प्राणायाम द्वारा रोगों को दूर करना – Pranayama se Rogo ka Ilaj

Last Updated on March 24, 2023 by admin

प्राण चिकित्सा का महत्व : 

       जिस तरह प्राकृतिक चिकित्सा ´विजातीय तत्व´ को ही रोगों का मुख्य कारण मानती है उसी तरह आयुर्वेद चिकित्सा में ´आम रस अर्थात आहार से बनने वाले कच्चे रस को रोगों का मूल कारण मानते हैं। ऐलोपैथी में सभी रोगों का मुख्य कारण ´जीवाणुओं को माना जाता है, उसी तरह प्राणायाम चिकित्सा में शारीरिक व मानसिक सभी रोगों का मुख्य कारण ´सबल प्राण´ को माना गया हैं। प्राण चिकित्सकों का मानना है कि जब शरीर के अन्दर ´सबल प्राण´ अर्थात शुद्ध वायु की मात्रा कम हो जाती है, तब शरीर के अंग-प्रत्यंग ढीले पड़ जाते हैं जिससे शरीर के अंग अपने कार्यों को सही रूप से नहीं कर पाते। यकृत, आंते, गुर्दे, हृदय, मस्तिष्क और नलिका विहीन ग्रन्थियों में ´सबल प्राण´ की कमी से शरीर में ढीलापन आ जाता है, जिससे भोजन ठीक से नहीं पच पाता, पाचनतंत्र कमजोर पड़ने लगता है। 

पाचनतंत्र के द्वारा भोजन सही रूप से न पच पाने के कारण आम रस (कच्चा आहार रस) अधिक मात्रा में बनने लगता है। वही कच्चा रस जब रक्त में मिलकर रक्त को दूषित कर देता है, तब अंगों में शिथिलता और खून के बहाव की गति कम होने लगते हैं जिससे अंग-प्रत्यंग ढीले पड़ जाते हैं, मृत (मरे हुए) कोष शरीर से बाहर नहीं निकल पाते हैं। शरीर में दूषित रक्त कण अधिक हो जाते हैं और अनेक प्रकार के रोग उत्पन्न होने लगते हैं। इससे यह स्पष्ट होता है कि शरीर में उत्पन्न होने वाले रोगों का मुख्य कारण ´सबल प्राण´ अर्थात शुद्ध वायु की कमी है। ऐलोपैथी चिकित्सा भी इन बातों को मानती हैं कि जीवाणु द्वारा वही लोग रोगग्रस्त होते हैं, जिनकी प्राणशक्ति (जीवनी शक्ति) कमजोर होती है और उनके अन्दर जीवाणुओं से लड़ने की क्षमता खत्म हो जाती है। जिससे मनुष्य रोगों का शिकार हो जाता है। यदि प्राणशक्ति (जीवनी शक्ति) शक्तिशाली होती है तो रोगी स्वस्थ रहता है और रोग को बढ़ाने वाले जीवाणु नष्ट हो जाते हैं। इस तरह ऐलोपैथी चिकित्सक भी प्राणशक्ति (जीवनी शक्ति) को ही आधि-व्याधि का मुख्य कारण मानते हैं।

       सभी चिकित्सकों के अनुसार प्राणशक्ति (जीवनीशक्ति) की कमी ही सभी प्रकार के रोगों का कारण है और उसकी कमी के कारण ही शरीर में कमजोरी व रोग उत्पन्न होते हैं। यदि ऐसे कहें कि प्राण शक्ति (जीवनी शक्ति) को बढ़ाकर रोगों को खत्म किया जा सकता है तो यह गलत नहीं होगा। क्या प्राणशक्ति को किसी औषधियों के द्वारा शक्तिशाली नहीं बनाया जा सकता है? रासायनिक दृष्टि से प्राणशक्ति (जीवनी शक्ति) का गुणगान करने वाले लोग यदि औषधि को प्राणशक्ति बढ़ाने वाला मानते हैं, तो गलत नहीं है। उनकी दृष्टि स्थूल है। ऐसे चिकित्सक प्राणशक्ति को पारमाण्विक संरचना (कम्पाउण्ड ऑफ एटम्स) मानते हैं। हम जानते हैं कि ´प्राण´ परमाणु का ही मूल है। परमाणु उसका स्थूल रूप है। अपितु अव्यक्त रूप में ´चिन्मय´ विद्युत है। वह भावात्मक विद्युत है। ´प्राण´ वह चिद्स्पन्दन है, जिससे परमाणु का उदभव और संश्लेषण-विश्लेषण होता है। इसलिए रसायन या औषधि चिकित्सा तो स्थूल चिकित्सा मात्र है।

