जोड़ों के दर्द का 15 चमत्कारी आयुर्वेदिक इलाज – Joint Pain Ayurvedic Treatment in Hindi

Last Updated on January 22, 2024 by admin

संधिवात की चिकित्सा में ऐसी औषधियों की आवश्यकता होती है, जो सुरक्षित और अधिक समय तक प्रभावी हों। आयुर्वेद में ऐसी बहुत सी वनौषधियां उपलब्ध हैं, जो इस रोग में लाभदायक हैं। जबकि एलोपैथिक चिकित्सक इस रोग को आयु के प्रभाव का लक्षण मानते हैं। उनके अनुसार इस रोग में किसी विशेष चिकित्सा की आवश्यकता नहीं होती है। वे एनालजेसिक, एन्टीइंफ्लेमेटरी व स्टीराइड के इंजेक्शन लगा देते हैं, जिससे रोगी को 2-3 महीने का आराम मिल जाता है, लेकिन दर्द की उत्पत्ति पुनः हो जाती है। इन दवाओं के साइड इफेक्टस भी बहुत हैं, जो अनेक रोगों को जन्म देते हैं।

जोड़ों के दर्द के लिए आयुर्वेदिक उपचार (Jodo ke Dard ke Liye Ayurvedic Upchar in Hindi)

jodo ke dard ka ayurvedic ilaj kya hai –

संधिवात की चिकित्सा में वातहर वेदनास्थापक (दर्द दूर करने वाली), शोथनाशक (सूजन नष्ट करने वाली) औषधियों की आवश्यकता होती है, जो दर्द व सूजन में आराम दें तथा रोग को बढ़ने से रोकें । ऐसी कुछ वातशामक वनौषधियों का वर्णन यहां किया जा रहा है।

1. रास्ना (Pluchea lanceolata) – जोड़ों के दर्द में उपयोगी

रास्ना वात रोगों की सर्वश्रेष्ठ औषधि मानी जाती है। आचार्य चरक ने रास्ना को वातहर बताया है। आचार्य भावमिश्र के अनुसार रास्ना 80 प्रकार के वात रोगों को दूर करती है। वेदनायुक्त वात विकारों में इसका अकेला या इससे बने अन्य योगों का प्रयोग किया जा सकता है। रास्ना के पत्र का औषधि के रूप में प्रयोग किया जाता है।

इसके पत्र का लगभग 50 से 100 ML क्वाथ संधिवात में उपयोगी है। इसके अलावा रास्नासप्तक क्वाथ (आयुर्वेदिक दवा), रास्नादि गुग्गुल (आयुर्वेदिक दवा) बाजार में उपलब्ध हैं। यह आम को पचाने वाली, गुरू गुणयुक्त, तिक्त रसयुक्त है। इसका विपाक कटु तथा वीर्य उष्ण है। यह कफवातशामक है। शोथ तथा वेदनायुक्त विकारों में इसके लेप तथा सिद्ध तेल का प्रयोग संधिवात आदि रोगों में किया जाता है।

2. मेथी (Trigonella Foenum) – जोड़ों के दर्द में लाभदायक

आयुर्वेदिक मतानुसार मेथी चरपरी, गरम, रक्तपित्त को कुपित करनेवाली, रस कडवी, मलरोधक, हल्की, रूखी, हृदय को हितकारी, स्निग्ध, सगंधित, वातहर, अग्निदीपक, दीपन, शोथहर, बल्य, आध्मानहर, दुग्धवर्धक, बल्य, वृष्य, गर्भाशय संकुचक, अग्निमांद्य, आमवात, शीतल, दाहशामक तथा मृदुरेचक है।

कामशक्ति की कमजोरी में भी इसके पत्र उपयोगी है। इसके बीज कड़वे, पौष्टिक, ज्वरनाशक और कृमिनाशक होते हैं। ये भूख बढ़ाते हैं, आंतों का संकुचन करते हैं, कुष्ठ में लाभ पहुंचाते हैं तथा मुंह के खराब जायके को सुधारते हैं।
रक्तातिसार में इसके बीजों को कूटकर उनकी फांट बनाकर देते हैं। इससे रक्त का गिरना कम होता है और प्रसूता स्त्री को मेथी के बीजों का दूसरे सुगंधित द्रव्यों के साथ पाक बनाकर दिया जाता है।

