Last Updated on August 17, 2019 by admin
महात्मा लिखित का शिक्षाप्रद प्रेरक प्रसंग :
ऋषि ‘लिखित’ अपने बड़े भाई के आश्रम की ओर चल पड़े। दीर्घकाल तक एक स्थान पर साधना करते-करते एक दिन उन्हें भाई के पास जाने की इच्छा हो आई थी । उनका उद्देश्य भाई के पास जाकर उनके आश्रम में विश्राम करने का नहीं था । उनके अग्रज आयु में ही बड़े नहीं थे, तप और ज्ञान में भी श्रेष्ठ थे। उन्हीं के निर्देशन के अनुसार ‘लिखित अपनी साधना चला रहे थे । समय-समय पर यह भाई के पास जाकर प्रेरणा तथा मार्गदर्शन प्राप्त किया करते थे।
नदी के किनारे भाई के सुन्दर आश्रम में लिखित ऋषि पहुँचे । भाई को प्रणाम किया । भाई ने आशीर्वाद दिया- स्नेह से पास बिठाकर कुशल क्षेम तथा साधना की प्रगति पूछी । फिर स्नेहसिक्त स्वर में कुछ दिनों आश्रम में ही रुकने का आग्रह किया । लिखित को विशेष प्रसन्नता हुई । भाई के सान्निध्य में उन्हें बड़ा सुख मिलता था । साधना के निर्देशों के साथ उन्हें बहुधा जाने की आज्ञा भी तुरन्त मिल जाया करती थी। मार्गदर्शक भाई के आदेश का पालन वह परम कर्त्तव्य मानते थे । अस्तु, कभी अपनी रुकने की इच्छा भी व्यक्त नहीं किया करते थे । आज जब भाई द्वारा स्वयं कुछ दिन रुकने का आग्रह किया गया तो उन्हें मुंह-माँगा वरदान ही मिल गया ।
दोनों भाई स्वर्गीय सुख का अनुभव करते हुए एक साथ रह रहे थे । साधना, उपासना, स्वाध्याय, सत्संग आश्रम व्यवस्था आदि के व्यस्त कार्यक्रम के बीच समय बीतता प्रतीत ही नहीं होता था । एक दिन लिखित ऋषि आश्रम के उपवन में टहल रहे थे। भाई के श्रमपोषित वृक्षों को देखकर आह्लादित हो रहे थे । अचानक उन्हें भूख का अनुभव हुआ । भाई की खोज में दृष्टि दौड़ाई किन्तु वह दीखे नहीं । अस्तु उन्होंने फल तोड़कर खा लिये । थोड़ी देर बाद ही भाई के आने पर उन्होंने भूख लगने तथा फल खाकर उसे शान्त करने की बात सामान्य ढंग से कह दो । भाई ने सुना तो गम्भीर हो गये, बोले ‘अनुज ! मेरे तुम्हारे में कोई भेद नहीं है । किन्तु बिना पूर्व अनुमति के इस प्रकार फल खा लेना तुम्हारी अस्तेय साधना के विपरीत है । तुम्हारी साधना में विघ्न आ गया ।”
‘लिखित’ ऋषि स्तब्ध रह गये । भाई का तर्क सुनकर नहीं, ‘अपनी विचारहीनता को स्मरण करके।” इतनी सामान्य बात पहले ही मस्तिष्क में क्यों नहीं आई ? किन्तु अब तो भूल हो ही चुकी थो । साधना में खण्डन ऋषि के लिये यह कल्पना ही कष्टकर थी। भाई से भूल के परिहार हेतु अनुशासन माँगा । सन्तुलित उत्तर मिला “तुम्हें नियमानुसार अपराधी की भाँति राजदण्ड मिलना चाहिए।’ लिखित ऋषि का चित्त हलका हुआ । दोष-परिहार का विधान सामर्थ्य के बाहर नहीं था । जहाँ दोषों को स्वीकार न करने तथा उसकी प्रतिक्रिया से बचने का प्रयास करने की वृत्ति पनपने लगती है, वहाँ प्रगति रुक जाती है । यह सत्य वह भली-भाँति जानते थे ।
