी) का चमत्कारी आयुर्वेदिक इलाज | Aids Ayurvedic Treatment In Hindi

Last Updated on July 22, 2019 by admin

वर्तमान भयंकर व्याधि, एड्स :

एड्स (एचआईवी) उपदंश का अधिक तीव्र और विकृत रूप हो सकता है । समझा जाता है कि अभी तक एड्स की कोई कारगर औषधि नहीं बनी है। किन्तु हमारे मत में आयुर्वेद ने मानव- व्याधियों की चर्चा में कुछ भी छोड़ा नहीं है । प्राचीन ऋषियों की दृष्टि से कुछ भी बचा नहीं रह गया । इस ओर प्रयत्न और अनुसंधान किये जायँ तो अवश्य ही सफलता मिलेगी ।

अभी यहाँ उपदंश रोग की चिकित्सा पर ध्यान दिया जाता है। प्रथम इससे बचने के समान्य उपाय प्रस्तुत करते हैं –

बचाव एवं सावधानियां :

• उपदंश संक्रामक छूत का रोग है, इसलिये स्त्री से पुरुष को या पुरुष से स्त्री को लग जाता है । अतः आवश्यक है इस व्याधि से ग्रस्त व्यक्तिको पारस्परिक संसर्ग से बचना चाहिये।
• स्वस्थ पुरुष अथवा स्त्री को इस विषय में अत्यन्त सावधान रहना चाहिये । इससे पीड़ित पति- पत्नी में से भी कोई एक हो तो उसे दूर रहना ही स्वहित, परिवार- हित और जनहित में श्रेयस्कर है।
• परस्पर चुम्बनादि से भी बचना चाहिये ।
• उपदंश- रोगी के वस्त्रों से भी न चिपटें, उसके प्रयोग में लाये हुए रूमाल आदि से अपना मुख आदि न पोंछे ।
• उपदंश रोगी के पात्रों में भोजन या जल का सेवन न करें । तात्पर्य यह है कि ऐसे रोगी के साथ भोजन, शयन, स्पर्शन, संभाषणादि से सतर्कतापूर्वक बचे रहना चाहिये।

चिकित्सा एवं औषधि प्रयोग का सिद्धान्त :

उपदंश रोगी की शरीर शुद्धि अत्यन्त आवश्यक है । स्नेहन, स्वेदन, वमन, विरेचनादि कर्मों के द्वारा सिद्ध किये बिना औषधियाँ अभीष्ट फल देने वाली नहीं होतीं। किन्तु यह सभी कर्म रोगी का बलाबल देख कर ही करने चाहिये। जब शरीर शुद्धि हो जाय तब उसे शीतल, शामक, कृमिनाशक और रक्तशोधक औषधियाँ दी जानी चाहिये।

एड्स का आयुर्वेदिक उपचार :

१ – चोपचीनी का कपड़छन चूर्ण एक- डेढ़ ग्राम लेकर, उसे मधु के साथ मिला कर चाटना चाहिये अथवा चोपचीनी का चूर्ण मंजिष्ठादि क्वाथ के साथ सेवन करें । अर्क उसवा के साथ प्रयुक्त करना भी हितकर है।

२- पारद भस्म उपदंश के शमन में बहुत प्रभावकारी है। इसका सेवन इस प्रकार करना चाहिये कि दाँतों से न लगे । क्योंकि उसके प्रभाव से दाँत दुर्बल हो सकते हैं । उस स्थिति से बचने के लिये 1 मुनक्का में 1 चावल भर पारद भस्म रखकर निगल जायें । किन्तु सम्भव है कि इससे रोगी को वमन विरेचन होने लगे । उन्हें, उनका शमन करने वाली औषधियों के द्वारा रोकना चाहिये ।

३- यशद भस्म 12 ग्राम, शुद्ध हीराकसीस 3 ग्राम, शुद्ध शिलाजीत 1 ग्राम और शुद्ध नीलाथोथा आधा ग्राम लेकर खरल में घोंट कर एकजीव कर लें और जलयोग से खरल करते हुए चना प्रमाण गोलियाँ बना कर रखें ।
मात्रा – 1-1 गोली प्रातः- सायं गोघृत के साथ सेवन करें । सामान्यतः दो सप्ताह में ही लाभ हो जाता है । आवश्यक होने पर अधिक दिन भी दी जा सकती है। रोगी को भोजन में दाल- चावल की खिचड़ी घी मिला कर खानी चाहिये । चने की रोटी खाना लाभकारी हो सकता है।

