चालमोगरा (तुवरक) के फायदे और नुकसान – Chaulmoogra (Tuvarak) in Hindi

Last Updated on December 18, 2020 by admin

चालमोगरा क्या है ? (What is Chaulmoogra in Hindi)

चालमोगरा तुवरक कुल (फ्लैकोर्टिएसी) की औषधि है। आचार्यों ने इसे कुष्ठघ्न (कुष्ठ रोग नाशक) औषधियों के अन्तर्गत लिया है और इसका विशद वर्णन किया है। औषधियों की कर्मप्रकाशक संज्ञाओं के सामान्यता दो वर्ग किये गये हैं – 1. संशोधन वर्ग, 2. संशमन वर्ग

संशोधन वर्ग में एक विशेष संज्ञा कुष्ठघ्न है। वे औषधियां जो कुष्ठ के विकारों को दूर करे कुष्ठघ्न कहलाती है उन कुष्ठघ्न औषधियों में चालमोगरा भी एक मुख्य औषधि है, जिसका वर्णन यहां प्रस्तुत है।

चालमोगरा का विभिन्न भाषाओं में नाम (Name of Chaulmoogra in Different Languages)

Chaulmoogra (tuvarak) in –

  • संस्कृत (Sanskrit) – तुवरक, कटुकपित्थ, कुष्ठवैरी।
  • हिन्दी (Hindi) – चालमोगरा।
  • मराठी (Marathi) – कडुक्वथ, कडकवीठ।
  • बंगाली (Bangali) – चौलमुगरा।
  • कश्मीरी (Kashmiri) – गरुड़फल।
  • तामिल (Tamil) – निरडिमुटु, मरवत्तायि।
  • तेलगु (Telugu) – अडविवादामु।
  • मलयालम (Malayalam) – कोडि ।
  • फ़ारसी (Farsi) – बिरंजमोगरा।
  • लैटिन (Latin) – हिडनोकार्पस वाइटिआना (Hydnocarpus Wightiana) ।

चालमोगरा का पेड़ कहां पाया या उगाया जाता है ? :

चालमोगरा दक्षिण भारत में पश्चिमी घाट के पर्वतीय क्षेत्र गोवा, मालाबार, ट्रावनकोर में स्वयं जात तथा रोपण किया जाता है।

चालमोगरा (तुवरक) का पेड़ कैसा होता है ? :

  • चालमोगरा (तुवरक) का पेड़ – चालमोगरा का वृक्ष मध्यमाकार का 10 से 13 मीटर तक उचा होता है।
  • चालमोगरा (तुवरक) के पत्ते – चालमोगरा के पत्र स्निग्ध, चर्मवत्, लट्टवाकृति, भालाकार, दीर्घ व दन्तुरित होते हैं।
  • चालमोगरा (तुवरक) के फूल – चालमोगरा के पुष्प छोटे गुच्छों में व श्वेतवर्ण के होते हैं।
  • चालमोगरा (तुवरक) के फल – चालमोगरा के फल गोल 100 से 130 मि.मी. व्यासयुक्त छोटे सेब के बराबर होते हैं।
  • चालमोगरा (तुवरक) के बीज – चालमोगरा के बीज अनेक, 20 मि.मी. पीत बादाम सदृश होते हैं।

चालमोगरा (तुवरक) के प्रकार :

इण्यिन फार्माकोपिया के अनुसार चालमोगरा (हिडनोकार्पस वाइटिआना) की ही एक दूसरी प्रजाति हिड्नोकार्पस लारिफोलिया (Hydnocarpus Laurifolia) है। दोनों ही दक्षिण भारत में उत्पन्न होने वाले हैं। अतः इन्हें दक्षिण भारतीय चालमोगरा भी कहते हैं।

चालमोगरा का उपयोगी भाग (Beneficial Part of Chaulmoogra Tree in Hindi)

प्रयोज्य अंग – बीज, बीज तेल।

चालमोगरा सेवन की मात्रा :

  • बीज चूर्ण – 1 से 3 ग्राम।
  • तेल – संशमन हेतु – 10 मि.ली.। संशमन हेतु 5 से 10 बूंद से क्रमशः बढ़ाकर कल्परूप में 50 से 60 बूंदें या इससे भी अधिक दिया जाता है। इसे घृत (घी), मक्खन, मलाई में मिलाकर या कैपसूल में रखकर देना चाहिये।

रासायनिक संघटन :

