शिशु के दांत निकलते समय होने वाली समस्याएं ,उपाय व सावधानियाँ

Last Updated on August 4, 2021 by admin

शिशु के दांत – उभरने का क्रम

पृष्ठभङ्गे विडालानां बर्हिणां च शिखोद्गमे।
दन्तोद्भवे च बालानां न हि किञ्चिन्न दूयते ॥

‘बिल्ली की पीठ पर चोट लगने के समय, मोर की चोटी उत्पन्न होने के समय तथा बालकों के दन्तोद्गम के समय उनके नेत्र, सिर आदि सर्वाङ्ग में अत्यधिक पीड़ा होती है।’

वास्तव में देखा जाय तो दाँतों का निकलना शरीर का स्वाभाविक धर्म है। शिशु रूपी शरीर माता के स्तनपान से पुष्ट होता है, उस समय उसे कोई कड़ा पदार्थ चबाना नहीं पड़ता। केवल ओठ, जीभ और गालों की सहायता से चूसने की क्रिया करनी पड़ती है, उस अवस्था में दाँतों की उसे कोई आवश्यकता ही नहीं होती, किंतु ज्यों-ज्यों वह बढ़ता है, अपने जीवन-निर्वाह के लिये उसे कड़े एवं पुष्टिकर पदार्थों को चबाकर खाने की आवश्यकता होती है।

इसी से उस समय वृद्धि के अनुसार शरीर में तमाम परिवर्तन होने लगता है। उसके जबड़े मजबूत, मुँह का फाँट बड़ा एवं मसूढे मोटे तथा सबल हो जाते हैं और धीरे धीरे सब पदार्थों को चबाने की उसमें शक्ति आ जाती है, एवं वह स्वाभाविक ही इधर-उधर हाथ-पैर फैलाकर जो कुछ मिलता है, उसी को मुख में डालकर चबाने की चेष्टा करता है।

अतः जैसा कि हम ऊपर कह आये हैं, इस अवस्था में दाँतों का निकलना एक प्राकृतिक क्रिया है। इसमें बालक को किसी प्रकारका कष्ट नहीं होना चाहिये तथा देखा भी गया है कि जिस बालक के आहार आदि की व्यवस्था प्रारम्भ से ही सावधानी के साथ नियमपूर्वक की जाती है, उसे दन्तोद्गम के समय किसी प्रकार के विशेष पीड़ा या विकार से ग्रस्त नहीं होना पड़ता।

खेद है कि आज भारत में शिशु-रक्षण के मामूली नियमों का भी पालन नहीं हो रहा है। हमारी माताओं और बहिनों में धातृशिक्षा का अभाव होने से प्रायः 90 प्रतिशत बालकों को इस अवस्थामें अनेक भयङ्कर कष्टों का सामना करना पड़ता है। शरीर का एक स्वाभाविक धर्म ‘दन्तोद्मरोग’ के नामसे प्रख्यात हो गया है। किंतु सशक्त एवं स्वस्थ बच्चोंको तथा जिन बच्चों की माताओं को दुग्ध-सदृश पदार्थ, जिन में चूना-क्षार अधिक रहता है, खाने को मिलता है, उन्हें दन्तोद्गम के समय कोई विशेष कष्ट नहीं उठाना पड़ता। जिन बच्चों की आहार-प्रणाली एवं बाह्याभ्यन्तर शुद्धि की ओर सावधानी के साथ ध्यान नहीं दिया जाता, उनकी जठराग्नि दन्तोद्गमकाल में विशेष मन्द पड़ जाने के कारण विकार पैदा कर देती है, जिससे उसमें नीचे के लक्षण प्रकट होने लगते हैं तथा यह कई रोगों का कारण हो जाता है।

शिशु के दांत निकलते समय दिखाई देने वाले लक्षण :

पहली अवस्था-

  • मुख के अंदर की गरमी कम हो जाती है, लार अधिक बहती है, मुख से खट्टी गन्ध आती है,
  • रात्रि में हलका ज्वर-कभी-कभी तीव्र ज्वर भी हो जाता है।
  • नींद ठीक-ठीक नहीं आती, बच्चा नींद में चौंकता, बार-बार जाग उठता है।
  • मसूढ़ों में दाहयुक्त शोथ और खुजली के कारण दूध पीते समय स्तनों को मसूढ़ों से दबाता है।
  • प्रायः हरे, पीले, सफेद तथा फटे दस्त होते हैं।
  • दस्त दिन-रातमें 8-10 बार या इससे भी ज्यादा होते हैं।
  • कभी-कभी उलटी भी होती है।
  • सिर गरम रहता है।
  • दाँत निकलनेके कुछ सप्ताह-पूर्व लार टपकने लगती है।
  • आँखों में पीड़ा, पलकों में रोहे तथा नेत्रस्राव, कर्ण-पीड़ा, त्वचा के विकार-विसर्प आदि भी देखे जाते हैं।
  • जुक़ाम होकर नाक बहने लगती है, छींक अधिक आती है और खाँसी भी हो जाती है।

