Last Updated on June 12, 2020 by admin
गर्भ धारण करने का सही तरीका :
उत्तम सन्तान प्राप्ति के लिए उत्तम श्रेणी के दोषरहित शुक्र (पुरुषबीज) और शोणित (स्त्रीबीज) की जरूरत होती है। उसके साथ नौ मास गर्भ गर्भाशय में रहने वाला है, तब गर्भाशय भी विकृति, दोषरहित हो, यह सब अच्छा होगा, तभी ‘सुप्रजा’ (उत्तम संतान) निर्माण होगी।
आयुर्वेद के ग्रंथों में यकायक गर्भधारण होने के बजाय तय करके, सारा चिन्तन करके बाद में गर्भधारण की योजना (planned pregnancy) करने को अधिक महत्व दिया गया है। पंचकर्म की शुद्धियों में से कम-से-कम वमन, विरेचन और बस्ति ये तीन कर्म तो गर्भधारण होने से पहले स्त्री और पुरुष दोनों को ही करने चाहिए।
इस कारण पुनरुत्पादन करने के लिए अनिवार्य होने वाले सब अंगों की शुद्धि होती है और उत्तम बीज निर्माण होता है। गर्भाशय आदि सब अंग दोषरहित होते हैं और बीज ग्रहण करने के लिए सक्षम होते हैं।
गर्भधारण कैसे करें ? :
माहवारी आने के बाद स्त्री चौथे दिन स्नान करे। स्त्री और पुरुष दोनों को साफ-सुथरे और सम्भव हो तो सफेद कपड़े पहनने चाहिए। उसके बाद प्रसन्न अंत:करण से वे एक-दूसरे के प्रति मन में प्रेम भावना रखते हुए समागम करें। समागम के समय दोनों का पेट बहुत भरा या खाली भी न हो।
गर्भधारण करते समय उत्तम गर्भ प्राप्त हो, इसलिए प्रार्थनापूर्वक आवाहन करने को कहा गया है। उसके विशेष मंत्र हैं, उनका उच्चारण करें। ब्रह्मा, बृहस्पति, विष्णु, चंद्र, सूर्य, वरुण इनके साथ ही भगवान के वैद्य धन्वंतरी इन सबकी इसमें प्रार्थना की जाती है –
“अहिरसि आयुरसि सर्वतः प्रतिष्ठाऽसि धाता त्वां
ददतु विधाता त्वा दधातु ब्रह्मवर्चसा भव
ब्रह्मा बृहस्पतिर्विष्णुः मित्रावरूणौ सोमः सूर्यस्तथाऽश्विनौ।
भगोऽथ भगोऽथ मित्रावरूणौ मित्रावरूणौ वीरं. ददतु दतु मे मे सुतम्।”
भावार्थ – हे मेरी कोख में आने वाले गर्भ, तू आयुष्यमान है, तुझे धाता, विधाता धारण करें। सारे देवताओं, आप हमें वीर सन्तान दें।’ इस प्रकार की यह प्रार्थना है।
पुराने जमाने में आठवें दिन पुत्रकामेष्टि यज्ञ किया जाता था। हवन के लिए मंत्रों से सिद्ध घी इस्तेमाल करते थे। विशेष प्रकार की खीर तैयार करके उसमें घी मिलाकर उसकी यज्ञ में आहुति दी जाती थी। बाकी बचा घी पति-पत्नी दोनों भी सेवन करते थे और आगे के बारह दिनों में सन्तान प्राप्ति के लिए समागम करें, ऐसा आदेश होता था।
गर्भधारण करने का सही समय :
माहवारी के दिन से आगे के चार दिन रज:स्राव शुरू रहने तक समागम निषिद्ध है। उसके आगे 12 से 14 दिनों तक का काल गर्भधारण के लिए अत्यन्त महत्वपूर्ण होता है, यह आज भी साबित हुआ है। माहवारी के पहले दिन से गिना जाए तो सामान्यत: चौदहवें, पंद्रहवें दिन स्त्रीबीज निर्माण (ovulation) होता है और आगे चौबीस घंटे जिंदा रहता है। उस दौरान शरीर सम्बन्ध हुआ तो गर्भधारण होता है, यह शास्त्रीय सच है। पुराने आचार्यों को यह मालूम था इसीलिए उसी काल में समागम होना, यह गर्भधारण के लिए जरूरी बात है, ऐसा उन्होंने कहा है। इतना ही नहीं, समान दिनों में समागम हुआ तो पुत्र सन्तान और विषम दिनों में समागम हुआ तो कन्या सन्तान होगी, ऐसा भी उन्होंने कहा है।
इस प्रकार दोषरहित शुक्र-शोणित का मिलन होने के बाद उसमें आत्मा का प्रवेश होता है और गर्भधारण होता है और गर्भ गर्भाशय में बढ़ने लगता है।
गर्भ की उत्पत्ति – एक जटिल प्रक्रिया : garbh dharan kaise hota hai in hindi
