Last Updated on May 10, 2023 by admin
बच्चों के दाँतों का विकास :
शरीर के अन्य अंगों की तरह दाँतों का विकास एक प्राकृतिक प्रक्रिया है । दाँतों का विकास भिन्न-भिन्न बच्चों में काफी अलग होता है। आम तौर पर ज्यादातर बच्चों में छह माह से दाँत निकलने शुरू हो जाते हैं। पहले दूध के दाँत या अस्थायी दाँत निकलते हैं। इसके बाद छह से आठ वर्ष की आयु में स्थायी दाँत निकलने प्रारंभ होते हैं ।
दाँत निकलने का समय | अस्थायी दांतों के नाम |
06-08 माह | बीच के इंसाइजर |
07-11 माह | किनारे वाले इंसाइजर |
16-20 माह | कैनाइन माह |
10-16 माह | पहला मोलर |
20-30 माह | दूसरा मोलर |
06-08 वर्ष | बीच के इंसाइजर |
07-09 वर्ष | किनारे के इंसाइजर |
09-12 वर्ष | कैनाइन |
10-12 वर्ष | पहला प्रीमोलर |
10-13 वर्ष | दूसरा प्रीमोर |
06-07 वर्ष | पहला मोलर |
12-16 वर्ष | दूसरा मोलर |
17- 22 वर्ष | तीसरा मोलर |
पैदाइशी दाँत :
कुछ बच्चों में दाँत पैदायशी होते हैं । इन्हें प्री डेसिडुयस डेंटिशन कहते हैं। इन दाँतों से बच्चे को काफी तकलीफ होती है। ये दाँत मसूड़ों पर और माँ के स्तन पर लगते हैं, इसलिए ऐसे बच्चे माँ का दूध नहीं पी पाते । इसलिए इन दाँतों को निकालना पड़ता है।
दूध के दाँत :
सामान्य तौर पर बच्चों में दूध के दाँत छह महीने में आने शुरू होते हैं और ढाई से तीन साल की उम्र तक आते रहते हैं । इन दाँतों के आने के समय कई बार बच्चों के मसूड़ों में खारिश – सी पैदा हो जाती है या दस्त होने लगते है, लेकिन दाँतों के निकलने से इसका कोई खास संबंध नहीं है । ये अपने आप ठीक हो जाते हैं। ये दाँत 11-12 साल की उम्र तक रहते हैं ।
पक्के दाँत :
11-12 साल की उम्र के बाद छह साल की उम्र से पक्के दाँत आने शुरू हो जाते हैं। सबसे पहले एक पक्की दाढ़ निकलती है । यह दूध की दूसरी दाढ़ के सबसे पीछे निकलनी शुरू होती है। छह से 12 साल की उम्र तक स्थायी और अस्थायी दोनों तरह के दाँत निकलते हैं और 12 साल की उम्र के बाद पक्के दाँत आने शुरू हो जाते हैं ।
जब बच्चों के दूध के दाँत टूट जाते हैं तो वहाँ पर पक्के दाँत आते हैं। दूध दाँत निकलने के दौरान यह ध्यान रखना जरूरी है कि उनकी जगह पर उगने वाले दाँत जल्दी या अधिक देरी से तो नहीं आ रहे हैं। अगर ये दाँत देर से आनेवाले हैं तो उनके स्थान पर कुछ तार लगाकर उन जगहों को बचाया जाता है, ताकि आनेवाले दाँतों के लिए जगह बची रहे और दाँत टेढ़े-मेढ़े न होने पाए।
कैल्शियम युक्त आहार :