दूसरी अवस्था-

मुख और मसूढ़ों में दाह की अधिकता होती है तथा मसूढ़ों के ऊपर कुछ गुलाबी रंग का फूला हुआ-सा दाग दिखलायी देता है। उसे दबाने से बड़ी वेदना होती है। अतः बालक इस अवस्था में किसी वस्तु को मुख में नहीं डालता, किसी वस्तुका मुँहमें स्पर्श होते ही वह रोने लगता है। बेचैनी होती है तथा बालक चुपचाप माता की गोद में पड़े रहना चाहता है, बीच-बीच में दूध पीने की कोशिश करता है, किंतु पीड़ा के मारे पी नहीं पाता।

दन्तोद्गम सम्बन्धी उक्त लक्षणों को देख कर घबराने की कोई आवश्यकता नहीं है। कारण कि ये कष्टदायक लक्षण स्वाभाविक ही होते हैं। इनको रोकने के लिये अधिक तीव्र उपचार हानिप्रद होते हैं। दाँतों के सम्पूर्णतया निकल आने पर ये कष्टदायक लक्षण स्वयमेव शान्त हो जाते हैं। परंतु दन्तोद्गमकाल में बालक की दक्षता पूर्वक देख-भाल की विशेष आवश्यकता होती है, क्योंकि इस अवस्था में बालक की शक्ति विशेष क्षीण होने से थोड़ी सी भी असावधानी अन्यान्य सांघातिक व्याधियों को उत्पन्न कर देती है। अतः इस अवस्था में दक्षता एवं पथ्यापथ्य को ध्यान में रखते हुए सौम्य उपचार करने से दाँत बहुत सुगमतासे निकल आते हैं और बालकोंको किसी प्रकार का कष्ट भी नहीं होने पाता।

शिशु के दांत निकलते समय सावधानियाँ :

इस हालत में माता का आहार-विहार पथ्यपूर्वक होना आवश्यक है।

  1. जबतक बालक माता का दूध पीता हो, तबतक माता को चाहिये कि वह गेहूँ की रोटी, मँग की दाल तथा दूध आदि हलके, शीघ्र पचनेवाले पदार्थ खाये;
  2. गुड़, तेल, खटाई, मिर्च आदि गरम पदार्थों से तथा मैथुन से परहेज रखे एवं बालक को नियम से दूध पिलाये। यदि बालक अन्नादि खाता हो तो उसे बहुत हलका एवं सुपाच्य आहार देना चाहिये, जो सहज ही पच जाय और दस्त साफ हो।
  3. मुरमुरों की खीर, साबूदाना, अंगूर, अनार, सेब आदि फलों का रस देना ठीक है।
  4. यदि आम का मौसम हो तो पके मीठे आमों के रस में दूध मिलाकर देना लाभदायक है; किंतु अधिक मात्रा में नहीं, एक से तीन चम्मच-इस प्रकार दिनमें तीन या चार बार दे सकते हैं।
  5. कोई भी आहार अधिक मात्रामें नहीं देना चाहिये। मिठाई आदि गरिष्ठ पदार्थ देना तो जहर (विष) देने के समान है।
  6. कोई भी गरम दवा या गरमी पैदा करनेवाले पदार्थ बालक को खाने या पीने नहीं देने चाहिये। प्रायः दन्तोद्गम के समय बालकों को दूध भी नहीं पचता, वे उलटी कर दिया करते हैं। ऐसी हालत में दूध में किञ्चित् चुने का निर्मल पानी मिलाकर उसे थोड़ा-थोड़ा पिलाना चाहिये।
  7. दन्तोद्गम के समय मसूढ़ों में एक प्रकारकी सनसनाहट या खुजली-सी पैदा होती है, जिसे मिटाने के लिये बालक मिट्टी, ढेला, कंकड़ आदि जो भी उसके हाथ लग जाता है, उसीको तुरंत मुख में डाल, मसूढ़ों से दबाकर चबाने लगता है। यदि बालक की यह आदत आरम्भ में ही न छुड़ा दी गयी तो आगे चलकर उसे पाण्डु आदि भयङ्कर रोगों का सामना करना पड़ेगा। अतः दाँत निकलने के समय बच्चों को मिट्टी आदि खाने से बचाते रहना चाहिये। जो बालक प्रतिदिन कई घंटे तक बाहर की स्वच्छ वायु में रहता है या खुले हुए और स्वच्छ वायु के आने-जाने वाले कमरे में रहता है तथा जिसको मात्रा से अधिक भोजन नहीं कराया जाता, उस बालक को दाँत निकलते समय कोई कष्ट नहीं होता।
  8. शारीरिक अस्थियों की बनावट में चूना अत्यन्त आवश्यक पदार्थ है। चूने की कमी से दाँत एवं अन्यान्य शारीरिक हड्डियाँ परिपुष्ट नहीं हो पातीं। इसीलिये पाश्चात्य वैज्ञानिक बच्चों के दूध में चूने का जल (Lime-Water) मिलाकर देने की योजना करते हैं। बच्चों की पुष्टि के लिये जितने बालामृत आदि शरबत के रूपकी दवाइयाँ बनायी जाती हैं, उनमें चूनाप्रधान द्रव्य अधिकांश में डाला जाता है।
  9. एक संतान के पश्चात् दूसरी संतान के मध्यमें पाँच वर्ष का समय स्त्री को मिलना चाहिये, जिससे वह अपने शरीर में चूने की कमी को पूरा कर सके। जिन स्त्रियों को बहुत शीघ्र-शीघ्र संतानें होती हैं, उनके रक्त और अस्थियों में चुने की मात्रा कम हो जानेसे, उनका शरीर निर्बल हो जाता है, अस्थियाँ कमजोर हो जाती हैं और सूतिकादि विकार उत्पन्न हो जाते हैं।
  10. मुक्ता, मुक्ताशुक्ति, शुक्ति, शङ्ख, कपर्दिक, गोदन्ती, प्रवाल, संगयहूद, जवाहरमोहरा, अकीक आदि सब भस्मों में तथा संतरा, नीबू, सेब, अनार, नाशपाती आदि फलों में चूने की ही मात्रा अधिक होती है।
  11. गर्भावस्था में उपर्युक्त द्रव्यों का यथा विधि सेवन करते रहने से शरीर में चूने की मात्रा बढ़ जाती है। मनुष्य से तो मुर्गियाँ ही बुद्धिमान् हैं जो अंडे देनेसे पूर्व चूना खाकर अपने शरीरमें चूनेका संचय कर लेती हैं।
  12. दाँतों का सुगमता से निकलना बच्चों के आमाशय और स्वास्थ्यपर भी आश्रित है। चूने के जल से बच्चों का हाजमा अच्छा रहता है, जिगर ठीक काम करता है और रक्त में शुद्धि होती रहती है। इसलिये भी चूना बच्चों के दन्तोद्गम में सहायक है।