अस्तु किंचित मात्र भी विलम्ब किये बिना उन्होंने भूलवश हुए अपराध के दोष निवारणका प्रयास किया । वे राजदरबार में अपराध का दण्ड पाने के लिये पहुँचे ।दरबार में ऋषि के अचानक पहुंचते ही सभासद् आसन छोड़कर खड़े हो गये । महाराज ने आगे बढ़कर प्रणाम किया तथा स्वागत सत्कार करके कुशल पूछी । फिर नम्रतापूर्वक इस प्रकार अप्रत्याशित रूप से पहुँचने का कारण पूछा । ऋषि द्वारा कारण बतलाये जाने पर राजा तथा सभासद चौंक पड़े । ऋषि को दण्ड ? वह भी चोरी का । राजा ने कहा- “महात्मन परस्परं स्नेह से रहने वाले भाइयों में एक-दूसरे की वस्तुओं का उपभोग किया जाना स्वाभाविक है । बिना पूछे फल तोड़कर खा लेना चोरी नहीं है जिसके कारण दण्ड दिया जावे ।’
ऋषि की भ्रकुटी तन गई । भावभंगिमा में परिवर्तन देख राजा सहम गये- कुछ समझ न सकने के कारण मौन खड़े रहे । ऋषि की गम्भीर वाणी निकली “राजन ! अनधिकार चेष्टा मत करो । सीमा से बाहर निर्णय लेने का प्रयास अहितकर होता है ।” सारा दरबार स्तब्ध था । राजा ने पुनः प्रश्नवाचक दृष्टि से ऋषि की ओर देखा यह समझ न सके थे उनसे कहा सीमा का उल्लंघन हो गया । ऋषि उनकी दृष्टि समझ गये । स्वर में थोड़ा स्नेह प्रकट करते हुए कहा- “राजन् ! वर्णाश्रम व्यवस्था भूल गये? किस कार्य को उचित किसको अनुचित कहा जाये यह निर्णय ऋषि-ब्राह्मण किया करते हैं । राजा का कार्य तो अनुचित घोषित किये जाने वाले कार्यों का वर्गीकरण करके उन पर दण्ड विधान बनाना है । मेरी साधना के स्तर के अनुसार मेरा कार्य चोरी घोषित किया जा चुका है। अब आप उसमें अपना निर्णय लगाने का प्रयास न करें । चोरी के अपराधी को क्या दण्ड दिया जाये यह निर्णय करना आपको उचित है ।”
राजा एवं सभासदों ने ऋषि का उद्बोधन सुना और उनके कहे का औचित्य स्वीकार किया ।परंतु राजा अभी भी सहमे हए खडे थे । उनके दण्ड विधान में चोर के हाथ काटे जाने की व्यवस्था थी। यह दण्ड ऋषि को कैसे दें । ऋषि लिखित ने राजा की दुविधा समझी तथा पुनः बोले- “कर्त्तव्य पालन में सामने वाले के प्रति मोह नहीं करना चाहिए । राजा ही दण्ड देने में लड़खड़ायेगा तो राज्य व्यवस्था कैसे चलेगी?” राजा ने समझा ऋषि प्रश्न नहीं कर रहे, आदेश दे रहे हैं और उन्होंने उनके हाथ काटे जाने की आज्ञा दे दी ।
ऋषियों तथा शासकों का यह सन्तुलित सम्बन्ध जहाँ विचारक तथा सत्ताधारी एक-दूसरे के पूरक बनकर कार्य करते हों- किसी समाज के लिये आदर्श व्यवस्था कही जा सकती है । जब तक शक्ति को विचार का प्रकाशदर्शन, व्यवस्था को चिन्तन का मार्गदर्शन मिलता रहा मानव दिनों-दिन प्रगति करता रहा तो कोई आश्चर्य की बात नहीं ।