       औषधि चिकित्सा के द्वारा प्राणशक्ति (जीवनी शक्ति) को नहीं बढ़ाया जा सकता है। प्राकृतिक चिकित्सा, प्राणायाम और योग चिकित्सा के द्वारा ही प्राणशक्ति (जीवनी शक्ति) को बढ़ाया जा सकता है। प्राण का विपुल संग्रह करके जीवन को तेजस्वर, ओजस्वी और यशस्वी बनाया जा सकता है। औषधि तो केवल बाहरी शारीरिक स्वास्थ्य के लिए होती है। परन्तु प्राणायाम आंतरिक योग है, जिससे प्राणशक्ति को शक्तिशाली बनाया जा सकता है। यह एक मौलिक उपचार है। प्राणायाम और प्राण में गहरा सम्बन्ध है। इसलिए भावनाओं के साथ किया गया प्राणायाम ही सजातीय कर्षण नियम के अनुसार प्राणशक्ति को बढ़ाने का सरल, निशुल्क और प्राकृतिक उपाय है।

       प्राणशक्ति कोई काल्पनिक बात नहीं है और न ही किसी प्रकार का स्वप्न ही है। प्राणशक्ति मनुष्य के अन्दर की वास्तविक शक्ति है। जिन लोगों ने योगाभ्यास किया है और उसमें सफलता प्राप्त की है, वे सभी अपने अन्दर नाड़ी जाल में बहती हुई प्राणशक्ति को अंतर मन से देख सकते हैं। इस प्राणशक्ति को प्राणायाम के अभ्यासों के द्वारा कोई भी व्यक्ति महसूस कर सकता है। प्राणशक्ति (जीवनी शक्ति) हल्के गुलाबी रंग की प्रकाशमय विद्युत चिंगारियों या किरणों के रूप में शरीर के अन्दर और शरीर के आस-पास कुछ दूर तक गोल घेरे के रूप में स्पष्ट दिखाई देती है। साधारण मनुष्य भी यदि ध्यान दें तो उन्हें भी प्राण में हल्की हवा, भाव या कांपती हुई ध्वनि तरंग की तरह अनुभव होगा। इस प्राणशक्ति को नाभि के पास स्थित सूर्यचक्र रूपी सूक्ष्म डिब्बी के अन्दर एकत्रित किया जा सकता है और अन्तर अवयवों को इस प्रकार सुरक्षित रखा जा सकता है कि वे अन्तरिक्ष में मौजूद महाप्राण के दिव्य शक्तियों से अपनी आवश्यकतानुसार प्राण का स्वाभाविक रूप से लेन-देन करते रहें, जिससे प्राणशक्ति हमेशा साफ, कोमल, ठंडी और कार्यशाली बनी रहे।

       प्राणशक्ति के दिव्य आकर्षण को बनाए रखने के लिए प्राणायाम का अभ्यास करना आवश्यक है। प्राणायाम के अभ्यास से प्राण का आदान-प्रदान करने वाले आंतरिक अंग स्वस्थ रहते हैं और वह हमेशा अपना काम सही रूप से करते रहते हैं। इसलिए प्राणायाम स्वास्थ्य और शक्ति को बढ़ाने की योगिक साधना तो है ही, साथ ही रोगों को दूर करने का सबसे अच्छा उपचार भी है। प्राणायाम दवाईयों की तरह रोग या रोगों के कारण को दबाता नहीं है। बल्कि प्राणायाम का प्रभाव रोगों पर इस तरह पड़ता है कि रोग जड़ से समाप्त हो जाते हैं।

       ´जाबालदर्शनोपनिषद्´ में ऋषियों द्वारा इस बात की पुष्टि की गई है कि प्राणायाम के द्वारा सभी रोग जड़ से नष्ट हो जाते हैं और भगन्दर जैसे भयंकर रोग भी खत्म हो जाते हैं।

