स्वस्थ जीवन के लिए प्रकृति प्रदत्त आठ चिकित्सक

Last Updated on August 29, 2019 by admin

प्रकृति और मानव-शरीर में जन्मजात साहचर्य रहा है। यह एक सर्वमान्य बात है कि मानव प्रकृति की शस्य-श्यामल-गोद में जन्म लेता, पलता और उसीके विस्तृत प्रांगण में क्रीडा कर अन्तर्धान हो जाता है।
इस शरीर का निर्माण भी धरती (मिट्टी), जल, अग्नि, आकाश और वायु-इन पाँच प्राकृतिक तत्त्वों से हुआ है। ये पाँचों तत्त्व मानव-जीवन के लिये प्रत्येक क्षण कल्याणप्रद हैं। प्रकृति का यह विचित्र विधान है कि जिन तत्त्वों से प्राणी के शरीर का निर्माण हुआ, पुनः उन्हीं तत्त्वों से उसकी प्राकृतिक चिकित्साएँ (Natural Treatments) भी होती हैं।
प्रकृति द्वारा प्रदत्त आठ ऐसे चिकित्सक हमें प्राप्त हैं, जिनके सहयोग तथा उचित सेवन से हम यथा सम्भव आरोग्य प्राप्त कर सकते हैं। वे चिकित्सक हैं-
१-वायु, २-आहार, ३-जल, ४-उपवास, ५-सूर्य, ६-व्यायाम, ७-विचार और ८-निद्रा।
यहाँ संक्षेप में इनकी चर्चा की जा रही है।

१-वायु-
प्रसिद्धि है कि मानव-जीवन में वायु का स्थान जल से भी अधिक महत्त्वपूर्ण है। वेद में कहा गया है कि वायु अमृत है, वायु ही प्राण रूप में स्थित है। प्रात:काल वायु-सेवन करने से देहकी धातुएँ और उपधातुएँ शुद्ध और पुष्ट होती हैं, मनुष्य बुद्धिमान् और बलवान् बनता है, नेत्र और श्रवणेन्द्रिय की शक्ति बढ़ती है तथा इन्द्रिय-निग्रह होता है एवं शान्ति मिलती है। प्रात:कालीन शीतल-मन्द-सुगन्ध वायु पुष्पों के सौरभ को लेकर अपने पथ में सर्वत्र विकीर्ण करता है, अत: उस समय वायु-सेवन करने से मन प्रफुल्लित और प्रसन्न रहता है, साथ ही आनन्द की अनुभूति भी होती है।

शुद्ध वायु, शुद्ध जल, शुद्ध भूमि, शुद्ध प्रकाश एवं शुद्ध अन्न यह ‘पञ्चामृत’ कहलाता है। प्रात:कालीन वायु-सेवन तथा भ्रमण सहस्रों रोगों की एक रामबाण औषधि है। शरीर, मन, प्राण, ब्रह्मचर्य, पवित्रता, प्रसन्नता, ओज, तेज, बल, सामर्थ्य, चिर-यौवन और चिर-उल्लास बनाये रखने के लिये शुद्ध वायु-सेवन तथा प्रात:कालीन भ्रमण अति आवश्यक है। प्रात:कालका वायु-सेवन ‘ब्राह्मवेला का अमृतपान’ कहा गया है।

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२-आहार-
शरीर और भोजन का परस्पर घनिष्ठ सम्बन्ध है। प्रत्येक व्यक्ति को सात्त्विक भोजन करना चाहिये; क्योंकि सात्त्विक आहारसे शरीर की सब धातुओं को लाभ पहुँचता है।
एक समय ईरान के एक बादशाहने अपने यहाँ के एक श्रेष्ठ हकीम से प्रश्न किया कि ‘दिन-रात में मनुष्य को कितना खाना चाहिये ?’
उत्तर मिला ‘छः दिरम’ अर्थात् ३९ तोला। फिर पूछा, ‘इतनेसे क्या होगा ?’ हकीम ने कहा-‘शरीर-पोषण के लिये इससे अधिक नहीं खाना चाहिये। इसके उपरान्त जो कुछ खाया जाता है, वह केवल बोझ ढोना और उम्र खोना है।’

