Last Updated on October 27, 2021 by admin
ये अच्छी आदतें और शिष्टाचार अपने बच्चों को जरूर सिखाएं :
समझदार माता-पिता बच्चे की प्रकृति को समझते हैं और उसी के अनुरूप उसकी दिनचर्या ढालने का प्रयास करते हैं –
1). स्वस्थ बालक, स्वभावतः सूर्योदय होने पर उठते हैं और पक्षियों के समान सूर्यास्त होने पर सो जाते हैं, मानो वे प्रकृति के आदेश को मानकर रहना चाहते हैं; परंतु संरक्षक, जिनकी स्वयं की आदत रात को देर से सोने और सुबह देर से उठने की है, अपने अनुचित व्यवहार से उनके स्वभाव को विकृत कर देते हैं।
2). माता-पिता को चाहिए कि सोकर उठने के बाद बच्चे को शौच, मंजन करने की आदत डालें।
3). इसके बाद बालक खेले, पढ़ें या घर के कामों में भाग लें। बालकों में अनुकरण बुद्धि विशेष जाग्रत रहती है, अतएव उससे लाभ उठाकर संरक्षक बालकों को उचित और सुलभ गृह-कार्यों में लगाएँ। सम्भव है, आरम्भ में वे कुछ गलती करें, तो भी उनकी भर्त्सना न करें। भर्त्सना से वे हताश होकर अकर्मण्य हो जाते हैं। ठीक तो यही है कि उनके बिगाड़े हुए कामों को सुधारते हुए उन्हें समझाते जाएँ और उनमें काम करने का उत्साह बढ़ाएँ।
4). बच्चों को दुपहर के समय दिन में पूर्व की तरफ मुँह करके बिठाकर और सायंकाल पश्चिम की तरफ मुँह करके बिठाकर भोजन कराएँ ऐसा करने से सूर्य प्रकाश का प्रत्यक्ष ओज उन्हें मिलता है और वे दीर्घायु होते हैं।
5). भोजन करने से पहले और बाद में बच्चों को हाथ धोने की आदत डालें। भोजन करने के बाद कुल्ला करने की एवं रात को ब्रश करने की आदत डालें।
6). बच्चों की आवश्यकता को पूरा करना ठीक है, परन्तु हठ-दुराग्रह की प्रवृत्ति को बढ़ावा देना ठीक नहीं है।
7). बच्चे के सामाजिक, बौद्धिक और भावनात्मक विकास के लिए माँ का प्यार, लगाव और सुरक्षा की भावना अतिआवश्यक है। छोटे बच्चों को घर का वातावरण मिलना चाहिए, घर का शोर सुनने का आदी होना चाहिए। सुनना सीखना भी उतना ही महत्त्वपूर्ण है जितना बोलना सीखना। देखो चिड़िया गा रही है, हवाई जहाज की आवाज सुन रहे हो आदि शब्दों का अर्थ वह नहीं समझेगा पर जब समझने लगेगा, तो बिना किसी विशेष प्रशिक्षण के पहचान लेगा।
8). बच्चे को सुरक्षा की भावना का अहसास होना चाहिए कि उसे भरपूर प्यार मिल रहा है, उसकी परवाह, देखभाल हो रही है। माँ जिस भाव से उसका कार्य करती है उसे पता चलता है। जैसे अगर माँ खीझकर, चिढ़कर, क्रोध करते हुए बच्चे को खाना खिलाएगी, तो बच्चा भी खाना खाने में तंग करेगा । अतः शान्त भाव से, प्यार के साथ बच्चे का कार्य करें, बच्चे का स्वभाव भी वैसा ही बन जाएगा । कुछ महीनों के बाद उसे बाहर के लोगों से मिलने देना चाहिए, जिससे वह उनकी प्रतिक्रिया भी समझने लगे।
9). उसकी आयु के अनुसार उसके सोचने की क्षमता का विकास करना चाहिए। बच्चे को एक समय एक ही समस्या पर काम करने दें। भूल करके सीखने दें। वयस्कों के मानदंड से उसके कार्य का मूल्यांकन न करें। हो सकता है वह कभी-कभी गलती कर दे। उसकी आलोचना न करें, प्यार से भूल सुधारें, प्रोत्साहित करें और अपना काम स्वयं करने दें। कदम-कदम पर मदद अवश्य करें। कल्पनाशक्ति को बढ़ाएँ, तभी रचनात्मकता बढ़ेगी। कल्पनाशक्ति, चरित्र निर्माण व व्यक्तित्व विकाश के लिए उसे पौराणिक धर्म शास्त्रों, वीर राष्ट्र नायकों और माहापुरुषों की कहानियाँ सुनाएँ।