बीजों से प्राप्त तेल 44 प्रतिशत होता है जिसमें चालमोगरिक एसिड 26.6 प्रतिशत, हिडनोकार्पिक एसिड 48.6 प्रतिशत, पामिटिक एसिड, स्नेहाम्ल, ग्लिसराइड्स होते हैं।

परीक्षा – परखनली में तुवरक तेलको लेकर गन्धक का तेजाब 1 मि.ली. डालने पर रंग भूरा लाल हो जाता है। बाद में यह भूरे रंग का हो जाता है। यदि ऐसा नहीं होता है तो तेलकी शुद्धता में सन्देह करना चाहिये।

चालमोगरा के औषधीय गुण (Chaulmoogra ke Gun in Hindi)

  • गुण – तीक्ष्ण, स्निग्ध ।
  • रस – कटु, तिक्त, कषाय।
  • वीर्य – उष्ण ।
  • विपाक – कटु।
  • दोषकर्म – कफ-वातशामक ।
  • गुणप्रकाशिका संज्ञा – तुवरक, कुष्ठवैरी।
  • प्रतिनिधि – दरियाई नारियल ।

चालमोगरा का औषधीय उपयोग (Medicinal Uses of Chaulmoogra in Hindi)

  • चालमोगरा (तुवरक) प्रायः सभी कुष्ठ भेदों का शमन करने में श्रेष्ठ है फिर भी यह गलित कुष्ठ की प्रमुख औषधि है।
  • चालमोगरा कुष्ठग्न होने के साथ ही रक्तप्रसादन (रक्त में उत्पन्न विकृति को दूर कर उसे शुद्ध करने वाला) होने से सभी रक्त विकारों में शमन करने में श्रेष्ठ है। सामान्य कण्डू (खाज, खुजली) से लेकर महाकुष्ठ तक त्वक् रोगों (त्वचा रोग) की यह रामवाण औषधि है। विधि पूर्वक सेवन करने से इस व्याधि के समस्त उपद्रवों का उपशम होता है।
  • चालमोगरा उपदंश की दूसरी अवस्था में प्रयोग में लाने पर तज्जन्य समस्त उपद्रव भी दूर होकर रोग शान्त होता है। पथ्य के साथ विधि पूर्वक इसका सेवन अनिवार्य है अन्यथा लाभ प्राप्त नहीं किया जा सकता है।
  • चालमोगरा कटु तिक्त रस युक्त होने से मेहहर (कफहर, क्लेदमेद उपशोषण) भी है।
  • जैसा कि सुश्रुत संहिता में कहा गया है। चालमोगरा वामक (अधिक मात्रा में), रेचक और कृमिघ्न होने से उदररोग एवं उदरकृमि को नष्ट करने में उपयोगी है।
  • वेदना को शान्त करने के लिये,नाड़ीशूल, आमवात, वातरक्त आदि विकारों में चालमोगरा का बाह्याभ्यन्तर प्रयोग हितावह है।
  • चालमोगरा के फलमज्जा (गिरी-मींगी) की अन्तधूम भस्म का अंजन नेत्र रोगों में भी यह उपयोगी है।
  • व्रणों में भी चालमोगरा का तेल लाभप्रद है। विशेषतया गंडमाला, नाड़ीव्रण, अस्थिव्रण आदि में यह तेल लगाया जाता है।

चालगोगरा तेल निकालने एवं सिद्ध करने की विधि :

वर्षा ऋतु के आरम्भ में फल पक जाने पर वृक्ष से उन्हें तोड़ लेना चाहिये अन्यथा जंगली जानवर उन्हें नष्ट-भ्रष्ट कर देते हैं । जंगली सूअर एवं भालू इन फलों को बड़े चाव से खाते हैं।
इन फलों को 7 से 8 दिनों तक धान के तुष में दबाकर रखने से फल अच्छी तरह से पक्व हो जाते हैं। तब शीघ्र उनका तेल निकाल लेना चाहिये। अधिक पुराने फलों से निकाला गया तेल अधिक गुणकारी नहीं होता।

पके फलों के भीतर से बीज निकालकर सुखा लें, अच्छी तरह से सूख जाने पर ऊपर का छिलका दूर कर मज्जा (गिरी-मींगी) को कोल्हू द्वारा तेलनिकाल लें। तेलनिकालने के पश्चात् उसे छानकर काम में लावें। इससे जो तेल निकलता है वह प्रायः फलों का अष्टामांश होता है। इस विधि से निकाला गया तेल किंचित पीताभ होता हैं । गोवा के ग्रामीण जन इस विधि से ही तेल निकालते हैं।