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दांत निकलने के दर्द से शिशु को राहत देने के लिए घरेलू उपाय :

1). उत्तम पत्थर का बिना बुझा हुआ असली चूना पाँच तोले नवीन मिट्टी के पात्र में तीन पाव जल में रात्रि के समय भिगो दे। प्रात:काल ऊपर का साफ निथरा हुआ स्वच्छ जल मोटे वस्त्र से छान ले। इसी जल में एक सेर चीनी डालकर एकतारकी चाशनी बना ले, फिर ठंडा होनेपर छानकर शीशी में भर ले। यह उत्तम बालामृत शरबत तैयार हो गया।
मात्रा – १० बूंदसे ३० बूंदतक प्रातः-सायं चटावे।
दाँत निकलनेके समयके सारे कष्ट-दस्त, वमन, पेट फूलना, दूधका न पचना,खाँसी, कफ, बुखार आदि इससे दूर हो जाते हैं।

2). अतीस, काकड़ासिंगी, पीपल-इनका महीन चूर्ण करके शहदके साथ चटानेसे लाभ होता है।

3.) बिना बुझा हुआ चूना 12 ग्राम और जल एक लीटर एकत्र मिलाकर नीले रंग की शीशी में भर काग बंद करके बारह घंटे बाद एक बार हिलाकर जब पानी निथर आये, तब सावधानीपूर्वक उस जल को मोटे वस्त्र से छान ले और यह निर्मल स्वच्छ जल दूसरी नीली शीशी में भरकर रखे।
मात्रा – 10 से 15 बूंद तक।

4). दन्तोद्भेद गदान्तक रस (Dantobhedgadantak Ras) एक रत्ती ( 0.1215 ग्राम) जल में घिसकर देने से दन्तोद्मजन्य सभी बीमारियाँ-ज्वर, अतिसार आक्षेप आदि दूर हो जाते हैं।

शिशु के दांत निकलते समय प्रमुख व्याधियाँ एवं उपचार :

माप :- (1 रत्ती = 0.1215 ग्राम)

1). वमन-

  • सुहागे की खील एक से चार रत्ती माता के दूध में मिलाकर दे।
  • अर्क-पोदीना, अर्क-सौंफ और अर्क-इलायची समभाग मिलाकर एक से दस बूंद तक दूध में मिलाकर पिलाना चाहिये।
  • प्रवाल और वंशलोचन को शहद या दूध के साथ देना चाहिये।