10). चार साल का होते-होते बच्चा स्पष्ट भाषा बोलने लगता है, उसे माँ-बाप तो समझ लेते हैं, पर सभी नहीं। उसकी क्षमता के स्तर से अधिक कार्य के लिए दबाव डालना उचित नहीं। बच्चा बहुत-सी नई बातें सीखता है, पुरानी भूलता है। पर वही बातें उसके अवचेतन में कहीं गहरे बैठ जाती हैं और बड़ा होने पर उसके काम आती हैं।
11). जो माता-पिता बच्चे को प्यार, दुलारभरा सुरक्षित वातावरण देते हैं उनके बच्चे कम-से-कम अव्यवस्थित होते हैं। बच्चे को अधिक निर्भर न बनाएँ। डरते हैं, तो समझाएँ, शान्त, आरामदेह वातावरण देकर उन्हें सन्तुष्ट करें। उनके गुस्से को, हिंसात्मक प्रवृत्ति को रचनात्मक में बदलें। तीन साल का बच्चा कविता वगैरह को याद करने लगता है। उन्हें गायत्री मंत्र याद करा दें। जब उन्हें क्रोध आ रहा हो, तो स्वयं शान्त रहें क्योंकि क्रोध से क्रोध कभी शान्त नहीं होता। थोड़ी देर उन्हें अकेला छोड़ दें। गायत्री मंत्र स्वयं बोलने लगें और बच्चे को बोलने के लिए प्रेरित करें।
12). मित्रवत व्यवहार जल्दी अनुशासन सिखाता है। ठीक व्यवहार के लिए प्रशंसा करें पर गलत के लिए डराएँ नहीं। बच्चा अच्छा बनना चाहता है। दूसरों की भावनाओं को धीरे-धीरे समझता है। बच्चे की आयु के अनुसार भावनाओं, गुस्से की अभिव्यक्ति और कार्य को समझकर प्रतिक्रिया करें। आपकी प्रतिक्रिया ही बच्चे के स्वस्थ विकास और प्रवृत्तियों को ढालने में सहायक होगी। वृत्तियाँ मानव में जन्मजात होती हैं। प्रवृत्तियों का विकास किया जाता है।
अंग्रेजी के महाकवि वर्ड्सवर्थ ने कहा था – “चाइल्ड इज दी फादर ऑफ दी मैन” अर्थात् बालक में मानव का जनक विद्यमान है। जिस प्रकार छोटे से बीज के भीतर विशाल वृक्ष समाया रहता है, उसी प्रकार बालक के भीतर भी विकसित मानव समाविष्ट रहता है। आवश्यकता इस बात की है कि बालक की अन्तर्निहित (अन्दर समाई हुई) वृत्तियों और शक्तियों को सहजभाव से विकसित होने का अवसर दिया जाए और सम्पूर्ण मानव बनाने के लिए उसमें अच्छी आदतों, रूढ़ प्रवृत्तियों (भविष्य में काम आनेवाली प्रवृत्तियाँ) का विकास किया जाए।
छोटे-छोटे बालकों के जीवन – व्यवहार, अभिरुचि तथा क्रियाकलाप का अध्ययन करनेवाले मनोवैज्ञानिकों ने अत्यन्त विस्तार के साथ व्यापक सम्प्रेषणों (संदेश पहुँचाना) और परीक्षाओं के द्वारा बालकों की रुचि, प्रवृत्ति, इच्छा और आकांक्षा आदि का अत्यन्त गम्भीर अध्ययन करके यह परिणाम निकाला है कि बालक की सम्पूर्ण क्रिया का आधार अनुकरण है। वह अपने चारों ओर अपने से बड़ों, समवयस्कों तथा छोटों को जैसा करते देखता है, वैसा ही वह भी करने लगता है। हँसने, बोलने, उठने-बैठने की शैली भी वह अपने आस-पास के लोगों से सीखता है। किंतु इन समीपवर्ती प्रभाव डालनेवाले व्यक्तियों में सबसे अधिक प्रभावशाली माता-पिता ही होते हैं; क्योंकि वे ही बालक के जन्म से लेकर उसके समझदार होने तक की अवस्था में सदा अधिक-से-अधिक उसके सम्मुख उपस्थित रहते हैं।