गर्भवती महिला को अपने आहार पर विशेष ध्यान देना चाहिए, क्योंकि आहार से ही गर्भ में पल रहे बच्चे के दाँतों का भावी स्वास्थ्य निर्भर करता है । उन्हें प्रोटीन, विटामिन, कैल्शियम और विटामिन ‘डी’ युक्त संतुलित आहार लेना चाहिए । गर्भावस्था के समय खाने पर विशेष ध्यान नहीं देने पर बच्चे के दाँत प्रभावित हो सकते हैं। इसके अलावा जब बच्चे के दाँत आ रहे हैं तो उस समय दूध, फल आदि पर्याप्त मात्रा में देना चाहिए और उसके भोजन में कैल्शियम पर विशेष ध्यान देना चाहिए। उस समय पर्याप्त मात्रा में कैल्शियम नहीं लेने पर दाँत अधिक संख्या में नहीं बनेंगे, जितने बनने चाहिए।
जब एक बार दाँत बन जाते हैं तो उसमें से कैल्शियम नहीं निकलता है और न ही बाद में उस पर कैल्शियम जमा होता है। हालाँकि पाउडर के दूध में भी कैल्शियम पूरी मात्रा में होता है, फिर भी छोटे बच्चों को इसे कम-से-कम पिलाना चाहिए । लैक्टोजेन या अन्य दूध माँ के दूध का मुकाबला नहीं कर सकते। माँ का दूध बच्चे के लिए सर्वोत्तम आहार है । जब माँ का दूध नहीं बन पा रहा है तो लैक्टोजेन वगैरह दिया जा सकता है। हालाँ लैक्टोजेन वगैरह की तुलना में गाय का दूध बेहतर है । अगर बच्चे को दूध का स्वाद पसंद नहीं है तो इसमें बॉर्नविटा, माइलो, कॉम्प्लान वगैरह मिलाकार दिया जा सकता है। बच्चों को कृत्रिम दूध का सेवन कम-से-कम कराना चाहिए। छोटे बच्चों को माँ का दूध और बड़े बच्चों को गाय या भैंस का दूध पर्याप्त मात्रा में देना चाहिए ।
दाँतों को लेकर गलतफहमियाँ :
कई माता-पिता को इस बात को लेकर चिंता होती है कि उनका बच्चा मुँह में हाथ डालकर हाथ को चबाता है । दाँत निकलने की वजह से बच्चे को दस्त और बुखार इत्यादि होता है। माता – पिता को यह बताना जरूरी है कि चार-पाँच माह की उम्र में बच्चे का मुँह में हाथ डालना एक प्राकृतिक प्रक्रिया है । अगर दाँत निकलते समय दर्द होता हो तो बच्चा मुँह में हाथ डालते समय रोता है, लेकिन अगर उसे दर्द नहीं हो तो वह मुँह में हाथ डालकर खुश होता है। इसके अलावा बच्चे का दाँत निकलने की वजह से दस्त और बुखार आदि नहीं होते हैं, बल्कि ये सब अस्वच्छता अथवा अन्य कारणों से बच्चे को संक्रमण आदि हो जाने की वजह से होते हैं। बच्चे दाँत निकलने के दौरान मुँह में मिट्टी आदि ले लेते हैं, जिससे उन्हें संक्रमण होने की आशंका अधिक रहती है, इसलिए दाँत निकलते समय माता-पिता को बच्चे की अधिक देखभाल करनी चाहिए ।
दाँतों और मसूड़ों की देखभाल :
दाँतों की सेहत एवं उनकी मजबूती के लिए दाँतों की देखभाल बहुत जरूरी है, अन्यथा दाँतों की कई बीमारियाँ होने की आशंका हो सकती है। साल में एक बार दाँतों के डॉक्टर से अपने दाँतों का निरीक्षण जरूर कराना चाहिए । अगर दाँत में कीड़े लगे हों तो उनकी सफाई करानी चाहिए। यदि आपके किसी दाँत में छेद है, तो हर बार भोजन करने के बाद नियमित रूप से ब्रश करें और मीठी चीजों का सेवन बिलकुल न करें ।
संभव हो तो किसी दंत चिकित्सक से दाँतों की सफाई कराकर छेद को भरवा लें। लोगों में यह गलत धारणा है कि सफाई कराने से दाँत कमजोर हो जाते हैं। इससे न तो दाँत घिसते हैं और न ही हड्डी कमजोर होती है, इसमें सिर्फ दाँत के ऊपर जमी गंदगी निकाली जाती है। गंदगी निकालने के बाद दाँतों पर पॉलिश कर दी जाती है, ताकि दाँत बिलकुल चिकने हो जाएँ और उनमें खाना वगैरह न चिपके।
