Last Updated on October 30, 2021 by admin
मन की गुत्थियों को समझना आसान नहीं है। हमारा मन किस बात से आहत होकर रोग से घिर जाए, कहना मुश्किल है। कौन व्यक्ति किस बात या स्थिति के कारण मानसिक तनाव या रुग्णता से पीड़ित हो सकता है, यह बताना कठिन है। कोई बात किसी के मन-मस्तिष्क को गहराई तक भेद सकती है, लेकिन वही बात किसी के लिए सामान्य या क्षणिक प्रभाववाली हो सकती है। कोई व्यक्ति किसी त्रासदी के कारण सदमे से घिर सकता है या हमेशा के लिए मानसिक संतुलन खो सकता है, लेकिन कोई व्यक्ति ऐसी त्रासदी को आराम से झेल जाता है। निश्चित ही किसी का मानसिक रूप से रुग्ण होना उसकी मानसिक संरचना एवं मनोवृत्ति पर निर्भर होता है, लेकिन कई बार वे परिस्थितियाँ एवं वातावरण भी मानसिक बीमारी का कारण बन जाते हैं। ( और पढ़े – मानसिक तनाव दूर करने के 26 सबसे कारगर उपाय )
गंभीर और खतरनाक मानसिक बीमारियां :
मुख्य मानसिक बीमारियों को निम्नलिखित श्रेणियों में बाँटा जा सकता है –
1). एक्यूट स्ट्रेस डिसऑर्डर –
यह सदमे की स्थिति है, जो किसी सदी के बाद उत्पन्न हो सकती है और दो से चार सप्ताह तक रह सकती है। इसमें रोगी स्वयं को भयग्रस्त और असहाय महसूस करता है। उसके बाद वह सबसे अलग-थलग रहने लगता है, किसी पर विश्वास नहीं करता और उसकी स्मृति क्षीण हो जाती है। इस दौरान उसमें एंग्जाइटी के भी लक्षण दिखाई देते हैं। वह खुद को और अन्य लोगों को भी नुकसान पहुंचा सकता है तथा आत्महत्या की कोशिश भी कर सकता है। समय पर इसका उपचार कराने पर यह रोगी ठीक हो जाता है।
2). लत-संबंधी बीमारियाँ (एडिक्टिव डिसऑर्डर्स) –
ये शराब, सिगरेट या अन्य मादक पदार्थों के प्रति अत्यधिक लगाव या लत के कारण उत्पन्न होनेवाली समस्याएं हैं।
3). समायोजन संबंधी बीमारियाँ (एडजस्टमेंट डिसऑर्डर) –
ये बदली हई परिस्थितियों के साथ तालमेल नहीं बिठा पाने के कारण उत्पन्न मानसिक समस्याएँ हैं। ये समस्याएँ छोटे बच्चों और किशोरों की तुलना में युवाओं में कम होती हैं और आमतौर पर छह महीने से अधिक नहीं रहतीं। ये समस्याएँ किन्हीं अन्य मानसिक रोगों के कारण नहीं होती हैं, लेकिन मानसिक तनाव पैदा करनेवाली परिस्थितियों में कम-से-कम तीन महीने तक तनाव में रहने पर रोगी इनसे पीड़ित हो जाता है और सामान्य परिस्थितियों में भी असामान्य व्यवहार करने लगता है।
4). एंग्जाइटी डिसऑर्डर –
यह अत्यंत सामान्य मानसिक बीमारी है। इसका उपचार संभव है, लेकिन दुर्भाग्यवश इसके एक-चौथाई रोगी का सही इलाज नहीं हो पाता।
5). बाल मनोवैज्ञानिक बीमारियां (चाइल्डहुड डिसऑर्डर) –
जब बच्चे मानसिक या भावनात्मक डिसऑर्डर से पीडित हो जाते हैं तो माता-पिता इसके लिए बच्चों को ही दोषी ठहराते हैं, जबकि इसके लिए कई कारक जिम्मेदार होते हैं। इसके उपचार से बच्चे का स्वस्थ मानसिक विकास संभव होता है।
6). अल्जाइमर –
अधिक उम्र के लोगों में अपंगता का मुख्य कारण अल्जाइमर रोग है। एक अनुमान के अनुसार, 65 वर्ष से अधिक उम्र के हर 20 में से एक व्यक्ति तथा 80 वर्ष से अधीक के हर पाँच में से एक अल्जाइमर रोग से पीडित है। ( और पढ़े – अल्जाइमर रोग का आयुर्वेदिक इलाज )
7). कॉगनिटिव डिसऑर्डर–
इन बीमारियों में सोचने-समझने वाले कार्य करने में दिक्कत होती है।
8). संवाद संबंधी डिसऑर्डर –
संवाद अदायगी अथवा अभिव्यक्ति में दिक्कत।
9). डिप्रेसिव डिसऑर्डर –
यह एकदम सामान्य मानसिक बीमारी है। यह किसी भी उम्र में हो सकती है। हर पाँच में से एक महिला और दस में से एक पुरुष कभी-न-कभी डिप्रेशन से पीडित होते हैं। डिप्रेशन के 90 प्रतिशत रोगियों का इलाज संभव है। ( और पढ़े – आयुर्वेद औषधियों द्वारा मानसिक तनाव का इलाज )
10). डेवलपमेंटल डिसऑर्डर –
ये मानसिक विकास को प्रभावित करने वाली बीमारियां हैं।
11). डिसोसिएटिव आइडेंटिटी डिसऑर्डर (डी.आई.डी.) –
