जनेऊ : यज्ञोपवीत धारण विधि ,नियम और स्वास्थ्य लाभ | Yadnyopavit Dharan Vidhi Niyam aur Swastayan Labh

Last Updated on July 22, 2019 by admin

यज्ञोपवीत क्या है ? yadnyopavit in hindi

आपने देखा होगा कि बहुत से लोग बाएं कांधे से दाएं बाजू की ओर एक कच्चा धागा लपेटे रहते हैं। इस धागे को यज्ञोपवीत या जनेऊ कहते हैं। जनेऊ तीन धागों वाला एक सूत्र होता है। यह सूत से बना पवित्र धागा होता है, जिसे व्यक्ति बाएं कंधे के ऊपर तथा दाईं भुजा के नीचे पहनता है। अर्थात इसे गले में इस तरह डाला जाता है कि वह बाएं कंधे के ऊपर रहे।

जनेऊ धारण से स्वास्थ्य लाभ :

✦यज्ञोपवीत भारतीय संस्कृतिका मौलिक सूत्र है। इसका सम्बन्ध हमारे आध्यात्मिक, आधिदैविक तथा
आधिभौतिक जीवन से है।
✦यज्ञोपवीत अर्थात् जनेऊको ‘यज्ञसूत्र’ तथा ‘ब्रह्मसूत्र’ भी कहा जाता है। बायें कन्धेपर स्थित जनेऊ देवभावकी तथा दायें कन्धेपर स्थित पितृभावकी द्योतक है। मनुष्यत्वसे देवत्व प्राप्त करने हेतु यज्ञोपवीत सशक्त साधन है।
✦यज्ञोपवीतका हमारे स्वास्थ्यसे बहुत गहरा सम्बन्ध है। हृदय, आँतों तथा फेफड़ोंकी क्रियाओं पर इसका व्यापक प्रभाव पड़ता है।
✦लंदनके ‘क्वीन एलिजाबेथ चिल्ड्रेन हॉस्पिटल के भारतीय मूलके डॉ०एस०आर० सक्सेनाके अनुसार हिन्दुओं द्वारा मल-मूत्र त्याग के समय कान पर जनेऊ लपेटनेका वैज्ञानिक आधार है। ऐसा करने से आँतों की अपकर्षण गति बढ़ती है, जिससे क़ब्ज़ दूर होता है तथा मूत्राशयकी मांसपेशियों का संकोच वेग के साथ होता है।
✦कान के पास की नसें दाबने से बढ़े हुए रक्तचाप को नियन्त्रित तथा कष्ट से होने वाली श्वासक्रिया को सामान्य किया जा सकता है।
✦कान पर लपेटी गयी जनेऊ मल-मूत्र त्यागके बाद अशुद्ध हाथों को तुरंत साफ करने-हेतु प्रेरित करती है। यज्ञोपवीत धारण करने के बाद बार-बार हाथ-पैर तथा मुखकी सफाई करते रहनेसे बहुत से संक्रामक रोग नहीं होते।
✦योगशास्त्रों में स्मरणशक्ति तथा नेत्र-ज्योति बढ़ानेके लिये ‘कर्णपीडासन’ का बहुत महत्त्व है। इस आसन में घुटनों द्वारा कानपर दबाव डाला जाता है। कानपर कसकर जनेऊ लपेटनेसे ‘कर्णपीडासन’ के सभी लाभोंकी प्राप्ति होती है।
✦इटली में ‘बारी विश्वविद्यालय के न्यूरोसर्जन प्रो० एनारीका पिरांजेलीने यह सिद्ध किया है कि कान के मूल में चारों तरफ दबाव डालनेसे हृदय मजबूत होता है। पिरांजेलीने हिन्दुओं द्वारा कानपर लपेटी गयी जनेऊको हृदयरोगों से बचानेवाली ढालकी संज्ञा दी है।

जनेऊ (यज्ञोपवीत) में तीन सूत्र क्यों ?