सोए हुए बच्चों को दूध नहीं पिलाएँ :
छोटे बच्चों में दाँतों की सबसे सामान्य बीमारी दाँतों में कीड़े लगना है। अधिकतर माताएँ बच्चों को बोतल से दूध पिलाती हैं । वे सोए हुए बच्चे को भी बोतल से दूध पिला देती हैं। यह बच्चे के लिए हानिकारक होता है और इससे बच्चे के दाँत में कीड़े लग जाते हैं, इसलिए बच्चों को सोते हुए दूध नहीं पिलाना चाहिए। बच्चा जब जाग रहा हो उसी समय दूध पिलाना चाहिए और दूध पिलाने के बाद एक-दो घूँट पानी पिला देना चाहिए। इसके अलावा बच्चों को बोतल से दूध पिलाने के बजाय कटोरी -चम्मच से दूध पिलाना चाहिए। बच्चे को एक से डेढ़ साल तक स्तनपान कराना भी जरूरी है। यह बच्चे के जबड़े और दाँत के विकास के लिए बहुत जरूरी है।
दाँतों की सफाई :
सुबह ‘उठने के बाद और रात में सोने से पहले हर रोज दाँतों पर ब्रश करें । दाँतों पर ऊपर से नीचे की ओर ब्रश करें । एक तरफ से दूसरी तरफ ब्रश न करें। सभी दाँतों को आगे-पीछे, ऊपर-नीचे, हर तरफ से ब्रश करें। छोटे बच्चों के जैसे ही दाँत निकलना शुरू हों, ब्रश करना शुरू कर दें ।
बच्चों को सुबह जागने पर और रात को सोने से पहले दाँतों में ब्रश कराना बहुत जरूरी है। बच्चे को ब्रश कराते समय यह ध्यान रखना जरूरी है कि दाँतों की सफाई ठीक से हो रही है या नहीं। ऊपर के दाँतों को ब्रश करने के लिए मसूड़ों की तरफ से नीचे की तरफ आना चाहिए और खाने वाली सतह पर गोल-गोल करके या आगे-पीछे करके ब्रश करना चाहिए । इसी तरह नीचे के दाँतों में ब्रश नीचे से मसूड़ों की तरफ से ऊपर की तरफ करना चाहिए और अंदर-बाहर करना चाहिए।
हमें अपने ऊपर और नीचे के जबड़े को तीन-तीन भाग से विभाजित कर लेना चाहिए और हर भाग पर कम- से-कम पाँच-छह बार स्ट्रोक लगाकर ब्रश करना चाहिए। दिन में दो बार ब्रश करना और खाना खाने के बाद कुल्ला करना बहुत जरूरी है वरना यह खाना दाँतों के बीच में फँसा रहता है, जिससे दाँत सड़ने लगते हैं मुँह से बदबू आने लगती है । इसका इलाज संभव है।
यदि आपके पास ब्रश नहीं हैं, तो दाँतों को साफ करने के लिए नीम की दातुन का इस्तेमाल करें। यदि आपके पास टूथपेस्ट नहीं है, तो नमक और बाइकार्बोनेट ऑफ सोडा की बराबर मात्रा लेकर, उसका मिश्रण बनाकर, ब्रश को गीला कर, उस पर यह चूर्ण लगाकर दाँतों में ब्रश करें ।
बच्चों को मिठाइयों की आदत कम लगाएँ :
मीठी चीजों के अधिक सेवन से दाँत जल्द खराब होते हैं । मीठी चीज खाने के बाद दाँतों पर ब्रश अवश्य करें। माता-पिता को यह कोशिश करनी चाहिए कि बच्चों को मीठी चीजें कम दें और दिन-भर में तीन-चार बार से अधिक मीठी चीजें न दें। अगर दिन भर में बच्चा दो बार दूध पी रहा है और खीर खा रहा है तो उसे उस दिन चॉकलेट नहीं देनी चाहिए, क्योंकि मुँह के कीटाणु को जब मीठी चीज मिलती है तो वे अम्ल पैदा करते हैं और यह अम्ल दाँत को गलाता है।
