एड्स क्या है इसके कारण, लक्षण, इलाज और बचाव के उपाय

Last Updated on March 5, 2023 by admin

एड्स क्या है ?

एड्स (AIDS) संक्षिप्त नाम है-“एक्वायर्ड इम्यूनो डिफीशिएंसी सिन्ड्रोम” का, जिसके बारे में पहली बार सन् १९८१ में अमरीका के लॉस-ऐंजिलिस और न्यूयॉर्क जैसे बड़े शहरों के चिकित्सकों को तब पता चला, जब उनके पास “समलैंगिक यौन-क्रिया” के कुछ व्यक्ति अपना इलाज कराने आये। कई तरह की जाँच और इलाज के बाद भी रोग ला-इलाज रहा और वे लोग बचाये न जा सके। लेकिन यह तथ्य सामने आया कि उन “समलिंगकामियों” की “रोग प्रतिरोधक-शक्ति” नष्ट हो चुकी थी। प्राण-लेवा यह बीमारी तब से संसार के अनेकों विकसित और अविकसित देशों जैसे अमरीका, जापान, आस्ट्रेलिया, यूरोप, अफ्रीका, एशिया आदि में फैल गई और अभी तक निरन्तर लोगों को मौत के मुँह में खींचती जा रही है।

एड्स कैसे होता है और क्यों होता है :

एड्स का कारण एक अति सूक्ष्म विषाणु एच.आई.वी. (H.I.V.) रेट्रोवाइरस है जिसके दो प्रकार टाइप-I व टाइप-II पाये गये हैं। पहले इन दोनों को टाइप-III (H.T.L.V. III) कहा जाता था। इनकी विशेषता, शरीर की रक्षा करने वाले श्वेत-कणों को नष्ट कर देना है, जिनके बारे में नीचे समझाया गया है।

मनुष्य के शरीर में रोगों से बचाव के लिए विशेष व्यवस्था है। खून में पाये जाने वाले सफ़ेद या श्वेत कोशाणु (White Blood Corpuscies) के अलावा शरीर के कई अंग जैसेजिगर, तिल्ली, लसीका-ग्रन्थियाँ व थाइमस ग्रन्थि एक “रोग-प्रतिरोधक प्रणाली” (Immune System) बनाते हैं, जिसमें रोग के जीवाणु या विषाणुओं को शरीर में घुसते ही प्रभावहीन और नष्ट करने की क्षमता है। इसी के अन्तर्गत एक जटिल प्रक्रिया द्वारा कुछ प्रतिरक्षी तत्व या पिण्ड (Antibodies) और प्रतिजन (Antigens) भी बनाये जाते हैं, जो शरीर को बाहरी संक्रमण से बचाने की शक्ति प्रदान करते हैं। यह रोग-प्रतिरोधक-शक्ति (Immunity) लम्बे समय तक शरीर में बनी रहती है। यह शक्ति श्वेत कोशाणुओं के विशेष प्रकार के “टी-४ लिम्फोसाइट” कोशाणुओं में होती है; और इन्हें ही एड्स का विषाणु (H.I.V.) नष्ट कर देता है। इस कारण मनुष्य रोगों का मुकाबला और अपना बचाव करने में असमर्थ हो कर तरह-तरह के रोगों का शिकार हो कर शीघ्र ही मृत्यु-मुख में समा जाता है।

विषाणु का प्रवेश मुख्यतः तीन प्रकार से होता है –

(१) यौन सम्बन्ध द्वारा, (२) प्रदूषित रक्त द्वारा, (३) माँ द्वारा गर्भ-स्थित बालक में संक्रमण पहुँचने से।

(१) यौन-सम्बन्ध :-

एड्स-ग्रस्त स्त्री या पुरुष का समलैंगिक (Homosexual) या इतरलिंगी (Heterosexual) या उभयलिंगी (Bisexual) यौन-सम्बन्ध इस रोग का मुख्य कारण है। जो स्त्री या पुरुष एक से अधिक पुरुष या स्त्रियों के साथ संभोग करते हैं, उनमें इस रोग की संभावना ज़्यादा होती है। इस तरह वेश्यागामी पुरुष, और पर-पुरुष-रता स्त्रियाँ यानी उन्मुक्त यौनाचार में संलग्न स्त्री और पुरुष एड्स को कई लोगों में फैला देते हैं। यानी पुरुष से पुरुष को, पुरुष से स्त्री को और स्त्री से पुरुष को यह बीमारी आसानी से लग सकती है।

