गृध्रसी (कटिस्नायुशूल) रोग का आयुर्वेदिक उपचार – Sciatica ka Ilaj in Hindi

Last Updated on September 16, 2020 by admin

गृध्रसी (कटिस्नायुशूल) रोग क्या है ? (What is Sciatica in Hindi)

gridhrasi (sciatica) kya hai in hindi –

गृध्रसी एक स्नायुगत रोग है जो बड़ा ही कष्टकारक होता है। इस रोग में दर्द नितम्ब से शुरू होकर कमर के पिछले भाग में होते हुए जांघ, पिण्डली से होता हुआ एड़ी तक जाता है। रोगी दर्द के कारण बैचेन हो जाता है। यह दर्द खासतौर पर चलने, उठने-बैठने में अधिक होता है। रोगी दर्द से लगातार कराहता रहता है। दर्द के कारण उसे रात में नींद भी नहीं आती है। यह रोग गृध्रसी नाड़ी (Sciatic Nerve) में क्षोभ होने से या शोथ होने से हो जाता है। गृध्रसी नाड़ी श्रोणि मंडल (स्फिक प्रदेश) से निकलती है और उसकी शाखाएं पैरों तक जाती है। अतः वेदना भी स्फिक् प्रदेश से प्रारंभ होकर जंघा और पैरों तक जाती है। गृधसी को गृध्रसी नाड़ी शोथ (Sciatic Neuritis) या साइटिका भी कहते हैं।

गृध्रसी (कटिस्नायुशूल) के कारण (Causes of Sciatica in Hindi)

gridhrasi (sciatica) kyu hota hai –

आयुर्वेद – आयुर्वेदानुसार गृध्रसी रोग वात विकार है। यह वात प्रकोपक कारणों जैसे – उपवास, ज्यादा व्यायाम, आलस्य, ठंडी हवा लगना, रात को जागना, चिंता, उत्तेजना, अत्यधिक सहवास, कठोर आसनों पर बैठना, कष्टकारक मुद्रा, वातवर्धक पदार्थों का अधिक प्रयोग करने से होता है।
इन वात प्रकोपक कारणों से प्रकुपित वात या वात कफ, स्फिक, पृष्ठ, कटि, उरू, जान, जंघा और पाद में शूल उत्पन्न करती है।

आधुनिक चिकित्सा – आधुनिक चिकित्सा विज्ञानानुसार इस रोग की उत्पत्ति ठंडी वायु का स्पर्श, सक्थि (जंघा) का मुड़ जाना, श्रोणिगत अर्बुद का दबाव एवं कशेरूकान्तीय चक्रिका (Inter Vertebral Disc) के फट जाने से होती है।
पीठ के बाह्य आघात एवं अत्यधिक भार उठाने से कशेरूकान्तीय चक्रिका फट जाती है। अधिकतर कटि प्रदेश की पांचवी कशेरूक (L5) एवं त्रिक प्रदेश की प्रथम कशेरूक के मध्य की डिस्क फटती है। कभी-कभी L5 तथा L4 केशुरूक और L3 व L4 कटिप्रदेश के मध्य की डिस्क की फटती है। इसके फटने से स्पाइनल नाड़ी पर दबाव पड़ता है क्योंकि पंचम कटि प्रदेशीय तथा प्रथम व द्वितीय त्रिक प्रदेशीय नाड़ियों के मिलने से साइटिका (Sciatica) नर्व का निर्माण होता है अतः इन नाड़ी मूलों पर दबाव पड़ने से साइटिका रोग होता है। यह साइटिक नर्व कमर के पीछे से शुरू होकर पैरों तक जाती है। इसलिए दर्द भी ऊपर से नीचे की ओर जाता है।

क्या है गृध्रसी (कटिस्नायुशूल) के लक्षण (Symptoms of Sciatica in Hindi)