मनुष्य को स्वल्प आहार करना चाहिये‘स्वल्पाहारः सुखावहः।’ थोड़ा आहार करना स्वास्थ्य के लिये उपयोगी होता है। आहार उतना ही करना चाहिये, जितना कि सुगमतासे पच सके। | शुद्ध एवं सात्त्विक आहार शरीर का पोषण करने वाला, शीघ्र बल देनेवाला, तृप्तिकारक, आयुष्य और तेजो वर्धक, साहस तथा मानसिक शक्ति और पाचन शक्ति को बढ़ाने वाला है। आहार से ही शरीर में सप्त धातुएँ बनती हैं। आयुर्वेदाचार्य महर्षि चरक ने भी लिखा है कि ‘देहो ह्याहारसम्भवः’–शरीर आहार से ही बनता है।
‘उपनिषद्’ में भी आहार के विषय में कहा गया है कि ‘आहारशुद्धौ सत्त्वशुद्धिः सत्त्वशुद्धौ धुवा स्मृतिः स्मृतिलम्भे सर्वग्रन्थीनां विप्रमोक्षः।’ (छान्दोग्योपनिषद् ७॥ २६॥ २)
अर्थात् आहार की शुद्धि से सत्त्व की शुद्धि होती है, सत्त्वशुद्धिसे बुद्धि निर्मल और निश्चयी बन जाती है। फिर पवित्र एवं निश्चयी बुद्धिसे मुक्ति भी सुगमता से प्राप्त होती है।

गरिष्ठ भोजन अधिक हानिप्रद होता है। सच्ची भूख लगने पर ही भोजन करना चाहिये। इससे यथेष्ट लाभ मिलता है। भोजन शान्ति पूर्वक करना चाहिये।

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३-जल :
स्वास्थ्य की रक्षा के लिये जल का महत्त्वपूर्ण स्थान है। सोकर उठते ही स्वच्छ जल पीना स्वास्थ्य के लिये बड़ा ही हितकर कहा गया है। लिखा है कि-
सवितुः समुदयकाले प्रसृतीः सलिलस्य पिबेदष्टौ।
रोगजरापरिमुक्तो जीवेद् वत्सरशतं साग्रम्॥
अर्थात् सूर्योदय के समय (सूर्योदय से पहले) आठ बँट जल पीने वाला मनुष्य रोग और वृद्धावस्था से मुक्त होकर सौ वर्षसे भी अधिक जीवित रहता है। कुएँ का ताजा जल अथवा ताम्रपात्र में रखा हुआ जल पीने के लिये अधिक अच्छा है। खाने से एक घंटा पूर्व अथवा खाने के दो घंटे बाद जल पीना चाहिये। एक व्यक्ति को एक दिन में कम-से-कम ढाई सेर जल पीना चाहिये, इससे रक्तसंचार सुचारु रूपसे होता है।

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४-उपवास-
धर्मशास्त्रों में उपवास का बहुत महत्त्व प्रतिपादित किया गया है। उपवास से शरीर, मन और
आत्मा सभी की उन्नति होती है। उपवास से शरीर के त्रिदोष नष्ट हो जाते हैं। आँतों को अवशिष्ट भोजन के पचाने में सुविधा मिलती है तथा शरीर स्वस्थ और हलका-सा प्रतीत होता है। स्वास्थ्य की दृष्टि से उपवास बहुत ही आवश्यक है। उपवास करने से मनुष्य की आत्मिक शक्ति बढ़ती है। कहते हैं कि यदि महीने में दोनों एकादशियों के निराहार-व्रत का विधिवत् पालन किया जाय तो प्रकृति पूर्ण सात्त्विक हो जाती है। जिन्हें उपवास करने का अभ्यास नहीं है, उन्हें चाहिये कि वे सप्ताह में एक दिन एक बार ही भोजन करें और
धीरे-धीरे आगे चलकर सम्पूर्ण दिवस उपवास रखने का व्रत लें।