गुदा-मैथुन से भी एड्स रोग होता है। इस रोग-ग्रस्त पुरुष के वीर्य और पौरुष ग्रन्थि (प्रॉस्टेट ग्लैण्ड) के स्राव तथा स्त्री की योनि के तरल द्रव में एच.आई.वी. (विषाणु) मौजूद रहते हैं।
» नोट-एड्स-ग्रसित व्यक्तियों के शरीर के अन्य तरल जैसे – मूत्र, आँसू, लार, स्तन के दूध तथा मस्तिष्क-मेरु तरल आदि में भी विषाणु पाये जाते हैं। लेकिन इनकी संख्या वीर्य और रक्त में पाये जाने वाले विषाणुओं से बहुत कम होती है।
» नोट-यदि मुँह में छाले या घाव हों, तो चुम्बन से एड्स फैल सकता है।

(२) प्रदूषित रक्त द्वारा:-

एड्स के विषाणु रोग-ग्रस्त मनुष्य के खून में भी पाये जाते हैं। यदि ऐसे व्यक्ति का रक्त-आधान (Blood Transfusion) बिना रक्त की जाँच किये ही, शल्य-क्रिया के दौरान या रक्ताल्पता के कारण किसी जरूरतमंद व्यक्ति को दे दिया जाय, तो रक्त पाने वाले व्यक्ति को ‘एड्स’ रोग हो जाता है। इसी तरह मादक या नशीली दवाओं के इन्जेक्शन खुद ले-लेने के आदी लोगों में संक्रमित सुई से यह बीमारी फैल जाती है। नशीली दवाओं के ऐसे आदी लोग भी हैं जो गुप-चुप समूह में बैठ कर एक-दूसरे को एक ही सुई–सिरिंज से नशीली दवायें देते हैं; ऐसे सब लोग एक साथ ही इस बीमारी की चपेट में आ जाते हैं।

शरीर में गोदना गोदाने (Tatooing), कान छिदवाने और सूचि-छिद्र एक्युपंक्चर (Acupuncture) के समय भी रोग-ग्रस्त व्यक्ति से संक्रमित हो चुकी सुई इस्तेमाल करने से यह रोग हो सकता है।
» नोट- आजकल खून की जाँच करके रक्त-आधान करने और इंजेक्शन देते वक्त प्रयोज्य (Disposable) सुई-सिरिंजों के प्रयोग पर बहुत ध्यान दिया जा रहा है, यह अच्छी बात है। ऐसा करने से कुछ हद तक तो रोक-थाम होगी ही।

(३) एड्स-ग्रस्त माँ से बच्चे को :-

एड्स से पीड़ित स्त्री गर्भवती हो जाती है, तो गर्भ में बढ़ रहे बच्चे को भी अपरा द्वारा विषाणु का संक्रमण हो जाता है। इस हालत में, जन्म लेने वाला बच्चा जन्मजात एड्स रोगी होता है। प्रसव-काल के दौरान भी संक्रमित माँ से शिशु यह रोग पा सकता है। स्तनपान करने वाले बच्चों को भी एड्स संक्रमण हो सकता है।

एड्स के लक्षण :

एड्स-विषाणुओं के शरीर में प्रवेश करने के बाद, और कुछ समय तक शरीर में बने रहने के बाद भी कुछ लोगों को शुरू में काफी समय तक कोई तकलीफ नहीं होती। वे सामान्य ही लगते हैं, लेकिन दूसरों को संक्रमित कर देने में समर्थ हो जाते हैं। दूसरे कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जिनमें एड्स के थोडे-थोडे लक्षण नजर आते हैं और अगले दो-तीन वर्षों में ये लक्षण गम्भीर रूप धारण कर लेते हैं तथा तीसरी श्रेणी में कुछ लोग ऐसे होते हैं, जिनमें संक्रमण लगने के डेढ़-दो महीनों के भीतर ही गम्भीर लक्षण प्रकट हो जाते हैं।

