Last Updated on January 11, 2023 by admin
प्रेक्षाध्यान क्या है ? :
जैन धार्मिक ग्रंथ ´दासाविलियम´ के द्वारा दिया गया सूत्र ध्यान ही ´प्रेक्षा ध्यान´ प्रणाली का मूल सिद्धांत है, जिसकी रचना महान विचारक तथा दार्शनिक परम संत ´आचार्य महाप्रज्न´ ने की थी। ´प्रेक्षा ध्यान´ साधना के विषय में कहा गया है- ´सम्प्रेक्षता आत्मानामात्मान। इस सूत्र का सरल अर्थ है- ´तुम स्वयं अपने आप को देखो या अपने अस्तित्व को पहचानों। अपने चेतन मस्तिष्क से संचेतना के अत्यंत सूक्ष्म रूपों का अनुभव करना ही इस सूत्र का अर्थ है।
इस क्रिया का मुख्य सिद्धान्त है- ´देखना´ इसलिए इसका नाम ´प्रेक्षा ध्यान´ रखा गया था। इस साधना में विचारों को एकाग्र करने के स्थान पर ´प्रत्यक्ष ज्ञान´ को प्राप्त कराने वाले ध्यान को बताया गया है।
शास्त्रों में यह माना गया है कि सत्य की पहचान करने के लिए तथा उसे जानने के लिए उसे प्रत्यक्ष रूप से देखना आवश्यक है। इस ध्यान साधना में पूर्ववर्ती की तुलना में परवर्ती ज्यादा शक्तिशाली होता है। भगवान महावीर द्वारा बनाए गए सिद्धान्तों में ´विचार, चिंतन और मनन´ का अभ्यास करने के स्थान पर ´अनुभव करना और जानने´ को विशेष महत्व दिया गया है। इसका कारण यह है कि प्रत्यक्ष बोध कड़े रूप से प्रत्यक्ष या वर्तमान चमत्कारों से संबंधित होता है। इस ध्यान क्रिया में न तो भूतकाल का ज्ञान रहता है और न भविष्य की कल्पना रहती है। व्यक्ति की जानकारी में जो कुछ भी हो रहा होता है, वह निश्चित रूप से एक सच्चाई होती है। प्रत्यक्ष बोधगम्यता की इस प्रक्रिया में केवल आभास या दिखाई देना शामिल नहीं होता है।
प्रेक्षाध्यान पद्धति को मानने वाला व्यक्ति शरीर के अस्तित्व को जानने से इसका अभ्यास शुरू करता है क्योंकि शरीर में आत्मा रहती है। आत्मा तक किसी भाव को पहुंचाने के लिए पहले उसके आवरण को तोड़ना पड़ता है। सांस (वायु) हमारे शरीर का एक भाग होने के साथ-साथ जीवन का सार तत्व भी है। इसलिए सांस अपने आप ही प्रथम वस्तु के रूप में हमें वास्तविकता का ज्ञान करा देती है जबकि शरीर दूसरी वस्तु होती है। इस क्रम में हमारी चेतन मस्तिष्क आंतरिक सच्चाईयों के वास्तविक ज्ञान के लिए कुशाग्र बन जाती है और फिर वह शरीर में होने वाली छोटी से छोटी घटनाओं पर एकाग्र होने में सामर्थ्य प्राप्त कर लेती है। इस ध्यान साधना का अभ्यास करने के बाद भावनाओं, इच्छाओं तथा दूसरी मनोवैज्ञानिक घटनाओं का सीधा ज्ञान सम्भव बन जाता है और शरीर के अन्दर संचेतना को दूषित करने वाला कार्मिक तत्व का समूचा आवरण स्पष्ट रूप से पहचान लिया जाता है।