       ´योगकुडल्योपनिषद्´ के अनुसार प्राणायाम से गुल्म, जलोदर, प्लीहा तथा पेट सम्बन्धी सभी रोग पूर्ण रूप से खत्म हो जाते हैं। प्राणायाम द्वारा चार प्रकार के वात दोष और कृमि दोष को भी नष्ट किया जा सकता है। इससे मस्तिष्क गर्मी, गले के कफ सम्बन्धी रोग, पित्तज्वर, प्यास का अधिक लगना आदि रोग दूर होते हैं।

प्राणायाम द्वारा रोग निवारण उपचार : 

       यदि शरीर के किसी अंग में दर्द हो, सूजन हो, हाथ-पांव ठंड के कारण सुन्न हो गए हों, सिर में तेज दर्द हो अथवा नाक, कान आदि अंगों का कोई विशेष रोग हो तो ऐसे रोगों को दूर करने के लिए शुद्ध वायु (प्राण) से खून को शुद्ध करके रोग ग्रस्त अंगों की ओर उस शुद्ध रक्त को प्रवाहित कराने से रोग में लाभ मिलता है। इस तरह प्राणायाम के द्वारा शुद्ध वायु को शरीर में पहुंचाने से शरीर में रोगों से लड़ने की शक्ति बढ़ जाती है और रोग धीरे-धीरे खत्म हो जाते हैं। कभी-कभी इस क्रिया का 1 से 2 बार अभ्यास करने से ही रोग ठीक हो जाते हैं।

रोगग्रस्त अंगों की ओर रक्त (खून) को प्रवाहित करने की विधि : 

       रोग वाले अंग की ओर खून को प्रवाहित करने के लिए और प्राण का अभ्यास करने के लिए पहले सीधे बैठ जायें। यदि रोग में बैठना सम्भव न हो तो पीठ के बल सीधा लेट कर भी इस क्रिया को कर सकते हैं। अब बैठने या लेटने की स्थिति बनने के बाद सामान्य रूप से 5 से 10 बार सांस ले व छोड़ें। ध्यान रखें कि सांस (वायु) अन्दर खींचते हुए 10 बार ´ॐ´ का जाप करें। फिर सांस को अन्दर रोककर 5 बार ´ॐ´ का जाप करें और अंत में सांस (वायु) को धीरे-धीरे बाहर निकालते हुए 10 बार ´ॐ´ का जाप करें। 10 बार ´ॐ´ का जाप करते हुए जब सांस (वायु) को बाहर निकाल दें, तो कुछ क्षण रुककर पुन: सांस (वायु) को अन्दर खींचते हुए पहले वाली क्रिया को करें।

 इस तरह यह क्रिया जब 5 से 10 बार हो जाए, तो अंत में गहरी सांस लेते हुए मन में कल्पना करें-´´रक्त संचार के साथ ही मेरा सूर्यचक्र स्थिर प्राण प्रवाह रोगग्रस्त अंग की ओर दौड़ रहा है।´´ फिर सांस को अन्दर रोककर मन ही मन कल्पना करें-´´मेरे अन्दर प्राणशक्ति कार्यशाली है और उसके द्वारा रोगग्रस्त अंगों को शक्ति मिल रही है। शरीर के अन्दर शुद्ध वायु के प्रवाह से रोगग्रस्त अंग शुद्ध हो रहे हैं तथा उनमें नई प्राणशक्ति का संचार हो रहा है। मेरे अन्दर विजातीय तत्व अर्थात दूषित तत्व व रोग पर शुद्ध प्राणशक्ति का अधिकार हो गया है। ´´इसके बाद सांस (वायु) को बाहर छोड़ते हुए भी मन में कल्पना करें-´´वायु को बाहर छोड़ने के साथ ही मेरे अन्दर के सभी दोष, विकार और सूजन, दर्द या अन्य कोई भी रोग जो मेरे शरीर में है, वह हवा की तरह ऊपर आसमान में उड़े जा रहा है। ´´जब सांस को बाहर निकाले दें, तो सांस को बाहर ही रोककर पुन: मन ही मन कहें-´´प्राणशक्ति का प्रवाह रोगग्रस्त अंगों पर होने से वह अंग शुद्ध हो गया है।