जनेऊ में मुख्‍यरूप से तीन धागे होते हैं। प्रथम यह तीन सूत्र त्रिमूर्ति ब्रह्मा, विष्णु और महेश के प्रतीक होते हैं। द्वितीय यह तीन सूत्र देवऋण, पितृऋण और ऋषिऋण के प्रतीक होते हैं और तृतीय यह सत्व, रज और तम का प्रतीक है। चतुर्थ यह गायत्री मंत्र के तीन चरणों का प्रतीक है। पंचम यह तीन आश्रमों का प्रतीक है। संन्यास आश्रम में यज्ञोपवीत को उतार दिया जाता है।
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यज्ञोपवीत में नौ तार के कारण और महत्त्व : yagyopavit dharan karne ke niyam

यज्ञोपवीत के एक-एक तार में तीन-तीन तार होते हैं। इस तरह कुल तारों की संख्‍या नौ होती है। एक मुख, दो नासिका, दो आंख, दो कान, मल और मूत्र के दो द्वारा मिलाकर कुल नौ होते हैं। हम मुख से अच्छा बोले और खाएं, आंखों से अच्छा देंखे और कानों से अच्छा सुने।
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यज्ञोपवीत की पांच गांठ के कारण :

यज्ञोपवीत में पांच गांठ लगाई जाती है जो ब्रह्म, धर्म, अर्ध, काम और मोक्ष का प्रतीक है। यह पांच यज्ञों, पांच ज्ञानेद्रियों और पंच कर्मों का भी प्रतीक भी है।
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यज्ञोपवीत की लंबाई :

यज्ञोपवीत की लंबाई 96 अंगुल होती है। इसका अभिप्राय यह है कि जनेऊ धारण करने वाले को 64 कलाओं और 32 विद्याओं को सीखने का प्रयास करना चाहिए। चार वेद, चार उपवेद, छह अंग, छह दर्शन, तीन सूत्रग्रंथ, नौ अरण्यक मिलाकर कुल 32 विद्याएं होती है। 64 कलाओं में जैसे- वास्तु निर्माण, व्यंजन कला, चित्रकारी, साहित्य कला, दस्तकारी, भाषा, यंत्र निर्माण, सिलाई, कढ़ाई, बुनाई, दस्तकारी, आभूषण निर्माण, कृषि ज्ञान आदि।

यज्ञोपवीत धारण वस्त्र :

जनेऊ धारण करते वक्त बालक के हाथ में एक दंड होता है। वह बगैर सिला एक ही वस्त्र पहनता है। गले में पीले रंग का दुपट्टा होता है। मुंडन करके उसके शिखा रखी जाती है। पैर में खड़ाऊ होती है। मेखला और कोपीन पहनी जाती है।

मेखला, कोपीन, दंड :

मेखला और कोपीन संयुक्त रूप से दी जाती है। कमर में बांधने योग्य नाड़े जैसे सूत्र को मेखला कहते हैं। मेखला को मुंज और करधनी भी कहते हैं। कपड़े की सिली हुई सूत की डोरी, कलावे के लम्बे टुकड़े से मेखला बनती है। कोपीन लगभग 4 इंच चौड़ी डेढ़ फुट लम्बी लंगोटी होती है। इसे मेखला के साथ टांक कर भी रखा जा सकता है। दंड के लिए लाठी या ब्रह्म दंड जैसा रोल भी रखा जा सकता है। यज्ञोपवीत को पीले रंग में रंगकर रखा जाता है।

यज्ञोपवीत धारण के नियम : yagyopavit dharan karne ke niyam

बगैर सिले वस्त्र पहनकर, हाथ में एक दंड लेकर, कोपीन और पीला दुपट्टा पहनकर विधि-विधान से जनेऊ धारण की जाती है। जनेऊ धारण करने के लिए एक यज्ञ होता है, जिसमें जनेऊ धारण करने वाला लड़का अपने संपूर्ण परिवार के साथ भाग लेता है। यज्ञ द्वारा संस्कार किए गए विशिष्ट सूत्र को विशेष विधि से ग्रन्थित करके बनाया जाता है। तीन सूत्रों वाले इस यज्ञोपवीत को गुरु दीक्षा के बाद हमेशा धारण किया जाता है। अपवित्र होने पर यज्ञोपवीत बदल लिया जाता है।