उपवास का दिन भगवद्भजन, सत्साहित्य के स्वाध्याय आदि शुभ कर्मों में व्यतीत करना चाहिये। उपवास करनेवालों को चाहिये कि वे अपने मनको चारों ओरसे खींचकर आत्मचिन्तन में लगायें, धार्मिक विषयों की चर्चा करें और संत-महात्माओं के पास बैठकर उपदेश ग्रहण करें। इस प्रकारके उपवाससे शारीरिक और मानसिक आरोग्य प्राप्त होता है।

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५-सूर्य-
जीवनकी रक्षा करनेवाली सभी शक्तियों का मूल स्रोत सूर्य है। ‘सूर्यो हि भूतानामायुः।’ समस्त चराचर भूतों का जीवनाधार सूर्य है। यदि सूर्य न होते तो हम लोग एक क्षण भी जीवित न रह पाते। जीवन में
सूर्य-रश्मियों का महत्त्व बहुत अधिक है। सूर्य की किरणें शरीर के ऊपर पड़ने से हमारे शरीर के अनेक रोग-कीटाणु नष्ट हो जाते हैं।
सूर्य के प्रकाश से रोगोत्पादक शक्ति नष्ट हो जाती है। सूर्य से आरोग्य-प्राप्ति के विषय में अथर्ववेद में लिखा है
मा ते प्राण उप दसन्मो अपानोऽपि धायि ते।
सूर्यस्त्वाधिपतिर्मृत्योरुदायच्छतु रश्मिभिः ॥
(५। ३०।१५)
अर्थात् हे जीव ! तेरा प्राण विनाश को न प्राप्त हो और तेरा अपान भी कभी न रुके अर्थात् तेरे शरीर के श्वास-प्रश्वास की क्रिया कभी बंद न हो। सबका स्वामी सूर्य-सबका प्रेरक परमात्मा तुझे अपनी व्यापक बलकारिणी किरणों से ऊँचा उठाये रखे-तेरे शरीर को और जीवनी-शक्ति को गिरने न दें।
सूर्य का प्रभाव मनुष्य के शरीर एवं मनपर बहुत गहरा पड़ता है। चिकित्सकों का मत है कि सूर्य-रश्मि (Sun-beams)-के सेवन से प्रत्येक प्रकार के रोग शान्त किये जा सकते हैं। यजुर्वेद में कहा गया है कि चराचर प्राणी और समस्त पदार्थों की आत्मा तथा प्रकाश होने से परमेश्वर का नाम ‘सूर्य’ है
‘सूर्य आत्मा जगतस्तस्थुषश्च’-अतएव इन्हें वेद में ‘जीवनदाता’ कहा गया है।

६-व्यायाम-
आयुर्वेद का मत है कि व्यायाम करने से शरीर का विकास होता है, शरीरके अङ्गों की थकावट नष्ट हो जाती है, निद्रा खूब आती है और मनकी चञ्चलता दूर होती है। जठराग्नि प्रदीप्त होती है। तथा आलस्य मिट जाता है। शारीरिक सौन्दर्य की वृद्धि होती है और मुख को कान्ति में निखार आता है।
आयुर्वेद के मर्मज्ञ आचार्य वाग्भट ने लिखा है
लाघवं कर्मसामर्थ्य दीप्तोऽग्निर्मेदसः क्षयः।
विभक्तघनगात्रत्वं व्यायामादुपजायते ॥
(अष्टाङ्गहृदय सूत्र० २। १०)
तात्पर्य यह है कि व्यायाम से शरीर में स्फूर्ति आती है, कार्य करने की शक्ति बढ़ती है, जठराग्नि प्रज्वलित
होती है, मोटापा नहीं रहता तथा शरीरके सब अङ्ग पुष्ट होते हैं। साथ ही यथोचित व्यायामसे प्रकृति के विरुद्ध गरिष्ठ भोजन भी शीघ्र पच जाता है तथा शरीर में शिथिलता जल्दी नहीं आ पाती। जीवन में प्रसन्नता, स्वास्थ्य एवं सौन्दर्य के लिये व्यायाम नितान्त आवश्यक है। सदाचार और व्यायाम के बलपर पूर्ण ब्रह्मचर्यका पालन सम्भव हो सकता है।