       इस क्रिया को 15 मिनट से आधे घंटे तक करना चाहिए। प्राणायाम के द्वारा की जाने वाली इस क्रिया से आपको अनुभव होने लगेगा कि अंगों में उत्पन्न दर्द तेजी से कम हो रहा है। इस क्रिया को 6-6 घंटे के अन्तर पर दिन में 3 बार कर सकते हैं। यदि हल्का कष्ट या दर्द हो तो दिन में 2 बार ही इस क्रिया को करें। परन्तु बड़े रोग जैसे जीर्ण रोग को खत्म करने के लिए इस क्रिया को लगातार कुछ दिनों या कुछ सप्ताहों तक करने की आवश्यकता हो सकती है। इसलिए धैर्यपूर्वक बिना घबराये मन से गलत भावनाओं को समाप्त कर पूर्ण हृदय से इस प्राणायाम को करने से अवश्य ही रोगों में लाभ मिलता है।

       दर्द को खत्म करने वाले इस उपचार के समय अपने रोगग्रस्त अंग को अपने ही हाथों का मृदु स्पर्श (हल्के हाथ से दर्द वाले अंगों पर सहलाना) देकर प्राण विद्युत के प्रवाह को तेज करने में बड़ी मदद मिलती है। ऐसा करने पर इच्छाशक्ति बढ़ती है, क्योंकि स्पर्श से रक्त और प्राण (जीवनी) उस ओर दौड़ते हुए देखे जाते हैं।

सावधानी : 

  • सिर के ऊपरी भाग में दर्द हो, तो प्राण संचार को ऊपर से नीचे की ओर ही करना चाहिए क्योंकि उर्ध्वांगों (शरीर के ऊपरी अंग) में खून का दबाव बढ़ने से ही अक्सर दर्द उत्पन्न होता है। ऐसी दशा में मस्तिष्क की ओर ध्यान करने से मस्तिष्क की ओर खून का दबाव बढ़ जाता है, जिसके फल स्वरूप लाभ होने के स्थान पर हानि होने की संभावना रहती है।
  • रोगग्रस्त अंगों पर अंगुलियों को मोड़कर मन ही मन बोलें ´निकल जाओ´ ´निकल जाओ´ ´विकार भाग´ ऐसा कहते हुए मार्जन (सहलाना) भी किया जा सकता है। इस क्रिया को वैसे ही करना चाहिए जैसे कोई भूत-प्रेत को झाड़ते समय करता है। अंगुलियों को रोगग्रस्त अंग पर मार्जन (सहलाना) करने से अंगुलियों से लगातार निकलने वाली चुम्बकीय किरणें (प्राणशक्ति) रोग वाले स्थान में प्रवाहित होने लगती है और रोगग्रस्त अंगों में रोगों से लड़ने की क्षमता बढ़ जाती है। इस तथ्य को ´डॉ. किलनर´ के ओरों स्कोप नामक यंत्र के द्वारा सिद्व करके दिखाया गया है। अत: मार्जन (अंगुलियों से सहलाना) के द्वारा विद्युत प्रवाह विकृत अंग पर डालने से प्राकृतिक रोग को खत्म करने के लिए अंगों को शक्ति मिलती है, जिससे रोग को खत्म करने में सहायता मिलती है।

प्राणायाम के द्वारा अनेक रोगों का इलाज (Cure the Diseases by Pranayama in Hindi)

       प्राणायाम के द्वारा अनेकों रोगों को समाप्त किया जा सकता है। रोगों को समाप्त करने के लिए बताए गए सभी प्राणायामों का अभ्यास स्वच्छ-शांत व स्वच्छ हवा के बहाव वाले स्थान पर करें। ध्यान रखें कि प्राणायाम वाले स्थान पर हवा का बहाव तेज न हों। इससे सांस लेने में कठिनाई हो सकती है।

1. कब्ज को खत्म करने के लिए : 

       कब्ज को दूर करने के लिए प्लाविनी कुम्भक का अभ्यास करना चाहिए। यह पुराने से पुराने कब्ज में भी अत्यधिक लाभकारी होता है।

कुम्भक प्राणायाम की विधि-

  1. अभ्यास के लिए पहले स्थिरासन में बैठ जाएं। 
  2. फिर नाक के दोनों छिद्रों से वायु को धीरे-धीरे अन्दर खींचें और पेट को फुलाते जाएं। 
  3. पेट में पूर्ण रूप से वायु भर जाने पर सांस को जितनी देर तक अन्दर रोकना सम्भव हो रोककर रखें।
  4. इसके बाद नाक के दोनों छिद्रों से वायु को धीरे-धीरे बाहर निकाल दें। 
  5. इसके बाद पुन: इस क्रिया को करें। 
  6. इस क्रिया को सुविधा के अनुसार जितनी बार कर सकते हैं, करें।

