Last Updated on July 22, 2019 by admin
मां सरस्वती विद्या, संगीत और बुद्धि की देवी मानी गई हैं। देवीपुराण में सरस्वती को सावित्री, गायत्री, सती, लक्ष्मी और अंबिका नाम से संबोधित किया गया है। प्राचीन ग्रंथों में इन्हें वाग्देवी, वाणी, शारदा, भारती, वीणापाणि, विद्याधरी, सर्वमंगला आदि नामों से अलंकृत किया गया है। यह संपूर्ण संशयों का उच्छेद करने वाली तथा बोधस्वरूपिणी हैं। इनकी उपासना से सब प्रकार की सिद्धियां प्राप्त होती हैं। ये संगीतशास्त्र की भी अधिष्ठात्री देवी हैं। ताल, स्वर, लय, राग-रागिनी आदि का प्रादुर्भाव भी इन्हीं से हुआ है। सात प्रकार के स्वरों द्वारा इनका स्मरण किया जाता है, इसलिए ये स्वरात्मिका कहलाती हैं। सप्तविध स्वरों का ज्ञान प्रदान करने के कारण ही इनका नाम सरस्वती है। वीणावादिनी सरस्वती संगीतमय आह्लादित जीवन जीने की प्रेरणावस्था है। वीणावादन शरीर यंत्र को एकदम स्थैर्य प्रदान करता है। इसमें शरीर का अंग-अंग परस्पर गुंथकर समाधि अवस्था को प्राप्त हो जाता है।
साम-संगीत के सारे विधि-विधान एकमात्र वीणा में सन्निहित हैं। मार्कण्डेयपुराण में कहा गया है कि नागराज अश्वतारा और उसके भाई काम्बाल ने सरस्वती से संगीत की शिक्षा प्राप्त की थी। वाक् (वाणी) सत्त्वगुणी सरस्वती के रूप में प्रस्फुटित हुआ।
सरस्वती के सभी अंग श्वेताभ हैं, जिसका तात्पर्य यह है कि सरस्वती सत्त्वगुणी प्रतिभा स्वरूपा हैं। इसी गुण की उपलब्धि जीवन का अभीष्ट है। कमल गतिशीलता का प्रतीक है। यह निरपेक्ष जीवन जीने की प्रेरणा देता है। हाथ में पुस्तक सभी कुछ जान लेने, सभी कुछ समझ लेने की सीख देती है।
देवी भागवत् के अनुसार, सरस्वती को ब्रह्मा, विष्णु, महेश द्वारा पूजा जाता है। जो सरस्वती की आराधना करता है, उसमें उनके वाहन हंस के नीर-क्षीर-विवेक गुण अपने आप ही आ जाते हैं। माघ माह में शुक्ल पक्ष की पंचमी को बसंत पंचमी पर्व मनाया जाता है, तब संपूर्ण विधि-विधान से मां सरस्वती का पूजन करने का विधान है। लेखक, कवि, संगीतकार सभी सरस्वती की प्रथम वंदना करते हैं। उनका विश्वास है कि इससे उनके भीतर रचना की ऊर्जा शक्ति उत्पन्न होती है। इसके अलावा मां सरस्वती देवी की पूजा से रोग, शोक, चिंताएं और मन का संचित विकार भी दूर होता है। इस प्रकार वीणाधारिणी, वीणावादिनी मां सरस्वती की पूजा-आराधना में मानव कल्याण का समग्र जीवनदर्शन निहित है। सतत् अध्ययन ही सरस्वती की सच्ची आराधना है। याज्ञवल्क्य वाणी स्तोत्र, वसिष्ठ स्तोत्र आदि में सरस्वती की पूजा उपासना का विस्तृत वर्णन है।
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एक समय ब्रह्माजी ने सरस्वती से कहा-“तुम किसी योग्य पुरुष के मुख में कवित्वशक्ति होकर निवास करो।’ उनकी आज्ञानुसार सरस्वती योग्य पात्र की तलाश में निकल पड़ी। पीड़ा से तड़प रहे एक पक्षी को देखकर जब महर्षि वाल्मीकि ने द्रवीभूत होकर यह श्लोक कहा
मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः।
यत् कौञ्चमिथुनादेकमवधीः काममोहितम् ॥
वाल्मीकि की असाधारण योग्यता और प्रतिभा का परिचय पाकर सरस्वती ने उन्हीं के मुख में सर्वप्रथम प्रवेश किया। सरस्वती के कृपापात्र होकर महर्षि वाल्मीकि ही ‘आदिकवि’ के नाम से संसार में विख्यात हुए।
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रामायण के एक प्रसंग के अनुसार जब कुंभकर्ण की तपस्या से संतुष्ट होकर ब्रह्मा उसे वरदान देने पहुंचे, तो उन्होंने सोचा कि यह दुष्ट कुछ भी न करे, केवल बैठकर भोजन ही करे, तो यह संसार उजड़ जाएगा। अतः उन्होंने सरस्वती को बुलाया और कहा कि इसकी बुद्धि को भ्रमित कर दो। सरस्वती ने कुंभकर्ण की बुद्धि विकृत कर दी। परिणाम यह हुआ कि वह छह माह की नींद मांग बैठा। इस प्रकार कुंभकर्ण में सरस्वती का प्रवेश उसकी मृत्यु का कारण बना।
मार्कण्डेय पुराण में एक कथा का उल्लेख मिलता है, जिसके अनुसार एक बार महर्षि जैमिनी विंध्य के जंगलों से गुजर रहे थे। वहां उन्होंने देखा कि कुछ पक्षी वेदपाठ कर रहे हैं। उनका उच्चारण शुद्ध और व्याकरण सम्मत था। शायद वे शापग्रस्त पक्षी थे, परंतु देवी सरस्वती की कृपा से वे वेदपाठ कर रहे थे।