हम जानते हैं कि चेतना मस्तिष्क 2 प्रकार का कार्य करने में समर्थ होता है- सोचना और देखना अर्थात कल्पना और वास्तविक ज्ञान। परन्तु मस्तिष्क इन दोनों कार्यों को एक साथ नहीं कर सकता है। व्यक्ति एक समय में या तो परिकल्पना कर सकता है या तो प्रत्यक्ष ज्ञान प्राप्त कर सकता है। इस प्रकार किसी एक वस्तु पर ध्यान लगाना भटकते मन को शांत रखने का एक अच्छा उपाय हो सकता है और मन को किसी बाहरी वस्तुओं के प्रत्यक्ष ज्ञान पर एकाग्र किया जा सकता है अत: इस ध्यान साधना को करने पर मन शांत हो जाता है और विचार बाहरी वस्तुओं का ध्यान छोड़कर स्थिर हो जाता है। इस तरह जब कोई व्यक्ति अपने आपको किसी आंतरिक घटना जैसे कि अनुभूति या तरंगों या फिर विचारों की परिकल्पना पर एकाग्र करता है तो अनुभव होने लगता है कि व्यक्ति का मस्तिष्क विचार करने का काम छोड़कर पूर्णत: परिकल्पना में लीन हो गया है। ´प्रेक्षाध्यान´ साधना में परिकल्पना हमेशा पसंद या नापसंद से विहीन अनुभव होती है। अनुभव जब आनन्द, पीड़ा, रुचि और अरुचि से फैल जाता है तो परिकल्पना अपनी पहली स्थिति खो देती है।
मानसिक स्थिति को पवित्र बनाना ही प्रेक्षा ध्यान साधना का उददेश्य है। मन में उत्पन्न होने वाली दूषित भावनाओं, इच्छाओं, लालसाओं आदि से भरा रहता है, जिससे मन में अच्छे व ज्ञानात्मक भाव का प्रवाह रुक जाता है। इसलिए मन के इन अस्वच्छ भावनाओं व बाधाओं को पहले हटाना आवश्यक होता है। इन भावनाओं के हटने से जब मन स्वच्छ व पवित्र हो जाता है, तो मानसिक शांति अपने आप प्राप्त हो जाती है। इसके साथ ही मस्तिष्क का संतुलन स्थिति तथा शारीरिक स्वास्थ्यता का भाव भी अनुभव होने लगता है। इस प्रकार ध्यान साधना का शारीरिक रोगों को दूर करने में भी महत्व माना गया है।
प्रेक्षा ध्यान साधना :
प्रेक्षा ध्यान साधना का अभ्यास स्वच्छ व शांत वातावरण में करना चाहिए। इस ध्यान साधना के अभ्यास के लिए आसन, मुद्राओं तथा अन्य यौगिक क्रियाओं का ज्ञान आवश्यक है।
प्रेक्षाध्यान के अंग (Parts of prekshadhyan)
प्रेक्षाध्यान ध्यान साधना की आसान व सरल विधि है। प्रेक्षाध्यान साधना के 8 अंगों का वर्णन किया गया है-
- कायोत्सर्ग
- अंतर्यात्रा
- श्वास प्रेक्षा
- शरीर प्रेक्षा
- चेतन्य प्रेक्षा
- लेश्य ध्यान
- भावना
- अनुप्रेक्षा
1. कायोत्सर्ग –
कायोत्सर्ग का अर्थ चेतन ज्ञान के साथ शरीर का त्याग करना है। आम भाषा में यह शरीर की सामूहिक गतिविधियों का चेतनापूर्ण ठहराव होता है। इससे शरीर की मांसपेशियां शिथिल बनती हैं तथा चयापचयी क्रिया तीव्र रूप से घट जाती है। शरीर की ऐसी स्थिति मानसिक तनाव को दूर करने में सहायक होती है। कायोत्सर्ग का अभ्यास ध्यान के अभ्यास करने से पहले किया जाता है। इसलिए इसे ध्यान की पहली स्थिति कहा जाता है। किसी भी प्रकार के अभ्यास से पहले इस क्रिया को कुछ मिनट तक अवश्य करना चाहिए। इसके अतिरिक्त प्रतिदिन केवल कायोत्सर्ग का अभ्यास किया जा सकता है। इस कायोत्सर्ग क्रिया का अभ्यास प्रतिदिन करने वाला व्यक्ति किसी भी परिस्थिति में स्थिर, शांत एवं प्रसन्न रह सकता है। शरीर के लिए यह क्रिया नींद से भी अधिक आरामदायक होती है और यह तनाव से उत्पन्न होने वाली मानसिक बीमारी को दूर करती है। आध्यात्मिक दृष्टि से इसके अभ्यास से आत्मा जीव रहित शरीर को छोड़ देती है और संचेतना अपने सांसारिक शरीर से निकलकर स्वतंत्र रूप में ऊपर की ओर बढ़ती रहती है। इससे केवल पूर्ण शरीर का शिथिलिकरण ही नहीं होता है, बल्कि आत्मा का वास्तविक ज्ञान भी होता है।