४- रीठा का वक्कल 20 ग्राम, कल्मी शोरा और श्वेत कत्था 10-10 ग्राम । खरल में डाल कर एकत्र करें और ग्वारपाठा के स्वरस में 3 घंटे तक खरल करके बेर के बराबर गोलियाँ बनावें और सुखाकर शीशी में रखें ।
मात्रा – 1-1 गोली प्रातः – सायं ताजा पानी के साथ सेवन करें। नया उपदंश रोग हो तो 4-5 सप्ताह के सेवन से दूर हो जाता है । किन्तु रोग पुराना पड़ने की स्थिति में अधिक दिनों तक (10-12 सप्ताह पर्यन्त) धैर्यपूर्वक दवा का सेवन जारी रखना चाहिये। क्योंकि इसके सेवन से किसी प्रकार के उपद्रव (रिएक्शन) की सम्भावना नहीं होती ।

५- शुद्ध श्वेत संखिया, शुद्ध दालचिकना, रस कपूर और शुद्ध हिंगुल, चारों 3-3 ग्राम लेकर
आक के दूध में दिन- रात 24 घंटे खरल करें और फिर डमरू यन्त्र द्वारा उड़ा कर सत निकाल लें ।
मात्रा – चावल भर दवा, आटे की गोली में रख कर, प्रत्येक तीसरे दिन सेवन करनी चाहिये । पथ्य में घृतयुक्त चने की रोटी अधिक उपयुक्त है । वस्तुतः घृत का अधिक सेवन करना चाहिये । तेल, मिर्च, खटाई और संसर्ग से बचें।

६- उपदंश पर अत्यन्त प्रभावकारी वटी –
श्वेत चन्दन, लोंग, जावित्री, केशर, रसकर्पूर और मिश्री सभी द्रव्य समान भाग लें । चन्दन, लोंग और जावित्री को कूट- छान कर खरल में डालें, फिर केशर, रसकपूर, एक- एक कर मिलावें । अन्त में मिश्री को महीन पीस कर डाल देना और केशरयुक्त पानी के साथ खरल करना चाहिये तथा मूंग के समान गोलियाँ बना कर रखनी चाहिये 2 से 4 गोली तक गोघृत में लपेट कर निगल लें । दाँतों से न लगे । प्रातः- सायं दो बार यह औषधि सेवन की जाय । कुछ सप्ताह प्रयोग से लाभ होता है ।

७-उपदंश पर अव्यर्थ महौषधि –
शुद्ध पारद, शुद्ध नीलाथोथा, शुद्ध दाल चिकना, रसकर्पूर और वर्की हरताल 50-50 ग्राम तथा शुद्ध हिंगुल 20 ग्राम । सबको खरल में डाल कर पर्याप्त मर्दन करें और फिर ग्वारपाठे के स्वरस में निरन्तर 24 घण्टे घोटते हुए अन्त में 1-1 ग्राम की टिकियाँ बना लें और उन्हें छाया में सुखा लें । तदुपरान्त 12 घंटे तक बेर की लकड़ी की मन्द अग्नि देते हुए डमरूयन्त्र द्वारा जौहर उड़ा कर सुरक्षित रखें ।
मात्रा -1 चावल भर यह दवा गोघृत या मक्खन की गोली में रखकर निगल जायें । दाँतों में दवा नहीं लगनी चाहिये । इस दवा का सेवन प्रतिदिन एक बार ही करना चाहिये । मक्खन और घृत का सेवन अधिक करना आवश्यक है। इसके तीन दिन सेवन करने मात्र से उपदंश दूर होता है । आवश्यक होने पर अधिक दिन भी सेवन कर सकते हैं।
यह महौषधि उपदंश, विसर्प, विद्रधि, विषाक्त व्रण तथा पूयमेहादि सभी में पर्याप्त लाभकारी है।

