निरोगी जीवन के लिए दैनिक व्यवहार में प्रकृति के नियमों का पालन

Last Updated on April 25, 2023 by admin

संतुलित दिनचर्या स्वास्थ्य की सुरक्षा तथा संरक्षण के लिए प्रकृति का वरदान है। आयुर्वेद रोगों के बचाव तथा स्वास्थ्य की सुरक्षा पर विशेष जोर देता है। आयुर्वेद के अनुसार स्वस्थ शरीर दोषों, पाचक अग्नि, ऊतकों और विषों का संतुलन तथा मस्तिष्क को प्राप्त होनेवाला आनंद है। अच्छे स्वास्थ्य के लिए व्यक्ति को आहार, व्यवहार, आचार, आदत तथा ऋतुओं से संबंधित कुछ सिद्धातों को अपनाना तथा उनका पालन करना चाहिए। इन सिद्धांतों को जीवन चर्या या दैनिक जीवन शैली कह सकते हैं।

दैनिक चर्या : 

प्रकृति के अनुसार नियंत्रित जीवन सहज एवं सरल होता है। यह कहना आवश्यक है कि व्यक्ति को भोर में जागने से लेकर रात्रि में सोने तक एक दैनिक आचार संहिता का पालन करना चाहिए।

मनुष्य, उसका शरीर तथा मन प्रकृति के रहस्य हैं। हम जो भोजन करते हैं, वह रक्त, तंत्रिकाओं, मन तथा बुद्धि के लिए आवश्यक तत्त्वों में परिणत हो जाता है। हमारे शरीर में हृदय एक मिनट में 72 बार धड़कता है और साँस की गति प्रति मिनट 14-15 होती है । हम जो भोजन करते हैं, वह विभिन्न प्रकार के ऊतकों में जाने के लिए चयापचय परिवर्तनों से होकर गुजरता है। हड्डी, मांसपेशी, कार्टिलेज, कंडरा, बाल, त्वचा, पेट, मूत्राशय तथा गर्भाशय हलकी मांसपेशियों से बने होते हैं। यह एक जटिल यांत्रिक शरीरी संरचना है, जिसे आसानी से प्रयोगशाला में तैयार नहीं किया जा सकता।

सुबह नाश्ता करने के बाद व्यक्ति कफ बढ़ने के कारण थोड़ा ढीला-ढाला और आलस महसूस करता है। सुबह में शरीर कुछ ठंडा है। सुबह 10 बजे से 2 बजे तक पित्त अवधि में शरीर हलका गरम हो जाता है तथा ग्रहण किए गए भोजन की प्रतिक्रिया में पाचक तथा चयापचय प्रणाली सक्रिय हो जाती है।

इसके बाद बात का प्रभावी समय होता है, जो दोपहर 2 बजे से शाम 6 बजे तक होता है। यह मुख्यतः दोनों प्रकार के तंत्र तंत्र – अनुकंपी तंत्रिका तंत्र (सिंपथेटिक नर्वस सिस्टम) तथा परा अनुकंपी तंत्र (पेरासिंपेथेटिक नर्वस सिस्टम) को नियंत्रित करता है । तीन चक्र होते हैं, जिनका विवरण नीचे दिया गया है :

कफ चक्र प्रातः 6 बजे से 10 बजे तक, पित्त का चक्र प्रातः 10 बजे से 2 बजे दोपहर तक तथा वात चक्र दोपहर 2 बजे से शाम 6 बजे तक होता है। 

कफ का दूसरा चक्र शाम 6 बजे से 10 बजे, पित्त का चक्र रात 10 बजे से 2 बजे तथा वात का च 2 बजे से प्रातः 6 बजे तक होता है।  प्रत्येक व्यक्ति पर इन चक्रों का प्रभाव पड़ता है।

व्यक्ति को सुबह 5.30 बजे से पहले उठ जाना चाहिए। 8 बजे सुबह तक नाश्ता कर लेना चाहिए, दोपहर का भोजन 1 बजे से पहले तथा रात का भोजन 8 बजे से पहले कर लेना चाहिए। रात्रि में 10 बजे तक अवश्य सो जाना चाहिए, क्योंकि इसके बाद पित्त की अवधि शुरू हो जाती है। इस अवधि में नींद आने में परेशानी हो सकती है।

स्वस्थ जीवन के लिए उपयुक्त जीवन-शैली : 

  1. प्रातः ब्रह्ममुहूर्त में 5.30 तक या सूर्योदय से पहले बिस्तर अवश्य त्याग दें।
  2. अच्छी तरह मल-विसर्जन के लिए एक गिलास हलका गरम पानी पीएँ, पित्त प्रकृतिवाले व्यक्ति ठंडा पानी पीएँ तथा वात प्रकृति के लोग हलका गरम या गरम पानी पीएँ ।
  3. कड़वे दातुनों, जैसे नीम, बबूल आदि या आयुर्वेदिक टूथ पाउडर / टूथ पेस्ट से दाँत साफ करें।
  4. जीभ को भी अच्छी तरह साफ करें।
  5. नित्य प्रातः कुछ व्यायाम तथा प्राणायाम (संतुलित श्वसन) अवश्य करें।
  6. तिल के तेल से शरीर की मालिश करें।
  7. व्यायाम के 15 मिनट बाद गरम पानी से स्नान करें। शरीर के लिए हलका गरम पानी तथा सिर के लिए गुनगुना पानी इस्तेमाल करें।
  8. यदि हो सके तो इंद्रियातीत ध्यान करें, जो मन को शांत रखता है तथा पूरे दिन के कार्यों को सहज ढंग से करने में मदद करता है। 
  9. इसके बाद यथा रुचि नाश्ता करें।
  10.  नाश्ते के बाद थोड़ा टहलें ।
  11.  दोपहर 1 बजे से पहले दोपहर का भोजन करें। कुछ देर आराम करें।
  12.  थोड़ी दूर टहलें या संभव हो तो ध्यान करें।
  13.  8 बजे शाम को संयमित भोजन करें तथा 5-10 मिनट आराम करें।