हालाँकि लार में अम्ल को बेअसर करने की शक्ति होती है। दिन में तीन-चार बार मीठी चीजें खा लेने पर वह उसका मुकाबला कर लेती है, लेकिन उससे ज्यादा बार खा लेने पर अम्ल दाँत को सड़ाने लगते हैं। माता-पिता की कोशिश होनी चाहिए बच्चा कम-से-कम मीठी चीजें खाए, लेकिन फिर भी अगर बच्चा मीठी चीजें खा रहा है तो उसके खाने के बाद उसे दो-तीन घूँट पानी पिला देना चाहिए या कुल्ला करा देना चाहिए। इसके अलावा बच्चों को बार-बार मीठी चीजें देने के बजाय खाना खाने के तुरंत बाद मीठी चीजें देनी चाहिए और उसे कुल्ला करा देना चाहिए ।
दाँतों और मुँह की बीमारियाँ :
दाँतों की सफाई के प्रति लापरवाही, रहन-सहन एवं खान-पान की गलत शैलियों एवं आदतों की संस्कृति के कारण दाँतों की बीमारियाँ होती हैं। 90 फीसदी समस्याओं का कारण गलत खान-पान और दाँतों की सफाई के प्रति हमारी लापरवाही है । कई बार व्यक्ति दुर्घटना में अपने दाँत गँवा बैठते हैं। बच्चे अकसर खेल-कूद में चोट की वजह से अपने दाँत खो देते हैं। इससे दाँतों की सुंदरता नष्ट हो जाती है। कुछ लोगों में कुदरती तौर पर ही दाँत बदरंग, टेढ़े-मेढ़े या मुँह से बाहर निकले होते हैं या दो दाँतों के बीच खिड़की होती है। कई बार इंफेक्शन की वजह से दाँत गल जाते हैं या चोट के कारण दाँ बीच से ही टूट जाते हैं । यहाँ दाँतों की कुछ प्रमुख समस्याएँ एवं खराबियाँ निम्नलिखित हैं-
1. दाँत दर्द – दाँत दर्द आम तौर पर दाँत मे छेद या संक्रमण के कारण होता है । छेद वाले दाँत में दर्द होने पर छेद की अच्छी तरह से सफाई करें, दाँत में फँसे भोजन के कण निकाल दें और गरम पानी में नमक डालकर मुँह में रखें । दाँत में असहनीय दर्द होने पर एस्प्रिन जैसी दर्दनिवारक दवाइयों का सेवन करें। लौंग चबाने से भी दाँत दर्द में आराम मिलता है। यदि दर्द ठीक न हो या बार-बार दाँत दर्द हो, तो दंत चिकित्सक को दिखाएँ ।
2. पायरिया – पायरिया में मसूड़े सूज जाते हैं और मसूड़ों से खून निकलने लगता है। इनमें दर्द भी हो सकता है। पायरिया दाँतों और मसूड़ों की अच्छी सफाई नहीं करने और पौष्टिक आहार नहीं लेने के कारण होता है । पायरिया से बचाव के लिए हर भोजन के बाद ब्रश करें। विटामिन युक्त आहार लें। अंडे, मांस, फलियाँ, गहरे हरे रंग की पत्तेदार सब्जियाँ और संतरे, नीबू जैसे फलों का अधिक सेवन करें। मीठी चीजों से परहेज करें।
3. जीभ पर सफेद तह – कई रोगों के कारण जीभ और ऊपरी जबड़े पर पीली या सफेद तह – सी जम जाती है। बुखार के दौरान तो ऐसा होना आम है। यह कोई बीमारी नहीं है । गरम पानी में नमक और बाइकार्बोनेट ऑफ सोडा मिलाकर कुल्ला करने से यह तह धीरे-धीरे हट जाती है।