2. अंतर्यात्रा –
अंतर्यात्रा क्रिया को कायोत्सर्ग के बाद किया जाता है। क्रमबद्ध रूप से की जाने वाली ध्यान साधना के अभ्यास में लगने वाली शक्ति के लिए अधिक जैव विद्युतीय तथा स्नायविक ऊर्जा की आवश्यक होती है। जिससे शरीर के सभी अंगों में ऊर्जा की पूर्ति बनी रहे। मेरूदंड केद्रीय स्नायु प्रणाली का एक अंतरंग भाग होती है तथा मेरूदंड का निचला भाग शक्ति केन्द्र वाले भाग में आता है, जहां कुण्डलिनी शक्ति रहती है। ´अंतर्यात्रा´ के अभ्यास में चेतन तरंग मस्तिष्क को शक्ति केन्द्र से ज्ञान केन्द्र में जाने के लिए बार-बार उत्तेजित किया जाता है, जिसके फलस्वरूप महत्वपूर्ण जैव विद्युतीय ऊर्जा अर्थात कुण्डलिनी शक्ति का ऊपर की ओर प्रवाह बढ़ जाता है। इस तरह शक्ति केन्द्र से ज्ञान केन्द्र में ऊर्जा प्रवाह होना ध्यान के अभ्यास में लाभकारी होता है।
3. श्वास (सांस) प्रेक्षा –
सांस क्रिया जहां शरीर की चयापचायी (भोजन आदि को पचाकर उसके रस को विभिन्न अंगों तक पहुंचाने की क्रिया प्रणाली) क्रिया के लिए जरूरी होती है, वहीं सांस क्रिया का संबंध चेतन मस्तिष्क से भी जुड़ा होता है। इसी कारण मस्तिष्क हमेशा उलझनों में पड़ा रहता है। मस्तिष्क की इन उलझनों को दूर कर शांत, प्रसन्न रखना अधिक कठिन है। परन्तु ´श्वास प्रेक्षा´ मानसिक गतिविधियों को नियंत्रित करने का एक आसान व शक्तिशाली उपाय है। सांस क्रिया की पूर्ण संचेतना ही इसका आधार होती है। परन्तु इसके लिए सबसे पहले अनियमित श्वसन क्रिया को गहरी, शांत व लयबद्ध बनाना जरूरी है। धीरे-धीरे सांस लेना और डायाफ्राम की सहायता से उसे धीरे-धीरे काफी देर में बाहर छोड़ना दीर्घ श्वास कहलाता है। सांस लेते व छोड़ते हुए नाक के अगले भाग पर ध्यान केन्द्रित किया जा सकता है। ऐसा करने पर सांस खींचने व बाहर छोड़ते समय सांस को पूरे शरीर में प्रवाहित किया जा सकता है। लम्बी सांस क्रिया या गहरी सांस क्रिया से बड़ी आसानी से ´श्वास प्रेक्षा´ का अभ्यास किया जा सकता है। दीर्घ श्वास अर्थात धीरे से सांस को बाहर निकालना और गहरी सांस लेना होता है। दीर्घ श्वास का अभ्यास करने वाले किसी भी साधक को मन में उत्पन्न होने वाले मनोविकार का काफी समय पहले अनुभव हो जाता है, जिसे वे दीर्घश्वास के द्वारा नष्ट कर देता है। इस तरह उत्पन्न भावनाओं को नष्ट कर साधक स्वयं को भयानक इच्छाओं व भावनाओं का शिकार होने से बचा पाता है।
इसके अभ्यास में सांस लेते व छोड़ते समय ध्यान रखें कि पहले नाक के बाएं छिद्र से सांस को अन्दर खींचें और फिर नाक के दाएं छिद्र से सांस को बाहर छोड़ें। फिर सांस दाएं छिद्र से ही अन्दर खींचें और बाएं छिद्र से बाहर निकाल दें। इस तरह बदल-बदल कर इसका अभ्यास किया जाता है। अभ्यास के क्रम में मन सांस-प्रश्वास पर केन्द्रित रहता है। बदले में यह अवचेतन मन की अंतर्निहित क्षमताओं जैसे कि अतींद्रिय शक्ति का विकास करने में सहायक होता है।