मेथी गठिया में विशेष लाभ करती है। वात व्याधि के दर्द में मेथी के बीजों को घी में हल्का भूनकर और गुड़ के साथ मिलाकर कम आंच पर इतना पकाएं कि रस जल जाए और मात्र तेल रह जाने के बाद मिलाकर 50-50 ग्राम के लड्डू खाने से अथवा मेथी के बीज 6 ग्राम तथा गुड़ 20 ग्राम को पानी में उबालकर पीने से इस रोग में लाभ होता है। ( और पढ़े – मेथी के फायदे व अदभुत 124 औषधीय प्रयोग )

3. लहसुन (Alliumsativum) – जोड़ों का दर्द करे दूर

लहसुन प्रधानतः सभी अस्थि रोगों, बीजरोग (पुरूष और स्त्री), वीर्य संबंधी रोगों, भ्रम, खांसी, कुष्ठ, कृमि, ज्वर, रतौंधी जैसी दृष्टिगत रोग, स्थौल्य, अथिरोस्क्लेरोसी (हृदय धमनी में ब्लॉकेज) जैसी बीमारियों से मुक्ति प्रदान करता है।

औषधि रूप में इसमें कंद तथा तेल का प्रयोग करते हैं। यह स्निग्ध, तीक्ष्ण, पिच्छिल, गुरू, सर गुणयुक्त होती है। इसमें पांचों रस (अम्लरस को छोड़कर) होते हैं तथा इसका विपाक कटु तथा वीर्य उष्ण है। यह कफ वातनाशक है। इसका बाह्य प्रयोग वेदनास्थापक तथा शोथहर है। औषधि रूप (jodo ka dard ayurvedic dawa) में इसके कंद कल्क 3 से 6 gm तथा तेल 1 से 2 बूंद का प्रयोग किया जा सकता है।

लहसुन गठिया की पीड़ा का शत्रु है। लहसुन की 5 से 6 कलियां 250 ग्राम गाय के दूध में उबालकर पिएं तो शीघ्र लाभ होगा। साथ ही एक गांठ लहसुन 50 ग्राम सरसों के तेल में गरमा लें। जब लहसुन जल जाए, तो उस तेल से रोज त्वचा पर घुटनों के आगे-पीछे मालिश कीजिए। सर्दियों में छांवदार जगह तथा बरसात में हमेशा बंद कमरे में मालिश करें और कपड़ों से अंग ढंककर रखें ताकि सीलन और हवा न लगे। ( और पढ़े – अंकुरित लहसुन खाने के 6 बडें फायदे )

4. गुग्गुल (Commiphora mukul) – जोड़ों के दर्द में उपयोगी

यह भी वात व्याधियों की प्रमुख औषधि है। औषधि रूप में इसका निर्यास (गोंद) प्रयोग में लाया जाता है। इसकी सेवन मात्रा 2 से 4 gm है। गुग्गुल रस में तिक्त-कटु, लघु, रूक्ष, विशद, तीक्ष्ण, सूक्ष्म, सर, सुगन्धि, पिच्छिल (नया गुग्गुल) गुणयुक्त होता है। इसका विपाक कटु तथा वीर्य उष्ण है। यह त्रिदोषहर तथा मेदोहर (मेदधातु चर्बी को घटाने वाला) है। चर्बी को घटाने वाला नया गुग्गुल बल्य तथा पुराना गुग्गुल मेदोहर होता है।

इसका बाह्य प्रयोग शोथहर, वेदनास्थापक है। इसलिए संधिवात में इसका लेप किया जाता है। इसका आभ्यंतर प्रयोग वेदनास्थापन नाड़ियों के लिए बलकर नाडीबल (वातशामक) है। यह स्रोतोवरोध को दूर करता है तथा इससे शरीर के सभी संस्थानों को उत्तेजना एवं शक्ति मिलती है। इसके मिथ्या योग से यकृत तथा फुफ्फुस को हानि पहुंचाती है तथा अतियोग से तिमिर, मुखशोष, क्लैब्य, कृशता, मूर्छा, शैथिल्य उत्पन्न होता है। अतः इन रोगों में इसका प्रयोग नहीं करना चाहिए। यह संधिवात के दर्द व सूजन में राहत देता है तथा रोग को बढ़ने से रोकता है।

jodo ka dard ayurvedic dawa – त्रयोदशांग गुग्गुल, लाक्षादि गुग्गुल, संधिवात में उपयोगी गुग्गुल से बने योग है। ( और पढ़े – गुग्गुल के फायदे और नुकसान )