( और पढ़े – बच्चों के रोग और उनका घरेलू इलाज )

2). ज्वर-

  • अतिविष, काकड़ासिंगी, नागरमोथा समभाग महीन चूर्ण पीसकर एक से तीन रत्ती तक की मात्रा में शहद या माता के दूध के साथ दिन में तीन बार दे, इससे वमन में भी लाभ होता है।
  • सुदर्शन घनवटी माता के दूध में किञ्चित् घिसकर दिन में तीन बार दे।

3). अतिसार-

  • जायफल, अतीस, अनार का छिलका, काकड़ासिंगी और जवाहरमोहरा समभाग महीन चूर्ण कर एक रत्ती से दो रत्ती तक शहद या दूध के साथ तीन बार दे।
  • धायपुष्प, बेलगिरी, धनिया, लोध, इन्द्रजव और बाला समभाग महीन चूर्ण कर दोसे चार रत्ती तक तुलसीरसके साथ दे।
  • तुलसी पत्र का चूर्ण दो या तीन रत्ती अनार के शरबत के साथ दे।
  • महागन्धक-रस भी परम लाभदायक है।

4). कोष्ठबद्धता- शुद्ध रेंडी का तेल डेढ़ से तीन ग्राम तक चटावे।

5). आध्मान (पेट फूलना) – शंखवटी मूंग के दाने के बराबर मातृ दुग्ध के साथ दे। पेट पर रेंड़ी (अरंडी) का पत्ता रेंड़ी का तेल गरमा कर चुपड़े और उसपर रुई गरम कर रखे तथा कपड़ा बाँध दे।

6). खांसी-श्वास-

  • मुलेठी का सत, छोटी हरड़ और सेंधा नमक समभाग घोटकर मटर-जैसी गोलियाँ बना दिनमें तीन बार मातृ दुग्ध या जल में घोलकर पिलाये।
  • मुलेठी का सत, अतीस, काकड़ासिंगी, नागरमोथा, पीपल – इनका समभाग चूर्ण कर ले, मात्रा-एक रत्ती के प्रमाण में शहद के साथ दे।
  • चतुर्भद्रिका चूर्ण शहदके साथ दे।

7). सिर-दर्द सोंठ, कपूर घृत में घोटकर धीरे-धीरे सिरपर मलना चाहिये।

क्या खाएं क्या ना खाएं (पथ्या-पथ्य) :

  • दन्तोद्गम के समय बालक को कोई भी खट्टी या मीठी चीज खानेके लिये न दी जाय।
  • मुरमुरों की खीर, गेहूँ की रोटी का फूला हुआ भाग दुग्ध के साथ उसे देना चाहिये।
  • गरमी के दिनों में बालक का सिर शीतल जल से कई बार धो दिया जाय उसके सिरपर बादाम का या तिल्ली का तेल लगाया जाय और कानों में बादाम का तेल छोड़ते रहना चाहिये।
  • माता को चाहिये कि यदि बालक उसका दूध पीता हो तो वह संयम से रहे तथा मिर्च, गुड़, तेल, खटाई, गरम पदार्थ एवं मैथुन से दूर रहे।

चूने की कमी पूरा करने के आसान उपाय :

  1. मुक्ता का प्रयोग– बच्चे को एक-दो रत्ती मुक्तापिष्टि नित्य दी जा सके, जब वह घुटनों से सरकने या बैठने लगे, तो बहुत उत्तम है। एक वर्ष की अवस्था तक इसे देने से बच्चे का शरीर पुष्ट बनेगा। दाँत निकलनेके उपद्रव भी उसे तंग नहीं करेंगे, क्योंकि इससे चुने की कमी दूर हो जायगी।
  2. मुक्तापिष्टि न दी जा सके तो मोती के सीप का भस्म एक से दो ग्राम तक नित्य शहद या माता के दूध के साथ दिया जा सकता है, किंतु बच्चे को साधारण सीप का भस्म नहीं देना चाहिये।
  3. बच्चे को तीन ग्राम वंशलोचन का कपड़छान किया हुआ चूर्ण प्रातः और सायंकाल दूध या शहद से दे दिया जाय तो भी उसके शरीर में चुने का अभाव पूरा हो जायगा। वंशलोचन उसे कोई हानि नहीं पहुँचायेगा, परंतु उसके चूर्ण में कण न रह जायँ, चूर्ण खूब बारीक हो, यह सावधानी रखनी चाहिये।

(अस्वीकरण : दवा ,उपाय व नुस्खों को वैद्यकीय सलाहनुसार उपयोग करें)

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