4. मुँह के छाले – मुँह के अंदर और जीभ पर सफेद रंग के दाग हो जाते हैं । यह रोग नवजात शिशुओं और उन लोगों को अधिक होता है, जो टेट्रासाइक्लीन या एंपिसिलिन जैसी एंटीबायोटिक दवाओं का अधिक सेवन करते हैं । ऐसा होने पर यदि एंटीबायोटिक दवाओं का सेवन कर रहे हों, तो उनका सेवन रोक दें और मुँह के अंदर जेनशियन वॉयलेट लगाएँ। लहसुन चबाने या दही खाने से भी लाभ होता है।
5. एप्याउस स्टोमाटायटिस – इसमें होंठों के बाहर और अंदर तथा मुँह में छोटे-छोटे सफेद रंग के दर्द युक्त धब्बे हो जाते हैं । यह मानसिक तनाव के कारण और कभी-कभी मासिक धर्म से पहले होते हैं । कुछ दिनों के बाद यह स्वतः ठीक हो जाते हैं।
6. फुंसियाँ – कभी-कभी मुँह या होंठों के बाहर छोटे-छोटे सफेद रंग के धब्बे हो जाते हैं। ऐसा आम तौर पर बुखार या सर्दी-जुकाम में होता है और कुछ दिनों में स्वत: ठीक हो जाते हैं।
7. कैविटी – अधिक भाग-दौड़ एवं व्यस्तता के कारण आज मुलायम, मीठे एवं चिपचिपे खाद्य पदार्थों के बढ़ते प्रचलन के कारण दाँतों में ‘कैविटी’ की समस्या लोगों को कुछ अधिक ही सताने लगी है। कैविटी में मीठे या चिपचिपे पदार्थों के जमा हो जाने से जीवाणु या बैक्टीरिया पनपने लगते हैं, जो दाँतों में सड़न पैदा करते हैं। इससे दाँत समय से पूर्व ही हिलने या गलने लगते हैं या दाँतों में छिद्र हो जाते हैं । जीवाणु संक्रमण की वजह से दाँतों में असह्य दर्द होता है और कभी-कभी मवाद बन जाता है ।
इस स्थिति में मरीज को दाँत खोने भी पड़ सकते हैं। अपने बच्चों के दाँतों की देखभाल के प्रति लापरवाह और अपने बच्चों में दाँतों की नियमित सफाई की आदत नहीं डालने वाले माता-पिता अनजाने में ही अपने बच्चों को मदमाती मुसकान से मरहूम कर देते हैं। बच्चे स्वभाव से मीठे पदार्थ की ओर अधिक आकर्षित होते हैं और अगर मीठे पदार्थों के प्रति उनकी ललक पर लगाम नहीं लगाया जाए तो बच्चों के दाँतों में कैविटी हो जाती है। अमेरिकी डेंटल एसोसिएशन के अध्ययन के मुताबिक सभ्यता के विकास से अछूते रहने वाले एस्किमो और जनजातीय मूल के लोगों में दाँतों की कैविटी की समस्याएँ नहीं पाई जाती है। इसका कारण उनका सख्त खान-पान है, जो स्टार्च युक्त नहीं होता है ।
8. टूटे-फूटे दाँत – कई बार दुर्घटना के कारण दाँत टूट-फूट जाते हैं। इससे दाँतों की सुंदरता नष्ट हो जाती है। इन स्थितियों में ‘दाँत फीलिंग’ तकनीक अपनाई जाती है । दाँत फीलिंग का एक तरीका है ‘ब्रिजेज’ तकनीक। इसमें गायब दाँत के दोनों बगल के दाँत के आधार को थोड़ा छोटा करके उस पर कैप लेग मेटल सिरेमिक से बने नकली दाँत को उस आधार पर ‘फिट’ कर दिया जाता है । यह मेटल सिरेमिक मूल दाँत की तरह दिखता है और टिकाऊ होता है। इस नकली दाँत से खाने-पीने में कठिनाई नहीं होती है ।