रोगोपचार में चालगोगरा तेल के फायदे (Benefits of Chaulmoogra Oil in Hindi)

1). कुष्ठ रोग मे चालमोगरा तेल से लाभ

चालमोगरा तेल 2 भाग, बाकुची तेल 2 भाग और चन्दन तेल 1 भाग मिलाकर लगाने से कुष्ठ, पामा (एक्जीमा) , विचर्चिका (सोरायसिस) मिटते हैं।
चालमोगरा तेल में शुद्ध सौभाग्य (सुहागा) मिलाकर भी लगाया जा सकता है।
चालमोगरा तेल को नवनीत (मक्खन) में या तिल तेल (6 गुना) मिलाकर भी महाकुष्ठ व क्षद्रु कुष्ठों में लगाया जा सकता है।
चालमोगरा तेल में समभाग नीम का तेल मिलाकर लगाना भी उपयोगी है।

2). घाव (व्रण) के उपचार में चालमोगरा तेल का प्रयोग लाभप्रद

चालमोगरा तेल में कपड़ा भिगोकर व्रण पर रखकर बांधने से लाभ होता है।

सेवन करने की विधि का पृथक वर्णन किया गया है जो कुष्ठ, मधुमेह आदि में लाभदायक है। दूध में भी 2 से 4 बूंद डालकर सेवन की जा सकती है। इससे दुर्बलता भी नष्ट होती है।

आयुर्वेद शास्त्र के अनुसार उत्तम गोंद का पानी 4 मि.ली. स्वच्छ जल 15 मि.ली. जल में 5 बूंद चालमोगरा तेल की मिलाकर सेवन करना कुष्ठ में हितावह है। इसका नस्य भी बलप्रद कहा गया है।

तेल सेवन की प्रशस्त विधि :

प्राच्य प्रतीच्य सेवन विधियों के अध्ययन के पश्चात् आयुर्वेदाचार्यों ने जो सेवन विधि लिखी है, उसे हम यहां उद्धृत कर रहे हैं –

रोगी के बलानुसार स्नेहन स्वेदनादि साधारण पंचकर्म द्वारा रोगी की शुद्धि कर पेया, विलेपी के सेवन से लगभग 15 दिन बाद बल की प्राप्ति होने पर शुक्ल पक्ष के – शुभ दिन (पुष्प, हस्त, ज्येष्ठा, रोहिणी, श्रवण, अश्वनी, स्वाति आदि नक्षत्र शुभ होते हैं) प्रातः काल तेल को “मज्जासार महावीर्य सर्वान धातून विशोधय। शंख चक्र गदापाणिस्त्वामाज्ञापयतेऽच्युतः” इस मंत्र से अभिमंत्रित कर 12 ग्राम की मात्रा में (प्रथम दिन 5 बूंद की मात्रा) प्रातः सायं गाय के ताजे मक्खन या दूध की मलाई के साथ देवें। फिर प्रति चौथे दिन 5-5 बूंद बढाते हुये 200 बूंद तक, या सहन हो जाय वहां तक बढ़ावें । मात्रा अधिक हो जाने से उबकाई आदी हो तो मात्रा घटा दें। प्रातः इसे खाली पेट न दें। भोजन के आधा घंटे बाद ही दें।

रोगी को भोजन में चावल दूध आदि ही खिलायें। वमन-विरेचन द्वारा (यह वमन विरेचन तब ही होते हैं जबकि सुश्रुत की मात्रा में यह देवें) रोगी के दोष एक साथ बाहर निकलते हैं – फिर रोगी को प्रतिदिन सायं काल स्नेह और लवण रहित (या अल्प स्नेह लवण युक्त) शीतल यवागू (चावल का वह माँड़) पिलावें । इस विधि से 5 दिन या एक माह तक 4-4 दिन के अन्तर से वृद्धि-ह्रास क्रम से) प्रातः सेवन करें। इस प्रकार फिर 15 दिन रखकर पुनः सेवन करें इस प्रकार एक (या दो) माह तक आलस्य रहित क्रोधादि का त्याग कर संयमपूर्वक इसके सेवन तथा मूंग के यूष (दाल का पानी) के साथ चावल का भोजन करने से रोगी शीघ्र ही कुष्ठ से मुक्त हो जाता है। रोग की विशेष दवा में कभी-कभी इसका सेवन 6 माह या कुछ अधिक दिन तक पथ्य-पालन पूर्वक कराना आवश्यक होता है। साथ ही साथ इस तेल की मालिश करनी चाहिये और इसमें शुभ्र वस्त्र भिगोकर व्रणों पर बांधना चाहिये। इससे व्रण भी शीघ्र ही भर जाते हैं।