७-विचार-
विचारशक्ति में एक महान् उद्देश्य छिपा रहता है। इसलिये हमें अपने विचारों को सदा-सर्वदा शुद्ध एवं पवित्र रखना चाहिये। विचारों का प्रभाव सीधे स्वास्थ्य पर पड़ता है। सांकल्पिक दृढता तथा सात्त्विक चिन्तन-मनन रोगों की निर्मूलता के लिये बहुत आवश्यक है। दूषित विचारों से न केवल मन विकृत होकर रुग्ण होता है, अपितु शरीर भी अनारोग्य हो जाता है। सम्यक् सत्-चिन्तन एवं सम्यक् सद्विचार एक जीवनी-शक्ति है। अतः आरोग्य-लाभ के लिये मनुष्य को विचार शक्ति का आश्रय लेना चाहिये।

८-निद्रा-
जिस प्रकार स्वास्थ्य-रक्षा के लिये शुद्ध वायु, जल, सूर्य और भोजन आदि की आवश्यकता होती है, उसी प्रकार यथोचित निद्रा भी परमावश्यक है। एक स्थल पर कहा गया है
निद्रा तु सेविता काले धातुसाम्यमतन्द्रिताम्।
पष्टिं वर्णं बलोत्साहं वह्रिदीप्तिं करोति हि॥
अर्थात् रात्रि में ठीक समय पर सोने से धातुएँ साम्य अवस्था में रहती हैं और आलस्य दूर होता है। पुष्टि, कान्ति, बल और उत्साह बढ़ता है तथा अग्नि दीप्त होती है। स्वास्थ्य के लिये प्रगाढ निद्रा आवश्यक है। रात्रि में सत्-विचारों का स्मरण करते हुए शान्तिपूर्वक सोना चाहिये। सोते समय शरीर का वस्त्र ढीला होना चाहिये। उत्तम स्वास्थ्य के लिये सात्त्विक निद्रा आवश्यक है। दिन में सोने से विविध प्रकार की व्याधियाँ आ घेरती हैं।

यथा काल निद्रा से निम्नलिखित लाभ होते हैं
१-नियमपूर्वक सोने से सारी श्रान्ति दूर हो जाती है।
२-नये काम करने की नयी शक्ति प्राप्त होती है।
३-आयुर्बल बढ़ता है।
४-स्वप्नदोष, धातुदौर्बल्य, सिरके रोग, आलस्य, अल्पमूत्र और रक्तविकार आदि से रक्षा होती है। ५-मन तथा इन्द्रियोंको विश्राम मिलता है।
सोने से पहले मन को समस्त शोक, चिन्ता और भयसे रहित कर लेना चाहिये तथा प्रसन्नता, संतोष
और धैर्य के साथ सफलता की कामना करनी चाहिये। इससे आप प्रात:काल अपने में महान् परिवर्तन पायेंगे।
उपर्युक्त प्रकृति-प्रदत्त आठ चिकित्स कों के समुचित सेवन से मनुष्य-जीवन स्वस्थ, समृद्ध, सुख-सम्पत्ति तथा आनन्द से परिपूर्ण और आयुष्मान होता है।

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