gridhrasi (sciatica) ke lakshan bataen –

  • गृध्रसी रोग प्रायः एक ही ओर होता है किंतु कभी-कभी यह दोनों ओर भी हो सकता है।
  • इस रोग के होने से पैरों में जकड़न, पीड़ा, सुई चुभने जैसा दर्द और फड़कन होती है।
  • गृध्रसी रोग में दर्द कमर के पीछे से शुरू होकर उरू, जानु, जंघा और पैरों तक होता है। इन स्थानों में स्तब्धता और स्पन्दन भी होता है। सक्थि के पृष्ठ भाग में तोदयक्त (Lancinatina) पीड़ा इसका मुख्य लक्षण है।
  • वातज गृध्रसी रोग में सुई चुभने जैसी पीड़ा होती है।शरीर टेढ़ा हो जाता है। घुटने कमर तथा उरू की संधियों में फड़कन और जकड़न होती है।
  • वातकफज गृध्रसी में अग्निमांद्य होता है और उसमें तन्द्रा, मुख से लालास्राव तथा अरूचि आदि लक्षण होते हैं।
  • गृध्रसी का रोगी हाथ लगाकर बताता है कि वेदना कहां से कहां तक जाती है।
  • रोगी को पैर मोड़ते समय दर्द का अनुभव होता है।
  • यह पीड़ा खांसने, छींकने तथा रात्रि में सोते समय बढ़ जाती है।
  • चलते समय रोगी लंगड़ाकर चलता है और दूसरे पार्श्व की ओर झुक जाता है।
  • रोगी की परीक्षा करते समय उसे पीठ के बल लेटाकर पैरों को फैला देना चाहिए फिर रोगी को अपने पैरों को उठाकर सिर की तरफ मोड़ने पर गृध्रसी नाड़ी पर दबाव पड़ने से जोर से दर्द होता है।

इसी प्रकार इस रोग की पहचान की जाती है।

गृध्रसी (कटिस्नायुशूल) का आयुर्वेदिक इलाज (Sciatica Ayurvedic Treatment in Hindi)

gridhrasi (sciatica) ka ayurvedic ilaj in hindi –

रोगी को तख्त पर सोना चाहिए क्योंकि कठिन तथा सीधा बिस्तर ही रोगी के लिए ठीक रहता है। झुकी हुई चारपाई या मृदु बिस्तर पर नहीं सोना चाहिए।

1). एरण्ड – बालुका स्वेद करना चाहिए । वातज गृध्रसी में एरण्ड के बीज कुचलाकर पोटली से तथा वात कफज गृध्रसी में सेंधा नमक की पोटली से स्वेदन करना चाहिए।

2). मालिश – सैन्धवादि तेल या महाविषगर्भ तेल से मालिश (अभ्यंग) करना चाहिए। मालिश जोर से नहीं करना चाहिए क्योंकि इससे गृध्रसी नाड़ी पर दबाव पड़ता है।

3). सदाबहार – सदाबहार के 5 पत्ते व फूल प्रतिदिन प्रातः काल चबाकर खाने से गृध्रसी में आराम मिलता है।

4). हरड़ – रोगी को कब्ज नहीं होना चाहिए। हरड़ (हरीतकी) चूर्ण, एरण्ड तेल या एरण्ड पाक में से कोई एक योग देना चाहिए।

5). हरसिंगार – शेफालिका (हरसिंगार) पत्र क्वाथ सुबह-शाम पीना चाहिए। इसके लिए 8-10 पत्तों को दो गिलास पानी में उबालें जब पानी आधा रह जाए तो छानकर पीना चाहिए।

6). बस्ति कर्म – कटिबस्ति व अनुवासन बस्ति के अंतर्गत वातशामक तेलों का प्रयोग करना चाहिए।

7). लहसुन – लहसुनक्षीर का प्रयोग करना चाहिए। इसके लिए 25 ग्राम छिले लहसुन को 250ml दूध तथा एक लीटर पानी में डालकर पकाना चाहिए । जब मात्र दूध बचे तो इसे छानकर सुबह-शाम पीना चाहिए।

8). एरण्ड बीज – एरण्ड बीज को भिगोकर उसके छिलके उतार देना चाहिए। उसे पीसकर दूध में उबालना चाहिए । जब खोया बन जाए तो घी में भूनकर चीनी मिलाक खाना चाहिए।

9). निर्गुण्डी – निर्गुण्डी के पत्तों का काढ़ा 2-2 चम्मच दिन में तीन बार पीने से गृध्रसी में लाभ होता है। निर्गुन्डी पत्र डालकर उबलते पानी के वाष्प से स्वेदन (सेंक) से लाभ होता है।

10). अश्वगंधा – अश्वगंधा, सोंठ, पिप्पलीमूल तथा चोपचीनी बराबर लेकर महीन चूर्ण तैयार कर लें। इसे एक-एक चमच सुबह-शाम सुखोष्ण मीठे दूध के साथ देना चाहिए।