13). बिलकुल छोटे बच्चों को भी शिष्टाचार और आचरण की अच्छी-अच्छी बातें सिखाई जा सकती हैं; परंतु उनको सिखाने के लिए देर तक लगातार कोशिश और सावधानी से देख-रेख करने की जरूरत है, क्योंकि बच्चे जितनी जल्दी सीखते हैं उतनी जल्दी भूल जाते हैं। अतः उन्हें बार-बार अभ्यास कराए जाने की आवश्यकता होती है। उदाहरण के लिए, मान लीजिए कि हम पहले से बच्चे का यह स्वभाव डालना चाहते हैं कि वह अपने-आप सो जाया करे, किसी दूसरे को उसके पास बैठकर थपकने की जरूरत न हो; अब यदि हम उसमें अपने-आप लेटे रहने का स्वभाव डालना चाहते हैं, तो रोने पर हमें चटपट उठा नहीं लेना चाहिए। दस-पंद्रह दिन उसको लिटाकर पास बैठकर या पास लेटकर सुलाने की कोशिश कीजिए, बच्चा अपने आप सोने लगेगा।
14). बच्चे को दिन-रात में कई बार उठाकर शौच या शू-शू नहीं कराई जाती, तो उसे बिस्तर में ही करने की आदत पड़ जाती है। इस सम्बन्ध में भी बच्चे को सफाई की आदतें डालना बिलकुल सम्भव है। यदि माँ उसे थोड़े-थोड़े अन्तर के बाद उठाकर बिछौने से नीचे कर देगी, तो माँ के कुछ दिनों तक यत्न करते रहने के बाद बच्चा समझने लगेगा कि मुझे किसलिए उठाया जाता है और वह अपने को वश में रखना सीखकर केवल उसी समय मल-मूत्र त्यागेगा, जब माता उसे उठाकर बिछौने से अलग कर देगी। हाजत होने पर बच्चा अपने आप हिल-डुलकर इस बात की सूचना देने लगेगा कि मुझे उठाओ, मैं शू-शू करना चाहता हूँ।
15). यदि बच्चों की सावधानी से देख-रेख न की जाए, तो उन्हें खूब चबाकर खाने की जगह भोजन को निगलने की बुरी लत पड़ जाती है। जब बच्चा ठोस भोजन खाने योग्य हो जाए, तब उझे इसको चबाकर और धीरे-धीरे खाने की शिक्षा देनी चाहिए। बच्चे की तंदुरुस्ती के लिए यह बड़ी जरूरी बात है, क्योंकि ठोस भोजन चबाए और मुँह में थूक के साथ मिलने दिए बिना निगल जाना अवश्य ही अजीर्ण पैदा करता है।
16). नन्हे बच्चों को हमें अच्छे नैतिक स्वभाव और शिष्टाचार की बातें भी सिखानी चाहिए। असभ्य रीति से बात करना, गाली देना या रोटी को उठाकर खाते फिरना इत्यादि बुरी बातों को पहले से ही रोकना चाहिए। जितनी छोटी अवस्था में बच्चे के स्वभावों पर हम ध्यान देना शुरू करेंगे, हमारा काम उतना ही आसान होगा, क्योंकि बच्चा जितना बड़ा होता जाएगा, उसके बुरे स्वभावों को बदलना उतना ही कठिन हो जाएगा। बड़ी बात यह है कि हम दृढ़ रहें।
मान लीजिए कि हम चाहते हैं कि बच्चा शोर न मचाकर धीरे बातें करना सीखे, तो हमें चाहिए कि हम तभी उसकी बात सुनें, जब वह रोना-चिल्लाना बन्द कर दे और अपनी बात बताएँ। पर ध्यान रहे, जब बच्चा धीरे बात करे, तो पहली बार में ही उसकी बात पर ध्यान दें अन्यथा वह फिर चिल्लाना शुरू कर देगा। मनोचिकित्सक डॉ. कामत का कहना था कि “अगर बच्चा किसी खेल में व्यस्त है, तो दूर से ही उसको पुकारती न रहें। जो कुछ भी आपको कहना है उसके पास जाकर कहें। इस उदाहरण से बच्चा यह सीखेगा कि अगर उसे आपसे कोई बात करनी है, तो वह भी आपके पास आकर करेगा, दूर से चिल्लाता नहीं रहेगा।”
