रोहिणी रोग के कारण ,लक्षण और इलाज | Diphtheria Treatment in Hindi

Last Updated on August 24, 2019 by admin

रोहिणी रोग (डिप्थीरिया) क्या है ? : Diphtheria in hindi

इस रोग के जीवाणु गले व नाक में एकत्रित हो जाते हैं तथा वहां पर एक विष उत्पन्न करते हैं, जो हृदय को हानि पहुंचाता है। वही विष शरीर में व्याप्त होकर रोग के शारीरिक लक्षण उत्पन्न कर देता है जिससे रोगी की मृत्यु तक हो सकती है।

आयुर्वेद मत –

वात, पित्त, कफ दोष पृथक्-पृथक् या संयुक्त होकर गले में संचित होकर वहां के मांस को दूषित कर देते हैं तथा गले को रोकने वाले मांसांकुरों को उत्पन्न करते हैं जिससे गला एवं श्वास का अवरुद्ध होता है। लक्षण युक्त व्याधि को आयुर्वेद के अनुसार रोहिणी (डिप्थीरिया) के नाम से सम्बोधित किया जाता है।

रोहिणी रोग (डिप्थीरिया) के लक्षण :

इस रोग के लक्षण साधारणत: अचानक प्रकट नहीं होते हैं।
• प्रारम्भिक अवस्था में हल्का सा दर्द एवं सूजन प्रतीत होती है।
• बालक की आवाज धीमी एवं भारी हो जाती है।
• नाक से खून एवं पीप बहने लगती है। जांच करने पर गले में एक प्रकार की सफेद झिल्ली दिखाई देती है।
• रोगी को प्रारम्भ में हल्का बुखार सदा ३९.५° सै० से नीचे रहता है।
• गले की लसीका ग्रन्थियां बढ़ जाती है।
• झिल्ली के द्वारा श्वास नली अवरुद्ध हो जाती है। अगर शीघ्र चिकित्सा नहीं की जाती है तो दम घुटने से रोगी की मृत्यु तक हो जाती है।
• इस रोग की यह विशेषता है कि इसके जीवाणुओं से निकले विष से रोगी ठीक होने के कई सप्ताह बाद भी लकवा, हृदय रोग, वृक्क रोग, न्यूमोनिया आदि से पीड़ित हो सकता है। अत: रोग ठीक हो जाने के बाद सावधानी की आवश्यकता है।

रोहिणी रोग (डिप्थीरिया) के प्राकर / भेद :

आयुर्वेद मतानुसार इसके निम्नलिखित पांच भेद होते हैं –

(१) वात कण्ठरोहिणी –
इस रोहिणी में तालू तथा कंठ में शोथ होता है तथा ठोढ़ी एवं श्रोत्र में वेदना होती है। जिह्वा के चारों ओर असीम वेदना (दर्द) पैदा होकर मांसांकुरों की उत्पत्ति हो जाती है जो कण्ठ को अवरुद्ध करते हैं।

(२) पित्तज कंठरोहिणी –
इसमें तीव्र ज्वर उत्पन्न होकर मांसांकुर बढ़ते हैं तथा और पाक होता है।
आचार्य वाग्भट्ट ने इस रोग के लक्षणों के बारे में लिखा है कि इसमें ज्वर, कंठशोथ, प्यास, मोह, कंठ से धुंआ जैसा निकलना, अंकुरों की शीघ्र उत्पत्ति होकर उसका पक जाना एवं उसका रंग लाल होना, स्पर्श असहनीय होना आदि प्रतीत होते हैं।

(३) कफज या श्लैष्मिक रोहिणी –
इस रोहिणी में भारी एवं स्थिर मांसांकुर उत्पन्न होते हैं एवं उसका पाक होता है। स्रोतों का अवरुद्ध होना इसमें पाया जाता है। आचार्य वाग्भट्ट ने इसको पिच्छिल और पाण्डु वर्ण माना है। इसमें कण्ठ का अवरोध होता है।

(४) त्रिदोषजन्य रोहिणी –
इस प्रकार की रोहिणी में वात, पित्त एवं कफ तीनों दोषों का विकृत होना पाया जाता है तथा उपर्युक्त सभी लक्षण इसमें पाये जाते हैं। यह पूर्णतया असाध्य मानी गई है।

(५) रक्तज रोहिणी –
इसमें कंठ में अनेक फुन्सियां उत्पन्न हो जाती हैं तथा अन्य उपर्युक्त लक्षण रोहिणी जैसे ही होते हैं। आचार्य वाग्भट्ट के अनुसार यह रोहिणी (डिप्थीरिया) तप्त अङ्गार के समान वर्ण वाली और कानों में पीड़ा करने वाली होती है।

साध्यसाध्यता :

☛ वैसे रोहिणी एक भयङ्कर संक्रामक व्याधि है तथा इसकी समय रहते अगर चिकित्सा नहीं की जाती है तो गला अवरुद्ध होकर बालक की दम घुटने से मृत्यु हो जाती है। अत: रोग का पता लगते ही शीघ्र इसकी चिकित्सा व्यवस्था करनी चाहिए।

☛ वातज, पित्तज एवं कफज रोहिणी (डिप्थीरिया) साध्य होती है जबकि त्रिदोषजन्य रोहिणी को असाध्य माना गया है।