4. शरीर प्रेक्षा –
यह मुख्य रूप से केन्द्राभिमुखी प्रक्रिया होती है जिसमें शरीर के सभी कोषों में आध्यात्मिक आत्मा मौजूद रहती है। इसमें सभी कोष इतने संवेदनशील व सूक्ष्म हो जाते हैं कि वे विकासित जैव रासायनिक और जैव विद्युतिय क्रियाओं के कारण चयापचयी क्रिया ज्यादा आसानी से कर सकते हैं। इससे शरीर की अनुभूतियों के समूह का पूर्ण वास्तविक ज्ञान मन और आत्मा को आध्यात्मिक का ´वास्तविक ज्ञान´ होता है। शारीरिक स्तर पर यह शरीर के सभी कोषों को पुन: शक्तिशाली बनाने में सहायक होती है। मानसिक स्तर पर यह मन व मस्तिष्क को बाहर भटकने से रोकता है और उसे स्थिर व शांत करता है। आध्यात्मिक दृष्टि से शरीर के हमेशा परिवर्तनशील जैविक कार्यो का वास्तविक ज्ञान संचेतना के अध:स्तर को उसकी प्रणाली व गुणों के द्वारा अनुभव किया जा सकता है।
5. चैतन्य केन्द्र प्रेक्षा –
शरीर की 2 प्रमुख नियंत्रण प्रणालियां होती हैं- अंत:स्रावी व स्नायु प्रणालियां। अंत:स्रावी प्रणाली संवेगों व भावनाओं के केन्द्र के रूप में कार्य करती है। स्नायु प्रणाली मन की अस्पष्ट और अतिन्द्रिय के संकेतों को स्नायुओं और मांसपेशियों की सहायता से संकेतों को जानकर क्रियाशील करती है। वैसे इन दोनों प्रणालियों के संघटित कार्य किसी व्यक्ति की शारीरिक व मानसिक स्थितियों, उसके व्यवहार व आदतों पर शासन करते हैं। इन दोनों प्रणालियों का एक विशेष कार्य होता है, जो दोनों को एक संघटित प्रणाली मानने के लिए लोगों को मजबूर करता है। इसे न्यूरो इण्डोक्राइन सिस्टम कहते हैं। इस प्रणाली में सोया हुआ मन भी शामिल रहता है, जो तेजी से जागृत मन के मनोवैज्ञानिक व्यवहार तथा प्रवृत्तियों पर प्रभाव डालती है। इससे स्पष्ट है कि अगर मनोवैज्ञानिक विकृतियों को दूर कर मन को स्वच्छ करना है तो हमें अंत:स्रावी प्रणाली में उत्पन्न होने वाले हार्मोन्स नामक रासायनिक संदेशवाहकों की प्रकृति परिवर्तित करना होगा।
प्रेक्षा ध्यान´ पद्धति में विभिन्न अंत:स्रावी प्रणालियों से संबंधित विभिन्न चेतन्य केन्द्रों का वर्णन किया गया है–
1. | अंत:स्रावी ग्रंथियां | चेतन्य केन्द्र |
2. | पिनीयल | ज्योति केन्द्र |
3. | पिट्युटरी (पियुषिका) | पिट्युटरी (पियुषिका) |
4. | पैराथाइरॉयड | दर्शन केन्द्र |
5. | थॉयरायड | विशुद्ध केन्द्र |
6. | थायमस (बाल्यग्रंथि) | आनन्द केन्द्र |
7. | एड्रीनल (अधिववृक्की) | तैजस केन्द्र |
8. | गोनाड्स (जननग्रंथि) | स्वास्थ्य केन्द्र या शक्ति केन्द्र |
