वेद और वैदिक आर्ष ग्रन्थों में गुरूत्वाकर्षण के नियम ( Law Of Gravitation )

Last Updated on January 26, 2017 by admin

वेद और वैदिक आर्ष ग्रन्थों में गुरूत्वाकर्षण के नियम को समझाने के लिये पर्याप्त सूत्र हैं । परन्तु जिनको न जानकर हमारे आजकल के युवा वर्ग केवल पाश्चात्य वैज्ञानिकों के पीछे ही श्रद्धाभाव रखते हैं । जबकि यह करोड़ों वर्ष पहले वेदों में सूक्ष्म ज्ञान के रूप में ईश्वर ने हमारे लिये पहले ही वर्णन कर दिया है । तो ऐसे लोग जिसको Newton’s Law Of Gravitation कहते फिरते हैं । वह वास्तव में Nature’s Law Of Gravitation होना चाहिये । तो लीजिये हम अनेकों प्रमाण देते हैं कि हमारे ऋषियों ने जो बात पहले ही वेदों से अपनी तपश्चर्या से जान ली थी उसके सामने ये Newton महाराज कितना ठहरते हैं ।

आधारशक्ति :- बृहत् जाबाल उपनिषद् में गुरूत्वाकर्षण सिद्धान्त को आधारशक्ति नाम से कहा गया है ।
इसके दो भाग किये गये हैं :-

(१) ऊर्ध्वशक्ति या ऊर्ध्वग :- ऊपर की ओर खिंचकर जाना । जैसे अग्नि का ऊपर की ओर जाना ।
(२) अधःशक्ति या निम्नग :- नीचे की ओर खिंचकर जाना । जैसे जल का नीचे की ओर जाना या पत्थर आदि का नीचे आना ।

आर्ष ग्रन्थों से प्रमाण देते हैं :-

(१) यह बृहत् उपनिषद् के सूत्र हैं :-
अग्नीषोमात्मकं जगत् ।( बृ० उप० २.४ )
आधारशक्त्यावधृतः कालाग्निरयम् ऊर्ध्वगः । तथैव निम्नगः सोमः । ( बृ० उप० २.८ )
अर्थात :- सारा संसार अग्नि और सोम का समन्वय है । अग्नि की ऊर्ध्वगति है और सोम की अधोःशक्ति । इन दोनो शक्तियों के आकर्षण से ही संसार रुका हुआ है ।

(२) १५० ई० पूर्व महर्षि पतञ्जली ने व्याकरण महाभाष्य में भी गुरूत्वाकर्षण के सिद्धान्त का उल्लेख करते हुए लिखा :-
लोष्ठः क्षिप्तो बाहुवेगं गत्वा नैव तिर्यक् गच्छति नोर्ध्वमारोहति ।
पृथिवीविकारः पृथिवीमेव गच्छति आन्तर्यतः । ( महाभाष्य :- स्थानेन्तरतमः, १/१/४९ सूत्र पर )
अर्थात् :- पृथिवी की आकर्षण शक्ति इस प्रकार की है कि यदि मिट्टी का ढेला ऊपर फेंका जाता है तो वह बहुवेग को पूरा करने पर, न टेढ़ा जाता है और न ऊपर चढ़ता है । वह पृथिवी का विकार है, इसलिये पृथिवी पर ही आ जाता है ।

(३) भास्कराचार्य द्वितीय पूर्व ने अपने सिद्धान्तशिरोमणि में यह कहा :-
आकृष्टिशक्तिश्चमहि तया यत्
खस्थं गुरूं स्वाभिमुखं स्वशक्त्या ।
आकृष्यते तत् पततीव भाति
समे समन्तात् क्व पतत्वियं खे ।। ( सिद्धान्त० भुवन० १६ )
अर्थात :- पृथिवी में आकर्षण शक्ति है जिसके कारण वह ऊपर की भारी वस्तु को अपनी ओर खींच लेती है । वह वस्तु पृथिवी पर गिरती हुई सी लगती है । पृथिवी स्वयं सूर्य आदि के आकर्षण से रुकी हुई है,अतः वह निराधार आकाश में स्थित है तथा अपने स्थान से हटती नहीं है और न गिरती है । वह अपनी कील पर घूमती है।

