Last Updated on January 9, 2023 by admin
प्रत्याहार क्या है ? इसकी साधना विधि
प्रत्याहार का अर्थ :
आसन और प्राणायाम के बाद प्रत्याहार का अभ्यास किया जाता है। योग का तीसरा अंग प्रत्याहार है। इसी योग क्रिया के द्वारा इन्द्रियों को वश में किया जाता है। इससे ही मन की चंचलता दूर होकर आत्मसंयम का विकास होता है। प्रत्याहार शब्द ´´ह´´ धातु से बना है, जिसका अर्थ है- समेटना। प्रत्याहार में मन को समेटकर उसे विचारों और मनन में लगाया जाता है। विभिन्न इन्द्रियों को समेटकर अपनी इच्छा के अनुसार स्थिर करना ही प्रत्याहार योग साधना है।
स्वविषयासम्प्रयोगी चित्त स्वरूपानुकार इवेन्द्रियाणां प्रत्याहार।।
अर्थात जब इंद्रियां अपने स्वाद को प्राप्त करने के लिए अपने विषय की ओर दौड़ती हैं तो उस समय इंद्रियों को उस ओर न जाने देने को प्रत्याहार कहते हैं।
शरीर की 5 ज्ञान ज्ञानेन्द्रियां हैं, जिनका संबंध शब्द, स्पर्श, गन्ध, रस व त्वचा से हैं। इन्हें शरीर के विभिन्न अंगों द्वारा महसूस किया जाता है। कान सुनने के लिए, आंख देखने के लिए, जीभ स्वाद चखने के लिए, नाक गन्ध आदि को सूंघने के लिए और त्वचा स्पर्श करने के लिए है। मनुष्य के पांच कर्म हैं, जिनमें बोलना, पकड़ना, घूमना और सन्तानोत्पत्ति आते हैं। मनुष्य के इन कर्मो को पूरा करने के लिए पांच कर्म इन्द्रियां हैं, जिनमें मुख, हाथ, पैर, गुदा और उपस्थ है। इनका नियंत्रण मन के द्वारा होता है। मन ही है, जो इन इन्द्रियों को अपने वास्तविक कर्म से भटकाता रहता है। ज्ञानेन्द्रियां, कर्म इन्द्रियां और मन ही मनुष्य के दु:खों का कारण हैं। इन इन्द्रियों पर नियंत्रण करके मन को स्थिर करना ही प्रत्याहार है।
प्रत्याहार का वर्णन करते हुए भक्ति सागर में कहा गया है :
विषय और इन्द्री जो जावे।
अपने स्वादन को ललचावे।।
तिनकी और न जाने देई।
प्रत्याहार कहावे एई।।
अड्ग.मध्ये यथाड्गनि कूर्म: संकोचयेद घ्रुवम।
योगी प्रत्याहारे देवभिन्द्रियाण तथाऽत्मनि।।
अर्थात जिस प्रकार कछुआ अपने अंगों को समेटकर अपने अन्दर कर लेता है, उसी तरह योगी प्रत्याहार के अभ्यास के द्वारा अपनी इन्द्रियों और मन को समेटकर अपने अन्दर कर लेता है। मानव जीवन के विषय में वर्णन करते हुए कहा गया है कि मनुष्य का शरीर एक रथ है तथा इस रथ रूपी शरीर का स्वामी आत्मा है और मन उस रथ रूपी शरीर को चलाने वाला सार्थी तथा शरीर रूपी रथ को खींचने वाले घोड़े 5 इन्द्रियां हैं। जिस तरह सारथी के अनुसार ही घोड़े रास्ते पर चलता रहता है, उसी तरह मन के कहने पर 5 इन्द्रियां अपना कर्म करती हैं। मन अगर अच्छे कर्म करने को कहता है, तो व्यक्ति अच्छे कर्म करता है और मन अगर बुरे कर्म करने को कहता है, तो व्यक्ति बुरे कर्म करता है। अत: मन के बुरे विचारों को दूर कर इन्द्रियों को अच्छे कर्म में लगाना ही प्रत्याहार है। काम, क्रोध, लोभ, मोह और घमण्ड शरीर के 5 विकार हैं, जो आत्मा में बुरे विकार उत्पन्न करते हैं। इसे मनुष्य का शत्रु माना गया है तथा मन से इन विकारों को दूर रखना ही प्रत्याहार है।
प्रत्याहार साधना की विधि :
- जब कोई इन्द्री अपने विषय की ओर जाए तो उसे बलपूर्वक रोकना चाहिए। अर्थात मन में दृढ़ संकल्प से इन्द्रियों को रोका जा सकता है।
- जब कोई इन्द्री अपने विषय की ओर जाने लगे तो उस समय किसी दूसरी इन्द्री को क्रियाशील बना दें जैसे यदि आपकी आंखें किसी वस्तु को देखने के लिए ललचा रही हो, तो उस समय आप कोई किताब पढ़ने लगे। इससे पहली इन्द्री को अपना भोग न मिलने से उसकी शक्ति कम हो जाएगी और वह शांत हो जाएगी।
- जब कोई इन्द्री अपने विषय की ओर दौडे़ तो उस समय उस विषय के दोषों पर विचार करने से मन शांत हो जाएगा। जैसे आपकी जीभ किसी स्वादिष्ट भोजन को चखने के लिए लालायित हो तो उस समय उससे उत्पन्न होने वाली हानि या रोग के बारे में सोचें। ऐसा करने से मन में उस विषय के प्रति सभी लालसाएं खत्म हो जाएगी और प्रत्याहार की ओर मन लगने लगेगा।
- प्राणायाम के अभ्यास से प्रत्याहार में सिद्धि मिलती है, क्योंकि प्राणायाम से मन भी शांत व स्थिर हो जाता है, जिसके फलस्वरूप इन्द्रियों के इधर-उधर भटकने की शक्ति समाप्त हो जाती है।
- प्रत्याहार का सबसे शक्तिशाली साधना वैराग्य है। वैराग्य मन की वह अवस्था होती है, जिसमें इन्द्रियों को अपने ओर आकर्षित करने वाले वस्तुओं के प्रति घृणा का भाव उत्पन्न किया जाता है। जब मन में वैराग्य का भाव पैदा होता है, तब इन्द्रियां स्वयं ही विषय की ओर जाना बन्द कर देती हैं। अपने इन्द्रियों को वश में करने का वैराग्य ही सबसे अच्छा साधन माना गया है। भगवान श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन को 2 प्रकार से मन को वश में करने को बताते हैं। मन को वश में करना अधिक कठिन कार्य है, परन्तु अभ्यास के द्वारा उसे निश्चित रूप से नियंत्रित किया जा सकता है। `गीता` में कहा गया है-
असंशय महाबाहो मनो द्रतिंग्रहं चलम।
अभ्यासने तुकौन्तेय वैराग्येण च गृहाते।।