Last Updated on January 5, 2022 by admin
हृदय में धमनी संबंधी रोग के कारण उत्पन्न हृदय-शूल’ (एंजाइना) एक अत्यंत भयंकर बीमारी है । यह हृदय-शूल दिल की मांसपेशियों को रक्त पहुँचाने वाली धमनियों में उत्पन्न रक्त के प्रवाह में रुकावट के कारण होता है । इसका मुख्य कारण यह है कि हृदय की मांसपेशियों को रक्त पहुँचाने वाली धमनियों में वसा पदार्थ के जम जाने के कारण उनका आयतन सामान्य से कम हो जाता है । जैसे-जैसे यह वसा पदार्थ उसमें जमता रहता है वैसे-वैसे धमनियों का आयतन कम होता जाता है और जब यह बिल्कुल रुक जाता है तो दिल की मांसपेशियों को रक्त की आपूर्ति न हो सकने के कारण रोगी को दिल का दौरा या हार्ट अटैक हो जाता है ।
इस प्रकार से उत्पन्न धमनियों के अवरोध संबंधी रोग को सबसे पहले दवाओं द्वारा सुधारने की कोशिश की जाती है । जब रोग ज्यादा जटिल हो तथा दवाएँ काम न करें तो एंजीओप्लास्टी नामक विधि से अवरोधित धमनियों को एक यंत्र की सहायता से खोला जाता है ताकि उनमें रक्त का प्रवाह सुचारु रूप से हो सके । कई बार धमनियों में पाई जाने वाली यह रुकावट ज्यादा गंभीर अवस्था में होती है और हृदय की मुख्य धमनियों की रुकावट 70 प्रतिशत या इससे अधिक होती है तो दिल में बाईपास सर्जरी का सहारा लिया जाता है । इस बाइपास सर्जरी में छाती को खोल कर हृदय का ऑपरेशन किया जाता है, जिसमें दिल की धमनियों के अवरोधित भाग से पहले शरीर के अन्य भागों से रक्त वाहिनियों के हिस्से लगा दिए जाते हैं ।
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बाईपास सर्जरी किन रोगियों की नहीं की जा सकती ? :
बाईपास सर्जरी एक बड़ा ऑपरेशन है और इस ऑपरेशन को करने से पहले रोगी के शरीर की बहुत सी अन्य क्रियाओं का ध्यान रखना पड़ता है कि वे ठीक से काम कर रही हैं या नहीं । उदाहरण के तौर पर रोगी के गर्दे ठीक होने चाहिए, उसे मधुमेह (डायबिटीज) न हो और यदि हो तो नियंत्रण में हो। अगर शरीर की यह क्रियाएँ ठीक से काम न कर रही हों तो रोगी का शरीर बाईपास सर्जरी जैसे बड़े ऑपरेशन को झेल नहीं पाएगा । अतः यह सब जाँच आदि करने के पश्चात अंत में हम पाते हैं कि रोगियों का एक समूह ऐसा है जो बाईपास सर्जरी को झेल पाने के लिए उपयुक्त नहीं है । ऐसे रोगियों को ‘हाई रिस्क ग्रुप’ श्रेणी के अंतर्गत रखा जाता है । ‘हाई रिस्क ग्रुप’ श्रेणी के अंतर्गत निम्नलिखित रोगी आते हैं –
- वे रोगी जिनके हृदय की धमनियों में किसी खास हिस्से में अवरोध न होकर लगभग सारी धमनियों में अवरोध हो।
- जिन्हें मधुमेह रोग हो और नियंत्रण में न हो।
- वे रोगी जिन्हें गुर्दे की बीमारी (रीनल फेल्योर) हो ।
- वे रोगी जिनमें पहले ही कई बार बाईपास सर्जरी हो चुकी हो और कामयाब न हो सकी हो।
- मुख्य धमनियों में अवरोध होने के साथ-साथ अन्य छोटी-छोटी रक्त वाहिनियों में भी वसा के एकत्रित हो जाने से अवरोध पैदा हो जाना, जिसकी शल्य-क्रिया संभव न हो।
- हृदय के धमनी रोग का अत्यंत जटिल हो जाना, जहाँ कोई अन्य उपचार संभव न हो।
- किसी भी रोग के कारण हृदय की धड़कन द्वारा पंप होने वाले रक्त का अनुपात बहुत कम हो जाना अर्थात ‘इजैक्शन फ्रैक्शन’ का सामान्य से बहुत कम हो जाना ।
इन रोगियों में बाईपास सर्जरी नहीं की जा सकती क्योंकि इससे रोगी की मृत्यु तक हो सकती है ।