इन चेतन केन्द्रों का ज्ञान प्राप्त करके जो व्यक्ति अपने अन्दर अंत:स्रावी ग्रंथियों का विकास करता है, इन ग्रंथियों के उत्पादन के संश्लेषण में बदलाव लाता है, जो बदले में सभी क्रियाओं पर तार्किक मन के नियंत्रण को मजबूत करता है तथा असंतुलित मनोदैहिक और चयापचयी क्रियाओं में सुधार लाता है, वहीं व्यक्ति तार्किक मन के विकास, आदिम प्रवृतियों के कमजोर हो जाने का संचित प्रभाव, शारीरिक स्वास्थ्य, मानसिक स्थिरता, व्यवहारिक आदतों में इच्छानुसार बदलाव ला सकता है।
6. लेश्या ध्यान –
लेश्या ध्यान साधना एक ऐसी शक्ति है, जो मानव मन के स्वभाव के अज्ञात सूक्ष्म शक्ति को ज्ञात सूक्ष्म शक्ति बदलता है। यह जीवित रचनातंत्र के आध्यात्मिक तथा शारीरिक व्यक्तियों के बीच सम्पर्क स्थापित करते हुए न्यूरो इंडोक्राइन प्रणाली में सभी स्थितियां उत्पन्न करती है। अंत:स्रावी प्रणाली तथा स्नायु प्रणाली के द्वारा एकत्रित क्रिया हार्मोन्स तथा तंत्रिका प्रेषकों (न्यूरों ट्रांसमीटर) का उत्पादन करती है, जो भाव तरंगों को उत्पन्न तो करता ही है, साथ ही उचित क्रिया द्वारा इच्छापूर्ति भी करता है। हम उन्नति करेंगे या अवनति, यह इस बात पर निर्भर करता है कि क्या हम अपनी बुरी मानव प्रवृतियों का नियंत्रण और दमन कर सकते हैं या हम उनके आगे विवश हो जाएंगे। यहां तार्किक मन के द्वारा मानव प्रवृतियों का आदेश देने वाली उन बुरी ताकतों को वश में करना है। जिससे मन में गलत प्रवृतियां उत्पन्न होती हैं। यह आध्यात्मिक मन की शक्ति होती है, जोकि तार्किक मन के विपरीत ऊर्जा तरंगों को उत्पन्न करने का आदेश देती है। मानव मन में उत्पन्न होने वाले विचार तरंग अगर दूसरे का बुरा करने वाली या बदले की भावना वाली हो तो वह लेश्या होती है और इस शक्ति को खत्म करने के लिए जिन शक्तियों को आदेश दिया जाता है, उसे आत्मशक्ति द्वारा उत्पन्न होने वाली प्रतिरोधी तरंगें शुभचिंतक लेश्या कहते हैं।
इसके अभ्यास में साधक की आध्यात्मिक उन्नति इस बात पर निर्भर करती है कि मन में उत्पन्न होने वाली बुरे भावनाओं का कितना भाग मन में उत्पन्न होने वाली अच्छी भावनाओं में बदल सकता है। इस तरह का बदलाव करने से ही आध्यात्मिक उन्नति हो सकेगी। यही सच्चाई है कि इच्छा के अनुसार परिवर्तन लाने के लिए लेश्या ध्यान ही व्यावहारिक साधना में सबसे अधिक लाभकारी है।
7. भावना तथा अनुप्रेक्षा –
´प्रेक्षा ध्यान´ ध्यान साधना की एक महत्वपूर्ण साधना है। यद्यपि इस ध्यान साधना का प्रयोग मुख्य रूप से ज्ञान व संचेतना को एकाग्र करने के लिए किया जाता है। फिर भी विचारों की एकाग्रता को चिंतन व मनन से अलग नहीं कहा जा सकता। प्रेक्षाध्यान साधना की यह विधि स्वास्तविक ज्ञान पर एकाग्रता तथा विचारों की एकाग्रता में बंट जाती है अर्थात यह ध्यान पद्धति ´प्रेक्षा´ व ´अनुप्रेक्षा´ में बंट जाती है। प्रेक्षा ध्यान की पहली विधि का वास्तविक ज्ञान को एकाग्रता के लिए मुख्य रूप से प्रयोग किया जा सकता है। जबकि परवर्ती में चेतना मस्तिष्क को विचारों के चिंतन व मनन पर एकाग्र किया जाता है। वैसे ये दोनों विधि साधक की जागरूकता भरी तार्किकता तथा आचार व्यवहार में परिवर्तन लाने में पूरी तरह सक्षम होती हैं।