5. एरड (Ricinus communis) – जोड़ों के दर्द में फायदेमंद

एरंड वात रोगों में गुणकारी होता है। सामान्य भाषा में इसे रेडी या अंडी कहते हैं। औषधि के रूप में प्रयोग करते हैं। एरंड सफेद तथा लाल 2 प्रकार का होता है। दोनों ही शूल व शोथ में उपयोगी हैं। यह स्निग्ध, तीक्ष्ण, सूक्ष्म गुणयुक्त होता है। इसमें मधुर रस होता है। इसका विपाक मधुर तथा वीर्य उष्ण होता है। एरंड कफवातशामक है। इसका बाह्य प्रयोग वातहर, शोथहर तथा वेदनास्थापक है । सन्धिशोथ तथा संधिवात में इसके गरम पत्ते बांधते हैं तथा एरंड तेल का आभ्यंतर प्रयोग वेदनास्थापक, अंगमर्द, प्रशमन, वातशामक, बल्य, वयःस्थापक है।

सन्धिरोगों में इसके तेल का आभ्यंतर प्रयोग करते हैं। इसके मूलकल्क 10 से 20 gm, बीज 2 से 6 दाने तथा तेल 4 से 16 ml तक प्रयोग में लाया जा सकता है। इसके बने हुए योग जैसे एरंड तेल बाजार में मिलते हैं, जो संधिवात में उपयोगी है। ( और पढ़े – अरण्डी तेल के 84 लाजवाब फायदे )

6. निर्गुण्डी (Vitex negundo) – जोड़ों के दर्द में इस्तेमाल से लाभ

सामान्य भाषा में इसे सम्हालू, सेंदुबार आदि कहते हैं। यह नीलपुष्पी तथा श्वेतपुष्पी 2 प्रकार का होता है। औषधि रूप में इसके पत्र, मूल तथा बीज का प्रयोग किया जाता है। निर्गुण्डी लघु, रूक्ष गुणयुक्त तथा इसमें कटु तिक्त रस का होता है। इसका विपाक कटु तथा वीर्य उष्ण है। यह कफवातशामक होता है। इसका बाह्य प्रयोग वेदनास्थापक व शोथहर है। संधिवात में इसके पत्र गर्म करके बांधते या उपनाह देते हैं। इसका आभ्यांतर प्रयोग वेदनास्थापक, बल्य और रसायन है।

इसके पत्र का स्वरस 10 से 20 ml, मूलत्वक (जड़ की छाल) चूर्ण 3 से 6 gm तक प्रयोग किया जा सकता है। संधिवात में यह उपयोगी वनौषधि है। इसमें निर्गुणडी तेल से मालिश करने के बाद स्वेदन क्रिया की जाती है, जिससे शोथ (सूजन) तथा शूल नष्ट होता है। ( और पढ़े – निर्गुण्डी के 55 चमत्कारी फायदे )

7. प्याज (Allium cepa) – जोड़ों के दर्द में औषधीय गुण फायदेमंद

सामान्यतः इसका प्रयोग हर रोज घरों में होता है। इसे सामान्य भाषा में प्याज कहते हैं। औषधि रूप में इसमें कंद तथा बीज का प्रयोग होता है। इसमें गुरू, तीक्ष्ण, स्निग्ध गुण तथा मधुर कटु रस होता है। इसका विपाक मधुर तथा वीर्य तनिक उष्ण है। यह वातशामक, कफवर्धक तथा पित्तशामक है। इसलिए वातव्याधि में अत्यंत उपयोगी है। इसका बाह्य प्रयोग वेदनास्थापक तथा शोथहर है। इसके स्वरस तथा कल्क का लेप करते हैं। इसका आभ्यांतर प्रयोग वातहर होने से वेदनास्थापक है। इसमें बीज वाजीकारक होते है। प्याज बल्य व ओजवर्धक है। औषधि रूप में इसके कंद का स्वरस 10 से 30 ml तथा बीजचूर्ण 1 से 3 gm तक प्रयोग किया जा सकता है। ( और पढ़े – प्याज के 141 चमत्कारिक औषधीय प्रयोग )