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हार्ट ब्लॉकेज के लिए लेटेस्ट ट्रीटमेंट है लेजर सर्जरी :
ऐसे रोगी जिनकी बाइपास सर्जरी नहीं की जा सकती है उनके लिए एक अन्य नई विधि का उपयोग किया जाता है जिसे ‘ट्रांसमायोकार्डियल रिवास्कुलाराइजेशन’ अथवा टी०एम०आर० कहा जाता है । इस विधि में हृदय की मांसपेशियों को रक्त पहुँचाने के लिए लेजर किरणों का सहारा लिया जाता है।
लेजर सर्जरी से पूर्व जांच :
जो हृदय-रोगी लेजर सर्जरी के ही उपयुक्त होते हैं, उनकी ऑपरेशन से पहले पूर्ण रूप से शारीरिक जाँच की जाती है तथा कुछ अन्य टेस्ट भी किए जाते हैं । इन टेस्टों में ‘इकोकार्डियोग्राफी’ मुख्य है । इकोकार्डियोग्राफी में हृदय पर ध्वनि की सूक्ष्म तरंगें एक मशीन के माध्यम से डाली जाती हैं तथा उसकी गूंज का विश्लेषण उसी मशीन द्वारा एक कंप्यूटर के परदे पर किया जाता है । इससे रोगी के हृदय का आकार, हृदय के वाल्वों का आकार व कार्यप्रणाली कोई दुष्क्रिया या हृदय के काम में ढीलापन आदि जाँचा जाता है । वैंट्रीकुलर इजैक्शन फ्रक्शन का पता भी इकोकार्डियोग्राफी से ही चलता है ।
इकोकार्डियोग्राफी के अतिरिक्त अन्य टेस्टों में कार्डियक कैथीटाइजेशन, थेलीयम द्वारा हृदय का विश्लेषण आदि मुख्य हैं । इन टेस्टों का मुख्य उद्देश्य टी० एम०आर० से पहले हृदय व उसकी कार्यक्षमता के बारे में ज्यादा से ज्यादा जान सकना है।
उपचार से पूर्व की तैयारियां :
टी० एम०आर० ऑपरेशन से पूर्व रोगी को कम से कम एक दिन पहले अस्पताल में दाखिल किया जाता है । यहाँ उसे अनस्थैटिस्ट (बेहोशी की दवा इत्यादि देने वाला डॉक्टर) आकर चैक करता है, यह देखने के लिए कि रोगी एनेस्थीसिया के लिए फिट है अथवा नहीं । उसके छाती के बाल साफ कर दिए जाते हैं । हल्का भोजन दिया जाता है और रात बारह बजे के बाद कुछ भी न खाने-पीने की हिदायत दी जाती है ।
मरीज अच्छी नींद ले सके तथा ऑपरेशन से पूर्व का तनाव समाप्त हो सके, इसके लिए हल्की नींद की गोली भी दी जाती अगले दिन रोगी को ऑपरेशन थियेटर ले जाया जाता है ।
कैसे करते है लेजर सर्जरी द्वारा हार्ट ब्लॉकेज का उपचार ? :
ऑपरेशन थियेटर में एनेस्थीसिया का डॉक्टर रोगी को एनेस्थीसिया देता है तत्पश्चात सर्जन रोगी की छाती की (बाईं ओर की) हड्डी को काट कर हृदय तक पहुँचता है । उसके बाद हृदय के ऊपर की झिल्ली को काट कर हृदय की मांसपेशियों तक पहुँचा जाता है । अब हदय की मांसपेशियों के उस भाग का चुनाव किया जाता है जहाँ लेजर किरणों द्वारा उसकी चिकित्सा करनी है ।
लेजर किरणें देने से पहले सुरक्षित व नुकसान-रहित किरणों को हृदय की उन चुनी हुई मांसपेशियों के हिस्से पर डाला जाता है, जहाँ लेजर किरणें डालनी हैं । ऐसा करने का उद्देश्य यह है कि इससे हमें सही निशाने का पता चल जाता है और हम जान जाते हैं कि जब लेजर किरणें इन मांसपेशियों पर डाली जाएगी तो वे किस प्रकार चलेंगी, कौन सा पथ धारण करेंगी और कहाँ तक जाएँगी ।
इसके पश्चात शल्य-चिकित्सक लेजर किरणों को हृदय की उन पूर्व निर्धारित मांसपेशियों पर डालता है । लेजर किरणें ‘हार्ट-लेजर’ नामक मशीन द्वारा हृदय की मांसपेशियों पर डाली जाती हैं । इस मशीन को चलाने का बटन पैर से दबाना पड़ता है । इस मशीन के साथ एक कंप्यूटर तथा उसका पर्दा लगा होता है जो लेजर किरणों के हृदय की मांसपेशियों पर पड़ते ही यह दर्शाता है कि लेजर किरणों की ऊर्जा ठीक स्थान पर पहुंची है या नहीं । लेजर किरणों के एक बार हृदय की मांसपेशियों पर पहुँचते ही मशीन का बटन अपने आप ऑफ हो जाता है और जब तक सर्जन दुबारा उसे न दबाए वह ऑफ ही रहता है।
