रोहिणी (डिप्थीरिया) – एक अत्यन्त खतरनाक जानलेवा रोग

Last Updated on December 26, 2021 by admin

रोहिणी (डिप्थीरिया) क्या है ? (What is Diphtheria in Hindi)

रोहिणी (डिप्थीरिया) अथवा गलघोंटू विशेषत: बच्चों में होनेवाला ऐसा रोग है जो कार्नी बैक्टीरिया डिफ्थीरी नामक जीवाणु द्वारा फैलता है। ये जीवाणु सूक्ष्मदर्शी में दंडे के समान दिखते हैं अत: इन्हें दंडाणु कहते हैं। यह जीवाणु एक तरह का बाह्य विष (Exotoxin) उत्पन्न करता है जो शरीर के लिए घातक होता है और यह बाह्य विष ही शरीर में इस बीमारी के लिए जिम्मेदार होता है। तीन प्रकार के कानी बैक्टीरियम जीवाणुओं का पता अभी तक लगा है।

रोहिणी (डिप्थीरिया) रोग का संक्रमण मुख्यत: गले में, टांसिल (Tonsil), ग्रसनी और स्वरयंत्र अथवा नाक में होता है। इन अंगों में एक भूरी या पीली सी झिल्ली (Fals membrane) का निर्माण हो जाता है, जो साँस द्वारा ली जानेवाली वायु के जाने-आने में अवरोध पैदा करती है। डिप्थीरिया के जीवाणु द्वारा उत्पन्न बाह्य विष रक्त में मिलकर हृदय और तंत्रिका तंत्र को भी प्रभावित कर गंभीर जटिलताएँ पैदा करता है।

विश्व और भारत में रोहिणी (डिप्थीरिया) रोग की स्थिति :

डिप्थीरिया रोग का विकसित देशों में उन्मूलन हो चुका है। अर्थात् यह रोग अब वहाँ कभी नहीं होता। लेकिन दुर्भाग्य से भारत जैसे विकासशील देशों में यह खतरनाक रोग अभी भी होता है। वह भी जागरूकता के अभाव एवं टीकाकरण में कमी की वजह से। 1996 में लाओस एवं थाईलैंड से डिफ्थीरिया या डिप्थीरिया से ग्रसित कुछ बच्चों की सूचना मिली थी।

भारत में यह बीमारी क्रमश: कम होती जा रही है। और यह सम्भव हुआ है अधिक से अधिक आबादी को टीकाकरण कार्यक्रमों के अन्तर्गत लाने के कारण। जहाँ सन् 1987 में 12952 रोगियों की सूचनाएँ प्राप्त हुईं वहीं सन् 2000 में मात्र 265 मामले पाए गए। इस तरह 13 वर्षों में लगभग 99 प्रतिशत गिरावट दर्ज की गई।

रोहिणी (डिप्थीरिया) रोग के कारण (Diphtheria Causes in Hindi)

रोहिणी (डिप्थीरिया) रोग क्यों होता है ?

जैसा कि बतलाया गया है डिप्थीरिया रोग कार्नी बैक्टीरिया डिफ्थीरी नामक एक जीवाणु द्वारा उत्पन्न बाह्य विष के प्रभाव से होता है। ये जीवाणु तीन प्रकार के होते हैं लेकिन दंडाणु का ग्रेविस प्रकार ही अधिक खतरनाक होता है। इसके द्वारा उत्पन्न बाह्य विष रक्त में मिलकर हृदय और तंत्रिका तंत्र को भी प्रभावित करता है। इस कारण हृदय में सूजन (Myocarditis) उत्पन्न हो जाती है एवं तंत्रिका तंत्र पर दुष्प्रभाव के कारण विभिन्न पेशियों में लकवा (Paralysis) की शिकायत हो जाती है।

संक्रमण के स्रोत :

डिप्थीरिया रोग में स्वयं रोगी एवं जीवाणु के वाहक संक्रमण के स्रोत होते हैं। रोग के वाहक प्राय: 5 से 8 वर्ष के बच्चे होते हैं।
नाक से निकला स्राव अथवा गले एवं त्वचा के घावों या रोगी से निकले स्राव में रोग के जीवाणु मौजूद होते हैं, जो रोग को फैलाते हैं।

रोगी या वाहक की संक्रामकता :

यदि रोगी व्यक्ति उपचार न ले रहा हो तो संक्रामकता की अवधि रोग प्रारम्भ होने से लेकर कम से कम 14 दिन तक की होती है। लेकिन यह कुछ मामलों में 28 दिन या अधिक की भी हो सकती है।