८- उपदंशान्तक वटी –
असगन्ध, अकरकरा, अजवाइन देशी, अजवाइन खुरासानी, अजमोद, श्वेत मूसली, वायविडंग, शुद्ध भल्लातक (भिलावा) और शुद्ध पारद 10-10 ग्राम, पुराना गुड़ 100 ग्राम।
सभी काष्ठौषधियों को कूट- छान कर कपड़छन करें और पारद को शृंगराज- स्वरस में विधिवतू खरल करके मूर्च्छित कर लें । भिलावे (भल्लातक) का भी विधिवतू शोधन करें फिर सबको एक साथ मिला कर पुराने गुड़ के साथ हमामदस्ते में डालं कर 4-5 दिन तक निरन्तर कुटाई करें । यदि गुड़ अधिक सूखा हो और मिलने में न आवे तो उसे पानी के छींटे देकर ढीला करे । इस प्रकार पयप्ति कुटाई होने पर और सबके साम्य होने पर झरबेर प्रमाण गोलियाँ बनाकर सुरक्षित रखें ।
मात्रा – दिन में एक बार, एक गोली घी, मक्खन अथवा मलाई की पर्त में लपेट कर प्रातःकाल नीहार मुख निगल लें। दाँतों से न लगे, इसका ध्यान रखें । औषधि सेवन अधिकतम तीन सप्ताह करें। इसके सेवन से मुख में छाले या शोथ आदि (मुँह आना) सम्भव है। मसूढ़े फूल सकते हैं । मुँह आने पर नीम की पत्तियाँ, झरबेरी की छाल, हल्दी और बिनोलों का क्वाथ बना कर, उससे कुल्ले करने चाहिये तथा उस उपद्रव से घबराना नहीं चाहिये ।

९-उपदेश पर एक अन्य लाभकारी योग –
दालचिकना 6 ग्राम, अण्डे 12 नग लेकर, दालचिकना को एक अंडे में रखें तथा उसके ऊपर उड़द का आटा लपेट कर, कोयलों की अग्नि में रखें । जब आटा लाल हो जाय, तब आग से निकाल कर ठण्डा करें और उसमें दालचिकना को निकाल लें । तत्पश्चात् दूसरे अंडे में वही दालचिकना रख कर पुनः उड़द का आटा लपेटें और अग्नि में रखें । इसी प्रकार दालचिकना को एक- एक कर बारहों अण्डों में रख कर पकाना चाहिये । फिर उसमें अजवाइन देशी, अजवाइन खुरासानी और अजमोद 12-12 ग्राम मिला कर शहद के साथ पर्याप्त खरल करके चना प्रमाण गोलियाँ बना लें ।
मात्रा –प्रातःकाल नीहार मुख 1 गोली हलुआ में रख कर निगलनी चाहिये । यदि रोग बहुत बढ़ गया हो तो इसी प्रकार सायंकाल भी 1 गोली दे सकते हैं । किन्तु दूसरी गोली रोगी की क्षमता देख कर ही देना चाहिये । केवल एक सप्ताह के प्रयोग में रोग से मुक्ति सम्भव है।

१०-उपदंशकुठार वटी –
नीलाथोथा फुलाया हुआ, सुहागा फुलाया हुआ, छोटी हरड़ और काबुली हरड़, चारों 10-10 ग्राम तथा कर्पद (कौड़ी) भस्म 40 ग्राम ।
मात्रा –1 से 4 गोली तक ताजा पानी के साथ प्रातः- सायं निरन्तर एक सप्ताह तक सेवन करने से उपदंश नष्ट हो जाता है । इस दवा को निगलने.की आवश्यकता नहीं होती। किन्तु नीलाथोथा के प्रभाव से वमन होना सम्भव है । यदि ऐसा हो तो किसी भी प्रकार से नींबू के रस का सेवन करना हितकर रहता है ।

११-उपदंशनाशक त्रिपुर भैरव रस –
शुद्ध पारद, शुद्ध गन्धक, शुद्ध हिंगुल, शुद्ध रसकर्पूर 50-50 ग्राम, फिटकरी-फुलाई हुई 25 ग्राम और नौसादर 5 ग्राम । प्रथम पारद- गन्धक की कज्जली करें और फिर एक- एक करके सभी द्रव्य पर्याप्त खरल कर, कज्जली के समान सूक्ष्म करके आतशी शीशी में भरें और बालुकायन्त्र में रख कर दो दिन तक अग्नि दें । वस्तुतः इस प्रकार से औषधि- निर्माण सामान्य ज्ञान वाले व्यक्तियों के लिये सम्भृव नहीं, किसी अनुभवी निर्माणकर्ता वैद्य के द्वारा ही बनवा लेना चाहिये । इसमें गन्धक का धुंआ निकलने के पश्चात् शीशी का मुख ठीक से बन्द करके 24 घण्टे तक तेज अग्नि देनी होती है ।
मात्रा –60 मिलीग्राम से 250 मिलीग्राम तक, प्रातः – सायं घृत के साथ सेवन करनी चाहिये । उपदंश के लिये वास्तव में यह औषधि कुठार स्वरूप ही है ।