कटे हाथ लिये लिखित ऋषि प्रसन्नचित्त भाई के पास पहुंचे। हाथों के अग्रभाग न रहने से क्या-क्या कठिनाइयाँ खड़ी हो जावेंगी इसकी उन्हें चिन्ता नहीं थी । बिना हाथों के अनेक प्राणी अपना कार्य किसी प्रकार चला लेते हैं और जीवित रहते हैं तो बुद्धि सम्पन्न मनुष्य भी वैसा कर सकता है । बड़े भाई ने उनके दण्ड पाने का विवरण सुना और उन्हें हृदय से लगा लिया । कहा- “तुमने ऋषि परम्परा को सुशोभित किया है । अविचलित भाव से दण्ड स्वीकार करना तथा शासन को कर्तव्य बोध कराना, दोनों ही कार्य अभिवन्दनीय हैं । तुम्हारे इस कार्य से हम प्रसन्न हैं- इच्छित वर माँग लो।
सामने तपोपज समर्थ भाई खडे थे तथा कटे हए हाथों को लिए लिखित ऋषि । हाथों की पीड़ा की ओर उनका ध्यान नहीं था । भाई के अनुग्रह से उनकी आँखें चमक उठीं । बोले– “बन्धु श्रेष्ठ आप प्रसन्न हैं यह जानकर मैंने सब कुछ पा लिया । किन्तु आपने स्वयं कहा है तो मन की बात बाहर न लाना उपयुक्त न होगा।” भाई ने अर्थ भरी दृष्टि से उनकी ओर देखा कहने की अनुमति दी । तब लिखित बोले- “मेरे अन्त:करण में फल खाने के पूर्व इतनी सामान्य बात न जगी इसका मुझे दुःख है । ऐसा प्रयास करें कि मेरी सहज प्रज्ञा जाग्रत हो ।’ भाई हंस पड़े, बोले- बन्धु उसके तो तुम सहज अधिकारी हो । तुम्हारी साधना से ही तुम्हें वह प्राप्त हो चुकी है । वह तो मैंने तुम्हारी निष्ठा की परीक्षा के लिये उस समय फल खाने के भाव पैदा किये थे । तुम्हारी भावना तो पवित्र है।
आज का भाई हो तो न जाने क्या अनर्थ खड़ा हो जाता । ऐसी भी क्या परीक्षा, मेरे हाथ कटवा दिये अब किसके सहारे बैठू ? किन्तु ऋषि लिखित सब सुनकर भाई के पैरों पर गिर पड़े। बोले- “भातृ श्रेष्ठ आपकी कृपा का मैं कहाँ तक आभार मानूं मेरे लिये आपने सदैव कष्ट सहे । मेरे निर्माण में अपना अमूल्य तपोबल नष्ट करने की क्या आवश्यकता थी ?”
भाई ने उन्हें आश्वस्त किया । कहा- “मार्गदर्शक को अपना कर्तव्य निभाना पड़ता है। तुम परीक्षाओं में उत्तीर्ण हुए । तुम्हारी साधना सफल है । अब तुम अपने सिद्धान्त का प्रसार संसार में सहर्ष कर सकते हो, अनुभूत तथा परिपुष्ट ज्ञान ही संसार को प्रभावित कर सकता है । आचरणहीन व्यक्ति का सिद्धान्त थोथा सिद्ध होता है । तुम्हारे द्वारा मानव कल्याण का महत्त्वपूर्ण कार्य पूरा होगा- यह हमारा आशीर्वाद है।”
भाई का आशीर्वाद मिला, साधना की सफलता का प्रमाणपत्र । लिखित ऋषि हर्षविभोर हो उठे । भाई के स्नेह तथा तपोबल से वह चकित थे । किन्तु उनका हर्ष तथा आश्चर्य दूसरे दिन प्रात: सीमा पर था जब स्नान के बाद तर्पण के लिये हाथ जल में डालते ही उनके हाथ पूर्ववत् हो गये । पीछे खड़े उनके अग्रज मुस्कुरा रहे थे। उन्होंने कहा- “लोक-सेवी को किसी प्रकार के अभाव में रखना पातक है वत्स ! मैंने ही तुम्हारे हाथ कटवाये थे उसकी पूर्ति भी कर दी । अब अपने प्रयासों से ईश्वर की इस पुण्य भूमि को सुशोभित करते रहना ।
यह आदर्श ऋषि परम्परा जिस देश में रही है उसका विश्वगुरु कहलाना कोई आश्चर्य की बात न थी । अभी भी वह परम्परा जाग्रत की जा सकती है, वह गौरव प्राप्त किया जा सकता है ।
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