किस आयु में रोहिणी (डिप्थीरिया) का संक्रमण होता है ? :

डिप्थीरिया रोग प्राय: 2 से 5 वर्ष के मध्य के बच्चों में होता है। एक वर्ष से कम के शिशु स्तनपान के कारण इस रोग की प्रतिरक्षा माँ के दूध से प्राप्त करते हैं। अपवाद स्वरूप कभी-कभी वयस्कों को भी यह रोग हो सकता है।

रोग की प्रसार विधि (Transmission) :

  • जैसा कि बतलाया गया है कि रोग के जीवाणु रोगी या वाहक बच्चे के गले और नाक के स्राव में मौजूद होते हैं। अत: जब वह खाँसता या छींकता है तो छोटे बिन्दुक (Droplets) द्वारा संक्रमण पास में उपस्थित बच्चों में पहुँच जाता है।
  • रोग का अप्रत्यक्ष संक्रमण जीवाणु युक्त खिलौने, पेंसिल, कपड़े इत्यादि दूषित वस्तुओं से फैलता है।
  • इसके अलावा चाय के कप, गिलास, चम्मच, थर्मामीटर इत्यादि से भी रोग फैलना पाया गया है।

रोग की उद्भव अवधि (Incubation Period) :

संक्रमण होने के दो से छह दिन के बीच रोग के लक्षण मिलने लगते है । कुछ मामलों में अवधि अधीक भी हो सकती है।

रोहिणी (डिप्थीरिया) के लक्षण (Diphtheria Symptoms in Hindi)

डिप्थीरिया के क्या लक्षण होते हैं ?

1. चूँकि जीवाणु विष गलतुंडिका (Tonsils), ग्रसनी (Pharynx) और श्वास यंत्र (Larynx) को प्रभावित करते हैं। अत: इस रोग में गले के अन्दर सूजन (Sore throat), निगलने में दर्द और कठिनाई होना, इत्यादि लक्षण होते हैं। साथ ही गले में छद्म झिल्ली बनने से रोगी के कंठ से घर्घर की आवाज निकलती है। बाद में रोगी की साँसें भी रुकने लगती हैं। यदि झिल्ली के हटाने का प्रयास किया जाता है तो उससे रक्तस्राव होने लगता है।

2. रोगी के गले और जबड़ों के नीचे सूजन भी आ सकती है। साथ ही गले की लसिका ग्रंथियों का
आकार बढ़ जाता है जिससे गर्दन, बैल की गर्दन की (Bull Necked) जैसी दिखती है।

3. स्वरयंत्र प्रभावित होने से रोगी की आवाज भारी हो जाती है। और उसे बोलने में कठिनाई होती है।

4. रोगी को हल्का (Low grade) बुखार भी रहता है।

उपर्युक्त लक्षण होने पर रोगी को शीघ्र ही शिशु रोग विशेषज्ञ या उपलब्ध चिकित्सक को दिखलाना चाहिए। इलाज में विलम्ब से बच्चे के जीवन को खतरा उत्पन्न हो सकता है।

रोहिणी (डिप्थीरिया) के लिए शिशु की जाँच (Diagnosis of Diphtheria in Hindi)

डिप्थीरिया का परीक्षण कैसे किया जाता है ?

डिप्थीरिया का परीक्षण त्वचा के नीचे 0.2 ml. प्रतिजीव विष (antibiotic toxin) इंजेक्शन द्वारा पहुँचाकर करते हैं। और इस जाँच से यह पता लगता है कि बच्चा इस रोग के लिए प्रतिरक्षित (अथवा रोग से सुरक्षित) है अथवा रोग के प्रति संवेदनशील है।

इंजेक्शन लगाने से यदि त्वचा पर कोई प्रतिक्रिया नहीं होती तो समझा जाता है कि बच्चा पूर्व से ही इस रोग से प्रतिरक्षित है। और यदि इंजेक्शन लगाए गए स्थान की त्वचा लाल हो जाती है तो मानते हैं कि बच्चा रोहिणी या डिप्थीरिया जैसे रोग के लिए संवेदनशील है। अत: उसे प्रतिरक्षा के लिए टीके लगाए जाते हैं।

रोहिणी (डिप्थीरिया) का उपचार (Diphtheria Treatment in Hindi)

डिप्थीरिया का इलाज कैसे किया जाता है ?