कब्ज को दूर करने के लिए दक्षिण रेचक प्राणायाम का भी अभ्यास कर सकते हैं।

2. पेट के रोगों को दूर करने के लिए : 

       पेट के रोगों को दूर करने के लिए मध्य रेचक प्राणायाम का अभ्यास करना चाहिए। यह प्राणायाम पेट के सभी रोगों व दोषों को खत्म करने में लाभकारी माना गया है।

मध्य रेचन प्राणायाम की विधि-

  1. मध्य रेचक प्राणायाम के लिए स्वास्तिक या उत्कटासन में बैठें। 
  2. अब अन्दर की वायु को बाहर निकालकर सांसों को रोककर रखें। 
  3. इसके बाद उड्डियान बन्ध लगाकर आंतों को इस तरह से ऊपर उठायें कि वह बेलन की तरह पेट में उभर आए। 
  4. दोनों हाथों को दोनों घुटनों पर रखें और पेट के दोनों बगलों में दबाव देते हुए बाहरी कुम्भक करें (अन्दर की वायु को बाहर निकाल कर सांसों को रोककर रखें)। इस स्थिति में सांसों को रोककर जितनी देर तक रहना सम्भव हो रोककर रखें। 
  5. फिर बन्ध को हटाकर व हाथों का दबाव बगल से हटाते हुए धीरे-धीरे सांस अन्दर खींचें। इस क्रिया में सांस को रोककर रखने के समय को धीरे-धीरे बढ़ाते जाएं। ध्यान रखें कि इस क्रिया का अभ्यास सावधानी से करें और हो सके तो किसी अनुभवी योग साधक की देख-रेख में अभ्यास करें।

       इस प्राणायाम से आंतों के विकार दूर हो जाते हैं और आंते शक्तिशाली बनती हैं। यह कब्ज को दूर करता है तथा पेट के सभी रोगों को खत्म करता है। यह तिल्ली व जिगर के दोषों को भी खत्म करता है।

3. खट्टी डकारों के लिए : 

       खट्टी डकारों को दूर करने के लिए चन्द्र भेदन प्राणायाम का अभ्यास करें। नाक के बाएं छिद्र को चन्द्र नाड़ी तथा बाएं छिद्र को सूर्य नाड़ी कहते हैं। इस प्राणायाम में वायु को नाक के बाएं छिद्र से अन्दर खींचा जाता है (पूरक किया जाता है) इसलिए इसे चन्द्र भेदन प्राणायाम कहते हैं।

चन्द्र भेदन प्राणायाम की विधि –

  1. चन्द्र भेदन प्राणायाम के अभ्यास के लिए पद्मासन या सुखासन में बैठ जाएं और बाएं हाथ को बाएं घुटने पर रखें। 
  2. इसके बाद दाएं हाथ के अंगूठे से नाक के दाएं छिद्र को बन्द करें और नाक के बाएं छिद्र से आवाज के साथ वायु को अन्दर खींचें। 
  3. अब सांस को अन्दर जितनी देर तक रोककर रखना सम्भव हो रोककर रखें और फिर नाक के बाएं छिद्र को बन्द करके दाएं छिद्र से वायु को धीरे-धीरे बाहर निकाल दें। 
  4. इस क्रिया का अभ्यास कई बार करें। इस क्रिया का अभ्यास अपनी सुविधा के अनुसार करना चाहिए।

4. पेट की चर्बी कम करने व शरीर को पतला करने के लिए : 

       भस्त्रिका प्राणायाम के अभ्यास से पेट की अधिक चर्बी कम होती है और शरीर पतला व सुडौल बनता है। इसका अभ्यास सावधानी से करें।