हमने देखा कि केवल स्त्रीबीज और पुरुषबीज का मिलन हुआ अर्थात गर्भधारण हुआ, यह अवधारणा आयुर्वेद को स्वीकार नहीं। जब तक शरीर, इन्द्रियां, मन और आत्मा ये सब एक नहीं होते, तब तक उसे जीवन की संज्ञा नहीं मिल सकती। फिर गर्भ की स्थापना होने के लिए ऐसे कौन-कौन से भाव होते हैं और गर्भ की स्थापना कैसे होती है? यह समझाते हए आचार्यों ने संहिता ग्रंथों में जो कहा है, आइए हम वह सरल भाषा में समझाते हैं।
गर्भ की उत्पत्ति के लिए जरूरी भाव :
- दोषरहित शुक्र – पितृज (पिता की तरफ से आने वाले) भाव।
- दोषरहित आर्तव (स्त्रीबीज) – योनि, गर्भाशय, मातुज (माता की तरफ से आने वाले) भाव।
- आत्मज – आत्मा और मन का संयुक्त प्रवेश होने पर आने वाले भाव।
- सत्वज – आत्मा और मन का संयुक्त प्रवेश होने पर आने वाले भाव।
- सात्म्यज – गर्भधारण होने के बाद माता जो शिशु के लिए हितकर होने वाला आहार लेती है, उससे निर्मित होने वाले भाव।
- रसज – गर्भ की वृद्धि के लिए जरूरी आहार का सेवन करने से शरीर में निर्माण होने वाले भाव।
इसमें समझ लेने वाली महत्वपूर्ण बात यह है कि ये सब छ: भाव उचित तरह, उचित समय पर संयुक्त होने से ही गर्भधारण हो सकता है, अन्यथा नहीं।
अगर केवल माता-पिता ही गर्भ का कारण माने गये तो सही नहीं, क्योंकि हर दंपती सन्तान प्राप्ति की कामना मन में रखकर समागम करते हैं, लेकिन सबको ही सन्तान का सुख प्राप्त नहीं होता। अगर वही दोनों कारण होते तो दुनिया में कोई भी दंपती सन्तानहीन नहीं रहती।
केवल आत्मा भी गर्भ की स्थापना का कारण नहीं बन सकती, क्योंकि आत्मा निर्विकार है। एक आत्मा से दूसरी आत्मा की स्थापना नहीं हो सकती। निराकार आत्मा से साकार अथवा रूपसंपन्न गर्भ की उत्पत्ति नहीं हो सकती।
केवल सात्म्यज आहार के सेवन से भी गर्भ की स्थापना सम्भव नहीं है। क्योंकि केवल हितकर, पोषक, सर्वसमावेशक, षड्स आहार सेवन करने वालों को ही सन्तान प्राप्ति हुई है, ऐसा नहीं दिखाई देता। हमेशा बासी खाना खाने वाले, पोषण के हिसाब से परिपूर्ण आहार न लेने वाली औरतों को भी सन्तान होती है, इसलिए यह भी सही नहीं।
गर्भ केवल रसज हो यह भी सम्भव नहीं। क्योंकि जग में ऐसा कोई भी नहीं, जिसके शरीर में रस धातु निर्माण नहीं होता। आहार में से विभिन्न तरह के रसों का सेवन स्वयं ही होता है, इसलिए जग में कोई नि:सन्तान नहीं रहेगा, लेकिन कम श्रेणी के अथवा उत्तम श्रेणी के रसों का सेवन करने वाले दोनों ही तरह के लोग सन्तानयुक्त अथवा सन्तानहीन दिखते हैं।
गर्भ की स्थापना के लिए केवल मन भी कारण नहीं हो सकता, क्योंकि मन का प्रवेश कोई परलोक से आकर नहीं होता। पूर्वजन्म की कोई स्मृति भी बलवान है, ऐसा देखने को नहीं मिलता। इसलिए ऊपर दिया हुआ कोई भी एक भाव गर्भ स्थापना का कारण नहीं हो सकता।
जब इन सब भावों का मतलब आत्मा, मन, स्त्री और पुरुष बीज, सात्म्य और रस इनका उचित काल में, उचित समय पर मिलन होता है, तब गर्भ की स्थापना होती है। इसलिए भाष्य करते हुए ग्रंथों में रथ की स्थापना का उदाहरण दिया गया है। रथ तैयार करना हो तो जिस तरह भिन्न-भिन्न प्रकार की कई चीजों को संकलित करना पड़ता है और उचित तरह से सभी हिस्से जोड़ने के बाद रथ तैयार होता है, उसी तरह गर्भ स्थापना की प्रक्रिया होती है।
जिस समय गर्भ की स्थापना होती है, उस समय उसके शरीर में छ: अंशों के अनुसार, भिन्न-भिन्न भावों की अथवा शरीर के अंशों की स्थापना होती है। यह आयुर्वेद का एक महत्वपूर्ण सिद्धांत है और इसे समझना बहुत जरूरी है, क्योंकि इसे समझे बिना आप बांझपन अथवा सन्तान न होने के कारणों को पूर्णत: और स्पष्ट तौर पर नहीं समझ सकते।