इसके साथ ही दूसरी बात यह है कि हमें बहुत कठोर भी नहीं होना चाहिए और सब समय झगड़ा नहीं करते रहना चाहिए। छोटे बच्चों को डराना बिलकुल नहीं चाहिए। मारें तो कभी भी नहीं। अगर बहुत ही तंग कर रहा हो, दंडित ही करना पड़े, तो गाल पर हलकी-सी चपत लगाएँ और जब दुबारा तंग करे, तो सिर्फ पूर्णे ‘माऊँ’ या थोड़ी देर उसकी उपेक्षा करें। अपने आप आपकी बात मानेगा, पर ध्यान रहे उसका नकारात्मक असर न पड़े। कभी अपनी बात मनवाएँ, कभी उसकी बात मानें। वह जब आपके बताए हुए काम को कर ले तो उसकी प्रशंसा करें और भरपूर प्यार करें। छोटे बच्चों की दुर्बल इच्छाशक्ति का विचार कर लेना चाहिए। हमें उनसे बहुत अधिक की आशा नहीं करनी चाहिए।
17). स्वतन्त्रता : मनोविज्ञान के संस्थापक वंडट ने स्वयं कहा है कि बच्चे का मनोविज्ञान जाना नहीं जा सकता। तीन साल की आयु तक पहुँचते-पहुँचते बच्चे को एक बड़ी सीमा तक स्वतन्त्रता दे देनी चाहिए अर्थात् उसकी माँ पर निर्भरता धीरे-धीरे कम कर देनी चाहिए। हमें यह कभी नहीं सोचना चाहिए कि बच्चा जो कुछ नहीं करता है, कुछ भी करना नहीं जानता। प्रकृति ने उसे वह सब साधन दिए हैं जिनसे वह सब कुछ करना सीख सकता है। महत्त्वपूर्ण कार्य करने में मदद करना हमारा कर्तव्य है। उसे अपने आप खाना खाना, कपड़े पहनना, नहाना सिखाना ही एक अच्छी माँ का कर्तव्य है। जो अपना काम स्वयं करता है, अपनी ताकत को बढ़ाता है, स्वयं को जीत लेता है और पूर्णता प्राप्त करता है। वह अपनी शक्ति तो बढ़ाता ही है, पूर्ण मानव के रूप में विकसित होता है।
जो माँ बच्चे को बिना चम्मच पकड़ना सिखाए खाना खिलाती रहती है, वह उसके साथ कठपुतली की तरह व्यवहार करती है। बचपन से ही बच्चों को घर के कार्यों में लगाएँ जैसे मेजपोश बिछाना, उठाना, खाना लगाना, खाने के बाद बरतन उठाना, अपने कपड़े उचित स्थान पर रखना आदि-आदि। इनसे बच्चे का घर के प्रति लगाव बढ़ता है। उसके चरित्र का धीरे-धीरे विकास होता है, धीरज, संयम आदि गुण आते हैं, हड़बड़-हड़बड़ करने की आदत खत्म हो जाती है। यही धीरता और स्थिरता उसे शिक्षा में भी सहायता करती है।
18). बच्चों का विकास : जब बच्चा स्कूल जाने लगता है तब माँ को सप्ताह में कम से कम एक बार नर्सरी की शिक्षिका से मिलकर अपने बच्चों के विकास के बारे में बताना चाहिए और दी गई सलाह को मानना चाहिए। यह सलाह बच्चे के स्वास्थ्य और शिक्षा के विकास को आगे बढ़ाएगी। तीन साल के इस शिक्षण के बाद माँ जब बच्चे को सामान्य स्कूल में भेजती है तो वे शिक्षा के कार्य में सहयोग करते हैं और अपने व्यवहार और गुणों से सबको प्रभावित करते हैं।