8. कुचला (कुपीलु) (Strychmos nuxvomica) – जोड़ों के दर्द की लाभकारी औषधि

सामान्य भाषा में इसे कुचला कहते हैं। औषधि में इसके बीज मज्जा का प्रयोग किया जाता है। यह रूक्ष, तीक्ष्ण गुणयुक्त तथा इसका रस तिक्त, कटु है। इसका विपाक कटु तथा वीर्य उष्ण है। यह कफवातशामक है। इसकी उपयोग मात्रा 60 से 250 mg है। अतिमात्रा में तथा अशोधित अवस्था में इसका प्रयोग करने से ओजक्षय के द्वारा वायु को प्रकुपित कर आक्षेप (झटके) उत्पन्न करता है। इसका बाह्य लेप वेदनास्थापक तथा शोथहर है। इसका आभ्यांतर प्रयोग वातशामक होने से वेदनास्थापक है। यह नाड़ीबल्य, उत्तेजक, कटुपौष्टिक तथा बल्य है।
संधिवात में इसके बीजों का लेप करते हैं। विशेषतः रीढ़ की हड्डियों के विकारों में इसका प्रयोग किया जाता है। ( और पढ़े – चमत्कारी औषधि कुचला )

9. सहिजन (शिग्रु) (Moringa oleifera) – जोड़ों का दर्द मिटाए प्रयोग

सामान्य भाषा में इसे सहिजन कहते हैं। इसकी फल्लियों की सब्जी से वात रोगों से उत्पन्न विकृतियां नष्ट होती हैं। औषधि रूप में इसके मूलत्वक, छाल, पत्र तथा बीज का प्रयोग किया जाता है। इसके छाल तथा पत्रों का स्वरस असह्य पीड़ा को दूर करता है।

इसके बीजों के तेल की संधिवात मूलत्वक स्वरस, छाल स्वरस तथा पत्र स्वरस का 10 से 20 ml तथा बीज चूर्ण का 1 से 3 gm तक प्रयोग करते हैं।

संधिवात में इसकी छाल तथा पत्तियों के स्वरस को वेदनाशामक के रूप में प्रयोग किया जा सकता है। सहिजन लघु, रूक्ष व तीक्ष्ण गुणयुक्त होता है। इसका रस कटु तिक्त है तथा विपाक कटु तथा वीर्य उष्ण है। यह कफवातशामक है। इसके बीज का तेल दर्द में मालिश के काम आता है। इसकी त्वचा और पत्र लेप शोथहर है। इसका आभ्यांतर प्रयोग नाड़ी उत्तेजक है। संधिवात के मोटे रोगियों में सहिजन का प्रयोग लाभकर है क्योंकि यह मेद (वसा) को नष्ट करता है। ( और पढ़े – सहजन खाने के फायदे )

10. सोंठ (Zingiber officinale) – जोड़ों के दर्द में सेवन से लाभ

सोंठ को संस्कृत में शुण्ठी कहते हैं। यह अदरक की सूखी अवस्था है। सोंठ का चूर्ण बनाकर गर्म जल के साथ सेवन करने से वातरोग में उत्पन्न शोथ व शूल नष्ट हो जाते हैं। औषधि रूप में इसके कंद का प्रयोग करते हैं।

अदरक स्वरस 5 से 10 ml तथा शुण्ठी चूर्ण 1 से 2 gm तक प्रयोग किया जा सकता है।
इसका बाह्य प्रयोग शोथहर तथा वेदनास्थापक है। इसमें लघु व स्निग्ध गुण तथा कटु रस होता है। इसका विपाक मधुर तथा वीर्य उष्ण होता है। शुण्ठी कफवातशामक है। संधिवात में इसके चूर्ण का प्रयोग करते हैं। ( और पढ़े – सोंठ केऔषधीय गुण और उपयोग )

11. हरड़ (हरीतकी) (Terminalla chebula) – जोड़ों के दर्द की फायदेमंद औषधि

सामान्य भाषा में इसे हरड़ कहते हैं। वात रोगों को नष्ट करने में हरड़ अत्यंत गुणकारी है। वात विकारों में हरड़ को घी में भून कर खाना विशेष उपयोगी हैं। औषधि रूप में फल का चूर्ण 3 से 6 gm तक प्रयोग में लाया जा सकता है। इसमें लघु, रूक्ष गुण तथा पंचरस (लवण रहित) एवं कषाय रस प्रधान होते हैं। इसका विपाक मधुर तथा वीर्य उष्ण है। यह त्रिदोषहर विशेषतः वातशामक है। हरड़ का लेप शोथहर और वेदनास्थापक है। आयुर्वेद में इसे रसायन की श्रेणी में रखा गया है। इसका आभ्यांतर प्रयोग संधिवात में लाभदायक है। ( और पढ़े – हरड़ के चमत्कारी लाभ और सेवन विधि )