१२-उपदंश में धूम्रपान का एकमात्रिक योग-
शुद्ध सिंगरफ, फूला सुहागा, अकरकरा और माजूफल, चारों 5-5 ग्राम लेकर कूटें और उनकी चार गोलियाँ बना लें अर्थात् चार मात्रा कर लें । इनमें से एक- एक मात्रा रात्रि में चिलम में रख कर 3-3 घंटे के अन्तर से पीने को दें । इससे वमन, विरेचन होते हैं । फिर भी रोगी रात्रि में नींद न ले, वरन् घूमते-फिरते हुए ही समय काटे । बैठे भी नहीं, क्योंकि इससे गठिया होने की आशंका रहती है। प्रातःकाल दिन निकलने पर ठण्डे पानी से स्नान करें तथा गेहूँ की रोटी, मूंग की दाल के साथ खाकर सो जाय ।
यह प्रयोग केवल एक रात्रि में चमत्कार दिखाता है। दूसरे दिन से ही व्रण भरने आरम्भ हो जाते हैं । यदि उपस्थ पर सूजन हो तो उसे त्रिफला के क्वाथ से धोना चाहिये। रोगी की संभाल करने के लिये उस रात्रि 3-4 परिचारकों की आवश्यकता रहती है। योग बंहुतों द्वारा बताया जाता है, किन्तु हमारे द्वारा परीक्षित नहीं है। जानकारी हेतु यहाँ लिख दिया है।

१३-उपदेश पर सरल, सस्ता, अपूर्व योग-
मकोय के पत्ते 300 ग्राम, मुनक्का और मिश्री 50-50 ग्राम और पुराना गुड़ 100 ग्राम मकोय पत्र को छाया में सुखा कर उसका कपड़छन किया हुआ चूर्ण प्रयोग में लें । मिश्री को महीन पीस कर उस चूर्ण को मिलावें । मुनक्कों के बीज निकाल कर फेंक दें और उन्हें गुड़ के साथे घोटें । अर्थात् मुनक्का में गुड़ थोड़ा- थोड़ा डाल कर घोटना चाहिये तथा वह चूर्ण मिला कर पुनः 5-6 घण्टे तक घोट कर सबको एकजीव कर लेना चाहिये । फिर बेर प्रमाण गोलियाँ बनाकर रखनी चाहिये।
मात्रा –2 से 4 गोली तक नित्यप्रति, दो सप्ताह पर्यन्त सेवन करने से उपदंश नष्ट हो जाता है । दवा- सेवनकाल में रोगी को घृत का अधिकाधिक सेवन करना चाहिये।

क्या खाएं क्या न खाएं / पथ्यापथ्य विचार :

✦जौ, शालिधान, गाय का घी, गेहूँ- चने की रोटी, हरे शाक- सब्जियाँ आदि पथ्य हैं।
✦मूंग की दाल अनेक रोगियों को अहितकर सिद्ध हुई है। कुछ वैद्य इसे पथ्य रूप में भी देते हैं।
✦ तेल, मिर्च, खटाई, गरिष्ठ अन्न, अपाच्य अन्न, मद्यपान, चिरपरा- चटपटा आहार तथा मैथुनादि वर्जित है ।
✦एकान्त सेवन उचित है । पर- स्पर्श से बचना चाहिये ।
✦इस रोग में सेवनीय औषधियाँ प्रायः ऐसी हैं, जो घृत, मक्खन या मलाई आदि में रखकर निगल लेनी चाहिये । दाँतों में न लगे, अन्यथा दाँतों को हानि पहुँच सकती है।

नोट :- ऊपर बताये गए उपाय और नुस्खे आपकी जानकारी के लिए है। कोई भी उपाय और दवा प्रयोग करने से पहले आयुर्वेदिक चिकित्सक की सलाह जरुर ले और उपचार का तरीका विस्तार में जाने।

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