9. दाँतों में छेद – दाँत यदि बीच से टूट गए हों या जीवाणु संक्रमण की वजह से दाँत में छेद हो गए हों तो दाँत फीलिंग तकनीक से मनमाफिक दाँत बनाया जा सकता है । दाँत फीलिंग के लिए आजकल खास तरह के मैटेरियल का प्रयोग किया जाता है। जिसके लिए दाँत को ज्यादा घिसना नहीं पड़ता है। पहले चाँदी से दाँत भरे जाते थे । उसमें दाँत को अधिक घिसना पड़ता था, पर अब ऐसा नहीं है। चाँदी से भरे गए दाँत असली दाँत से मेल भी नहीं खाते हैं। आजकल जिस पदार्थ से दाँत फीलिंग होती है । वह असली दाँत के रंग का होता है; लेकिन उन्नत किस्म के पदार्थ से दाँत फीलिंग करने में न तो बड़ा छेद करना पड़ता है और न ही शुरू से सख्त चीज खाने की मनाही । अब पता लगाना मुश्किल हो गया है कि दाँत की फीलिंग भी हुई है ।
10. दाँतों के बीच खाली जगह – इंफेक्शन की वजह से कोई दाँत निकालना पड़ जाता है। इससे दो दाँतों के बीच खाली जगह हो जाती है । खाली जगह पर नए दाँत लगाने के लिए सबसे नवीनतम तकनीक इंप्लांट इस्तेमाल में लाई जा रही है । इसमें जहाँ दाँत इंप्लांट करना होता है, वहाँ मसूड़े में सर्जरी की सहायता से टाइटेनियम धातु का बना कृत्रिम ‘रूट’ फिट किया जाता है। यह कृत्रिम रूट कुछ ही दिनों में मसूड़े की हड्डी के साथ अच्छी तरह मिल जाता है और असली जड़ की तरह हो जाता है । इस कृत्रिम जड़ (रूट) में एक छेद होता है, जिसमें एक स्क्रू के सहारे सिरेमिक से बने दाँत लगा दिए जाते हैं । इस नकली दाँत की खासियत है कि इसे असली दाँत से फर्क करना कठिन है ।
यह असली दाँत की तरह ही काम भी करता है और चेहरे की सुंदरता में भी चार चाँद लगाता है। इंप्लांट का फायदा है कि इसमें दोनों बगल के दाँत को छोटा नहीं करना पड़ता है और मसूड़े में फिट होने के कारण स्थायी हो जाता है।
मरीज में दाँत इंप्लांट करने से पूर्व उनके दाँत का एक एक्स-रे लिया जाता है, जिससे पता लग जाता है कि मसूड़े के भीतर हड्डी कितनी है । इंप्लांट करते वक्त इस बात का खास ख्याल रखा जाता है कि मरीज को ओस्टियोपोरोसिस जैसी हड्डी की बीमारी न हो। साथ ही मरीज में हाइपर थायरायडिज्म का पता भी लगा लिया जाता है, क्योंकि ऐसी स्थिति में इंप्लांट फायदेमंद नहीं होता है । इंप्लांट कराने के लिए उम्र कोई बाधा नहीं होती है।
11. बदरंग दाँत – दाँतों के बदरंग होने यानी दाँतों पर काले या पीले धब्बे से भी दाँतों की सुंदरता पर ग्रहण लग जाता है। ब्लीचिंग तकनीक की सहायता से दाँतों की इस कुरूपता को दूर किया जाता सकता है । ब्लीचिंग तकनीक में मरीज के दाँतों के नाप के आधार पर एक स्पेशल ‘ट्रे’ बनाई जाती है और उसमें ब्लीचिंग जेल डाल दिया जाता है । इसे मरीज रोज रात में सोते वक्त मुँह में रखते हैं और सुबह निकाल देते हैं । यह प्रक्रिया करीब एक हफ्ते तक करनी पड़ती है। इससे मरीज के दाँतों में काफी फर्क आने लगता है और बाद में काफी सफेद भी हो जाता है ।