भस्त्रिका प्राणायाम की विधि-

  1. इस प्राणायाम के अभ्यास के लिए पहले सुखासन या पद्मासन में बैठ जाएं और बाएं हाथ को बाएं घुटने पर रखें। 
  2. अब दाएं हाथ को ऊपर उठाते हुए कोहनी को कंधे की सीध में रखें और अंगुलियों से नाक के बाएं छिद्र को बन्द करें। 
  3. अब नाक के दाएं छिद्र से तेज गति के साथ वायु को बाहर निकालें और फिर अन्दर खींचें। इस क्रिया से सांस को बिना रोकें कम से कम 8 से 10 बार सांस लें और छोड़ें। 
  4. अंत में सांस अन्दर खींचकर सांस को रोककर रखें। सांस को जितनी देर तक आसानी से रोककर रखना सम्भव हो रोककर रखें। 
  5. इसके बाद दाएं हाथ के अंगूठे से नाक के दाएं छिद्र को बन्द करें और नाक के बाएं छिद्र से वायु को बाहर निकाल दें। फिर नाक के बाएं छिद्र से ही तेज गति के साथ लगातर 8 से 10 बार सांस ले व छोड़ें। 
  6. अंत में वायु को अन्दर खींच कर उसे अन्दर ही अपनी क्षमता के अनुसार रोककर रखें और फिर नाक के बाएं छिद्र को बन्द करके दाएं छिद्र से वायु को बाहर निकाल दें। 
  7. यह प्राणायाम का 1 चक्र है और इस तरह इस क्रिया का 3 बार अभ्यास करें। इसका अभ्यास प्रतिदिन करना चाहिए तथा धीरे-धीरे इसकी संख्या को भी बढ़ाते रहना चाहिए।

       इसके अतिरिक्त अग्नि प्रसारण प्राणायाम, वामरेचक प्राणायाम और कमनीय कुम्भक प्राणायाम से भी शरीर की अधिक चर्बी को कम किया जा सकता है।

सावधानियां –

      इस प्राणायाम का अभ्यास सावधानी से करना आवश्यक है अन्यथा इससे हानि हो सकती है। इसके अभ्यास में सावधानी न रखने पर थूक के साथ खून आदि आने की संभावना रहती है। इससे दमा व खांसी की भी शिकायत हो सकती है। इसलिए इस प्राणायाम का अभ्यास प्राणायाम के अनुभवी गुरू की देख-रेख में करना चाहिए। इसके अभ्यास के क्रम में दूध व घी का सेवन करना चाहिए। कमजोर व्यक्ति को इसका अभ्यास तेजी से नहीं करना चाहिए, अन्यथा सिर में चक्कर आने की संभावना रहती है।

5. रक्तचाप (हाई ब्लडप्रेशर या ब्लडप्रेशर) को सामान्य रखने के लिए : 

       रक्तचाप की गति को सामान्य रखने के लिए शीतली कुम्भक प्राणायाम का अभ्यास करना चाहिए। यह एक अच्छा प्राणायाम है और इससे मिलने वाले अनेकों लाभों के बारे में ´घेरण्ड संहिता´ में बताया गया है, जिनमें पित्त विकार, कफ विकार व अजीर्ण (पुराना कब्ज) रोग को विशेष रूप से खत्म करने के लिए बताया गया है।

शीतली प्राणायाम की विधि-

  1. इस प्राणायाम के अभ्यास के लिए सुखासन में बैठ जाएं और दोनों हाथों को घुटनों पर रखें। 
  2. जीभ को दोनों किनारों से मोड़कर एक नली की तरह बनाएं और मुंह से हल्का बाहर निकाल कर होठों को बन्द कर लें। 
  3. अब जीभ से बनी नली के द्वारा धीरे-धीरे वायु (सांस) को अन्दर खींचें। जब पूर्ण रूप से वायु अन्दर भर जाएं, तो उसे अपनी क्षमता के अनुसार अन्दर रोककर रखें। 
  4. वायु को अन्दर रोकने की स्थिति मेंघबराहट हो तो दोनों नासिका से वायु को बाहर निकाल दें। 
  5. इस क्रिया को पुन: करें। 
  6. इसका अभ्यास करते समय वायु को अन्दर खींचने के समय व अन्दर रोकने के समय को धीरे-धीरे बढ़ाते रहें।

सावधानी –

       इस प्राणायाम का अभ्यास कफ प्रकृति वाले व्यक्तियों को नहीं करना चाहिए। इस प्राणायाम का अभ्यास गर्मी के मौसम में करना चाहिए तथा सर्दी के मौसम में इसका अभ्यास नहीं करना चाहिए। अभ्यास के समय घबराहट होने पर वायु को नासिका द्वारा बाहर निकाल दें।