  1. इलाज में जीवाणु बाह्य विष को प्रभावहीन बनाने के लिए दस हजार इकाई से 80 हजार इकाई तक प्रति जीव विष (Anti toxin) दिया जाता है।
  2. इसके अलावा जीवाणु रोधक दवाइयाँ जैसे पेनिसिलिन या इरिथ्रो माइन देते हैं।
  3. रोगी को पूर्ण विश्राम की सलाह देते हैं ताकि हृदय सम्बन्धी जटिलताएँ न हों।
  4. यदि रोगी की श्वास रुकती है तो फिर श्वास नलिका में छिद्र (Tracheostomy) करने की जरूरत पड़ सकती है।

रोहिणी (डिप्थीरिया) रोग की जटिलताएँ (Diphtheria Risks & Complications in Hindi)

रोग के दंडाणु का बाह्य विष हृदय को प्रभावित कर उसमें सूजन उत्पन्न कर हृदय की गंभीर बीमारी पैदा करता है। इसी तरह तंत्रिकाओं को प्रभावित कर लकवे की स्थिति निर्मित कर सकता है। लेकिन यदि बीमारी के शुरू में पेनिसिलिन जैसी दवाएँ दे दी जाएँ तो काफी हद तक जटिलताओं से रोगी को बचाया जा सकता है।

रोहिणी (डिप्थीरिया) की रोकथाम एवं नियंत्रण के उपाय (Prevention of Diphtheria in Hindi)

डिप्थीरिया की रोकथाम कैसे करें ?

(A) रोगी या जीवाणुओं के वाहक व्यक्ति से रोग अन्य बच्चों में न फैले इसके लिए निम्न सावधानियाँ रखते हैं –

  1. डिप्थीरिया रोग की सूचना तुरन्त स्थानीय अधिकारियों को देते हैं, इससे रोगी को तुरन्त इलाज
    तो उपलब्ध कराया ही जाता है साथ ही उस क्षेत्र में टीकाकरण इत्यादि बचाव के तरीकों का प्रचार भी सम्भव होता है।
  2. रोगियों को अलग रखकर उपचार देते हैं ताकि रोगी अन्य बच्चों में रोग न फैला सके।
  3. जो बच्चे रोगी के सम्पर्क में आ चुके हैं अथवा उन्होंने प्रतिरक्षा के लिए टीके नहीं लगवाए हैं, उन्हें रोहिणी या डिप्थीरिया का प्रतिजीव विष (antibiotic toxin) 500 से 1000 इकाई मात्रा देने से उन्हें यह रोग नहीं हो पाता। लेकिन इसके पश्चात् उन्हें डी.पी.टी. या पेंटावेलेंट का टीका भी नियमानुसार लगवाना चाहिए।

(B) यदि सभी बच्चों को यथा-समय डिप्थीरिया से रक्षार्थ, डी.पी.टी. के टीके (या पेंटावेलेंट टीके) लगवाए जाएँ तो वे इस भयानक और जानलेवा रोग से सुरक्षित रह सकते हैं। विकसित देशों में इस रोग पर पूर्ण नियंत्रण केवल सघन टीकाकरण के द्वारा ही सम्भव हुआ।

नई टीकाकरण तालिका के अनुसार शिशुओं को 6 सप्ताह की उम्र से डी.पी.टी. या पेंटावेलेंट के टीकों की शुरुआत आवश्यक रूप से करवा देनी चाहिए। ये टीके डिफ्थीरिया के अलावा कुकुरखाँसी और टिटनेस जैसी खतरनाक बीमारियों से भी सुरक्षा प्रदान करते हैं।

6 सप्ताह में शिशु को डी.पी.टी. की प्रथम मात्रा (0.5 m.l.) दिलवाने के बाद उसे 4 सप्ताहों के अन्तर से दो मात्राएँ और दिलवाना चाहिए। इस तरह कुल 3 मात्राएँ देनी चाहिए। यदि किन्हीं कारणोंवश इन टीकों की शुरुआत में विलम्ब हो जाए तो इन्हें शिशु की 3 महीने की उम्र से शुरू किया जा सकता है। इसके पश्चात् डी.पी.टी. की वर्धक मात्रा डेढ़ से दो वर्ष की उम्र में दिलवानी चाहिए। फिर जब बच्चा स्कूल जाना शुरू करता है (5 वर्ष की आयु में) तब उसे केवल डी.टी. (डिफ्थीरिया और टिटनेस) की एक मात्रा दिलवाते हैं।

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