19). बच्चे की सफाई का ध्यान रखें पर प्रकृति से उसे अलग न करें। बगीचों में, पानी में, समुद्र की रेत में उसे कुछ देर के लिए छोड़ दें, ओस बिछी घास पर नंगे पैर चलने दें। बच्चा जब छोटे जीवों को मारता है, तो हमें लगता है यह स्वाभाविक है, पर वह प्रकृति से विरक्त हो रहा है, उसे प्रकृति से प्यार करना सिखाएँ। शहर का बच्चा जल्दी थकने की शिकायत करता है, पर जब उसे प्रकृति के बीच में छोड़ दिया जाता है, उसकी ताकत स्वयं बढ़ती है। दो साल का बच्चा भी यदि स्वस्थ है, तो मीलों चल लेता है, धूप में भी पहाड़ी पर चढ़ लेता है। हाँ, जब बच्चा छोटा होता है, चलना नहीं जानता, तब उसे गोदी में लेकर जाइए, पर प्रकृति के सौंदर्य का रसास्वादन उसे भी करने दीजिए। बच्चा स्वभावतः प्रकृति से, पौधों से, पशु-पक्षियों से प्यार करता है, उसके प्यार को बढ़ावा दीजिए।
20). कार्य के महत्त्व को बच्चे नहीं समझते, पर उनकी क्षमता के अनुरूप कार्य जब उन्हें दिया जाता है, तब उसे करके बड़े प्रसन्न और सन्तुष्ट होते हैं, अतः उनके विश्वास को न तोड़ें, उन्हें कुछ-न-कुछ करने के लिए प्रेरित करें। उसको अपनी शक्तियों का उपयोग करने दें, तो जो कुछ भी वह कर रहा है उससे अधिक सफलता वह दिखाएगा। बड़ा-छोटा, मोटा-पतला, गर्म, ठंडा आदि का ज्ञान बच्चे को वस्तु दिखाकर, छुलाकर कराएँ, रंग की पहचान रंग दिखाकर कराएँ, उसी शब्द को बार-बार खुद दोहराएँ और बच्चे को भी बोलने को कहें, तो वह शब्द और उसका आशय बच्चे के दिल और दिमाग में बैठ जाएगा।
वस्तु देकर बच्चे को खुद अभ्यास करने दें। आप केवल निरीक्षण करें। इससे उसके शारीरिक और मानसिक दोनों ही व्यायाम हो जाएंगे। उसे अपने आस-पास के परिवेश से सीखने दें। उसे प्रत्येक चीज देखने दें, प्रत्येक चीज पर प्रतिक्रिया करने दें। जब बच्चा अपने कार्य में मस्त होता है तब वह किसी की दखल और मदद नहीं चाहता। वह स्वयं ही अपनी समस्या सुलझाना चाहता है। अतः दखलन्दाजी न करें। हाँ, समस्या को सुलझाने में मदद करें। तीन साल के बच्चे की पकड़ इतनी मजबूत नहीं होती अतः लिखना सीखने में कठिनाई होती है। वर्णमाला को उभरे हुए पर हाथ फिरवाकर पहचान कराएँ और फिर सुनकर उस वर्ण का तालमेल बिठाकर लिखना सिखाएँ।
यदि हम किसी बच्चे में अच्छी आदतें डालना चाहते हैं, तो मुख से उपदेश करने की अपेक्षा उदाहरण बनकर दिखलाने से उस पर अधिक प्रभाव पड़ेगा। इसलिए हम जो कुछ बच्चों को बनाना चाहते हैं, वह पहले अपने आप बनना चाहिए। यदि हम उनमें सच बोलने की आदत डालना चाहते हैं, तो पहले हमारा सच बोलने का स्वभाव होना चाहिए। या यदि हम उनको साफ-सुथरा रहना सिखा रहे हैं, तो हमें स्वयं साफ-सुथरा रहना चाहिए। यदि हम अपनी चीजों को यथास्थान रखते हैं, तो बच्चा भी अपनी चीजों को यथास्थान रखेगा। यदि हम समय का पालन करते हैं, तो बच्चा भी समय का पालन करेगा। यदि एक बार समय का पालन करने की आदत पड़ गई, तो अन्य बहुत-सी समस्याओं का समाधान स्वतः हो जाता है। जैसा कि हम पहले भी कई बार कह चुके हैं कि जीवन के प्रथम पाँच वर्ष मानव विकास के मुख्य वर्ष हैं। यदि इन वर्षों में आपने सुदृढ़ आधारशिला रख दी, तो पुख्ता इमारत की भाँति बालक एक संस्कारी, चरित्रवान, दृढ़ और संयमी पुरुष के रूप में विकसित होगा।