6. हृदय की धड़कन के लिए : 

       हृदय की बढ़ी हुई धड़कन के लिए वक्षस्थल रेचक प्राणायाम का अभ्यास करना चाहिए। इससे धड़कन की गति सामान्य होती है।

वक्षस्थल रेचन प्राणायाम की विधि-

  1. इसके अभ्यास के लिए स्वच्छ वातावरण में सुखासन में बैठ जाएं। 
  2. इसके बाद नाक के दोनों छिद्रों से सांस (वायु) अन्दर खींचें और फिर धीरे-धीरे सांस (वायु) को बाहर निकाल दें। 
  3. जब सांस (वायु) पूर्ण रूप से बाहर निकल जाए, तो सांस को रोक लें (बाहरी कुम्भक करें)। 
  4. अब कोहनियों को ऊपर उठाते हुए दोनों हाथों को कंधे पर रखें।
  5.  इसके बाद छाती को हल्का ढीला करते हुए कंधे हल्के से सिकोड़ें (संकुचित करें) और फिर कंधे को आगे की ओर करें। 
  6. आसन की इस स्थिति में जितनी देर तक सांस को रोककर रखना सम्भव हो रोककर रखें। फिर धीरे-धीरे सांस बाहर छोड़ें। 
  7. यह वक्षस्थल रेचन प्राणायाम का एक चक्र है। इस तरह इसका अभ्यास कई बार करें और धीरे-धीरे इसके अभ्यास का चक्र बढ़ाने की कोशिश करें।

7. कफ दोषों को दूर करने के लिए : 

       फेफड़ों को शुद्ध (साफ) करने के लिए और कफ को खत्म करने के लिए कपाल भांति प्राणायाम का अभ्यास करना चाहिए। ´घेरण्ड संहिता´ और ´हठयोग प्रदीपिका´ दोनों में इस प्राणायाम के अभ्यास की अलग-अलग विधियां बताई गई हैं। इन दोनों विधियों से प्राणायाम का अभ्यास करने पर इसके लाभ समान प्राप्त होते हैं।

कपाल भांति प्राणायाम के अभ्यास की विधि –

´घेरण्ड संहिता´ विधि-

कपालभाति प्राणायाम का अभ्यास पद्मासन में बैठकर या खड़े होकर कर सकते हैं।

  1. इसके अभ्यास के लिए आसन की स्थिति में बैठ जाएं और दाएं हाथ के अंगूठे से नाक के दाएं छिद्र को बन्द करके नाक के बाएं छिद्र से धीरे-धीरे सांस (वायु) अन्दर खींचें। 
  2. फिर नाक के बाएं छिद्र को बाकी अंगुलियों से बन्द करके दाएं छिद्र से सांस (वायु) को बाहर छोड़ें। 
  3. पुन: नाक के दाएं छिद्र से ही सांस (वायु) अन्दर खींचें और दाएं छिद्र को बन्द करके बाएं से सांस (वायु) को बाहर निकाल दें। 
  4. इस तरह बाएं से सांस लेकर दाएं से निकालना और फिर दाएं से ही सांस लेकर बाएं से निकालना। 
  5. इस तरह इस क्रिया का कई बार अभ्यास करें।

´हठयोग प्रदीपिका´ विधि-

  1. इस क्रिया के लिए पहले पद्मासन की स्थिति में बैठ जाएं। अपने शरीर को बिल्कुल ढीला छोड़े। 
  2. अब जल्दी-जल्दी सांस लें और छोड़ें। सांस लेते व छोड़ते समय ध्यान रखें कि सांस लेने में जितना समय लगे उसका एक तिहाई समय ही सांस छोड़ने में लगाएं। इस तरह सांस लेने व छोड़ने की क्रिया को बढ़ाते रहें, जिससे सांस लेने व छोड़ने की गति 1 मिनट में 120 बार तक पहुंच जाए।ध्यान रखें कि सांस लेते व छोड़ते समय केवल पेट की पेशियां ही हरकत करें तथा छाती व अन्य अंग स्थिर रहें। 
  3. इस क्रिया को शुरू करने के बाद क्रिया पूर्ण होने से पहले न रुकें। इस क्रिया में पहले 1 सेकेण्ड में 1 बार सांस लें और छोड़ें और बाद में उसे बढ़ाकर 1 सेकेंड में 3 बार सांस लें और छोड़ें।
  4.  इस क्रिया को सुबह-शाम 11-11 बार करें और इसके चक्र को हर सप्ताह बढ़ाते रहें।
  5.  इस क्रिया में 1 चक्र पूरा होने पर श्वासन क्रिया सामान्य कर लें और आराम के बाद पुन: इस क्रिया को दोहराते हुए 11 बार करें।