इसे ‘मल्टिपल पर्सनैलिटी डिसऑर्डर’ भी कहते हैं। यह बीमारी आमतौर पर बाल्यावस्था के किसी मानसिक आघात के कारण होती है। इसमें रोगी अपनी अलग पहचान बनाता है। वह अपने विचार, सोच, सोचने का तरीका, उद्देश्य सबसे अलग रखता है।
12). ईटिंग डिसऑर्डर –
महिलाएँ,खासकर किशोरियाँ और युवा महिलाएँ, स्लिम दिखने की चाह में खान-पान की गलत आदतों को अपना लेती हैं, जिससे वे ईटिंग डिसऑर्डर का शिकार हो जाती हैं।
13). मूड डिसऑर्डर –
कठिन परिस्थितियों में उदास और हतोत्साहित होना सामान्य भावनात्मक प्रतिक्रिया है। लेकिन जब ऐसे लक्षण एक सप्ताह से अधिक समय तक रहें तो ये मूड डिसऑर्डर के लक्षण हैं। इसका उपचार किया जाना जरूरी होता है।
14). सब्सटांस एब्यूज –
आज के समय में यह समाज की सबसे सामान्य समस्या है। आज सही या गलत का निर्णय लेना हर व्यक्ति के लिए गंभीर समस्या है। किसी भी मामले में गलत निर्णय लेने से जीवन प्रभावित हो सकता है।
15). लेट लाइफ डिप्रेशन –
बुजुर्गों में डिप्रेशन एक सामान्य बीमारी है। 65 वर्ष से अधिक उम्र के 20 प्रतिशत से अधिक लोग किसी-न-किसी हद तक डिप्रेशन से पीडित होते हैं। इसके अलावा डिमेंशिया से पीड़ित 10 प्रतिशत वृद्धों के भी डिप्रेशन से पीडित होने की आशंका होती है।
16). लेट लाइफ मेंटल हेल्थ –
युवावस्था में मानसिक स्वास्थ्य खराब होने और उसका इलाज करा लेने का अर्थ यह नहीं है कि उस व्यक्ति को बाद में कोई मानसिक बीमारी नहीं होगी। वृद्धावस्था में भी कोई व्यक्ति मानसिक रोग से पीडित हो सकता है। लेकिन इसके उपचार और देखभाल से इसके लक्षणों को कम या खत्म किया जा सकता है।
17). लेट लाइफ सुसाइड –
कई लोग अधिक उम्र होने पर या सेवानिवृत्ति के बाद जीवन का आनंद लेते हैं, यात्रा करते हैं और नौकरी के दौरान जो ऐच्छिक कार्य वे नहीं कर पाते हैं, उन्हें सेवानिवृत्ति के बाद करते हैं तथा अपनी जिंदगी से संतुष्ट रहते हैं। लेकिन वृद्धावस्था में कई लोगों की जिंदगी दर्दनाक होती हैं, इसलिए उनमें आत्महत्या के विचार आ सकते हैं।
18). मैनिक डिप्रेसिव डिसऑर्डर –
मैनिक डिप्रेशन को चिकित्सकीय शब्दावली में ‘बाईपोलर डिसऑर्डर’ कहते हैं। यह एक गंभीर मानसिक रोग है। एक अनुमान के अनुसार, 1 प्रतिशत व्यक्ति मैनिक डिप्रेशन से पीडित होते हैं। यह आमतौर पर पैंतीस साल की उम्र से पहले ही होता है।
19). ऑब्सेसिव कंपल्सिव डिसऑर्डर –
बीमारी किसी भी उम्र में हो सकती है। इसका निदान संभव है, जिसके बाद रोगी सक्रिय जीवन जी सकता है।
20). पैनिक डिसऑर्डर-
इसके लक्षण एंग्जाइटी डिसऑर्डर से मिलते हैं, लेकिन यह सामान्य एंग्जाइटी से भिन्न है। दूसरे एंग्जाइटी डिसऑर्डर में रोगी को सर्वनाश होने का भय होता है, जबकि पैनिक डिसऑर्डर में रोगी को अचानक आक्रमण होने का भय होता है। इस कारण रोगी चिंतित रहता है और उसके व्यवहार तथा दैनिक क्रिया-कलाप में परिवर्तन आ जाता है।
21). फोबिया –
किसी खतरे का आभास होने पर डर का होना स्वाभाविक है, लेकिन जब किसी व्यक्ति का डर इतना ज्यादा बढ़ जाए कि उसके कारण उसकी दिनचर्या प्रभावित होने लगे तो वह फोबिया का शिकार हो सकता है। फोबिया सभी मानसिक बीमारियों में सबसे सामान्य है। इसका इलाज
सफलतापूर्वक किया जा सकता है।
22). फिजिकल फिटनेस एंड मेंटल हेल्थ –
फैशन मॉडल अपने शरीर को संतुलित रखने के लिए अकसर तनावग्रस्त रहते हैं। सही शारीरिक स्वास्थ्य शारीरिक सक्रियता के लिए जरूरी है, लेकिन शारीरिक स्वास्थ्य के साथ-साथ मानसिक स्वास्थ्य का भी सही होना जरूरी है।
23). स्किज़ोफ्रेनिया –
यह सामान्य रोग नहीं है। इससे प्रति एक लाख लोगों में से 150 लोग प्रभावित होते हैं। यह रोग आमतौर पर किशोरावस्था या युवावस्था के दौरान होता है।
24). किशोरावस्था में आत्महत्या (टीन सुसाइड) –
किशोरावस्था जिंदगी का सबसे कठिन दौर होता है। इस समय शरीर में बदलाव आते हैं, संबंध जटिल हो जाते हैं। वे (किशोर) सामाजिक भूमिका को समझने लगते हैं और जल्द से-जल्द बड़े होना चाहते हैं। ये परिवर्तन और चाह किशोरों को असहाय, अति संवेदनशील,भ्रमित और निराशावादी बना देते हैं।