गायत्री मंत्र :

यज्ञोपवीत गायत्री मंत्र से शुरू होता है। गायत्री- उपवीत का सम्मिलन ही द्विजत्व है। यज्ञोपवीत में तीन तार हैं, गायत्री में तीन चरण हैं। ‘तत्सवितुर्वरेण्यं’ प्रथम चरण, ‘भर्गोदेवस्य धीमहि’ द्वितीय चरण, ‘धियो यो न: प्रचोदयात्’ तृतीय चरण है। गायत्री महामंत्र की प्रतिमा- यज्ञोपवीत, जिसमें 9 शब्द, तीन चरण, सहित तीन व्याहृतियां समाहित हैं।
यज्ञोपवीत धारण करने का मन्त्र है-
यज्ञोपवीतं परमं पवित्रं प्रजापतेर्यत्सहजं पुरस्तात् ।
आयुष्यमग्रं प्रतिमुञ्च शुभ्रं यज्ञोपवीतं बलमस्तु तेजः।।

यज्ञोपवीत संस्कार की विधि : Yadnyopavit Dharan Vidhi

यज्ञोपवित संस्कार प्रारम्भ करने के पूर्व बालक का मुंडन करवाया जाता है। उपनयन संस्कार के मुहूर्त के दिन लड़के को स्नान करवाकर उसके सिर और शरीर पर चंदन केसर का लेप करते हैं और जनेऊ पहनाकर ब्रह्मचारी बनाते हैं। फिर होम करते हैं। फिर विधिपूर्वक गणेशादि देवताओं का पूजन, यज्ञवेदी एवं बालक को अधोवस्त्र के साथ माला पहनाकर बैठाया जाता है। फिर दस बार गायत्री मंत्र से अभिमंत्रित करके देवताओं के आह्‍वान के साथ उससे शास्त्र शिक्षा और व्रतों के पालन का वचन लिया जाता है।
फिर उसकी उम्र के बच्चों के साथ बैठाकर चूरमा खिलाते हैं फिर स्नान कराकर उस वक्त गुरु, पिता या बड़ा भाई गायत्री मंत्र सुनाकर कहता है कि आज से तू अब ब्राह्मण हुआ अर्थात ब्रह्म (सिर्फ ईश्वर को मानने वाला) को माने वाला हुआ।
इसके बाद मृगचर्म ओढ़कर मुंज (मेखला) का कंदोरा बांधते हैं और एक दंड हाथ में दे देते हैं। तत्पश्चात्‌ वह बालक उपस्थित लोगों से भीक्षा मांगता है। शाम को खाना खाने के पश्चात्‌ दंड को साथ कंधे पर रखकर घर से भागता है और कहता है कि मैं पढ़ने के लिए काशी जाता हूं। बाद में कुछ लोग शादी का लालच देकर पकड़ लाते हैं। तत्पश्चात वह लड़का ब्राह्मण मान लिया जाता है।

यज्ञोपवीत संस्कार का समय : yagyopavit sanskar ka samay

माघ से लेकर छ: मास उपनयन के लिए उपयुक्त हैं। प्रथम, चौथी, सातवीं, आठवीं, नवीं, तेरहवीं, चौदहवीं, पूर्णमासी एवं अमावस की तिथियां बहुधा छोड़ दी जाती हैं। सप्ताह में बुध, बृहस्पति एवं शुक्र सर्वोत्तम दिन हैं, रविवार मध्यम तथा सोमवार बहुत कम योग्य है। किन्तु मंगल एवं शनिवार निषिद्ध माने जाते हैं।

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