जिस कुष्ठ रोगी का स्वरभेद हो, नेत्र लाल हों, मांस गल गया हो, कृमि पड़ गये हों वह भी इस विधि के अनुसार सेवन करने एवं लगाने से सुधर जाता है। इस प्रकार यह प्रभावशाली चालमोगरा कुष्ठ एवं प्रमेह को नष्ट करने में उत्कृष्टतम है।

सेवन काल में पथ्यापथ्य :

  • प्रातः सायं केवल दूध, दोपहर को मौसंबी, मीठा अनार, सेब, केला, मीठा अंगूर आदि के फल दें।
  • दूध और फलों के बीच तीन घंटे का तो अन्तर होना ही चाहिये।
  • यदि यह पथ्य पालन न हो सके तो पुराने चावल का भात, जौ, गेंहू की रोटी रोगी दूध के साथ लेवें ।
  • घृत, नवनीत, मधु का भी सेवन किया जा सकटा हैं।
  • गुड़, लवड़, अम्ल एवं चरपरे पदार्थ अपथ्य कहे गये हैं। अतः इनका सर्वथा परित्याग करना, चाहिये।
  • मांस, मदिरा, तम्बाकू भी अपथ्य (सेवन न करें) है।

रोगोपचार में चालगोगरा बीज के फायदे (Benefits of Chaulmoogra Seeds in Hindi)

1). एक्जीमा (पामा) में लाभकारी है चालमोगरा का उपयोग

चालमोगरा के बीजों को गोमूत्र में पीसकर लगाना चाहिए। यह खसरा में भी उपयोगी है।

( और पढ़े – एक्जिमा के रामबाण घरेलू इलाज )

2). कुष्ठ रोग में चालमोगरा के प्रयोग से लाभ

  • चालमोगरा के बीजों को पीसकर मक्खन में मिलाकर लगाने से सभी कुष्ठ ठीक होते हैं।
  • चालमोगरा के बीज, मोम तथा गन्धक को एकत्र मिलाकर लेप करना भी कुष्ठ में हितकारक है।
  • चालमोगरा बीज गिरी 500 मि.ग्राम को घृत, मधु (असमान मात्रा) में मिलाकर सेवन करना कुष्ठ में फलप्रद चालमोगरा बीज चूर्ण जल के साथ भी सेवन किया जाता है।

( और पढ़े – कुष्ठ (कोढ) रोग मिटाने के देशी नुस्खे )

3). घाव ठीक करने में लाभकारी है चालमोगरा का प्रयोग

घायल होने पर घाव के रुधिर स्राव (खून बहना) को बन्द करने के लिये चालमोगरा के बीजों का चूर्ण घाव में भर देना चाहिये। इससे रक्तस्राव बन्द होकर घाव का शीघ्र रोपण (घाव भरना) होता है।

4). उपदंश व्रण में चालमोगरा के औषधीय गुण फायदेमंद

चालमोगरा के बीज की गिरी को बारीक कतरकर तिल तेल में तलकर मलने से उपदंश व्रण मिटने लगते हैं।

( और पढ़े – उपदंश रोग के घरेलू उपचार )

5). मूर्छा मिटाए चालमोगरा का उपयोग

मूर्छा रोग से ग्रस्त व्यक्ति के मस्तक के बाल दूर कर चालमोगरा बीज चूर्ण को मलना हितकारी है।

6). मधुमेह रोग में चालमोगरा से फायदा

मधुमेह में इसकी मींगी का चूर्ण 2 ग्राम तक दिन में 2 से 3 बार जल के साथ सेवन कराते है।

7). हैजा (विसूचिका) में चालमोगरा के प्रयोग से लाभ

500 मि.ग्राम से 1 ग्राम तक चालमोगरा बीज चूर्ण गुलाबजल में घिसकर पिलाने से विसूचिका में लाभ होता है।

8). बालरोग दूर करने में चालमोगरा करता है मदद

गर्मी के दिनों में अधिक गर्मी से जब बालक प्यास, दाह, अतिसार, आदि रोगों से व्याकुल हो तब चालमोगरा बीज को केवड़े के अर्क या शीतल जल में घिसकर पिलाना चाहिये।

( और पढ़े – बच्चों के रोग और उनका घरेलू इलाज )