8. जुकाम का नाश व सुरक्षा के लिए : 

       जुकाम को खत्म करने व सुरक्षा के लिए अनुलोम-विलोम प्राणायाम का अभ्यास करना चाहिए।

अनुलोम-विलोम प्राणायाम की विधि-

  1. इस प्राणायाम के अभ्यास के लिए पद्मासन में बैठ जाएं। 
  2. इसके बाद दाएं हाथ से नाक के दाएं छिद्र को बन्द करके बाएं छिद्र से तीव्र गति से अन्दर की सांस (वायु) को बाहर निकालें (रेचक करें)। 
  3. फिर जिस गति से सांस (वायु) को बाहर निकाला गया है, उसी गति से सांस (वायु) को अन्दर खींचें। 
  4. इसके बाद नाक के बाएं छिद्र को बन्द करके दाएं छिद्र से तीव्र गति से सांस (वायु) को बाहर निकाल दें और फिर नाक के बाएं छिद्र से ही सांस (वायु) को अन्दर खींचें। 
  5. फिर दाएं से बाहर निकाल दें।
  6.  इस तरह इस क्रिया को दोनों नासिका से बदल-बदल कर कम से कम 20-20 बार अभ्यास करें। 
  7. प्राणायाम के इस अभ्यास को धीरे-धीरे बढ़ाएं।

9. कंठ रोगों को दूर करने के लिए : 

       कंठ की नाड़ियों को शक्तिशाली बनाने व कंठ और गले के रोगों को खत्म करने के लिए ´चतुर्मुखी प्राणायाम´ का अभ्यास करना चाहिए। चतुर्मुखी प्राणायाम का अर्थ बिना कुम्भक किये पूरक व रेचक करते हुए मुंह को चारों ओर बाएं, दाएं, नीचे और ऊपर की ओर करना होता है। इस क्रिया को 15 बार रोजाना करना चाहिए और धीरे-धीरे इसके अभ्यास को बढ़ाना चाहिए।

चतुर्मुखी प्राणायाम की विधि –

  1. इसके अभ्यास के लिए पद्मासन में बैठ जाएं। 
  2. अब मुंह को बाएं कंधे की ओर घुमाएं। 
  3. इसके बाद नाक से आवाज करते हुए तीव्र गति से सांस (वायु) को अन्दर खींचें।
  4.  फिर दाएं हाथ से नाक के दाएं छिद्र को बन्द करके बाएं छिद्र से सांस (वायु) को अन्दर से बाहर निकालें। 
  5. इसके बाद मुंह को दाएं कंधे की ओर घुमाएं और नाक के बाएं छिद्र से सांस (वायु) अन्दर खींचकर नाक के दाएं छिद्र से सांस (वायु) को बाहर निकाल दें। 
  6. इसके बाद मुंह को ऊपर व नीचे की ओर करके भी इस क्रिया का अभ्यास करें। 
  7. इस तरह मुंह को चारों ओर घुमाकर करने से अभ्यास का 1 चक्र पूरा होता है। इस तरह इसके चक्र को अपनी क्षमता के अनुसार अभ्यास करना चाहिए।

ध्यान रखें-

       इसके अभ्यास में पहले सांस छोड़ते व लेते समय नासिका को बन्द करने के लिए हाथ का प्रयोग करें और अभ्यास होने पर बिना हाथ की सहायता के ही सांस लेने व छोड़ने की क्रिया का अभ्यास करें। सांस लेते व छोड़ते (पूरक व रेचक करते समय) समय नाक से आवाज आनी चाहिए।

(अस्वीकरण : ये लेख केवल जानकारी के लिए है । myBapuji किसी भी सूरत में किसी भी तरह की चिकित्सा की सलाह नहीं दे रहा है । आपके लिए कौन सी चिकित्सा सही है, इसके बारे में अपने डॉक्टर से बात करके ही निर्णय लें।)

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