हृदय लेजर मशीन की पावर 1000 वॉट होती है और इससे लेजर किरणें हृदय की मांसपेशियों पर डालने से उसमें सूक्ष्म छिद्र बन जाते हैं । हृदय लेजर मशीन में कार्बन डाइऑक्साइड लेजर उपयोग में लाया जाता है । यह कार्बन डाइऑक्साइड लेजर हृदय की मांसपेशियों के लिए बहुत उपयोगी सिद्ध हुआ है क्योंकि जब लेजर ऊर्जा दिल की मांसपेशियों में से पथ बनाती हुई गुजरती है और अंत में दिल के चैंबर में पहुँचती है तो वहाँ उपस्थित रक्त इसे सोख लेता है । अगर रक्त इसे न सोखता तो इस ऊर्जा के कारण हृदय के आंतरिक भाग को बहुत नुकसान पहुँच सकता था।
हृदय की मांसपेशियों में हार्ट-लेजर मशीन’ द्वारा बनाए गए छिद्र प्रायः एक मिलीमीटर लंबा होता है । यह छिद्र 50 मिली सेकंड (0.05 सेकंड) या इससे कम समय में बनाया जाता है । इस बात को ध्यान में रखते हुए कि हृदय के चैंबर (वैट्रीकल) में से रक्त दिल की उन मांसपेशियों में, जिनमें रक्त की आपूर्ति कम हो रही है, इन्हीं छिद्रों द्वारा पूरी तरह पहुँच सके, लगभग 20 से 30 छिद्र लेजर ऊर्जा द्वारा बनाए जाते हैं ।
इन छिद्रों का बाहरी सुराख अपने आप बंद हो जाता है परंतु अंदर का सुराख तथा छिद्रों का आयतन बरकरार रहता है । इसका कारण यह है कि हृदय के चैंबर (वैट्रीकल) में एक दबाव हमेशा बना रहता है जो अंदर के सुराख तथा छिद्रों को खुला रखने में सहायक है।अनेक अध्ययनों से यह ज्ञात हुआ है कि इस प्रकार से दी जाने वाली लेजर ऊर्जा हृदय की मांसपेशियों में केवल लेजर किरणों के डाले जाने वाली जगह पर ही छिद्र बनाती हैं । छिद्र के आसपास की अन्य मांसपेशियों तथा अंगों पर इन लेजर किरणों का कोई बुरा असर नहीं पड़ता ।
इस प्रकार से बनाए गए छिद्र छह या इससे अधिक वर्षों तक के लिए उपयोगी सिद्ध होते रहे हैं । इन छिद्रों द्वारा हृदय की मांसपेशियों में पहले की स्थिति के मुकाबले 35 प्रतिशत या इससे अधिक रक्त का प्रवाह शुरू हो जाता है । इस प्रकार हृदय की मांसपेशियों का वह भाग जहाँ पहले रक्त पर्याप्त मात्रा में नहीं पहुँच पाता था, अब पर्याप्त रक्त की आपूर्ति पाता है ।
लेजर सर्जरी के लाभ :
चिकित्सा-शास्त्र की इस पद्धति से अनेकानेक रोगी लाभान्वित हुए हैं । हृदय-शूल (एंजाइना) जो हृदय-रोगियों के लिए बड़ा कष्टदायक होता है, लेजर सर्जरी के बाद बहुत कम रोगियों में पाया गया। कुछ केसों में तो यह भी देखा गया कि जो रोगी गंभीर रूप से हृदय-शूल से पीड़ित थे और जिनके हृदय की मांसपेशियों में खून की आपूर्ति बहुत ही कम मात्रा में हो रही थी और वे छाती के दर्द के कारण एक कदम भी नहीं चल पा रहे थे, जब उनकी लेजर सर्जरी की गई तो पाया गया कि इसके पश्चात वे पूरे अस्पताल का चक्कर लगा सकते थे और उनके अपने कहे मुताबिक वे पूरी तरह से लक्षणों से मुक्त थे ।
कुछ चिकित्सा-शास्त्रियों का विचार है कि हृदय के धमनी संबंधी रोग में लेजर सर्जरी शायद अंतिम पड़ाव हो क्योंकि जो रोगी इसके पश्चात भी ठीक न हो सकें उनके लिए केवल हृदय का प्रत्यारोपण करना ही शेष रह जाता है ।