जब कोई साधक केवल किसी एक विशय पर विशुद्ध तटस्थ रूप से एकाग्र होता है तो उसके ज्ञान की तीक्षणता कई गुणा बढ़ जाती है। हमारे प्राचीन दार्शनिक लोग सत्य को जानने के लिए इस विधि का अधिकतर उपयोग किया करते थे। आज का विज्ञान भी भौतिक तत्वों की मूलभूत संरचना को जानने के लिए इस प्रक्रिया का उपयोग करता है।
अपने अस्तित्व को जानने की क्रिया भी आस्था व विश्वास के व्यवहारिक उपयोग पर आधारित होती है। इसके अभ्यास का काम शरीर में आवश्यक रासायनिक परिवर्तन लाकर रोग फैलाने वाली शक्ति को नष्ट कर रोगों को दूर करना है। प्रेक्षाध्यान साधना के पहली विधि में चिंतन, मनन से संबंधित ध्यान का अभ्यास करना होता है और इसके बाद महत्वपूर्ण शक्ति बढ़ाते हुए आपसी तालमेल बनाने का रास्ता दिखाता है। इस विधि के द्वारा ध्यान करने पर आंतरिक सत्य का अनेक रूप दिखाई देता है, परन्तु साधक को पता होता है कि किस सत्य पर चिंतन व मनन करना है। इस प्रकार इसका अभ्यास करने वाला व्यक्ति किसी भी स्थिति में धैर्य व संतुलन बनाए रख सकता है।
प्रेक्षाध्यान ध्यान साधना का आधार (Base of prekshadyana meditation sadhana)
प्रेक्षा ध्यान साधना के संस्थापक आदिनाथ थे। जैन धार्मिक शास्त्रों में 23 तीर्थंकरों का वर्णन किया गया है। परन्तु अब तक पहले 22 तीर्थंकरों के विषय में कोई जानकारी नहीं मिली है। जैन धर्म के तेईसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथ थे तथा इनका जन्म आठवीं शताब्दी ईसा पूर्व में हुआ था। वर्धमान महावीर जैन धर्म के 24वें तीर्थंकर थे तथा जिनका जन्म बिहार के वैशाली नगर में 540 ई. पूर्व. में हुआ था। भगवान महावीर लोगों के कष्टों को देखकर अत्यंत दुखी होते थे और लोगों के इन कष्टों को देखकर उनके अन्दर अनेक भावनाएं उत्पन्न होने लगी। वे सोचने लगे कि सत्य क्या है? इस संसार में जो कष्ट आदि जीवों को मिलता है, क्या वही सत्य है? इस तरह के विचार मन में उत्पन्न होने पर वे सत्य की खोज करने और अपने अन्दर उठने वाले अनेक प्रश्नों के उत्तर ढूंढ़ने के लिए 30 वर्ष की आयु में ही उन्होनें अपने घर को त्याग दिया। उन्होंने आनन्द और पीड़ा (दर्द) के भावों पर विजय प्राप्त कर ली। इसलिए उन्हें ´जिन´ अर्थात विजेता कहा जाने लगा। महावीर तथा उनके पूर्ववर्ती तीर्थंकरों द्वारा प्रसारित धर्म ´जैन धर्म´ कहलाया।
जैन धर्म मुख्य 5 सिद्धान्तों पर आधारित है- सत्य बोलना, संपत्ति न रखना, हिंसा न करना, चोरी न करना तथा ब्रह्मचर्य का पालन करना। भगवान महावीर ने जीवन के 3 तथ्यों पर बल दिया है- सम्यक ज्ञान, सम्यक दर्शन तथा सम्यक चरित्र। जैन दर्शन शास्त्र में उपरोक्त जीवन दर्शन की वृद्धि के लिए विभिन्न साधनाओं का वर्णन किया गया है।
प्रेक्षा ध्यान साधना की विधि :