प्रमुख लक्षण –

(१) वजन घटना २ महीनों में ही ४-५ किलो तक वजन घट सकता है। शरीर का १०% वजन।
(२) बार-बार दस्त लगना और काफी समय (एक माह) तक ठीक न होना।
(३) बारम्बार बुखार आना या हरदम बुखार बना रहना।
अन्य लक्षण :
(४) शरीर की लसीका-ग्रन्थियों जैसे, गले, काँख, जाँघ की ग्रन्थियों में सूजन आना।
(५) मुँह तथा कण्ठ में छाले या ज़ख्म हो जाना, खाँसी होना और निरन्तर बलगम आना।
(६) त्वचा रोग-शरीर में चकत्ते और खुजली होना, पीलापन आदि।
(७) भूख न लगना, भोजन में अरुचि।
(८) रात में पसीने आना।

शरीर में ‘रोग प्रतिरोधक शक्ति‘ न रहने से ऊपर लिखे गये लक्षण बने ही रहते हैं, शरीर निरन्तर कमजोर होता रहता है, फेफड़ों में टी.बी., न्यूमोनिया, जैसे रोग हो जाते हैं। मस्तिष्क व स्नायविक तन्त्र पर भी असर पड़ने से मानसिक-विक्षिप्तता, मस्तिष्क-सुषुम्नाच्छद-शोथ भी हो जाता है। आँखों की रोशनी नष्ट हो सकती है। अनेकों रोग आक्रमण कर सकते हैं और अन्त में २ से ५ वर्ष के भीतर ही मृत्यु हो जाती है। बच्चे तो २ वर्ष के भीतर ही दम तोड़ देते हैं। स्त्रियों में योनि की शोथ(सूजन), खुजली तथा अत्यधिक रक्तस्राव पाया जाता है।

एड्स का इलाज :

दो तरह की जाँचें कराने पर रोग का निदान हो सकता है।
(१) एलिसा-एन्जाइम लिंक्ड इम्यूनो—सॉरबेन्ट एस्से।
(ELISA-Enzyme Linked Immuno-Sorbent Assay)
(२) वेस्टर्न ब्लॉट विश्लेषण (Western Blot Analysis)

» नोट-कुछ अनुसंधान कर्ताओं का कहना है कि एलिसा टैस्ट में एच.आई. वी. मिलने के बाद वैस्टर्न ब्लाट विश्लेषण करा लेने पर यदि पॉजिटिव मिले तो एच. आई.वी. पॉजिटिव समझना चाहिए।

एड्स की कोई सफल चिकित्सा नहीं मिली है; न कोई दवा मिली है, न कोई वैक्सीन ही बनी है। एकाध दवायें खोज निकाली गई हैं लेकिन उनके कुप्रभाव ज्यादा हैं, लाभ नाम मात्र के ही हैं। ए. जेड. टी. (A.Z.T.-एजिडोथायमेडिन) या ZDV जाइडोवुडीन दवा का इस्तेमाल करने से रोगी के जीवन की अवधि थोड़ी-सी बढ़ सकती है और शुरू के कुछ महीनों में अन्य रोगों के संक्रमण में कुछ कमी आ सकती है। लेकिन यह दवा बहुत महँगी है और केवल गिने-चुने बड़े शहरों में ही मिलती है। ए. जेड. टी. के साथ नेवीरापाइन (Nevirapine) और आजकल 3 T.C. दवा मिला कर भी परीक्षण किये जा रहे हैं। इसलिए-एड्स की रोक-थाम के उपायों पर ही ध्यान देना श्रेयस्कर है; जैसे-

एड्स को रोकने के उपाय :