(४) वराहमिहिर ने अपने ग्रन्थ पञ्चसिद्धान्तिका में कहा :-
पंचभमहाभूतमयस्तारा गण पंजरे महीगोलः ।
खेयस्कान्तान्तःस्थो लोह इवावस्थितो वृत्तः ।। ( पंच०पृ०३१ )
अर्थात :- तारासमूहरूपी पंजर में गोल पृथिवी इसी प्रकार रुकी हुई है जैसे दो बड़े चुम्बकों के बीच में लोहा ।

(५) आचार्य श्रीपति ने अपने ग्रन्थ सिद्धान्तशेखर में कहा है :-
उष्णत्वमर्कशिखिनोः शिशिरत्वमिन्दौ,.. निर्हतुरेवमवनेःस्थितिरन्तरिक्षे ।। ( सिद्धान्त० १५/२१ )
नभस्ययस्कान्तमहामणीनां मध्ये स्थितो लोहगुणो यथास्ते ।
आधारशून्यो पि तथैव सर्वधारो धरित्र्या ध्रुवमेव गोलः ।। ( सिद्धान्त० १५/२२ )
अर्थात :- पृथिवी की अन्तरिक्ष में स्थिति उसी प्रकार स्वाभाविक है, जैसे सूर्य्य में गर्मी, चन्द्र में शीतलता और वायु में गतिशीलता । दो बड़े चुम्बकों के बीच में लोहे का गोला स्थिर रहता है, उसी प्रकार पृथिवी भी अपनी धुरी पर रुकी हुई है ।

(६) ऋषि पिप्पलाद ( लगभग ६००० वर्ष पूर्व ) ने प्रश्न उपनिषद् में कहा :-
पायूपस्थे – अपानम् । ( प्रश्न उप० ३.४ )
पृथिव्यां या देवता सैषा पुरुषस्यापानमवष्टभ्य० । ( प्रश्न उप० ३.८ )
तथा पृथिव्याम् अभिमानिनी या देवता … सैषा पुरुषस्य अपानवृत्तिम् आकृष्य…. अपकर्षेन अनुग्रहं कुर्वती वर्तते । अन्यथा हि शरीरं गुरुत्वात् पतेत् सावकाशे वा उद्गच्छेत् । ( शांकर भाष्य, प्रश्न० ३.८ )
अर्थात :- अपान वायु के द्वारा ही मल मूत्र नीचे आता है । पृथिवी अपने आकर्षण शक्ति के द्वारा ही मनुष्य को रोके हुए है, अन्यथा वह आकाश में उड़ जाता ।

(७) यह ऋग्वेद के मन्त्र हैं :-
यदा ते हर्य्यता हरी वावृधाते दिवेदिवे ।
आदित्ते विश्वा भुवनानि येमिरे ।। ( ऋ० अ० ६/ अ० १ / व० ६ / म० ३ )
अर्थात :- सब लोकों का सूर्य्य के साथ आकर्षण और सूर्य्य आदि लोकों का परमेश्वर के साथ आकर्षण है । इन्द्र जो वायु , इसमें ईश्वर के रचे आकर्षण, प्रकाश और बल आदि बड़े गुण हैं । उनसे सब लोकों का दिन दिन और क्षण क्षण के प्रति धारण, आकर्षण और प्रकाश होता है । इस हेतु से सब लोक अपनी अपनी कक्षा में चलते रहते हैं, इधर उधर विचल भी नहीं सकते ।
यदा सूर्य्यममुं दिवि शुक्रं ज्योतिरधारयः ।
आदित्ते विश्वा भुवनानी येमिरे ।।३।। ( ऋ० अ० ६/ अ० १ / व० ६ / म० ५ )

अर्थात :- हे परमेश्वर ! जब उन सूर्य्यादि लोकों को आपने रचा और आपके ही प्रकाश से प्रकाशित हो रहे हैं और आप अपने सामर्थ्य से उनका धारण कर रहे हैं , इसी कारण सूर्य्य और पृथिवी आदि लोकों और अपने स्वरूप को धारण कर रहे हैं । इन सूर्य्य आदि लोकों का सब लोकों के साथ आकर्षण से धारण होता है । इससे यह सिद्ध हुआ कि परमेश्वर सब लोकों का आकर्षण और धारण कर रहा है

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