9). कंठमाला में चालमोगरा के इस्तेमाल से फायदा

चालमोगरा बीज चूर्ण दिन में 3 बार 250 मि.ग्रा. देना चाहिये। धीरे-धीरे इसकी मात्रा बढानी चाहिए। उपद्रव होने पर औषधि कुछ समय बन्द कर देनी चाहिये । सहन होने पर भी 2 से 3 ग्राम से अधिक मात्रा नहीं देनी चाहिये। यह कल्प, कुष्ठ, मधुमेह, जीर्ण, सन्धिवात में भी लाभप्रद है।

चालमोगरा के कुछ अन्य लाभप्रद अनुभूत प्रयोग :

1). कुष्ठनाशक चूर्ण –

चालमोगरा की मींगी 250 ग्राम, नीम पत्ती, बीज (दोनों) 20 ग्राम, घुघकोरैया 125 ग्राम, कुठ 10 ग्राम, कुटकी 10 ग्राम, जावित्री 10 ग्राम, केशर 6 ग्राम । सभी का चूर्ण बनाकर रख लें।
मात्रा – 3-3 ग्राम की मात्रा में प्रातः सायं मधु के साथ लें।
उपयोग – यह समस्त कुष्ठनाशक योग है। लम्बे समय तक प्रयोग करना चाहिये। प्रयोग करने से पहले जुलाब लेकर पेट साफ करा देना चाहिये। – महन्त साधुशरणदास (धन्व. गुप्तसिद्ध प्रयोगांक)

2). चर्मरोग नाशक तेल-

चालमोगरा बीज 60 ग्राम, चक्रमर्द बीज 125 ग्राम,बाकुची 60 ग्राम, अमलताश के बीज 125 ग्राम, काले धतूरे बीज 180 ग्राम, स्वर्णक्षीरी बीज 180 ग्राम, तुत्य 30 ग्राम, चौकिया सुहागा 120 ग्राम, सफेद राल 120 ग्राम, कसीस हरा 60 ग्राम, दाल चिकना 100 ग्राम, रसकर्पूर 20 ग्राम, हरताल 30 ग्राम, मैनसिल 30 ग्राम, गन्धक 60 ग्राम, फिटकरी 60 ग्राम, कबीला 40 ग्राम, नीम का तेल180 ग्राम, चालमोगरा तेल 180 ग्राम, गर्जन का तेल 180 ग्राम।

विधि – प्रथम की 6 औषधियां स्वच्छ कर अलग रख दें। बाद की शेष 10 वस्तुओं को खूब बारीक पीसकर इन्हें खरल में डालें। फिर 3 दिन नीम के तेल में 3 दिन चालमोगरा के तेल में, 3 दिन गर्जन के तेल में खरल करें। पश्चात् प्रथम 6 औषधियों के साथ इन्हें मिलाकर पातालयन्त्र द्वारा तेल निकालकर सुरक्षित रखें। यह चर्म रोगा नाशक तेल है। यह प्रत्येक चर्म रोगों पर उपयोगी है। – सुधानिधि प्रयोग संग्रह

3). खुजली नाशक मिश्रण –

चालमोगरा का तेल 113 ग्राम, टंकणक्षार 1.2 ग्राम, गन्धक 1.2 ग्राम, संतरे का रस 10 बूंद । चालमोगरे के तेल में गन्धक और सुहागे का क्षार मिलाकर ऊपर से संतरे का रस डाल दें, इससे गन्धक की सुगन्ध दूर हो जाती है। जहां-जहां खुजली हो वहां इस दवा को रोगी के लगावें और उसे धूप में लेटे रहने को कहें तथा दो घण्टे बाद स्नान करावें। इससे केवल 3-4 दिनों में ही भयंकर खुजली ठीक हो जाती है। – पं. सालिगराम पुजारी

4). उपदंशजन्य चर्मरोगहर प्रयोग –

चालमोगरा के बीजों के साथ समभाग जंगली मूंग के बीज को जौकुट कर भृंगराज के स्वरस में तीन दिन भिगोकर महीन पीस उसमें थोड़ा चन्दन तेल या नारियल तेल या आंवला तेल मिलाकर उबटन जैसे मर्दन करें। फिर 3-4 घण्टे बाद.स्नान कर लें। इस प्रयोग से कुछ दिनों में उपदंश रोग के कारण उत्पन्न शरीर पर हुये चकत्ते मिटने लगते हैं। – व. गु०