(१) विवाह से पहले किसी से भी, किसी प्रकार के भी यौन सम्बन्ध न रखने चाहियें। विवाह के बाद विवाहित साथी से ही यौन-सम्बन्ध रखने चाहिये। वेश्यागमन से बचना चाहिए।
(२) आदत से लाचार, उन्मुक्त यौनाचारियों को सहवास के समय कन्डोम (रबर की टोपी) “निरोध” का इस्तेमाल ज़रूर करना चाहिए।
(३) रक्त-आधान के पूर्व, रक्त की जाँच करानी चाहिए।
(४) बिना आवश्यकता, इन्जेक्शन यानी सुई लगाने पर जोर न देना चाहिए । इन्जेक्शन लगाते वक्त या तो प्रयोज्य (Disposable) सुई-सिरिंज का प्रयोग करना चाहिए अथवा सुई-सिरिंज को १५-२० मिनट तक उबाल कर विसंक्रमित बना कर काम में लेना चाहिए।
(५) एड्स-ग्रस्त स्त्रियों को गर्भ धारण नहीं करना चाहिए।
(६) स्त्रियों को गर्भाश्य-ग्रीवा पर मध्यपट (Diaphragm) का प्रयोग करके मैथुन करना चाहिए।
(७) एड्स रोगियों की जाँच के समय प्रयुक्त किये जाने वाले औज़ारों को विसंक्रमित (Sterilize) कर लेना चाहिए।
(८) एड्स-ग्रस्त बच्चों में जाँच करने पर भी एच.आई.वी. का पता न चला हो तो
बी.सी.जी (B.C.G.), डी.पी.टी. (D.P.T.) पोलियो, खसरा की वैक्सीन का टीका दे देना चाहिए। यदि जाँच में एच.आई.वी. का पता चले तो बी.सी.जी. का टीका नहीं देना चाहिए।
(९) शिक्षा संस्थानों में विद्यार्थियों को तथा माता-पिता को अपने बच्चों को संयम की शिक्षा , एड्स के बारे में तथा इस रोग से बचाव के बारे में बताना चाहिए।
(१०) एड्स की शंका होने पर जाँच-केन्द्रों में इस रोग की जाँच अवश्य करा लेनी चाहिए। हर तीन माहों पर वजन लेना, खून की जाँच करना, यकृत के कार्यों की जाँच तथा अन्य आवश्यक जाँच हो जाने से एड्स के साथ होने वाले अन्य संक्रमणों से बचा जा सकता है।
(११) एड्स-ग्रस्त रोगी के खून, विष्ठा व अन्य तरल को छूते या उठाते समय हाथों में दस्ताने व शरीर पर गाउन पहन लेने चाहिए।
(१२) वीर्य-दान करने वालों के वीर्य की जाँच कर लेनी चाहिए।

पहली ज़रूरी बात –

एड्स-ग्रस्त माँ के बालक को, संक्रमण, माँ के गर्भ में, प्रसव के दौरान या स्तन पान के समय लगता है। इसलिए पीछे लिखी औषधों को, संक्रमण का पता लगते ही देना शुरू कर देना चाहिये। डॉक्टर की सलाह से गर्भवती महिला स्वयं इन्हें ले सकती है; अथवा नर्स, दाई, परिचारिका भी दे सकती है।

दूसरी ज़रूरी बात –

प्रसव सामान्य तौर पर योनि मार्ग से न करा के शल्य क्रिया द्वारा, समय से पूर्व, ३८ सप्ताह या और भी पहले कराने से बालक को संक्रमण से बचाया जा सकता है।

आयुर्वेद शास्त्रज्ञों का कहना है कि “श्यामा तुलसी के रस” का सेवन करना एड्स में लाभदायक सिद्ध हो सकता है। परन्तु जब तक परीक्षण-प्रयोगों से सिद्ध और सर्व-सम्मत तथ्य सामने नहीं आते, तब तक आयुर्वेद-महारथियों को इसका सही उपचार खोजने का प्रयत्न जारी रखना चाहिए।

» नोट- एड्स रोगी को अछूत समझ कर उसका सामाजिक बहिष्कार करना ठीक नहीं, क्योंकि ऐसे रोगी के पास बैठने, हाथ मिलाने, एक साथ भोजन करने, पानी पीने, यहाँ तक कि साथ सोने और आलिंगन करने से यह रोग नहीं फैलता। ध्यान केवल यह रखना है कि अपने शरीर की त्वचा कटी-फटी, छिली या घाव-युक्त न हो, जहाँ से विषाणु प्रवेश कर सकें।

एड्स रोगियों को प्रेम, सहानुभूति और सद्व्यवहार की बहुत ज़रूरत है। इस रोग के सभी लक्षणों जैसे-बुखार, दस्त, चमड़े में खुजली, शारीरिक पीड़ा आदि को कुछ हद तक कम करने के लिए उपचार दें। साथ-साथ व्यक्तिगत-सफाई और सामान्य दैनिक-जीवनचर्या करते रहने के लिए प्रोत्साहित करते रहें।

आगे पढ़ने के लिए कुछ अन्य सुझाव :
विसर्प रोग के कारण लक्षण और इलाज
खून की खराबी दूर करने के 12 घरेलु आयुर्वेदिक उपाय
हाइड्रोसील के कारण,लक्षण व 10 सबसे प्रभावशाली घरेलु उपचार

Share to...