12. अश्वगंधा (Withania somnifera) – जोड़ों का दर्द दूर करने में उपयोगी

अश्वगंधा को साधारण भाषा में असगन्ध के नाम से जाना जाता है। यह वात विकृति से उत्पन्न रोगों को नष्ट करता है। इसके उपयोग से शारीरिक शक्ति विकसित होती है। औषधीय रूप में इसके मूल (जड़) का प्रयोग किया है। यह लघु व स्निग्ध गुणयुक्त है तथा इसमें तिक्त, कटु, मधुर रस होता है। इसका विपाक मधुर उष्ण है। यह कफशामक है। इसके लेप तथा सिद्ध तेल का अभ्यंग संधिवात में करते हैं।

इसका आभ्यांतर प्रयोग मूल चूर्ण 3 से 6 gm तक कर सकते हैं। संधिवात में अश्वगंधा 1 चम्मच सुबह खाली पेट दूध में लेना चाहिए। इसके अलावा यह बल्य, बृहण तथा रसायन होने से भी इस रोग में उपयोगी है। ( और पढ़े – अश्वगंधा के 11 जबरदस्त फायदे )

13. शतावरी (Asparagus racemosus) – जोड़ों के दर्द में इस्तेमाल से लाभ

सामान्य भाषा में इसे सतवार कहते हैं। चिकित्सा में इसके भौमिक काण्ड (भूमि के अंदर उगनेवाले कंद) का प्रयोग करते हैं। यह गुरू, स्निग्ध गुणयुक्त तथा मधुर, तिक्त रसयुक्त होता है। इसका विपाक मधुर तथा वीर्य शीत होता है। यह वात-पित्तशामक है। इससे सिद्ध तेल वातव्याधि तथा दौर्बल्य में प्रयोग करते हैं। इसका आम्यांतर प्रयोग वेदनास्थापक तथा नाड़ी बल्य है।

संधिवात में इसके चूर्ण का दूध में प्रयोग करते हैं। औषधि रूप में कंद स्वरस 10 से 20 ml, क्वाथ 50 से 100 ml तथा चूर्ण 3 से 6 gm तक प्रयोग कर सकते हैं। यह बल्य तथा रसायन है। इसलिए संधिवात में उपयोगी है। ( और पढ़े – शतावरी के फायदे और नुकसान )

14. बला (Sida cordifolia) – जोड़ों का दर्द दूर करने में करता है मदद

इसे सामान्य भाषा में खरेंटी कहते हैं। औषधि रूप में बला के पंचांग (फल, बीज, जड़, पत्ते तथा छाल) का प्रयोग करते हैं। वात रोगों को शांत करने के लिए बला अत्यंत गुणकारी होती है । वात रोगों में सन्धिशोथ में यह लाभकारी है। बला का आभ्यांतर व बाह्य प्रयोग शोथ तथा शूल को सरलता से नष्ट करता है। इसलिए संधिवात में इसका प्रयोग लाभकारी है। बला के पंचांग से निर्मित बलारिष्ट वात रोगों के प्रकोप को शांत करता है। इसे भोजन के बाद दोनों समय 15 से 20 ml समान मात्रा में पानी मिलाकर प्रयोग में लाया जा सकता है।

15. हड़जोड़ (Cissus quadraangularis) – जोड़ों के दर्द में लाभकारी प्रयोग

इसका संस्कृत नाम अस्थिशृंखला है। सामान्य भाषा में इसे हड़जोड़ कहते है। औषधि रूप में इसके काण्ड का स्वरस 10 से 20 ml तक प्रयोग कर सकते हैं। आयुर्वेद में इसे अस्थिसंधानीय कहा गया है अर्थात् यह हड्डी को जोड़ने में सहायक है। अतः फ्रैक्चर तथा मोंच में इसका प्रयोग करते हैं। कुछ आयुर्वेद ग्रंथों में इसे वृष्या, बलप्रदा तथा वातनाशक भी कहा है | भावप्रकाश निघण्टु में इसके टुकड़ों के छिलके उतार उसमें छिलकारहित उड़द की दाल आधी मात्रा में मिलाकर पीसने के बाद टिकिया बनाकर तिल तेल में पकाते हैं। यह टिकिया वात का हरण करती है। अतः यह संधिवात में उपयोगी हो सकती है।

(अस्वीकरण : दवा ,उपाय व नुस्खों को वैद्यकीय सलाहनुसार उपयोग करें)

Leave a Comment

error: Alert: Content selection is disabled!!
Share to...