चालमोगरा से निर्मित आयुर्वेदिक दवा (कल्प) :

वटी –

  • चालमोगरा बीज, बाकुची बीज, चित्रक, हरिद्रा, विडंग, त्रिफला और शुद्ध भिलावा समान भाग लेकर गुड़ में मिलाकर 250 मि. ग्राम की गोलियां बना लें। 1 से 2 गोली दिन में 2 – 3 बार खाने से सब प्रकार के रक्त विकार, कुष्ठ आदि नष्ट होते हैं। – अभि. बू. द.
  • चालमोगरा बीज, शुद्ध भिलावा, वाकुची बीज, शिलाजीत समभाग लेकर गोलियां बनाकर सेवन करने से कुष्ठ, वातरक्त नष्ट होकर बल-वीर्य की वृद्धि होती है।– अभि. बू. द.

चालमोगरा भस्म –

चालमोगरा की मींगी को बारीक पीसकर उसमें किंचित् इसी का तेल मिलाकर पुनः घोटकर मटकी में रखकर अच्छी तरह शराब सम्पुट कर कंडों की आंच में रखकर भस्म बना लें। इस अन्तर्धूम भस्म के अंजन से रतौधी, तिमिर (चीजें धुंधली दिखने लगती है) , श्वेत और नीला मोतिया बिन्दु,नेत्रव्रण आदि रोगों में लाभ होता है।
इस भस्म में सैन्धव लवण एवं स्रोतोञ्जन समभाग लेकर पीसकर लगाने से लेखन विशेष होता है। – सुश्रुतसंहिता

चालमोगरा मलहम –

  • चालमोगरा तेल 4 ग्राम और सादा वैसलीन 30 ग्राम लेकर भलीभांति एकत्र फेंटकर मलहम तैयार कर लें। यह मलहम कुष्ठ, कण्डू (खाज, खुजली) पर वाह्य प्रयोग के लिये लाभप्रद है। – ध.व. वि.
  • चालमोगरा तेल, एरण्ड तेल समान भाग लेकर इनमें भली-भांति मिश्रण होने योग्य गन्धक, सिन्दूर मिला लें। फिर इसमें नींबू स्वरस डालकर खूब फेंटने से यह मलहम तैयार हो जायेगा। इसमें थोड़ा कपूर मिलाकर चौड़े मुख की शीशी में रखकर ढक्कन लगाकर रखें। आवश्यकता पड़ने पर थोड़ा-थोड़ा कुछ समय तक निरन्तर लगाने से फोड़े फुन्सी और खुजली मिट जाती हैं । – ध. व. वि.

चालमोगरा के दुष्प्रभाव (Chaulmoogra ke Nuksan in Hindi)

  • संशोधन (शुद्ध करने) व संशमन (नष्ट करने) हेतु इसकी मात्रा सोच समझ कर ही देनी चाहिये। रोगी की प्रकृति, वय (उम्र), सात्म्य (अनुकूलता) आदि पर अवश्य विचार कर लेना चाहिये। कुछ व्यक्तियों को सामान्य मात्रा से भी अतिसार (दस्त) होने लग जाते हैं, उन्हें यह अन्य ग्राही औषधियों के साथ देना चाहिये। अत्यधिक स्थिति में इसका प्रयोग बन्द ही कर देना चाहिये।
  • क्वचित् शरीर में इसकी अधिक मात्रा पहुंच जाने से विविध उपद्रव होने लगते हैं।
  • मन्दाग्नि वाले व्यक्ति को इसे सोच समझ कर देना चाहिए।
  • अतिमात्रा अग्निमांद्य, वमन, अतिसार, रक्ताषुहानि, रक्तमेह, उरःशूल, उदरशूल, ज्वर, सन्धिप्रदाह, वृषणप्रदाह, नेत्रप्रदाह आदि उग्र लक्षण उत्पन्न कर सकती है । इसका प्रयोग सावधानीपूर्व ही करना चाहिए।
  • चालमोगरा के सेवन से पहले अपने चिकित्सक से परामर्श करें ।
  • चालमोगरा को डॉक्टर की सलाह अनुसार ,सटीक खुराक के रूप में समय की सीमित अवधि के लिए लें।

दोषों को दूर करने के लिए : इसके दोषों को दूर करने के लिए हरी कासनी (एक प्रकार की घास है) का सेवन हितकर है।

(अस्वीकरण : दवा ,उपाय व नुस्खों को वैद्यकीय सलाहनुसार उपयोग करें)

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