11). गुग्गुल – शुद्ध गुग्गुल 50 ग्राम, लहसुन 50 ग्राम लेकर घी की सहायता से घोंटकर 300 मिग्रा. की गोलियों बनाकर रखलें, एक से दो गोली रोज तीन बार हल्के गर्म पानी से देना चाहिए।

गृध्रसी रोग में प्रशिक्षित चिकित्सक से रक्त मोक्षण तथा अग्निकर्म कराना चाहिए ।

अग्नि कर्म – अग्नि कर्म करने के लिए सर्वप्रथम त्रिफला क्वाथ से स्थानिक प्रच्छालन किया जाता है तथा फिर गुल्फ संधि से 4 अंगुल ऊपर घेरा बनाते हुए तथा साइटिका नर्व के मूल भाग के ऊपर शलाका से दहन कर्म करना चाहिए ।
घृतकुमारी कल्क से लेप करके जलन समाप्त होने पर हरिद्राखण्ड छिड़ककर पट्टी बांध देनी चाहिए।

रक्त मोक्षण – रक्त मोक्षण करने के लिए जानु संधि के ऊपर अथवा चार अंगुली नीचे सिरावेध किया जाता है। उसके लिए एक पट्टी लेकर उरुमूल से लेकर जहां से रक्त मोक्षण करना हो। उसे कसकर दो अंगुल ऊपर गांठ बांध देनी चाहिए। तत्पश्चात् जो सिरा उभरी दिखाई दे उससे रक्तमोक्षण करना चाहिए।

गृध्रसी (कटिस्नायुशूल) की आयुर्वेदिक दवा (Sciatica Ayurvedic Medicine in Hindi)

gridhrasi (sciatica) ki dawa –

निम्नलिखित औषधियों का प्रयोग कुशल चिकित्सक के पर्रामर्शानुसार किया जाना चाहिए ।

बृहत वात चिंतामणि रस, महायोगराज गुग्गुल, त्रयोदशांग गुग्गुल, महावातविध्वसंक रस, समीरपन्नग रस, सिहंनाद गुग्गुलु, त्रयोदशांग गुग्गुलु, वातकुलान्तक रस, विष तिंदुक वटी, चंद्रप्रभावटी, त्रिफला गुग्गुल, महारास्नादि क्वाथ, एरण्ड स्नेह, रास्नासप्तक क्वाथ, अश्वगंधारिष्ट, दशमूलरिष्ट, भल्लातकावलेह, महानारायण तेल, विषगर्भ तेल, महामाष तेल, प्रसारिणी तेल अभ्यंग के लिए तथा शिलाजीत आदि का प्रयोग लाभकारी है।

गृध्रसी (कटिस्नायुशूल) में क्या खाएं क्या न खाएं :

पथ्य (खाना चाहिए) –

  • मधुर, अम्ल, लवणरस युक्त आहार, स्निग्ध उष्ण बलवीर्यवर्धक आहार, गाय का दूध, घी, शुद्ध एरण्ड बीज, केसर, लहसुन, हींग, मेथी, गेहूं, पुराना चावल, जीरा, परवल, सहजन, सरसों का तेल, तिल तेल, बादाम, किशमिश, आम, नारंगी, काले अंगूर, लहसुन क्षीरपाक ।
  • पूर्ण विश्राम गर्म जल से स्नान वेगों को न रोकना, तेल मालिश मानसिक प्रसन्नता, चिंता, शोक, क्रोध, भय नहीं करना, रात्रि में सोना और दिन में नहीं सोना।

अपथ्य (नहीं खाना चाहिए – परहेज) –

  • ठंडे, रूक्ष, बासी व बादीकारक पदार्थों का सेवन नहीं करना चाहिए ।
  • नया चावल, मटर, मसूर, चना, कटहल, सेम, बैंगन, आलू, आइस्क्रीम, कोल्ड ड्रिंक्स, भुना चना, मक्का का सेवन नहीं करना चाहिए।
  • अल्पमात्रा में भोजन, अत्यधिक तेल मसालेदार पदार्थ, नशीले पदार्थों का सेवन नहीं करना चाहिए। अत्यधिक मांसाहार व अतिमात्रा में भोजन नहीं करना चाहिए।
  • मलमूत्रादि के वेगों को रोकना नहीं चाहिए।
  • रात्रि जागरण व दिन में नहीं सोना चाहिए।
  • कुदना–फादना न करें ।
  • शीत स्थान में नहीं रहना चाहिए।

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