12. दाँतों का हिलना – कई बार चोट या संक्रमण के कारण कोई दाँत हलका हिलने लगता है । ऐसी स्थिति में वहाँ ‘बोन सब्स्टीच्यूट’ डाल दिया जाता है, जिससे वहाँ अतिरिक्त हड्डी बन जाती है और दाँतों का हिलना बंद हो जाता है; लेकिन अगर दाँत ज्यादा हिल रहे हों तो एसप्लिंटिंग तकनीक का सहारा लिया जाता है । इसमें हिल रहे दाँत को निकालने की जरूरत नहीं पड़ती है। एसप्लिंटिंग तकनीक के सहारे हिलते हुए दाँत को बगल वाले दाँतों के साथ चिपका दिया जाता है।
13. टेढ़े-मेढ़े दाँत – टेढ़े-मेढ़े, आड़े-तिरछे या मुँह से बाहर निकले दाँत को विनियर्स तकनीक के सहारे सीधा और सुडौल बनाया जाता है । विशेष स्थिति में बदरंग दाँत को भी इस तकनीक से सफेद किया जाता है। इसमें दाँतों के ऊपरी सिरे को हलका छोटा किया जाता है और उसके ऊपर सिरेमिक के पतले सेल को चिपका दिया जाता है । ऐसा करने से दाँतों से हवा पास करने लायक भी छिद्र नहीं रह पाता है। इससे जीवाणु संक्रमण की कोई गुंजाइश नहीं होती है। सिरेमिक लगे दाँत मूल दाँत की तरह ही दिखते हैं, क्योंकि सिरेमिक को मनमुताबिक मूल दाँत के रंग में ढाला जा सकता है ।
यह मूल दाँत की तरह ही कार्य करता है। उम्र दराज लोगों के दाँत को जवानी के दिनों के दाँत की तरह बनाने के लिए भी विनियर्स तकनीक का इस्तेमाल किया जाता है । सिरेमिक कई दशकों तक टिका रहता है। इस वजह से यह कृत्रिम दाँत की तरह नहीं लगता है। दो दाँतों के बीच खाली जगह को भरने के लिए भी सिरेमिक का ही प्रयोग किया जाता है । टेढ़े-मेढ़े, आड़े-तिरछे या ऊपर को उठे दाँत को सीधा करने के लिए ताँबे के तार का भी इस्तेमाल किया जाता है। इसमें करीब एक साल तक का समय लग जाता है । इस दौरान मरीज को विशेष निगरानी में रहना पड़ता है, पर विनियर्स तकनीक बिलकुल ही नवीनतम है, इसमें किसी भी प्रकार की असुविधा नहीं होती है ।
14. दाँत में मवाद – जीवाणु संक्रमण की वजह से यदि दाँत में मवाद हो गया हो, असह्य दर्द हो रहा हो या हिल रहा हो तो अब दाँत निकलवाने की जरूरत नहीं पड़ती है । रूट कैनाल ट्रीटमेंट से पीड़ा से मुक्ति मिल जाती है। जब दाँत में दर्द होता है तो संक्रमण दाँत के स्नायु तक चला जाता है। रूट कैनाल ट्रीटमेंट के जरिए दर्द वाले दाँत के छेद में ड्रिल करके स्नायु तक पहुँच जाते हैं और संक्रमित स्नायु और ऊतकों को निकाल देते हैं, जिससे दर्द से छुटकारा मिल जाता है और दाँत खोना भी नहीं पड़ता है ।
15. मुँह के कैंसर – जीभ या मुँह के अंदर के कुछ घाव लंबे समय – समय तक बने रहते हैं और सामान्य इलाज से भी ठीक नहीं होते हैं। ये कैंसर के घाव हो सकते हैं । मुँह के कैंसर तंबाकू और पान खाने वाले लोगों को अधिक होते हैं। ऐसे में किसी विशेषज्ञ से सलाह लें ।