दोषों का चक्र : 

  • कफ – सुबह 6 से 10 बजे शाम 6 से 10 बजे तक
  • पित्त – सुबह 10 से दोपहर 2 बजे तक रात 10 से सुबह 2 बजे तक
  • वात – दोपहर 2 से शाम 6 बजे तक सुबह 2 से 6 बजे तक

यह एक आयुर्वेदिक समय-सारणी है। उपर्युक्त सूची के अनुसार ही व्यक्ति को दिन भर के अपने कार्यक्रम बनाने चाहिए, ताकि स्वास्थ्य अच्छा रहे। यदि वह इस समय सारणी का पालन नहीं करता तो कई बीमारियों का शिकार बन सकता है।

सुबह 4.30 से 6 बजे के बीच उठना आयुर्वेद चिकित्सा के अनुसार विशिष्ट समय है। उठने के साथ ही पूरे दिन की योजना बना लेनी चाहिए| हमें चिंतामुक्त होना चाहिए तथा मस्तिष्क को शांत रखना चाहिए। व्यर्थ पदार्थों एवं विष मल-मूत्र के रूप में शरीर से उत्सर्जित हो जाते हैं।

मुँह से आनेवाली दुर्गंध से बचने और दाँतों को खराब होने से बचाने के लिए नित्य नियमपूर्वक दाँत साफ करने चाहिए। शरीर में अमा के उत्पादन से बचने के लिए जीभ को अच्छी तरह साफ किया जाना चाहिए। अमा पाचनशक्ति को कमजोर बना देती है। तिल के तेल के साथ गंदुश (गरारे करना) स्वाद कलिकाओं तथा सामान्य क्रिया को शुद्ध और उत्तेजित करता है। आधा कप पानी में एक चम्मच तिल का तेल मिलाएँ और एक मिनट तक गरारे करें। यह वात के विरुद्ध असरदार काम करता है, क्योंकि यह तैलीय होता है तथा वात सूखा होता है।

अभयंग (तेल मालिश) : 

अभयंग आयुर्वेदिक प्रक्रिया की एक विशिष्टता है। तेल मालिश कराने से पूर्व व्यक्ति को मल-मूत्र त्यागकर अपने हाथों को साफ कर लेना चाहिए। यदि आवश्यक हो तो कपड़े उतार दें। शरीर के ढकने योग्य अंगों को ढका जा सकता है।

एक कप में 25 मिलीलीटर तिल का तेल लें तथा शरीर के तापमान के बराबर गरम करें। उसे अधिक या कम गरम नहीं करना चाहिए | इस तेल को सिर से पैर के अँगूठे तक अच्छी तरह लगाना चाहिए। कोई भी स्थान छोड़ना नहीं चाहिए।

जोड़ों में गोलाकार तरीके से मालिश करनी चाहिए। कानों में भी तेल या ईयर ड्रॉप डालना चाहिए । मालिश जोर से नहीं बल्कि हलके हाथ से की जानी चाहिए, क्योंकि वह वात को बढ़ाती है। हलकी मालिश वात को शांत करती है ।

अभयंग (तेल मालिश) के लाभ : 

  1. शरीर की थकान दूर होती है।
  2. नियमित तेल मालिश से वृद्धावस्था को टाला जा सकता है।
  3. इससे किसी भी प्रकार के दर्द से राहत मिलती है।
  4. नियमित मालिश से नेत्रदृष्टि तीव्र होती है।
  5. शरीर को मजबूती मिलती है।
  6. अच्छी नींद आती है।
  7. त्वचा का रंग चमकता तथा निखरता है।

मालिश के बाद या मालिश के दौरान तुरंत ठंडी जलवायु में या बाहर के वातावरण में नहीं जाना चाहिए, क्योंकि इससे सर्दी का प्रकोप हो सकता है। शरीर की मालिश में 10-15 मिनट लग सकते हैं। मालिश के तेल को आयुर्वेदिक पाउडर या साबुन से हाटाया जा सकता है। वात प्रकृति के लोगों के लिए तिल का तेल उत्तम है, परंतु पित्त प्रकृतिवालों के लिए नारियल के तेल का इस्तेमाल किया जा सकता है। तेल त्वचा में आसानी से अवशोषित हो जाता है, क्योंकि उसका मॉलीक्यूल (अणु) रेबिड वायरस से छोटा होता है। त्वचा पर तेल के मृदुल तथा शीतकारक प्रभाव के बारे में सभी जानते हैं। वात का एक स्थान त्वचा भी है। इसलिए मालिश का तंत्रिका तंत्र पर तत्काल प्रभाव पड़ता है।

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