जीवन को सफल और ईश्वरमय बनाने के लिए प्रेक्षा ध्यान का अभ्यास अति आवश्यक है। इस ध्यान साधना का अभ्यास स्वच्छ व शांत स्थान पर करना चाहिए। इसके अभ्यास के लिए शुद्ध प्राकृतिक दृश्य अधिक प्रभावकारी होते हैं। इसे सुखासन, पद्मासन, अर्द्धपदमासन, सरलासन या सिद्धासन में बैठकर करना चाहिए। इस ध्यान साधना का अभ्यास मन से सभी बाहरी विचारों को त्यागकर एकाग्र होकर करना चाहिए। इस साधना का 3 स्थितियों में अभ्यास किया जाता है।
अभ्यास की विधि –
पहली स्थिति –
ऊपर बताए गए स्थान पर किसी भी आसन में पहले शांति से बैठ जाएं। फिर अपने दोनों हाथों को अंजलि मुद्रा में बनाकर नाभि के पास रखें और गर्दन, कमर व पीठ को सीधा रखें। अपनी आंखों को बन्द कर लें। अपने शरीर व मन के तनावों को दूर करें। इसके बाद धीरे-धीरे सांस अन्दर खींचें और फिर नाक से भंवरे के समान आवाज निकालते हुए सांस को बाहर छोड़ें। पुन: सांस अन्दर खींचें और फिर नाक से आवाज निकालते हुए सांस को बाहर छोड़ दें। इस तरह इस क्रिया को 5 बार करें। इस क्रिया को 5 बार करने के बाद दूसरी स्थिति का अभ्यास करें।
दूसरी स्थिति –
दूसरी विधि में अपने मन को सांस लेने व छोड़ने की क्रिया पर केन्द्रित किया जाता है। सांस की गति पर मन को केन्द्रित करते हुए सांस की गति को हल्का धीरे करें। इस क्रिया में गहरी व लम्बी सांस लें। ध्यान रखें कि इस क्रिया में भी सांस की गति सामान्य रखें तथा सांस छोड़ते समय पेट को अन्दर तथा सांस लेते समय पेट को बाहर की ओर फुलाएं। अब नाक के बाएं छिद्र से सांस को धीरे-धीरे अन्दर खींचें। फिर अन्दर की वायु को नाक के दाएं छिद्र से धीरे-धीरे बाहर निकाल दें। पुन: सांस को नाक के दाएं छिद्र से ही अन्दर खींचें और फिर बाएं छिद्र से बाहर निकाल दें। साथ ही ध्यान को सांस पर केन्द्रित करें। इस तरह इस क्रिया को 20 से 25 बार करें।
तीसरी स्थिति –
- इस स्थिति में सोए हुए चेतना केन्द्रों को प्रेक्षा के द्वारा जागृत किया जाता है। चेतना केन्द्र प्रेक्षा में सभी चक्रों पर अपने मन को केन्द्रित किया जाता है तथा उन चक्रों पर प्राणवायु प्रकंपनों का अनुभव किया जाता है। चेतना केन्द्र को गहरी एकाग्रता तथा पूर्ण जागरूकता के साथ अनुभव करें। इसमें सांस क्रिया सामान्य रखते हुए ध्यान का एक-एक करके सभी केन्द्रों पर एकाग्र करें।
- इसमें पहले शक्ति केन्द्र पर ध्यान को केन्द्रित करें। यह मेरूदंड के निचले सिरे पर स्थित है। इस पर अपने मन को केन्द्रित करें और वहां होने वाले कम्पन को अनुभव करें।
- इसके बाद पेड़ू के बीच भाग में स्थित स्वास्थ्य केन्द्र पर अपना ध्यान केन्द्रित करें। वहां पर होने वाले प्राण के प्रकंपनों का अनुभव करें। फिर तैजस केन्द्र जो नाभि में स्थित है, वहां अपने मन को ले जाएं और वहां पर होने वाले प्राण के प्रकंपनों को अनुभव करें।
- इसके बाद अपने ध्यान को आनन्द केन्द्र जो हृदय के पास स्थित है, वहां अपने मन को केन्द्रित करें तथा वहां वायु के द्वारा होने वाले कम्पन का अनुभव करें।