☛ इसी प्रकार रक्तज रोहिणी भी असाध्य होती है। इसकी चिकित्सा से बचने या न बचने की दोनों सम्भावनाओं से इन्कार नहीं किया जा सकता है। फिर भी त्रिदोषज रक्त रोहिणी मृत्यु सूचक ही है।

रोहिणी रोग की अवस्था और तीव्रता का ज्ञान :

इस रोग के जीवाणु गले की नली में व्याप्त श्लैष्मिक झिल्ली पर आक्रमण करते हैं जिससे नली फूलकर लाल हो जाती है। परिणामस्वरूप इस झिल्ली के सैल्स नष्ट होकर स्राव जमाव से अस्वाभाविक झिल्ली का निर्माण हो जाता है। इस झिल्ली का रंग मलाईदार सफेद एवं चमकीला होता है, जिसे आसानी से निदान के समय पहचाना जा सकता है। यह झिल्ली श्वास नली, ग्रसनिका, स्वरयन्त्र आदि स्थानों पर विस्तृत हो जाती है। प्रारम्भ में उक्त झिल्ली कोमल दूध की मलाई के जैसी होती है जो कुछ समय पाकर दृढ़ होती जाती है तथा इसका रङ्ग भूरा हो जाता है।

रोग की तीव्रता एवं अधिक समय बाद इसका रङ्ग काला हो जाता है। योग्य चिकित्सक रोहिणी का निदान करने से पूर्व उनके लक्षणों के साथ-साथ व्यवहारिक पक्ष में इस झिल्ली को देखकर व्याप्ति की तीव्रता का ज्ञान प्राप्त करते हैं। झिल्ली का रंग एवं झिल्ली के आकार से भी रोग की जटिलता का ज्ञान प्राप्त किया जाता है। झिल्ली का आकार जितना बड़ा होगा एवं इसका रङ्ग ज्यों-ज्यों मटमैला दिखाई देने लग जाये तो रोहिणी उतनी ही असाध्य होती है।

जीवाणओं के द्वारा निर्मित बहिर्विष रक्त में मिलकर सर्वाधिक लक्षण पैदा करते हैं- इस विष का प्रभाव हृदपेशी पर पड़ता है जिसके परिणामस्वरूप वह क्षीण होने लगता है। हृपेशी की क्षीणावस्था के कारण हृदय बढ़ जाता है जिसके परिणास्वरूप हृदय गति बन्द होने की संभावना हर समय बनी रहती है। इसके अलावा इसका प्रभाव नाड़ी एवं वृक्क पर भी पड़ता है।

रोहिणी रोग में बरती जाने योग्य कुछ सावधानियाँ :

✧ रोगी द्वारा व्यवहार मे लाई गई वस्तुओं को रोगाणु रहित कर देनी चाहिये।
✧ रोगी को स्वस्थ बालकों से यथासंभव दूर रखना चाहिए।
✧ गले के लिये अस्वस्थकारी समस्त परिस्थितियों यथा अधिक गर्मी, हवा का कुप्रबन्ध, बुरी गैस, वायु का मकान में प्रवेश, नाली आदि की अस्वच्छता आदि का शीघ्र निराकरण करना चाहिए।
✧ रोगमुक्त हो जाने के बाद भी रोगी को १० दिनों तक अन्य स्वस्थ बालक से दूर रखना चाहिए।
✧ रोग के संक्रमण काल में कीटाणुनाशक घोल से कुल्ले करते रहें।

रोहिणी रोग (डिप्थीरिया) की आयुर्वेदिक चिकित्सा / इलाज :

आयुर्वेदिक चिकित्सा में निम्नलिखित औषधि की व्यवस्था तुरन्त करनी चाहिए-

✦ पहला प्रयोग –
• हरताल भस्म – 50 मि.ग्रा.
• शृङ्ग भस्म – 50 मि.ग्रा.
• अभ्रक भस्म (शतपुटी) – 50 मि.ग्रा.
• टङ्कण भस्म – 50 मि.ग्रा.
• त्रिभुवन कीर्ति रस ये – 50 मि.ग्रा.
• मल्ल चन्द्रोदय – 25 मि.ग्रा.
• प्रवाल पंचामृत – 25 मि.ग्रा.
एक मात्रा

उपर्युक्त सभी औषधियों को मिला एक मात्रा बना लें।
रोगी को यह मात्राएं व्याधि की तीव्रता को दृष्टिगत रखते हुए शहद के साथ बालक को चटा देवें।

✦ दूसरा प्रयोग –
अश्वकंचुकी रस १/२ गोली- एक मात्रा।

यह भी शहद के साथ चटा दें, जिससे दस्त लगकर कफ मल मार्ग से निकल जायेगा।

रोहिणी रोग (डिप्थीरिया) का सामान्य लाभकारी घरेलू उपाय :

१. बस्तिकर्म- प्रतिदिन सुबह एवं शाम को गर्म जल या नीबू रस से बस्ति देने से शरीर से विष शमन से सहायता मिलती है।

२. वाष्प स्वेद- वाष्प स्वेद देना भी इस रोग में बड़ा लाभकारी है तारपीन के तैल को गर्म पानी में मिलाकर नासिका द्वारा देने से भी कंठ में जो रुकावट आती है उसमें लाभ होता है।

३. उपवास- बच्चे को शक्ति बनाये रखने के लिए सन्तरे का रस देते रहें।

(दवा व नुस्खों को वैद्यकीय सलाहनुसार सेवन करें)

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