- इसके बाद अपने मन को विशुद्ध केन्द्र पर केन्द्रित करें। यह केन्द्र कंठ मूल के पास स्थित होता है। इस पर ध्यान केन्द्रित करके वायु के द्वारा उत्पन्न होने वाले कंपन का अनुभव करें।
- विशुद्ध केन्द्र पर ध्यान केन्द्रित करने के बाद अपने मन को ब्रह्मकेन्द्र पर केन्द्रित करें। यह केन्द्र जीभ के अगले भाग पर स्थित है। इस स्थान पर अपने मन को एकाग्र करें और इसमें उत्पन्न होने वाले कंपनों का अनुभव करें।
- इसके बाद अपने मन को प्राण केन्द्र पर स्थिर करें। यह केन्द्र नाक के अगले भाग में स्थित है और वहां होने वाले प्राण (वायु) कम्पन का अनुभव करें।
- इसके बाद अप्रमाद केन्द्र जो दोनों कानों के अन्दर, बाहर और मध्य में स्थित है, वहां अपने ध्यान को केन्द्रित करें। उस स्थान पर मन को एकाग्र करके प्राण कम्पन का अनुभव करें।
- अप्रमाद केन्द्र के बाद चाक्षुष केन्द्र जो आंखों के भीतर स्थित है, वहां अपने मन को केन्द्रित करें। वहां पर होने वाले प्राण के प्रकंपनों का अनुभव करें।
- इसके बाद अपने ध्यान को दर्शन केन्द्र पर स्थिर करें। दर्शन केन्द्र दोनों भौंहों के बीच स्थित होती है। वहां मन को एकाग्र कर प्राण प्रकंपन का अनुभव करें।
- दर्शन केन्द्र के बाद अपने मन को ज्योति केन्द्र पर केन्द्रित करें। यह ललाट के बीच भाग में स्थित होता है। उस केन्द्र पर मन को एकाग्र कर प्राण (वायु) प्रकंपन का अनुभव करें।
- अब अपने मन को शांति केन्द्र पर स्थिर करें। यह सिर के अगले भाग में स्थित होता है। इस पर ध्यान केन्द्रित करके उसमें उत्पन्न होने वाले प्राण ध्वनि का प्रकंपनों का अनुभव करें।
- शांति केन्द्र पर ध्यान केन्द्रित करने के बाद अपने मन को ज्ञान केन्द्र पर स्थिर करें। यह सिर के ऊपरी भाग में स्थित होता है। ज्ञान केन्द्र पर मन को एकाग्र कर वहां होने वाले प्रकंपनों का अनुभव करें।
- इस तरह तीसरी स्थिति में अलग-अलग ध्यान करने के अंत में सभी केन्द्र का एक साथ ध्यान करें। इस तरह पहली क्रिया में सांस की आवाज के साथ केवल सांस क्रिया की जाती है। फिर दूसरी क्रिया में मन को सांस पर केन्द्रित करते हुए सांस क्रिया की जाती है और अंत में सोई हुए चेतना केन्द्र पर ध्यान को केन्द्रित करते हुए सभी केन्द्रों का ध्यान किया जाता है। इन सभी केन्द्रों में ध्यान केन्द्रित करते हुए सांस क्रिया सामान्य रूप से ही करें।
अंत में प्रेक्षा ध्यान साधना को त्याग कर बाहरी संसार का अनुभव करें। जिस आसन में बैठे हैं उसी आसन का ध्यान करें। सम्पूर्ण शरीर का ध्यान करें। आसन को छोड़ने के बाद कुछ देर तक शांत भाव से बैठे रहें और मन में सोचे कि हमारा शरीर और मन स्वस्थ व प्रसन्न हो गया है। इसके बाद सिर को 4 से 5 बार दाएं-बाएं घुमाएं। दोनों हथेलियों को आपस में रगड़कर आंखों पर लगाएं। कुछ देर तक आंखों को हथेलियों से बन्द कर लें। फिर हथेली को आंखों पर से हटाकर 10 से 15 मिनट तक ऐसे ही बैठे रहें। फिर सामान्य स्थिति में आकर अभ्यास को त्याग दें। इस तरह इस क्रिया का अभ्यास प्रतिदिन करें।